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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे

चतुर्विंशोऽध्यायः ॥

शिवकृता पार्वतीविवाहस्वीकृतिः -
देवताओंका भगवान् शिवसे पार्वतीके साथ विवाह करनेका अनुरोध, भगवान्का विवाहके दोष बताकर अस्वीकार करना तथा उनके पुनः प्रार्थना करनेपर स्वीकार कर लेना


देवा ऊचुः
नमो रुद्राय देवाय मदनान्तकराय च ॥
स्तुत्याय भूरिभासाय त्रिनेत्राय नमो नमः ॥ १ ॥
देवता बोले-कामदेवको विनष्ट करनेवाले रुद्र देवताको नमस्कार है, स्तुतिके योग्य, अत्यन्त तेजस्वी तथा त्रिनेत्रको बार-बार नमस्कार है ॥ १ ॥

शिपिविष्टाय भीमाय भीमाक्षाय नमोनमः ।
महादेवाय प्रभवे त्रिविष्टपतये नमः ॥ २ ॥
शिपिविष्ट, भीम एवं भीमाक्षको बार-बार नमस्कार है । महादेव, प्रभु तथा स्वर्गपतिको नमस्कार है ॥ २ ॥

त्वं नाथः सर्वलोकानां पिता माता त्वमीश्वरः ।
शम्भुरीशः शंकरोसि दयालुस्त्वं विशेषतः ॥ ३ ॥
आप सभी लोकोंके नाथ और माता-पिता हैं । आप ईश्वर, शम्भु, ईश, शंकर तथा विशेष रूपसे दयालु हैं ॥ ३ ॥

त्वं धाता सर्वजगतां त्रातुमर्हसि नः प्रभो ।
त्वां विना कः समर्थोऽस्ति दुःखनाशे महेश्वर ॥ ४ ॥
आप ही सब जगत्को धारण करते हैं, अतएव हे प्रभो ! आप हमलोगोंकी रक्षा कीजिये । हे परमेश्वर ! आपके अतिरिक्त और कौन दुःख दूर करने में समर्थ है ॥ ४ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तेषां सुराणां नन्दिकेश्वरः ।
कृपया परया युक्तो विज्ञप्तुं शम्भुमारभत् ॥ ५ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] उन देवताओंका यह वचन सुनकर परम कृपासे युक्त होकर नन्दिकेश्वर शिवजीसे निवेदन करने लगे- ॥ ५ ॥

नन्दिकेश्वर उवाच
विष्ण्वादयःसुरगणा मुनिसिद्धसङ्‌घा-
     स्त्वां द्रष्टुमेव सुरवर्य विशेषयन्ति ।
कार्यार्थिनोऽसुरवरैः परिभर्त्स्य मानाः
     सम्यक् पराभवपदं परमं प्रपन्नाः ॥ ६ ॥
नन्दिकेश्वर बोले-हे सुरवयं सिद्ध, मुनि, विष्णु आदि देवगण दैत्योंसे पराजित एवं तिरस्कृत हो आपकी शरणमें आये हैं और वे आपके दर्शनकी इच्छा करते हैं ॥ ६ ॥

तस्मात्त्वया हि सर्वेश त्रातव्या मुनयः सुराः ।
दीनबन्धुर्विशेषेण त्वमुक्तो भक्तवत्सलः ॥ ७ ॥
इसलिये हे सर्वेश ! आप [शरणागत हुए] इन देवताओं तथा मुनियोंकी रक्षा कीजिये; क्योंकि आप विशेषरूपसे दीनबन्धु और भक्तवत्सल कहे गये

ब्रह्मोवाच
एवं दयावता शम्भुर्विज्ञप्तो नन्दिना भृशम् ।
शनैः शनैरुपरमद्ध्यानादुन्मील्य चाक्षिणी ॥ ८ ॥
ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार जय दयालु नन्दिकेश्वरने बार-बार शिवजीसे निवेदन किया, तब उन्होंने धीरे-धीरे अपने नेत्र खोलकर समाधिका त्याग किया ॥ ८ ॥

ईशोऽथोपरतः शम्भुस्तदा परमकोविदः ।
समाधेः परमात्मासौ सुरान्सर्वानुवाच ह ॥ ९ ॥
उसके बाद समाधिसे उपरत हुए वे महाज्ञानी परमात्मा शम्भु सभी देवताओंसे कहने लगे- ॥ ९ ॥

शम्भुरुवाच
कस्माद्यूयं समायाता मत्समीपं सुरेश्वराः ।
हरिब्रह्मादयःसर्वे ब्रूत कारणमाशु तत् ॥ १० ॥
शम्भु बोले-आप सभी ब्रह्मा, विष्णु आदि सुरेश्वर मेरे पास किसलिये आये हैं ? उस कारणको शीघ्र कहिये ॥ १० ॥

ब्रह्मोवाच
इति श्रुत्वा वचः शम्भोः सर्वे देवा मुदाऽन्विताः ।
विष्णोर्विलोकयामासुर्मुखं विज्ञप्तिहेतवे ॥ ११ ॥
ब्रह्माजी बोले-शिवजीके इस वचनको सुनकर सभी देवता प्रसन्न हो गये और विज्ञप्तिके लिये विष्णुके मुखकी ओर देखने लगे ॥ ११ ॥

अथ विष्णुर्महाभक्तो देवानां हितकारकः ।
मदीरितमुवाचेदं सुरकार्यं महत्तरम् ॥ १२ ॥
तब शिवके परम भक्त तथा देवताओंके हितकारक विष्णु मेरे द्वारा कहे गये देवताओंके इस बहुत बड़े कार्यका निवेदन करने लगे- ॥ १२ ॥

तारकेण कृतं शम्भो देवानां परमाद्‌भुतम् ।
कष्टात्कष्टतरं देवा विज्ञप्तुं सर्व आगताः ॥ १३ ॥
विष्णुजी बोले-हे शम्भो ! तारकसे इन देवताओंको अत्यन्त अद्‌भुत दुःख प्राप्त हो रहा है, इसी कारण सभी देवता आपसे निवेदन करने यहाँ आये हुए हैं ॥ १३ ॥

हे शम्भो तव पुत्रेणौरसेन हि भविष्यति ।
निहतस्तारको दैत्यो नान्यथा मम भाषितम् ॥ १४ ॥
हे शम्भो ! आपके द्वारा जो औरस पुत्र उत्पन्न होगा, उसीके द्वारा तारकासुरका वध होगा, यह मेरा कथन अन्यथा नहीं हो सकता ॥ १४ ॥

विचार्येत्थं महादेव कृपां कुरु नमोऽस्तु ते ।
देवान्समुद्धर स्वामिन् कष्टात्तारकनिर्मितात् ॥ १५ ॥
हे महादेव ! आपको नमस्कार है, आप इस बातका विचारकर देवताओंपर दया कीजिये । हे स्वामिन् ! तारकासुरसे उत्पन्न इस महाकष्टसे देवताओंका उद्धार कीजिये ॥ १५ ॥

तस्मात्त्वया गिरिजा देव शम्भो
     ग्रहीतव्या पाणिना दक्षिणेन ।
पाणिग्रहेणैव महानुभावां
     दत्तां गिरीन्द्रेण च तां कुरुष्व ॥ १६ ॥
इसीलिये हे देव ! हे शम्भो ! आपको स्वयं गिरिजाका दाहिने हाथसे पाणिग्रहण करना चाहिये । क्योंकि गिरिराज हिमालय आपको पाणिग्रहणके द्वारा ही गिरिजाको प्रदान करना चाहते हैं, अतः आप उसे स्वीकार कीजिये ॥ १६ ॥

विष्णोस्तद्वचनं श्रुत्वा प्रसन्नो ह्यब्रवीच्छिवः ।
दर्शयन् सद्‌गतिं तेषां सर्वेषां योगतत्परः ॥ १७ ॥
भगवान् शिव अत्यन्त प्रसन्न हो गये और उनकी सद्‌गतिके लिये उत्तम उपदेश करते हुए कहने लगे- ॥ १७ ॥

शिव उवाच
यदा मे स्वीकृता देवी गिरिजा सर्वसुन्दरी ।
तदा सर्वे सुरेन्द्राश्च मुनयो ऋषयस्तदा ॥ १८ ॥
सकामाश्च भविष्यन्ति न क्षमाश्च परे पथि ।
जीवयिष्यति दुर्गा सा पाणिग्रहणतः स्मरम् ॥ १९ ॥
शिवजी बोले-[हे देवताओ !] जब मैं सर्वसुन्दरी गिरिजादेवीको स्वीकार करूँगा, तब सभी देवता, मुनि तथा ऋषि सकाम हो जायेंगे । फिर तो ये परमार्थ मार्गपर चल न सकेंगे । मेरे पाणिग्रहणसे ये दुर्गा मृत कामदेवको पुनः जीवित कर देंगी ॥ १८-१९ ॥

मदनो हि मया दग्धःसर्वेषां कार्यसिद्धये ।
ब्रह्मणो वचनाद्विष्णो नात्र कार्या विचारणा ॥ २० ॥
मैंने सबकी कार्यसिद्धिके लिये ही कामदेवको जलाया है । हे विष्णो ! ब्रह्माके वचनानुसार ही मैंने यह कार्य सम्पादित किया है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २० ॥

एवं विमृश्य मनसा कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
सुधीः सर्वैश्च देवेन्द्र हठं नो कर्तुमर्हसि ॥ २१ ॥
हे देवेन्द्र ! आप इस कार्याकार्यकी परिस्थितिमें मनसे तत्त्वका विचार करके मेरे विवाहका हठ छोड़ दीजिये ॥ २१ ॥

दग्धे कामे मया विष्णो सुरकार्यं महत् कृतम् ।
सर्वे तिष्ठन्तु निष्कामा मया सह सुनिश्चितम् ॥ २२ ॥
यथाऽहं च सुराःसर्वे तथा यूयमयत्नतः ।
तपः परमसंयुक्ताः करिष्यध्वं सुदुष्करम् ॥ २३ ॥
हे विष्णो ! मैंने कामदेवको जलाकर देवताओंका बहुत बड़ा कार्य सिद्ध किया है । अब उचित यही होगा कि मेरे साथ समस्त देवगण सुनिश्चित रूपसे निष्काम होकर निवास करें । हे देवताओ ! जिस प्रकार मैं तपस्या करता हूँ, उसी प्रकार आपलोग भी सहजरूपसे कठोर तपमें निरत हो जाइये ॥ २२-२३ ॥

यूयं समाधिना तेन मदनेन विना सुराः ।
परमानन्दसंयुक्ता निर्विकारा भवन्तु वै ॥ २४ ॥
पुरावृत्तं स्मरकृतं विस्मृतं यद् विधे हरे ।
महेन्द्र मुनयो देवा यत्तत्सर्वं विमृश्यताम् ॥ २५ ॥
अब तो कामदेव नहीं रहा, इसलिये हे देवताओ ! आपलोग निर्विघ्न समाधि लगाकर आनन्दयुक्त निर्विकार भावसे निवास कीजिये । हे विधे ! हे विष्णो ! हे महेन्द्र ! हे मुनिगण ! हे देवगण ! आपलोगोंने पूर्व समयमें कामदेवके द्वारा किये गये सारे कार्यको भुला दिया है, उन सबपर विचार कीजिये ॥ २४-२५ ॥

महाधनुर्धरेणैव मदनेन हठात्सुराः ।
सर्वेषां ध्यानविध्वंसः कृतस्तेन पुराऽमराः ॥ २६ ॥
हे देवताओ ! पहले इस महाधनुर्धर कामदेवने हठसे सभी देवताओंका ध्यान नष्ट कर दिया था ॥ २६ ॥

कामो हि नरकायैव तस्मात् क्रोधोभिजायते ।
क्रोधाद्‌भवति संमोहो मोहाच्च भ्रंशते तपः ॥ २७ ॥
कामक्रोधौ परित्याज्यौ भवद्‌भिःसुरसत्तमैः ।
सर्वैरेव च मन्तव्यं मद्वाक्यं नान्यथा क्वचित् ॥ २८ ॥
काम ही नरकका द्वार है, कामसे क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोधसे मोह होता है और मोहसे तप विनष्ट हो जाता है । अतः आप सभी श्रेष्ठ देवताओंको काम एवं क्रोधका परित्याग कर देना चाहिये । आप सभीको मेरी यह बात स्वीकार करनी चाहिये; क्योंकि मेरी बात कभी असत्य नहीं सिद्ध होती ॥ २७-२८ ॥

ब्रह्मोवाच
एवं विश्राव्य भगवान् महादेवो वृषध्वजः ।
सुरान् प्रवाचयामास विधिविष्णू तथा मुनीन् ॥ २९ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] वृषभध्वज भगवान् महादेवजी इस प्रकार कहनेके बाद विधाता, विष्णु, मुनिगण तथा देवताओंसे उत्तरकी प्रतीक्षा करने लगे ॥ २९ ॥

तूष्णीम्भूतोऽभवच्छम्भुर्ध्यानमाश्रित्य वै पुनः ।
आस्ते पुरा यथा स्थाणुर्गणैश्च परिवारितः ॥ ३० ॥
तब अपने गणोंसे घिरे हुए वे शम्भु चुपचाप होकर समाधिमें स्थित हो स्थाणुके समान अचल हो गये ॥ ३० ॥

स्वात्मानमात्मना शम्भुरात्मन्येव व्यचिन्तयत् ।
निरञ्जनं निराभासं निर्विकारं निरामयम् ॥ ३१ ॥
परात्परतरं नित्यं निर्ममं निरवग्रहम् ।
शब्दातीतं निर्गुणं च ज्ञानगम्यं परात्परम् ॥ ३२ ॥
वे शम्भु अपने अन्त:करणमें अपने निरंजन, निराभास, निर्विकार एवं निरामय स्वरूपका ध्यान करने लगे । जो सबसे परे, नित्य, निर्मम, विग्रहरहित, शब्दातीत, निर्गुण, ज्ञानगम्य तथा परात्पर है ॥ ३१-३२ ॥

एवं स्वरूपं परमं चिन्तयन् ध्यानमास्थितः ।
परमानन्दसंमग्नो बभूव बहुसूतिकृत् ॥ ३३ ॥
ध्यानस्थितं च सर्वेशं दृष्ट्‍वा सर्वे दिवौकसः ।
हरि शक्रादयः सर्वे नन्दिनं प्रोचुरानताः ॥ ३४ ॥
इस प्रकार अनेक जगत्की सृष्टि करनेवाले वे अपने परम रूपका चिन्तन करते हुए ध्यानमें स्थित हो परमानन्दमें निमग्न हो गये । उस समय विष्णु, इन्द्र आदि सभी देवता शंकरजीको ध्यानमें स्थित देखकर विनम्न होकर नन्दिकेश्वरसे कहने लगे- ॥ ३३-३४ ॥

देवा ऊचुः
किं वयं करवामाद्य विरक्तो ध्यानमास्थितः ।
शम्भुस्त्वं शंकरसखः सर्वज्ञः शुचिसेवकः ॥ ३५ ॥
देवता बोले-[हे नन्दिकेश्वर !] शिवजी विरक्त होकर ध्यानमें मग्न हैं । अब हमलोगोंको क्या करना चाहिये ? आप शंकरके सखा, सर्वज्ञ एवं इनके पवित्र सेवक हैं ॥ ३५ ॥

केनोपायेन गिरिशः प्रसन्नः स्याद्‌गणाधिप ।
तदुपायं समाचक्ष्व वयं त्वच्छरणं गताः ॥ ३६ ॥
हे गणाधिप ! शिवजी किस उपायसे हमलोगोंपर प्रसन्न होंगे, उस उपायको शीघ्र बताइये । हमलोग आपकी शरणमें आये हैं ॥ ३६ ॥

ब्रह्मोवाच
इति विज्ञापितो देवैर्मुने हर्षादिभिस्तदा ।
प्रत्युवाच सुरांस्तान्स नन्दी शम्भुप्रियो गणः ॥ ३७ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! जब इन्द्रादि देवताओंने इस प्रकार नन्दीसे निवेदन किया, तब शिवजीके प्रिय गण नन्दी उन देवताओंसे कहने लगे- ॥ ३७ ॥

नन्दीश्वर उवाच
हे हरे हे विधे शक्रनिर्जरा मुनयस्तथा ।
शृणुध्वं वचनं मे हि शिवसन्तोषकारकम् ॥ ३८ ॥
नन्दीश्वर बोले-हे हरे ! हे विधे ! हे इन्द्र ! हे देवताओ ! हे मुनियो ! आपलोग शिवजीको सन्तुष्ट करनेवाला मेरा वचन सुनें ॥ ३८ ॥

यदि वो हठ एवाद्य शिव दारपरिग्रहे ।
अतिदीनतया सर्वे सुनुतिं कुरुतादरात् ॥ ३९ ॥
यदि आपलोगोंका ऐसा ही हठ है कि शिवजी स्त्रीका पाणिग्रहण करें, तो अत्यन्त दीनभावसे आप सभी शिवजीकी उत्तम स्तुति करें ॥ ३९ ॥

भक्तेर्वश्यो महादेवो न साधारणतः सुराः ।
अकार्यमपि सद्‌भक्त्या करोति परमेश्वरः ॥ ४० ॥
हे देवताओ ! महादेव भक्तिद्वारा वशमें हो जाते हैं, अन्य साधारण उपायोंसे वशीभूत नहीं होते । वे परमेश्वर उत्तम भक्तिसे अकार्य भी कर सकते हैं ॥ ४० ॥

एवं कुरुत सर्वे हि विधिविष्णुमुखाः सुराः ।
यथागतेन मार्गेणान्यथा गच्छत मा चिरम् ॥ ४१ ॥
हे ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओ ! आपलोग ऐसा ही कीजिये, अन्यथा जहाँसे आये हैं, वहीं शीघ्र ही चले जाइये, विलम्ब न कीजिये ॥ ४१ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य मुने विष्ण्वादयः सुराः ।
तथेति मत्त्वा सुप्रीत्या शंकरं तुष्टुवुर्हि ते ॥ ४२ ॥
देवदेव महादेव करुणासागर प्रभो ।
समुद्धर महाक्लेशात्त्राहि नः शरणागतान् ॥ ४३ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! उनकी यह बात सुनकर विष्णु आदि वे देवता उस बातको मानकर अत्यन्त प्रेमसे शंकरका स्तवन करने लगे-हे देवदेव, हे महादेव, हे करुणासागर, हे प्रभो ! महान् क्लेशसे हमलोगोंका उद्धार कीजिये, हम शरणागतोंकी रक्षा कीजिये ॥ ४२-४३ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्येवं बहुदीनोक्त्या तुष्टुवुः शंकरं सुराः ।
रुरुदुःसुस्वरं सर्वे प्रेमव्याकुलमानसः ॥ ४४ ॥
ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार बहुत ही दीन हो देवताओंने शिवजीकी स्तुति की और वे सब व्याकुलचित्त होकर उच्च स्वरसे रोने लगे ॥ ४४ ॥

हरिर्मया सुदीनोक्त्या सुविज्ञप्तं चकार ह ।
संस्मरन्मनसा शम्भुं भक्त्या परमयान्वितः ॥ ४५ ॥
ब्रह्मोवाच
सुरैरेवं स्तुतः शम्भुर्हरिणा च मया भृशम् ।
भक्तवात्सल्यतो ध्यानाद्विरतोभून्महेश्वरः ॥ ४६ ॥
उवाच सुप्रसन्नात्मा हर्यादीन्हर्षयन्हरः ।
विलोक्य करुणादृष्ट्या शंकरो भक्तवत्सलः ॥ ४७ ॥
मुझे साथ लेकर विष्णुने मनसे शिवजीका स्मरण करते हुए परम भक्तिसे युक्त होकर दीन वचनोंसे शम्भुसे प्रार्थना की । इस प्रकार जब मैंने, विष्णुने तथा सभी देवताओंने शम्भुकी स्तुति की, तब भक्तवात्सल्यके कारण वे महेश्वर ध्यानसे विरत हो गये । तदनन्तर प्रसन्नचित्त होकर दुःखोंका हरण करनेवाले वे भक्तवत्सल शंकर विष्णु आदि देवगणोंको हर्षित करते हुए करुणाभरी दृष्टिसे देखकर कहने लगे- ॥ ४५-४७ ॥

शंकर उवाच
हे हरे हे विधे देवाः शक्राद्या युगपत्समे ।
किमर्थमागता यूयं सत्यं ब्रूत ममाग्रतः ॥ ४८ ॥
शंकर बोले-हे हरे ! हे विधे ! हे इन्द्रादि देवताओ ! आप सब एक साथ किसलिये आये हैं, मेरे सामने सच-सच बताइये ॥ ४८ ॥

हरिरुवाच
सर्वज्ञस्त्वं महेशान त्वन्तर्याम्यखिलेश्वरः ।
किं न जानासि चित्तस्थं तथा वच्म्यपि शासनात् ॥ ४९ ॥
तारकासुरतो दुःखं सम्भूतं विविधं मृड ।
सर्वेषां नस्तदर्थं हि प्रसन्नोऽकारि वै सुरैः ॥ ५० ॥
शिवा सा जनिता शैलात्त्वदर्थं हि हिमालयात् ।
तस्यां त्वदुद्‌भवात्पुत्रात्तस्य मृत्युर्न चान्यथा ॥ ५१ ॥
विष्णु बोले-हे महेश्वर ! आप सर्वज्ञ, अन्तर्यामी तथा अखिलेश्वर हैं । क्या आप हमारे मनकी बात नहीं जानते, फिर भी मैं आपके आज्ञानुसार निवेदन कर रहा हूँ । हे मृड ! हम सब देवताओंको तारकासुरसे महान् दुःख प्राप्त हो रहा है, इसीलिये हम देवताओंने आपको प्रसन्न किया है । वे शिवा आपके लिये ही हिमालयकी कन्याके रूपमें उत्पन्न हुई हैं; क्योंकि आपके द्वारा पार्वतीसे उत्पन्न पुत्रके द्वारा ही तारकासुरको मृत्यु होनेवाली है, यह बात अन्यथा नहीं है ॥ ४९-५१ ॥

इति दत्तो ब्रह्मणा हि तस्मै दैत्याय यद्वरः ।
तदन्यस्मादमृत्युः स बाधते निखिलं जगत् ॥ ५२ ॥
ब्रह्माजीने उस तारकासुरको इसी प्रकारका वरदान दे रखा है । वह अन्य किसीके द्वारा मारा नहीं जायगा, यही कारण है कि वह सबको पीड़ित कर रहा है ॥ ५२ ॥

नारदस्य निर्देशात्सा करोति कठिनं तपः ।
तत्तेजसाखिलं व्याप्तं त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ ५३ ॥
इस समय देवर्षि नारदके उपदेशानुसार वे पार्वती तपस्या कर रही हैं और उनके तेजसे चराचरसहित समस्त त्रैलोक्य व्याप्त हो रहा है ॥ ५३ ॥

वरं दातुं शिवायै हि गच्छ त्वं परमेश्वर ।
देवदुःखं जहि स्वामिन्नस्माकं सुखमावह ॥ ५४ ॥
इसलिये हे परमेश्वर ! आप शिवाको वर देनेहेतु जाइये । हे स्वामिन् ! ऐसा करके हम देवताओंका दुःख दूर कीजिये तथा हमलोगोंको सुखी कीजिये ॥ ५४ ॥

देवानां मे महोत्साहो हृदये चास्ति शंकर ।
विवाहं तव सन्द्रष्टुं तत्त्वं कुरु यथोचितम् ॥ ५५ ॥
रत्यै यद्‌भवता दत्तो वरस्तस्य परात्पर ।
प्राप्तोऽवसर एवाशु सफलं स्वपणं कुरु ॥ ५६ ॥
हे शंकर ! देवताओंके और मेरे मनमें आपका विवाह देखनेके लिये महान् उत्साह है, अतः आप उसे उचित रूपसे कीजिये । हे परात्पर ! आपने रतिको जो वरदान दिया है, उसका भी अवसर उपस्थित हो गया है, आप अपनी प्रतिज्ञाको सफल कीजिये ॥ ५५-५६ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा तं प्रणम्यैव विष्णुर्देवा महर्षयः ।
संस्तूय विविधैस्तोत्रैः सन्तस्थुस्तत्पुरोऽखिलाः ॥ ५७ ॥
भक्ताधीनः शंकरोऽपि श्रुत्वा देववचस्तदा ।
विहस्य प्रत्युवाचाशु वेदमर्यादरक्षकः ॥ ५८ ॥
ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार कहकर उन्हें प्रणामकर तथा अनेक प्रकारके स्तोत्रद्वारा उनकी स्तुति करके विष्णु आदि देवता और महर्षि सब-के-सब उनके सामने खड़े हो गये । तब वेदकी मर्यादाकी रक्षा करनेवाले तथा भक्तोंके अधीन रहनेवाले शिवजी भी देवताओंके वचनको सुनकर हँस करके शीघ्र कहने लगे- ॥ ५७-५८ ॥

शंकर उवाच
हे हरे हे विधे देवाः शृणुतादरतोऽखिलाः ।
यथोचितमहं वच्मि सविशेषं विवेकतः ॥ ५९ ॥
नोचितं हि विधानं वै विवाहकरणं नृणाम् ।
महानिगडसञ्ज्ञो हि विवाहो दृढबन्धनः ॥ ६० ॥
कुसङ्‌गा बहवो लोके स्त्रीसङ्‌गस्तत्र चाधिकः ।
उद्धरेत्सकलैबन्धैर्न स्त्रीसङ्‌गात्प्रमुच्यते ॥ ६१ ॥
शंकर बोले-हे हरे ! हे विधे ! हे देवताओ ! मैं ज्ञानसे युक्त और यथोचित बातें कहता हूँ, उसे आप सब आदरपूर्वक सुनें । विवाह करना मनुष्योंके लिये उचित विधान नहीं है; क्योंकि विवाह बेड़ीके समान अत्यन्त कठिन दृढ़बन्धन है । संसारमें बहुतसे कुसंग हैं, परंतु उनमें स्त्रीसंग सबसे बढ़कर है; क्योंकि मनुष्य सभी प्रकारके बन्धनोंसे छुटकारा प्राप्त कर सकता है, किंतु स्त्रीसंगसे उसका छुटकारा नहीं होता ॥ ५९-६१ ॥

लोहदारुमयैः पाशैर्दृढं बद्धोऽपि मुच्यते ।
स्त्र्यादिपाशसुसम्बद्धो मुच्यते न कदाचन ॥ ६२ ॥
लोहे तथा लकड़ीके पाशोंमें दृढ़तापूर्वक बंधा हुआ पुरुष उससे छुटकारा पा सकता है, किंतु स्त्री आदिके पाशमें बंधा हुआ कभी मुक्त नहीं होता है ॥ ६२ ॥

वर्द्धन्ते विषयाः शश्वन्महाबन्धनकारिणः ।
विषयाक्रान्तमनसः स्वप्ने मोक्षोऽपि दुर्लभः ॥ ६३ ॥
[स्त्रीसंगसे] महाबन्धनकारी विषय निरन्तर बढ़ते रहते हैं, विषयोंसे आक्रान्त मनवालेको स्वप्नमें भी मोक्ष दुर्लभ हो जाता है ॥ ६३ ॥

सुखमिच्छतु चेत्प्राज्ञो विधिवद्विषयाँस्त्यजेत् ।
विषवद्विषयानाहुर्विषयैर्यैर्निहन्यते ॥ ६४ ॥
यदि बुद्धिमान् पुरुष सुख प्राप्त करना चाहे, तो विषयोंको भलीभाँति छोड़ दे । जिन विषयोंसे प्राणी मारा जाता है, वे विषय विषके समान कहे गये हैं ॥ ६४ ॥

जनो विषयिणा साकं वार्तातः पतति क्षणात् ।
विषयं प्राहुराचार्याः सितालितेन्द्रवारुणीम् ॥ ६५ ॥
मोक्षकी कामना करनेवाला पुरुष विषयी पुरुषोंके साथ वार्ता करनेमात्रसे क्षणभरमें ही पतित हो जाता है । आचार्योंने विषयवासनाको शर्करासे आलिप्त इन्द्रायनफलके समान (आपातमधुर) कहा है ॥ ६५ ॥

यद्यप्येवं हि जानामि सर्वं ज्ञानं विशेषतः ।
तथाप्यहं करिष्यामि प्रार्थनां सफलां च वः ॥ ६६ ॥
यद्यपि मैं समस्त ज्ञान विशेष रूपसे जानता हूँ, फिर भी मैं आपलोगोंकी प्रार्थनाको सफल करूँगा ॥ ६६ ॥

भक्ताधीनोऽहमेवास्मि तद्वशात्सर्वकार्यकृत् ।
अयथोचितकर्ता हि प्रसिद्धो भुवनत्रये ॥ ६७ ॥
तीनों लोकोंमें मेरी प्रसिद्धि है कि मैं भक्तोंके वशमें होनेसे सभी प्रकारके उचित-अनुचित कार्य करता हूँ ॥ ६७ ॥

कामरूपाधिपस्यैव पणश्च सफलः कृतः ।
सुदक्षिणस्य भूपस्य मर्मबन्धगतस्य हि ॥ ६८ ॥
मैंने कामरूप देशके राजाकी प्रतिज्ञा सफल की और भव-बन्धनमें पड़े हुए राजा सुदक्षिणका प्रण मैंने पूरा किया ॥ ६८ ॥

गौतमक्लेशकर्ताहं त्र्यम्बकात्मा सुखावहः ।
तत्कष्टप्रददुष्टानां शापदायी विशेषतः ॥ ६९ ॥
मैंने गौतमको क्लेश दिया, मैं त्र्यम्बकात्मा सबको सुख देनेवाला हूँ और जो भक्तोंको दुःख देनेवाले हैं, उन दुष्टोंको विशेष रूपसे कष्ट तथा शाप प्रदान करता हूँ ॥ ६९ ॥

विषं पीतं सुरार्थं हि भक्तवत्सलभावधृक् ।
देवकष्टं हृतं यत्नात्सर्वदैव मया सुराः ॥ ७० ॥
मैंने अपनी भक्तवत्सलताका भाव प्रकट करनेके लिये ही विषपान किया था । हे देवताओ ! मैंने यत्नसे सदैव ही देवताओंके कष्टोंको दूर किया है ॥ ७० ॥

भक्तार्थमसहं कष्टं बहुशो बहुयत्नतः ।
विश्वानर मुनेर्दुःखं हृतं गृहपतिर्भवन् ॥ ७१ ॥
किं बहूक्तेन च हरे विधे सत्यं ब्रवीम्यहम् ।
मत्पणोऽस्तीति यूयं वै सर्वे जानीथ तत्त्वतः ॥ ७२ ॥
मैंने भक्तोंके लिये बहुत बार अनेक कष्ट उठाया है । मैंने विश्वानर मुनिके घर गृहपतिके रूपमें जन्म लेकर उनके दुःखको दूर किया है । हे हरे ! हे विधे ! मैं अधिक क्या कहूँ । मैं सत्य कहता हूँ और मेरी जो प्रतिज्ञा है, उसे भी आपलोग अच्छी तरह जानते हैं ॥ ७१-७२ ॥

यदा यदा विपत्तिर्हि भक्तानां भवति क्वचित् ।
तदा तदा हरम्याशु तत्क्षणात्सर्वशःसदा ॥ ७३ ॥
जब-जब मेरे भक्तोंपर किसी प्रकारकी विपत्ति आती है, तब-तब मैं उन्हें शीघ्र ही सब प्रकारसे दूर कर देता हूँ ॥ ७३ ॥

जानेऽहं तारकाद्दुःखं सर्वेषां वः समुत्थितम् ।
असुरात्तद्धरिष्यामि सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥ ७४ ॥
इस समय तारकासुरके द्वारा जो विपत्ति आपलोगोंपर आ पड़ी है, उसे भी मैं जानता हूँ । उस दुःखको भी मैं दूर कर दूंगा, यह मैं सत्य सत्य कह रहा हूँ ॥ ७४ ॥

नास्ति यद्यपि मे काचिद्विहारकरणे रुचिः ।
विवाहयिष्ये गिरिजां पुत्रोत्पादनहेतवे ॥ ७५ ॥
गच्छत स्वगृहाण्येव निर्भयाःसकलाः सुराः ।
कार्यं वः साधयिष्यामि नात्र कार्या विचारणा ॥ ७६ ॥
यद्यपि मुझे विवाहमें कोई इच्छा नहीं है, तो भी [आपलोगोंके लिये] पुत्र उत्पन्न करनेहेतु गिरिजासे विवाह करूंगा । हे देवताओ ! अब आपलोग निडर होकर अपने-अपने घरोंको जाइये । मैं आपलोगोंका कार्य सिद्ध करूँगा । इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ ७५-७६ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा मौनमास्थाय समाधिस्थोऽभवद्धरः ।
सर्वे विष्ण्वादयो देवाःस्वधामानि ययुर्मुने ॥ ७७ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! ऐसा कहकर शंकर पुनः मौन धारणकर समाधिस्थ हो गये और विष्णु आदि समस्त देवता अपने-अपने धामोंको लौट गये ॥ ७७ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये
पार्वतीखण्डे पार्वतीविवाहस्वीकारो नाम चतुर्विशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके ततीय पार्वतीखण्डमें पार्वतीविवाहस्वीकार नामक चौबीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २४ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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