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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे
त्रिंशोऽध्यायः ॥ पार्वतीप्रत्यागमनमहोत्सवः -
पार्वतीके पिताके घरमें आनेपर महामहोत्सवका होना, महादेवजीका नटरूप धारणकर वहाँ उपस्थित होना तथा अनेक लीलाएँ दिखाना, शिवद्वारा पार्वतीकी याचना, किंतु माता-पिताके द्वारा मना करनेपर अन्तर्धान हो जाना नारद उवाच - विधे तात महाभाग धन्यस्त्वं परमार्थदृक् । अद्भुतेयं कथाऽश्रावि त्वदनुग्रहतो मया ॥ १ ॥ गते हरे स्वशैले हि पार्वती सर्वमंगला । किं चकार गता कुत्र तन्मे वद महामते ॥ २ ॥ नारदजी बोले-हे विधे ! हे तात ! हे महाभाग । परमार्थके ज्ञाता आप धन्य हैं, आपकी कृपासे मैंने यह अद्भुत कथा सुनी । जब शिवजी कैलास चले गये, तब सर्वमंगला पार्वतीने क्या किया और वे पुनः कहाँ गयीं ? हे महामते ! मुझसे कहिये ॥ १-२ ॥ ब्रह्मोवाच - शृणु सुप्रीतितस्तात यज्जातं तदनन्तरम् । हरे गते निजस्थाने तद्वदामि शिवं स्मरन् ॥ ३ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे तात ! हरके अपने स्थान चले जानेके बाद जो कुछ हुआ, उसे प्रेमपूर्वक सुनो, मैं शिवजीका स्मरणकर उसे कह रहा हूँ ॥ ३ ॥ पार्वत्यपि सखीयुक्ता रूपं कृत्वा तु सार्थकम् । जगाम स्वपितुर्गेहं महादेवेति वादिनी ॥ ४ ॥ पार्वत्यागमनं श्रुत्वा मेना च स हिमाचलः । दिव्यं यानं समारुह्य प्रययौ हर्षविह्वलः ॥ ५ ॥ पार्वती अपना रूप सार्थककर 'महादेव' शब्दका उच्चारण करती हुई पिताके घर अपनी सखियोंके साथ गयीं । पार्वतीके आगमनका समाचार सुनते ही मेना तथा हिमालय दिव्य विमानपर चढ़कर हर्षसे विहल हो उनकी अगवानीके लिये चले ॥ ४-५ ॥ पुरोहितश्च पौराश्च सख्यश्चैवाप्यनेकशः । सम्बन्धिनस्तथाऽन्ये च सर्वे ते च समाययुः ॥ ६ ॥ भ्रातरः सकला जग्मुर्मैनाकप्रमुखास्तदा । जयशब्दं प्रब्रुवन्तो महाहर्षसमन्विताः ॥ ७ ॥ उस समय पुरोहित, पुरवासी, अनेक सखियाँ तथा अन्य दूसरे सब सम्बन्धी आये । मैनाक आदि सभी भाई महाप्रसन्न हो 'जय' शब्दका उच्चारण करने लगे ॥ ६-७ ॥ संस्थाप्य मंगलघटं राजवर्त्मनि राजिते । चन्दनागरुकस्तूरीफलशाखासमन्विते ॥ ८ ॥ चन्दन, अगरु, कस्तूरी, फल तथा वृक्षकी शाखाओंसे युक्त राजमार्गको अपूर्व सजावटसे सम्पन्नकर स्थान-स्थानपर मंगलघट स्थापित कराया गया ॥ ८ ॥ सपुरोधा ब्राह्मणैश्च मुनिभिर्ब्रह्मवादिभिः । नारीभिर्नर्तकीभिश्च गजेन्द्राद्रिसुशोभितैः ॥ ९ ॥ सारा राजमार्ग पुरोहित, ब्राह्मण, ब्रह्मवेत्ता, मुनियों, नर्तकियों एवं बड़े-बड़े गजेन्द्रोंसे खचाखच भर गया ॥ ९ ॥ परितः परितो रंभास्तम्भवृन्दसमन्विते । पतिपुत्रवतीयोषित्समूहैर्दीपहस्तकैः ॥ १ ० ॥ द्विजवृन्दैश्च संयुक्ते कुर्वद्भिर्मंगलध्वनिम् । नानाप्रकारवाद्यैश्च शङ्खध्वनिभिरन्विते ॥ ११ ॥ एतस्मिन्नन्तरे दुर्गा जगाम स्वपुरान्तिकम् । विशन्ती नगरं देवी ददर्श पितरौ पुनः ॥ १२ ॥ सुप्रसन्नौ प्रधावन्तौ हर्षविह्वलमानसौ । दृष्ट्वा काली सुप्रहृष्टा स्वालिभिः प्रणनाम तौ ॥ १३ ॥ जगह-जगहपर केलेके खम्भे लगाये गये और चारों ओर पति-पुत्रवती स्त्रियाँ हाथमें दीपक लिये हुए खड़ी हो गयीं । ब्राह्मणोंका समूह मंगलपाठपूर्वक वेदोंका उद्घोष कर रहा था । अनेक प्रकारके वाद्य तथा शंखकी ध्वनि हो रही थी । इसी बीच दुर्गा देवी अपने नगरके समीप आयीं और प्रवेश करते ही उन्होंने सर्वप्रथम अपने माता-पिताका पुनः दर्शन किया । उन कालीको देखकर माता-पिता हर्षसे विहल हो प्रसन्नतासे दौड़ पड़े । पुनः पार्वतीने भी उनको देखकर सखियोसहित उन्हें प्रणाम किया ॥ १०-१३ ॥ तौ सम्पूर्णाशिषं दत्त्वा चक्रतुस्तौ स्ववक्षसि । हे वत्से त्वेवमुच्चार्य रुदन्तौ प्रेमविह्वलौ ॥ १४ ॥ माता-पिताने आशीर्वाद देकर कालीको अपनी गोदमें ले लिया और 'हे वत्से !'- इस प्रकार उच्चारणकर स्नेहसे विह्वल हो रोने लगे ॥ १४ ॥ ततःस्वकीया अप्यस्या अन्या नार्यापि संमुदा । भ्रातृस्त्रियोऽपि सुप्रीत्या दृढालिङ्गनमादधुः ॥ १५ ॥ साधितं हि त्वया सम्यक् सुकार्यं कुलतारणम् । त्वत्सदाचरणेनापि पाविताः स्माखिला वयम् ॥ १६ ॥ तदनन्तर इनके अपने सगे-सम्बन्धियोंकी स्त्रियोंने तथा अन्य भाई आदिकी पत्नियोंने भी प्रीतिपूर्वक पार्वतीका दृढ़ आलिंगन किया और उन्होंने कहा-तुमने कुलको तारनेका कार्य भलीभाँति सम्पन्न किया । तुम्हारे इस सदाचरणसे हम सभी पवित्र हो गयीं ॥ १५-१६ ॥ इति सर्वे सुप्रशंस्य प्रणेमुस्तां प्रहर्षिताः । चन्दनैः सुप्रसूनैश्च समानर्चुः शिवां मुदा ॥ १७ ॥ इस प्रकार गिरिजाकी प्रशंसाकर सभी लोगोंने उन्हें प्रणाम किया और चन्दन तथा उत्तम पुष्पोंके द्वारा प्रसन्नतासे उनका पूजन करने लगे ॥ १७ ॥ तस्मिन्नवसरे देवा विमानस्था मुदाऽम्बरे । पुष्पवृष्टिं शुभां चक्रुर्नत्वा तां तुष्टुवुः स्तवैः ॥ १८ ॥ तदा तां च रथे स्थाप्य सर्वे शोभान्विते वरे । पुरं प्रवेशयामासुःसर्वे विप्रादयो मुदा ॥ १९ ॥ अथ विप्राः पुरोधाश्च सख्योऽन्याश्च स्त्रियः शिवम् । गृहं प्रवेशयामासुर्बहुमानपुरःसरम् ॥ २० ॥ उसी समय विमानोंमें बैठे हुए देवगण भी आकाशसे फूलोंकी वर्षा करने लगे और पार्वतीको नमस्कारकर स्तोत्रोंसे उनकी स्तुति करने लगे । उसके बाद ब्राह्मण आदि प्रसन्नतापूर्वक अनेक प्रकारकी शोभासे सुसज्जित रथमें पार्वतीको बैठाकर नगरमें ले गये और ब्राह्मण, पुरोहित, स्त्रियों तथा सखियोंने बड़े प्रेमके साथ आदरपूर्वक उनको घरमें प्रवेश कराया ॥ १८-२० ॥ स्त्रियो निर्मञ्छनं चक्रुर्विप्रा युयुजुराशिषः । हिमवान्मेनका माता मुमोदाति मुनीश्वर ॥ २१ ॥ स्वाश्रमं सफलं मेने कुपुत्रात्पुत्रिका वरा । हिमवान्नारदं त्वाञ्च संस्तुवन् साधु साध्विति ॥ २२ ॥ स्त्रियाँ मंगलाचार करने लगी और ब्राह्मण आशीर्वाद देने लगे । हे मुनीश्वर ! उस समय माता मेनका तथा पिता हिमवान्को अत्यन्त प्रसन्नता हुई । उन्होंने गृहस्थाश्रमको सफल माना और कहा कि कुपुत्रकी अपेक्षा पुत्री ही अच्छी होती है । तदनन्तर वे हिमालय, आप नारदको भी साधुवाद देते हुए प्रशंसा करने लगे ॥ २१-२२ ॥ ब्राह्मणेभ्यश्च बन्दिभ्यः पर्वतेन्द्रो धनं ददौ । मंगलं पाठयामास स द्विजेभ्यो महोत्सवम् ॥ २३ ॥ पर्वतराज हिमालयने ब्राह्मणों एवं बन्दीजनोंको बहुत-सा धन दिया और ब्राह्मणोंद्वारा मंगलपाठ कराया, बहुत बड़ा उत्सव किया ॥ २३ ॥ एवं स्वकन्यया हृष्टौ पितरौ भ्रातरस्तथा । जामयश्च महाप्रीत्या समूषुः प्राङ्गणे मुने ॥ २४ ॥ हे मुने ! इस प्रकार प्रसन्न हुए माता-पिता, भाई तथा सभी सम्बन्धीगण पार्वतीके साथ आँगनमें बैठे ॥ २४ ॥ ततःस हिमवान् तात सुप्रहृष्टाः प्रसन्नधीः । सम्मान्य सकलान्प्रीत्या स्नातुं गङ्गां जगाम ह ॥ २२ ॥ हे तात ! तत्पश्चात् हिमालय परम प्रसन्न हो सभी सम्बन्धियोंका प्रेमपूर्वक सम्मानकर गंगास्नानको गये ॥ २५ ॥ एतस्मिन्नन्तरे शम्भुः सुलीलो भक्तवत्सलः । सुनर्तकनटो भूत्वा मेनकासंनिधिं ययौ ॥ २६ ॥ शृङ्गं वामे करे धृत्वा दक्षिणे डमरु तथा । पृष्ठे कंथां रक्तवासा नृत्यगानविशारदः ॥ २७ ॥ ततःसुनटरूपोऽसौ मेनका प्रांगणे मुदा । चक्रे सुनृत्यं विविधं गानं चातिमनोहरम् ॥ २८ ॥ उसी समय लीला करनेमें तत्पर भक्तवत्सल भगवान् शंकर सुन्दर नाचनेवाले नटका रूप धारणकर मेनकाके समीप पहुँचे । वे बाएँ हाथमें शृंगी, दाहिने हाथमें डमरू तथा पीठपर गुदड़ी धारण करके रक्तवस्त्र पहने हुए थे । नृत्य-गानमें प्रवीण वे शिवजी मेनाके आँगनमें बड़ी प्रसन्नताके साथ अनेक प्रकारका मनोहर नृत्य एवं गान करने लगे ॥ २६-२८ ॥ शृङ्गं च डमरुं तत्र वादयामास सुध्वनिम् । महतीं विविधां तत्र स चकार मनोहराम् ॥ २९ ॥ वे सुन्दर ध्वनिसे श्रृंगी तथा डमरू बजाने लगे और नाना प्रकारकी मनोहर लीला करने लगे ॥ २९ ॥ तां द्रष्टुं नागराः सर्वे पुरुषाश्च स्त्रियस्तथा । आजग्मुःसहसा तत्र बाला वृद्धा अपि ध्रुवम् ॥ ३० ॥ उस लीलाको देखनेके लिये सभी नगर निवासी स्त्री-पुरुष, बालक तथा वृद्ध सहसा वहाँ आ गये ॥ ३० ॥ श्रुत्वा सुगीतं तद्दृष्ट्वा सुनृत्यं च मनोहरम् । सहसा मुमुहुः सर्वे मेनाऽपि च तदा मुने ॥ ३१ ॥ मूर्च्छां संप्राप्य सा दुर्गा सुदृष्ट्वा हृदि शंकरम् । त्रिशूलादिकचिह्नानि बिभ्रतं चातिसुन्दरम् ॥ ३२ ॥ हे मुने ! उस मनोहर नृत्यको देखकर एवं गीतको सुनकर सभी लोग तथा मेना भी अत्यन्त मोहित हो गयीं । त्रिशूल आदि चिह्नसे युक्त एवं अत्यन्त मनोहर रूप धारण करनेवाले उस नटको देखकर पार्वती भी उन्हें हृदयसे शंकर जानकर मूच्छित हो गयीं ॥ ३१-३२ ॥ विभूतिभूषितं रम्यमस्थिमालासमन्वितम् । त्रिलोचनोज्ज्वलद्वक्त्रं नागायज्ञोपवीतकम् ॥ ३३ ॥ वरं वृण्वित्युक्तवन्तं गौरवर्णं महेश्वरम् । दीनबन्धु दयासिन्धुं सर्वथा सुमनोहरम् ॥ ३४ ॥ हृदयस्थं हरं दृष्ट्वेदृशं सा प्रणनाम तम् । वरं वव्रे मानसं हि पतिर्मे त्वं भवेति च ॥ ३५ ॥ विभूतिसे विभूषित होनेके कारण अत्यन्त मनोहर, अस्थिमालासे समन्वित, त्रिलोचन, देदीप्यमान मुखमण्डलवाले, नागका यज्ञोपवीत धारण किये हए गौरवर्ण, दीनबन्धु, दयासागर, सर्वथा मनोहर और वर माँगो' इस प्रकार कहते हुए उन हृदयस्थ महेश्वरको देखकर पार्वतीने उन्हें प्रणाम किया और मनमें वर माँगा कि आप ही हमारे पति हों ॥ ३३-३५ ॥ वरं दत्त्वा शिवं चाथ तादृशं प्रीतितो हृदा । अन्तर्धाय पुनस्तत्र सुननर्त्त स भिक्षुकः ॥ ३६ ॥ ततो मेना सुरत्नानि स्वर्णपात्रस्थितानि च । तस्मै दातुं ययौ प्रीत्या तद्भूति प्रीतमानसः ॥ ३७ ॥ तानि न स्वीचकारासौ भिक्षां याचे शिवां च ताम् । पुनःसुनृत्यं गानश्च कौतुकात्कर्तुमुद्यतः ॥ ३८ ॥ इस प्रकार हृदयसे पार्वतीको प्रीतिपूर्वक वर देकर शिवजी अन्तर्धान होकर पुनः भिक्षुकका रूप धारणकर नृत्य करने लगे । तब उस नत्यसे प्रसन्न होकर मेना सोनेके पात्रमें बहुत-सारे रत्न रखकर बड़े प्रेमसे उस भिक्षुकको देनेके लिये गयीं, किंतु भिक्षुकने उन्हें स्वीकार नहीं किया और भिक्षामें शिवाको माँगा तथा पुनः नृत्य-गान करने लगे ॥ ३६-३८ ॥ मेना तद्वचनं श्रुत्वा चुकोपाति सुविस्मिता । भिक्षुकं भर्त्सयामास बहिष्कर्तुमियेष सा ॥ ३९ ॥ एतस्मिन्नन्तरे तत्र गङ्गातो गिरिराययौ । ददर्श पुरतो भिक्षुं प्राङ्गणस्थं नराकृतिम् ॥ ४० ॥ मेना भिक्षुकके वचनको सुनकर विस्मित हो क्रोधसे भर गयीं । वे भिक्षुककी भर्त्सना करने लगीं और उन्होंने उसे बाहर निकालनेकी इच्छा की । इसी समय हिमालय भी गंगाजीसे आ गये और उन्होंने नरकी आकृतिवाले भिक्षुकको आँगनमें स्थित देखा ॥ ३९-४० ॥ श्रुत्वा मेनामुखाद्वृत्तं तत्सर्वं सुचुकोप सः । आज्ञां चकारानुचरान्बहिष्कर्तुञ्च तं नटम् ॥ ४१ ॥ मेनाद्वारा सभी बातोंको जानकर हिमालयको बड़ा क्रोध आया । उन्होंने भिक्षुकको घरसे बाहर निकालानेके लिये अपने सेवकोंको आज्ञा दी ॥ ४१ ॥ महाग्निमिव दुःस्पर्शं प्रज्वलन्तं सुतेजसम् । न शशाक बहिष्कर्तुं कोऽपि तं मुनिसत्तम ॥ ४२ ॥ किंतु हे मुनिसत्तम ! प्रलयाग्निके समान जलते हुए तेजसे अत्यन्त दुःसह उस भिक्षुकको बाहर निकालाने में कोई भी समर्थ नहीं हुआ ॥ ४२ ॥ ततः स भिक्षुकस्तात नानालीलाविशारदः । दर्शयामास शैलाय स्वप्रभावमनन्तकम् ॥ ४३ ॥ शैलो ददर्श तं तत्र विष्णुरूपधरं द्रुतम् । किरीटिनं कुण्डलिनं पीतवस्त्रं चतुर्भुजम् ॥ ४४ ॥ हे तात ! उस समय अनेक लीलाओंमें प्रवीण उस भिक्षुकने पर्वतराज हिमालयको अपना अनन्त प्रभाव दिखाया । हिमालयने देखा कि वह भिक्षुक तत्क्षण किरीट, कुण्डल, पीताम्बर तथा चतुर्भुज रूप धारणकर विष्णुके स्वरूपमें हो गया है ॥ ४३-४४ ॥ यद्यत्पुष्पादिकं दत्तं पूजाकाले गदाभृते । गात्रे शिरसि तत्सर्वं भिक्षुकस्य ददर्श ह ॥ ४५ ॥ विष्णुपूजाके लिये उन्होंने जो-जो पुष्पादि अर्पण किये थे, वह सभी पूजोपहारकी सामग्री विष्णुरूपधारी इन भिक्षुकके सिर एवं गलेमें पड़ी हुई उन्होंने देखी ॥ ४५ ॥ ततो ददर्श जगतां स्रष्टारं स चतुर्मुखम् । रक्तवर्णं पठन्तञ्च श्रुतिसूक्तं गिरीश्वरः ॥ ४६ ॥ तत्पश्चात् गिरिराजने देखा कि उस भिक्षुकने रक्तवर्ण होकर वेदोंके सूक्तों उच्चारण करते हुए, चतुर्भुज, जगत्वष्टा ब्रह्माका रूप धारण कर लिया है । ४६ ॥ ततःसूर्यस्वरूपञ्च जगच्चक्षुःस्वरूपकम् । ददर्श गिरिराजः स क्षणं कौतुककारिणाम् ॥ ४७ ॥ ततो ददर्श तं तात रुद्ररूपं महाद्भुतम् । पार्वती सहितं रम्यं विहसन्तं सुतेजसम् ॥ ४८ ॥ पुनः गिरीश्वरने एक क्षण बाद देखा कि वह जगच्चक्षु सूर्यके रूपमें परिवर्तित हो गया । इस प्रकार उन्होंने क्षण-क्षणमें रूप बदलकर कौतुक करते हुए उस भिक्षुकको देखा । हे तात ! तत्पश्चात् हिमालयने देखा कि वह भिक्षुक अद्भुत रूप धारण किये हुए रुद्र हो गया है, जो पार्वतीसहित परम मनोहर अपने तेजसे प्रकाशित हो रहा है ॥ ४७-४८ ॥ ततस्तेजःस्वरूपञ्च निराकारं निरञ्जनम् । निरुपाधिं निरीहञ्च महाद्भुतमरूपकम् ॥ ४९ ॥ एवं बहूनि रूपाणि तस्य तन्न ददर्श सः । सुविस्मितो बभूवाशु परमानन्दसंयुतः ॥ ५० ॥ तदनन्तर उन्होंने निराकार, निरंजन, निरुपाधि, निरीह, परम अद्भुत, तेजस्वरूपमें परिवर्तित होते हुए उस भिक्षुकको देखा । इस प्रकार जब हिमालयने उस भिक्षुकके अनेक विस्मयकारक रूप देखे, तब वे आनन्दयुक्त होकर आश्चर्यमें पड़ गये ॥ ४९-५० ॥ अथासौ भिक्षुवर्यो हि तस्मात्तस्याश्च सूतिकृत् । भिक्षां ययाचे दुर्गां तां नान्यज्जग्राह किञ्चन ॥ ५१ ॥ न स्वीचकार शैलैन्द्रो मोहितः शिवमायया । भिक्षुः किञ्चिन्न जग्राह तत्रैवान्तर्दधे ततः ॥ ५२ ॥ उसके बाद पुनः भिक्षुकरूपधारी उन सृष्टिकर्ता शिवजीने हिमालयसे दुर्गाकी याचना की और कुछ नहीं माँगा, किंतु शिवमायासे मोहित होनेके कारण हिमालयने उसे स्वीकार नहीं किया, भिक्षुकने भी और कुछ ग्रहण नहीं किया और वहीं अन्तर्धान हो गया ॥ ५१-५२ ॥ तदा बभूव सुज्ञानं मेनाशैलेशयोरिति । आवां शिवो वञ्चयित्वा स्वस्थानं गतवान्प्रभुः ॥ ५३ ॥ मेना और शैलराजको ज्ञान हुआ कि प्रभु शंकरजी हम दोनोंको वंचितकर अपने स्थानको चले गये ॥ ५३ ॥ तयोर्विचिन्त्य तत्रैव शिवे भक्तिरभूत्परा । महामोक्षकरी दिव्या सर्वानन्दप्रदायिनी ॥ ५४ ॥ इस बातका विचार करके उन दोनोंको दिव्य, सर्वानन्दप्रदायिनी तथा परम मोक्ष देनेवाली परा भक्ति शिवजीमें उत्पन्न हो गयी ॥ ५४ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखण्डे पार्वतीप्रत्यागमनमहोत्सववर्णनं नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें पार्वतीप्रत्यागमनमहोत्सववर्णन नामक तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३० ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |