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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे
एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ शिवमायावर्णनम् -
देवताओंके कहनेपर शिवका ब्राह्मण-वेषमें हिमालयके यहाँ जाना और शिवकी निन्दा करना ब्रह्मोवाच तयोर्भक्तिं शिवे ज्ञात्वा परामव्यभिचारिणीम् । सर्वे शक्रादयो देवाश्चिचिन्तुरिति नारद ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! इस प्रकार मेना और शैलराजकी शिवमें अनन्य भक्ति देखकर इन्द्र आदि सभी देवताओंने विचार किया ॥ १ ॥ देवा ऊचुः एकान्तभक्त्या शैलश्चेत्कन्यां तस्मै प्रदास्यति । ध्रुवं निर्वाणता सद्यः स प्राप्स्यति च भारते ॥ २ ॥ देवता बोले-यदि हिमालय शिवजीमें अनन्य भक्तिपूर्वक शंकरजीको अपनी कन्या देंगे तो भारतमें अवश्य ही निर्वाण पद प्राप्त कर लेंगे ॥ २ ॥ अनन्तरत्नाधारश्चेत्पृथ्वीं त्यक्त्वा प्रयास्यति । रत्नगर्भाभिधा भूमिर्मिथ्यैव भविता ध्रुवम् ॥ ३ ॥ स्थावरत्वं परित्यज्य दिव्यरूपं विधाय सः । कन्यां शूलभृते दत्त्वा शिवलोकं गमिष्यति ॥ ४ ॥ यदि इन अनन्त रत्नोंसे पूर्ण वे हिमालय वसुन्धराको त्यागकर चले जायेंगे, तो निश्चय ही इस पृथिवीका रत्नगर्भा-यह नाम व्यर्थ हो जायगा । इस स्थावररूपको छोड़कर दिव्यरूप धारणकर और अपनी कन्या शूलधारी शंकरको देकर वे अवश्य ही शिवलोक चले जायेंगे ॥ ३-४ ॥ महादेवस्य सारूप्यं लप्स्यते नात्र संशयः । तत्र भुक्त्वा वरान्भोगांस्ततो मोक्षमवाप्स्यति ॥ ५ ॥ उन्हें शिवलोकमें सारूप्य मुक्ति प्राप्त होगी, इसमें संशय नहीं । वहाँ अनेक प्रकारके श्रेष्ठ भोगोंको भोगकर वे मुक्त हो जायेंगे ॥ ५ ॥ ब्रह्मोवाच इत्यालोच्य सुराःसर्वे कृत्वा चामन्त्रणं मिथः । प्रस्थापयितुमैच्छंस्ते गुरुं तत्र सुविस्मिताः ॥ ६ ॥ ब्रह्माजी बोले-यह कहकर वे सभी देवता इस बातका विचारकर विस्मित हो परस्पर मन्त्रणा करके बृहस्पतिको हिमालयके पास भेजनेकी इच्छा करने लगे ॥ ६ ॥ ततः शक्रादयो देवाःसर्वे गुरुनिकेतनम् । जग्मुः प्रीत्या सविनया नारद स्वार्थसाधकाः ॥ ७ ॥ हे नारद ! तब इन्द्रादि सभी देवता स्वार्थसाधनकी इच्छासे विनम्र होकर प्रीतिपूर्वक बृहस्पतिके घर गये ॥ ७ ॥ गत्वा तत्र गुरुं नत्वा सर्वे देवाः सवासवाः । चक्रुर्निवेदनं तस्मै गुरवे वृत्तमादरात् ॥ ८ ॥ वे देवता वहाँ जाकर बृहस्पतिको प्रणाम करके आदरपूर्वक उन गुरुसे सारा वृत्तान्त कहने लगे- ॥ ८ ॥ देवा ऊचुः गुरो हिमालयगृहं गच्छास्मत्कार्यसिद्धये । तत्र गत्वा प्रयत्नेन कुरु निन्दाञ्च शूलिनः ॥ ९ ॥ देवता बोले-हे गुरो ! आप हमलोगोंकी कार्यसिद्धिके लिये हिमालयके पास जाइये और वहाँ जाकर प्रयत्नपूर्वक शिवकी निन्दा कीजिये ॥ ९ ॥ पिनाकिना विना दुर्गा वरं नान्यं वरिष्यति । अनिच्छया सुतां दत्त्वा फलं तूर्णं लभिष्यति ॥ १० ॥ कालेनैवाधुना शैलमिदानीं भुवि तिष्ठतु । अनेकरत्नाधारं तं स्थापय त्वं क्षितौ गुरौ ॥ ११ ॥ पार्वती शिवके अतिरिक्त किसी अन्यका वरण नहीं करेंगी और वे हिमालय बिना इच्छाके ही अपनी कन्या पार्वतीका विवाह शिवजीके साथ करेंगे और शीघ्र ही इसका फल प्राप्त कर लेंगे । हे गुरो ! हमलोगोंकी इच्छा है कि हिमालय अभी पृथिवीपर निवास करें । अतः आप अनेक रत्नोंको धारण करनेवाले उन हिमालयको पृथ्वीपर स्थापित कीजिये ॥ १०-११ ॥ ब्रह्मोवाच इति देववचः श्रुत्वा प्रददौ कर्णयोः करम् । न स्वीचकार स गुरुः स्मरन्नाम शिवेति च ॥ १२ ॥ अथ स्मृत्वा महादेवं बृहस्पतिरुदारधीः । उवाच देववर्यांश्च धिक्कृत्वा च पुनः पुनः ॥ १३ ॥ ब्रह्माजी बोले-देवगणोंकी यह बात सुनकर बृहस्पतिने अपने कानोंपर हाथ रख लिया और शिवजीका नाम-स्मरण करते हुए उन्होंने इस बातको स्वीकार नहीं किया । उदारबुद्धिवाले बृहस्पति महादेवजीका स्मरणकर श्रेष्ठ देवताओंको बार-बार धिक्कारते हुए कहने लगे- ॥ १२-१३ ॥ बृहस्पतिरुवाच सर्वे देवाः स्वार्थपराः परार्थध्वंसकारकाः । कृत्वा शंकरनिन्दा हि यास्यामि नरकं ध्रुवम् ॥ १४ ॥ बृहस्पति बोले-हे देवताओ ! तुमलोग स्वार्थसाधक और दूसरेके कार्यको विनष्ट करनेवाले हो । शंकरजीकी निन्दा करके मैं निश्चित रूपसे नरक चला जाऊँगा ॥ १४ ॥ कश्चिन्मध्ये च युष्माकं गच्छेच्छैलान्तिकं सुराः । सम्पादयेत्स्वाभिमतं शैलेन्द्रं प्रतिबोध्य च ॥ १५ ॥ अनिच्छया सुतां दत्त्वा सुखं तिष्ठतु भारते । तस्मै भक्त्या सुतां दत्त्वा मोक्षं प्राप्स्यति निश्चितम् ॥ १६ ॥ इसलिये आपलोगोंमेंसे कोई हिमालयके पास जाकर हिमालयको समझाकर अपना कार्य सिद्ध करे, जिससे वे अनिच्छापूर्वक अपनी कन्या शिवजीको देकर भारतमें निवास करें; क्योंकि भक्तिपूर्वक कन्या देकर वे निश्चित ही मोक्ष प्राप्त कर लेंगे ॥ १५-१६ ॥ पश्चात्सप्तर्षयः सर्वे बोधयिष्यन्ति पर्वतम् । पिनाकिना विना दुर्गा वरं नान्यं वरिष्यति ॥ १७ ॥ बादमें सप्तर्षि पर्वतराजको समझायेंगे कि यह पार्वती शिवजीको छोड़कर दूसरे किसीका वरण नहीं करेगी ॥ १७ ॥ अथवा गच्छत सुरा ब्रह्मलोकं सवासवाः । वृत्तं कथयत स्वं तत्स वः कार्यं करिष्यति ॥ १८ ॥ अथवा हे देवताओ ! आपलोग इन्द्रके साथ ब्रह्मलोकको जायँ और अपना सारा वृत्तान्त ब्रह्माजीको बतायें, वे ही आपलोगोंका कार्य सम्पन्न करेंगे ॥ १८ ॥ ब्रह्मोवाच तच्छ्रुत्वा ते समालोच्याजग्मुर्मम सभां सुराः । सर्वे निवेदयाञ्चक्रुर्नत्वा तद्गतमादरात् ॥ १९ ॥ ब्रह्माजी बोले-यह सुनकर और विचारकर वे सभी देवता मेरी सभामें आये और प्रणामकर आदरपूर्वक अपना सारा वृत्तान्त उन्होंने मुझसे निवेदन किया ॥ १९ ॥ देवानां तद्वचः श्रुत्वा शिवनिन्दाकरं तदा । वेदवक्ता विलप्याहं तानवोचं सुरान्मुने ॥ २० ॥ हे मुने ! तब देवताओंकी उस शिव निन्दाविषयक बातको सुनकर वेदवक्ता मैं दुखी होकर उन देवताओंसे कहने लगा- ॥ २० ॥ ब्रह्मोवाच नाहं कर्तुं क्षमो वत्साः शिवनिन्दां सुदुःसहाम् । संपद्विनाशरूपाञ्च विपदां बीजरूपिणीम् ॥ २१ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे वत्सो ! मैं शिवजीकी दुःसह निन्दा नहीं कर सकता हूँ क्योंकि शिवजीकी निन्दा सम्पत्तिका विनाश करनेवाली एवं विपत्तियोंका कारण है ॥ २१ ॥ सुरा गच्छत कैलासं सन्तोषयत शंकरम् । प्रस्थापयत तं शीघ्रं हिमालयगृहं प्रति ॥ २२ ॥ स गच्छेदुपशैलेशमात्मनिन्दां करोतु यै । परनिन्दाविनाशाय स्वनिन्दा यशसे मता ॥ २३ ॥ इसलिये हे देवताओ ! आपलोग कैलासपर जायें और शिवको सन्तुष्ट करें तथा उन्हींको हिमालयके घर भेजिये । वे ही स्वयं हिमालयके घर जाकर अपनी निन्दा करें; क्योंकि परनिन्दा विनाशके लिये और आत्मनिन्दा यशके लिये कही गयी है ॥ २२-२३ ॥ ब्रह्मोवाच श्रुत्वेति मद्वचो देवा मां प्रणम्य मुदा च ते । कैलासं प्रययुः शीघ्रं शैलानामधिपं गिरिम् ॥ २४ ॥ ब्रह्माजी बोले-वे देवता मेरी बात सुनकर प्रेमसे मुझे प्रणामकर शीघ्र ही शैलराज कैलासपर्वतपर गये ॥ २४ ॥ तत्र गत्वा शिवं दृष्ट्वा प्रणम्य नतमस्तकाः । सुकृताञ्जलयः सर्वे तुष्टुवुस्तं सुरा हरम् ॥ २५ ॥ वहाँ जाकर शिवजीको देखकर सिर झुकाकर शिवजीको प्रणाम करके हाथ जोड़कर वे सभी देवता उन शिवजीकी स्तुति करने लगे- ॥ २५ ॥ देवा ऊचुः देवदेव महादेव करुणाकर शंकर । वयं त्वां शरणापन्नाः कृपां कुरु नमोऽस्तु ते ॥ २६ ॥ देवता बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे करुणाकर ! हे शंकर ! हम सब आपकी शरणमें हैं, आपको प्रणाम है, हमलोगोंपर कृपा कीजिये ॥ २६ ॥ त्वं भक्तवत्सलः स्वामिन्भक्तकार्यकरः सदा । दीनोद्धरः कृपासिन्धुर्भक्तापद्विनिमोचकः ॥ २७ ॥ हे स्वामिन् ! आप भक्तवत्सल हैं, सदा भक्तोंका कार्य करनेवाले, दीनोंका उद्धार करनेवाले, कृपासिन्धु और भक्तोंकी आपत्ति दूर करनेवाले हैं ॥ २७ ॥ ब्रह्मोवाच इति स्तुत्वा महेशानं सर्वे देवाःसवासवाः । सर्वं निवेदयाञ्चक्रुस्तद्वृत्तं तत आदरात् ॥ २८ ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार इन्द्रादि देवगणोंने शिवजीकी स्तुति करके बड़े आदरके साथ अपना सारा वृत्तान्त उनसे निवेदन किया ॥ २८ ॥ तच्छ्रुत्वा देववचनं स्वीचकार महेश्वरः । देवान् सुयापयामास तानाश्वास्य विहस्य सः ॥ २९ ॥ देवताओंकी उस बातको सुनकर शिवजीने उसे स्वीकार कर लिया और उन्होंने हँसकर देवताओंको आश्वासन देकर उन्हें विदा कर दिया ॥ २९ ॥ देवा मुमुदिरे सर्वे शीघ्रं गत्वा स्वमन्दिरम् । सिद्धं मत्वा स्वकार्यं हि प्रशंसन्तः सदाशिवम् ॥ ३० ॥ ततः स भगवाञ्छम्भुर्महेशो भक्तवत्सलः । प्रययौ शैलभूपञ्च मायेशो निर्विकारवान् ॥ ३१ ॥ तब सभी देवगण प्रसन्न हो गये और अपना कार्य सिद्ध जानकर शिवजीकी प्रशंसा करते हुए वे अपने स्थानको चले गये । तब वे भक्तवत्सल, मायेश, निर्विकार महेश्वर भगवान् शम्भुशैलराजके पास गये ॥ ३०-३१ ॥ यदा शैलः सभामध्ये समुवास मुदान्वितः । बन्धुवर्गैः परिवृतः पार्वतीसहितः स्वयम् ॥ ३२ ॥ उस समय गिरिराज अपने बन्धुवाँके साथ पार्वतीसहित प्रसन्न मनसे सभामें विराजमान थे ॥ ३२ ॥ एतस्मिन्नन्तरे तत्र ह्याजगाम सदाशिवः । दण्डी छत्री दिव्यवासा बिभ्रत्तिलकमुज्ज्वलम् ॥ ३३ ॥ उसी समय दण्ड, छत्र एवं दिव्य वस्त्र धारण किये तथा उज्ज्वल तिलक लगाये हुए भगवान् सदाशिव उनकी सभामें आ गये ॥ ३३ ॥ करे स्फटिकमालाञ्च शालग्रामं गले दधत् । जपन्नाम हरेर्भक्त्या साधुवेषधरौ द्विजः ॥ ३४ ॥ वे एक हाथमें स्फटिककी माला और गलेमें शालग्रामशिला धारण किये हुए थे । वे भली प्रकार ब्राह्मणका वेष धारणकर नारायणके नामका जप कर रहे थे । ३४ ॥ तं च दृष्ट्वा समुत्तस्थौ सगणोऽपि हिमालयः । ननाम दण्डवद्भूमौ भक्त्याऽतिथिमपूर्वकम् ॥ ३५ ॥ उन्हें देखकर हिमालय सभासदोंके साथ खड़े हो गये और उन्होंने भूतलपर दण्डके समान पड़कर भक्तिभावसे उन अपूर्व अतिथिको साष्टांग प्रणाम किया ॥ ३५ ॥ ननाम पार्वती भक्त्या प्राणेशं विप्ररूपिणम् । ज्ञात्वा तं मनसा देवी तुष्टाव परया मुदा ॥ ३६ ॥ ब्राह्मणवेषधारी शिवजीको अपना प्राणेश्वर समझकर पार्वतीने प्रणाम किया और हदयसे परम प्रसन्नतासे उनकी स्तुति की ॥ ३६ ॥ आशिषं युयुजे विप्रः सर्वेषां प्रीतितः शिवः । शिवाया अधिकं तात मनोभिलषितं हृदा ॥ ३७ ॥ ब्राह्मणवेष धारण करनेवाले उन सदाशिवने बड़े प्रेम पूर्वक उन सबको आशीर्वाद दिया और विशेषकर पार्वतीको हृदयसे उनका मनोवांछित आशीर्वाद प्रदान किया ॥ ३७ ॥ मधुपर्कादिकं सर्वं जग्राह ब्राह्मणो मुदा । दत्तं शैलाधिराजेन हिमाङ्गेन महादरात् ॥ ३८ ॥ उन ब्राह्मणने शैलाधिराज हिमवान्के द्वारा बड़े आदरके साथ दिये गये मधुपर्क आदिको प्रेमसे ग्रहण किया ॥ ३८ ॥ पप्रच्छ कुशलं चास्य हिमाद्रिः पर्वतोत्तमः । तं द्विजेन्द्रं महाप्रीत्या सम्पूज्य विधिवन्मुने ॥ ३९ ॥ पुनः पप्रच्छ शैलेशस्तं ततः को भवानिति । उवाच शीघ्रं विप्रेन्द्रो गिरीद्रं सादरं वचः ॥ ४० ॥ हे मुने ! इस प्रकार प्रेमपूर्वक उन द्विजेन्द्रका विधिवत् पूजन करनेके पश्चात् पर्वतश्रेष्ठ हिमालय उनका कुशल पूछने लगे । पर्वतराजने उनसे पूछा कि आप कौन हैं ? तब विप्रेन्द्र गिरिराजसे आदरपूर्वक शीघ्र यह वचन कहने लगे- ॥ ३९-४० ॥ विप्रेन्द्र उवाच ब्राह्मणोऽहं गिरिश्रेष्ठ वैष्णवो बुधसत्तमः । घटिकीं वृतिमाश्रित्य भ्रमामि धरणीतले ॥ ४१ ॥ विप्रेन्द्र बोले-हे गिरिश्रेष्ठ ! मैं बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ वैष्णव ब्राह्मण हूँ और ज्योतिषवृत्तिका सहारा लेकर पृथिवीतलमें विचरण करता हूँ ॥ ४१ ॥ मनोयायी सर्वगामी सर्वज्ञोहं गुरोर्बलात् । परोपकारी शुद्धात्मा दयासिन्धुर्विकारहा ॥ ४२ ॥ मैं अपने गुरुकी कृपासे मनके समान सर्वत्र चलनेवाला, सर्वत्र गमन करनेवाला, सर्वज्ञ, परोपकारी, शुद्ध मनवाला, दयासिन्धु तथा विकारका नाश करनेवाला हूँ ॥ ४२ ॥ मया ज्ञातं हराय त्वं स्वसुतां दातुमिच्छसि । इमां पद्मसमां दिव्यां वररूपां सुलक्षणाम् ॥ ४३ ॥ निराश्रयायासङ्गाय कुरूपायागुणाय च । श्मशानवासिने व्यालग्राहिरूपाय योगिने ॥ ४४ ॥ दिग्वाससे कुगात्राय व्यालभूषणधारिणे । अज्ञातकुलनाम्ने च कुशीलायाविहारिणे ॥ ४५ ॥ विभूतिदिग्धदेहाय सङ्क्रुद्धायाविवेकिने । अज्ञातवयसेऽतीव कुजटाधारिणे सदा ॥ ४६ ॥ सर्वाश्रयाय भ्रमिणे नागहाराय भिक्षवे कुमार्गनिरतायाथ वेदाऽध्वत्यागिने हठात् । ४७ ॥ मुझे ज्ञात हुआ है कि आप कमलके समान, दिव्य, उत्तम रूपवाली तथा सर्वलक्षणसम्पन्न अपनी यह कन्या आश्रयरहित, असंग, कुरूप, गुणहीन, श्मशानमें रहनेवाले, सर्पधारी, योगी, नग्न, मलिन शरीरवाले, सर्पका आभूषण धारण करनेवाले, अज्ञात कुल तथा नामवाले, कुशील, विहारमें रुचि न रखनेवाले, विभूतिसे लिप्त देहवाले, अत्यन्त क्रोधी, अज्ञानी, अज्ञात आयुवाले, सदा विकृत जटा धारण करनेवाले, सबको आश्रय देनेवाले, भ्रमणशील, नागोंका हार पहननेवाले, भिक्षुक, कुमार्गमें निरत तथा हठपूर्वक वैदिक मार्गका त्याग करनेवाले शिवको देना चाहते हैं ॥ ४३-४७ ॥ इयं ते बुद्धिरचल न हि मंगलदा खलु । विबोध ज्ञानिनां श्रेष्ठ नारायणकुलोद्भव ॥ ४८ ॥ [हे हिमालय !] आपका यह अटल विचार अवश्य ही मंगलदायक नहीं है । नारायणकुलमें उत्पन्न तथा ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ [गिरिराज !] आप इसपर विचार कीजिये ॥ ४८ ॥ न ते पात्रानुरूपश्च पार्वतीदानकर्मणि । महाजनः स्मेरमुखः श्रुतमात्राद्भविष्यति ॥ ४९ ॥ पश्य शैलाधिप त्वं च न तस्यैकोस्ति बान्धवः । महारत्नाकरस्त्वञ्च तस्य किञ्चिद्धनं न हि ॥ ५० ॥ पार्वतीके दानकर्ममें वे आपके इस दानके अनुरूप पात्र नहीं हैं । बड़े लोग इस बातको सुनकर आपकी हँसी करेंगे । देखिये, उनका कोई बन्धुबान्धव नहीं है और आप पर्वतराज हैं, उनके पास कुछ भी नहीं है और आप रत्नाकर हैं ॥ ४९-५० ॥ बान्धवान्मेनकां कुध्रपते शीघ्रं सुता तथा । सर्वान्पृच्छ प्रयत्नेन पण्डितान्पार्वतीं विना ॥ ५१ ॥ हे शैलाधिराज ! आप पार्वतीको छोड़कर [इस विषयमें] बान्धवोंसे, मेनासे, पुत्रोंसे और सभी पण्डितोंसे प्रयत्नपूर्वक शीघ्रतासे पूछिये ॥ ५१ ॥ रोगिणो नौषधं शश्वद्रोचते गिरिसत्तम । कुपथ्यं रोचतेऽभीक्ष्णं महादोषकरं सदा ॥ ५२ ॥ हे गिरिसत्तम ! रोगीको सर्वदा औषधि अच्छी नहीं लगती, अपितु महादोषकारक कुपथ्य ही सदा बहुत अच्छा लगता है ॥ ५२ ॥ ब्रह्मोवाच इत्युक्त्वा ब्राह्मणः शीघ्रं स वै भुक्त्वा मुदान्वितः । जगाम स्वालयं शान्तो नानालीलाकरः शिवः ॥ ५३ ॥ ब्रह्माजी बोले-ऐसा कहकर नाना प्रकारकी लीला करनेवाले विप्ररूप शिव प्रसन्नतापूर्वक भोजनकर शान्तचित्त हो शीघ्र अपने घर चले गये । ५३ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखण्डे शिवमायावर्णनं नामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें शिवमायावर्णन नामक इकतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३१ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |