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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे
एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ शिववरयात्रावर्णनम् -
भगवान् शिवका नारदजीके द्वारा सब देवताओंको निमन्त्रण दिलाना, सबका आगमन तथा शिवका मंगलाचार एवं ग्रहपूजन आदि करके कैलाससे बाहर निकलना - नारद उवाच विधे तात महाप्राज्ञ विष्णुशिष्य नमोऽस्तु ते । अद्भुतेयं कथाश्रावि त्वत्तोऽस्माभिः कृपानिधे ॥ १ ॥ इदानीं श्रोतुमिच्छामि चरितं शशिमौलिनः । वैवाहिकं सुमाङ्गल्यं सर्वाघौघविनाशनम् ॥ २ ॥ नारदजी बोले-हे विष्णुशिष्य ! हे महाप्राज्ञ ! हे ताता ! हे विधे ! आपको प्रणाम है । हे कृपानिधे ! हमलोगोंने आपसे यह अद्भुत कथा सुनी । अब मैं शिवजीके वैवाहिक चरित्रको सुनना चाहता हूँ, जो परम मंगलदायक तथा सब प्रकारकी पापराशिका विनाश करनेवाला है ॥ १-२ ॥ किं चकार महादेवः प्राप्य मंगलपत्रिकाम् । तां श्रावय कथां दिव्यां शङ्करस्यपरात्मनः ॥ ३ ॥ मंगलपत्रिका प्राप्त करनेके बाद महादेवजीने क्या किया ? परमात्मा शिवजीकी वह दिव्य कथा सुनाइये ॥ ३ ॥ ब्रह्मोवाच शृणु वत्स महाप्राज्ञ शाङ्करं परमं यशः । यच्चकार महादेवः प्राप्य मंगलपत्रिकाम् ॥ ४ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे वत्स ! हे महाप्राज्ञ ! महादेवजीने मंगलपत्रिका प्राप्त करनेके पश्चात् जो किया, भगवान् शंकरके उस यशको सुनिये ॥ ४ ॥ अथ शम्भुर्गृहीत्वा तां मुदा मंगलपत्रिकाम् । विजहास प्रहृष्टात्मा मानन्तेषां व्यधाद्विभुः ॥ ५ ॥ विभु शिवजी प्रसन्नतापूर्वक मंगलपत्रिका ग्रहणकर जोरसे हँसे और उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर उन लग्नपत्रिका लानेबार्लोका बड़ा स्वागत सम्मान किया ॥ ५ ॥ वाचयित्वा च तां सम्यग्स्वीचकार विधानतः । तज्जनान्यापयामास बहुसम्मान्य चादृतः ॥ ६ ॥ उवाच मुनिवर्गांस्तान्कार्यं सम्यक् कृतं शुभम् । आगन्तव्यं विवाहे मे विवाहःस्वीकृतो मया ॥ ७ ॥ उन्होंने उस लग्नपत्रिकाको सम्यक् पढ़कर विधि-विधानसे स्वीकार किया तथा उन लोगोंको आदरसे बहुत सम्मानितकर विदा कर दिया । उन्होंने सप्तर्षियोंसे कहा कि आपलोगोंने यह परम कल्याणकारी कार्य ठीकसे सम्पन्न किया । अब मैंने विवाह स्वीकार कर लिया है, अतः मेरे विवाहमें आपलोग [अवश्य] आइयेगा ॥ ६-७ ॥ इत्याकर्ण्य वचः शम्भोः प्रहृष्टास्ते प्रणम्य तम् । परिक्रम्य ययुर्धाम शंसन्तः स्वं विधिं परम् ॥ ८ ॥ अथ देवेश्वरः शम्भुः सामरस्तवां मुने द्रुतम् । लौकिकाचारमाश्रित्य महालीलाकरः प्रभुः ॥ ९ ॥ शिवजीके इस प्रकारके वचनको सुनकर वे परम प्रसन्न हो गये और उनको प्रणामकर तथा उनकी प्रदक्षिणा करके अपने परम भाग्यकी सराहना करते हुए अपने घर चले गये । हे मुने ! तब महान् लीला करनेवाले, देवताओंके सहित देवेश्वर प्रभु शिवजीने लौकिकाचारका आश्रयण करते हुए शीघ्र आपका स्मरण किया ॥ ८-९ ॥ त्वमागतः परप्रीत्या प्रशंसंस्त्वं विधिं परम् । प्रणमंश्च नतस्कन्धो विनीतात्मा कृताञ्जलिः ॥ १० ॥ अस्तौःसुजयशब्दानि समुच्चार्य मुहुर्मुहुः । निदेशं प्रार्थयंस्तस्य प्रशंसंस्त्वं विधिम्मुने ॥ ११ ॥ उस समय आप अपने सौभाग्यकी प्रशंसा करते हुए बड़ी प्रसन्नताके साथ वहाँ आये और हाथ जोड़कर सिर झुकाकर विनम्रतासे उन्हें प्रणाम करते हुए बारम्बार 'जय' शब्दका उच्चारण करके आपने उनकी स्तुति की । हे मुने ! उसके बाद अपने भाग्यकी प्रशंसा करते हुए शिवजीसे आज्ञा प्रदान करनेके लिये आपने निवेदन किया ॥ १०-११ ॥ ततः शम्भुः प्रहृष्टात्मा दर्शयँल्लौकिकीं गतिम् । उवाच मुनिवर्य त्वां प्रीणयन् शुभया गिरा ॥ १२ ॥ हे मुनिवर ! तब प्रसन्नचित्त होकर लौकिकी गतिको दिखाते हुए शुभ वचनोंसे आपको प्रसन्न करते हुए शिवजी कहने लगे- ॥ १२ ॥ शिव उवाच प्रीत्या शृणु मुनिश्रेष्ठ ह्यस्मत्तोऽद्य वदामि ते । ब्रुवे तत्त्वां प्रियो मे यद्भक्तराजशिरोमणिः ॥ १३ ॥ शिवजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं जो कहता हूँ, उसे प्रेमपूर्वक सुनिये । आप मेरे परमप्रिय तथा भक्तराजशिरोमणि हैं, इसलिये आपसे कहता हूँ ॥ १३ ॥ कृतं महत्तपो देव्या पार्वत्या तव शासनात् । तस्यै वरो मया दत्तः पतित्वे तोषितेन वै ॥ १४ ॥ आपकी आज्ञासे पार्वतीने जिस प्रकारकी महान् तपस्या की थी, उससे सन्तुष्ट होकर मैंने उसे पति बननेके लिये वरदान दे दिया है ॥ १४ ॥ करिष्येऽहं विवाहं च तस्या वश्यो हि भक्तितः । सप्तर्षिभिः साधितं च तल्लग्नं शोधितं च तैः ॥ १५ ॥ मैं उसकी भक्तिके वशीभूत होकर अब विवाह करना चाहता हूँ । सप्तर्षियोंने सारा कार्य सम्पन्न कर दिया है और विवाहका लग्न भी निश्चित कर दिया है ॥ १५ ॥ अद्यतःसप्तमे चाह्नि तद्भविष्यति नारद । महोत्सवं करिष्यामि लौकिकीं गतिमाश्रितः ॥ १६ ॥ हे नारद ! वह विवाह आजके सातवें दिन होगा । मैं लोकरीतिका आश्रय लेकर [वैवाहिक] महोत्सव करूँगा ॥ १६ ॥ ब्रह्मोवाच इति श्रुत्वा वचस्तस्य शंकरस्य परात्मनः । प्रसन्नधीः प्रभुं नत्वा तात त्वं वाक्यमब्रवीः ॥ १७ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे तात ! इस प्रकार परमात्मा शंकरका वचन सुनकर आप परम प्रसन्न हो उन प्रभुको प्रणाम करके यह वचन कहने लगे- ॥ १७ ॥ नारद उवाच भवतस्तु व्रतमिदं भक्तवश्यो भवान्मतः । सम्यक् कृतं च भवता पार्वतीमानसेप्सितम् ॥ १८ ॥ कार्यं मत्सदृशं किञ्चित्कथनीयं त्वया विभो । मत्वा स्वसेवकं मां हि कृपां कुरु नमोऽस्तु ते ॥ १९ ॥ नारदजी बोले-आपका यह व्रत है कि आप भक्तोंके अधीन रहते हैं और ऐसा सभीका मत भी है, इसलिये आपने यह उचित ही किया; क्योंकि पार्वती यही चाहती भी थीं । हे विभो ! अब मेरे योग्य जो कोई कार्य हो, आप मुझे बताइये, आपको प्रणाम है, आप मुझे अपना सेवक मानकर कृपा कीजिये ॥ १८-१९ ॥ ब्रह्मोवाच इत्युक्तस्तु त्वया शम्भुः शंकरो भक्तवत्सलः । प्रत्युवाच प्रसन्नात्मा सादरं त्वां मुनीश्वर ॥ २० ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुनीश्वर ! जब आपने शिवजीसे इस प्रकार कहा, तब भक्तवत्सल शिवजी प्रसन्नचित्त होकर आदरपूर्वक आपसे कहने लगे- ॥ २० ॥ शिव उवाच विष्णुप्रभृतिदेवांश्च मुनीन् सिद्धानपि ध्रुवम् । त्वं निमन्त्रय मद्वाण्या मुनेऽन्यानपि सर्वतः ॥ २१ ॥ सर्व आयान्तु सोत्साहाः सर्वशोभासमन्विताः । सस्त्रीसुतगणाः प्रीत्या मम शासनगौरवात् ॥ २२ ॥ शिवजी बोले-हे मुने ! आप मेरी ओरसे विष्णु आदि देवों, मुनियों, सिद्धों तथा अन्य लोगोंको भी चारों ओर निमन्त्रण दीजिये । मेरी आज्ञाको मानते हुए उपर्युक्त सभी लोग उत्साह तथा शोभासे युक्त हो अपनी स्त्री, पुत्र तथा गणोंके सहित इस विवाहमें आयें ॥ २१-२२ ॥ नागमिष्यन्ति ये त्वत्र मद्विवाहोत्सवे मुने । ते स्वकीया न मन्तव्या मया देवादयः खलु ॥ २३ ॥ हे मुने ! जो इस विवाहोत्सवमें सम्मिलित नहीं होंगे, उन्हें मैं अपना नहीं मानूँगा, चाहे वे देवता ही क्यों न हों ॥ २३ ॥ ब्रह्मोवाच इतीशाज्ञां ततो धृत्वा भवान् शङ्करवल्लभः । सर्वान्निमन्त्रयामास तं तं गत्वा द्रुतं मुने ॥ २४ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! ईश्वरकी इस आज्ञाको स्वीकार करके शिवप्रिय आपने शीघ्रतासे उन-उनके यहाँ जाकर सबको निमन्त्रण दे दिया ॥ २४ ॥ शम्भूपकण्ठमागत्य द्रुतं मुनिवरो भवान् । तद् हूत्यात्तत्र सन्तस्थौ तदाज्ञां प्राप्य नारद ॥ २५ ॥ शिवोऽपि तस्थौ सोत्कण्ठस्तदागमनलालसः । स्वगणैःसोत्सवैः सर्वैर्नृत्यद्भिः सर्वतोदिशम् ॥ २६ ॥ हे नारद ! इस प्रकार शिवजीके दूतका कार्य शीघ्रतासे सम्पन्नकर शिवजीके पास आकर आप मुनिवर उनकी आज्ञासे वहीं बैठ गये । शिवजी भी उन लोगोंके आगमनकी प्रतीक्षा करने लगे । उनके गण सभी जगह नृत्य गान पूर्वक उत्सव करने लगे । २५-२६ ॥ एतस्मिन्नेव काले तु रचयित्वा स्ववेषकम् । आजगामाच्युतः शीघ्रं कैलासं सपरिच्छदः ॥ २७ ॥ इसी समय अत्यन्त सुन्दर वेश-भूषासे सुसज्जित होकर भगवान् विष्णु अपने परिकरोंके साथ कैलास आये ॥ २७ ॥ शिवम्प्रणम्य सद्भक्त्या सदारःसदलो मुदा । तदाज्ञां प्राप्य सन्तस्थौ सुस्थाने प्रीतमानसः ॥ २८ ॥ तथाहं स्वगणैराशु कैलासमगमं मुदा । प्रभुं प्रणम्यातिष्ठं वै सानन्दः स्वगणान्वितः ॥ २९ ॥ वे अपनी भार्या तथा पार्षदोंके साथ भक्तिपूर्वक प्रणामकर उनकी आज्ञा प्राप्त करके प्रसन्नचित्त हो बैठ गये । उसके बाद मैं भी अपने गोंके साथ प्रसन्नतापूर्वक कैलासपर्वतपर गया और प्रभुको प्रणाम करके अपने गणोंसहित आनन्दित हो बैठ गया । २८-२९ ॥ इन्द्रादयो लोकपाला आययुः सपरिच्छदाः । तथैवालङ्कृताःसर्वे सोत्सवाःसकलत्रकाः ॥ ३० ॥ इन्द्र आदि लोकपाल भी अपनी पत्नियों तथा सेवकोंके सहित नाना प्रकारके अलंकारोंसे अलंकृत हो उत्सव मनाते हुए वहाँ आये ॥ ३० ॥ तथैव मुनयो नागाःसिद्धा उपसुरास्तथा । आययुश्चापरेऽपीह सोत्सवाःसुनिमन्त्रिताः ॥ ३१ ॥ इसी प्रकार निमन्त्रित मुनि, नाग, सिद्ध तथा उपदेव एवं अन्य दूसरे लोग भी वहाँ आये ॥ ३१ ॥ महेश्वरस्तदा तत्रागतानां च पृथक् पृथक् । सर्वेषाममराद्यानां सत्कारं व्यदधान्मुदा ॥ ३२ ॥ उस समय महेश्वरने वहाँ आये उन सभी देवता आदिका प्रसन्नतासे पृथक्-पृथक् सत्कार किया ॥ ३२ ॥ अथोत्सवो महानासीत्कैलासे परमोद्भुतः । नृत्यादिकन्तदा चक्रुर्यथायोग्यं सुरस्त्रियः ॥ ३३ ॥ उस समय कैलासपर देवस्त्रियोंने यथायोग्य नृत्य आदि करना प्रारम्भ कर दिया तथा वहाँ अद्भुत एवं महान् उत्सव होने लगा ॥ ३३ ॥ एतस्मिन्समये देवा विष्ण्वाद्या ये समागताः । यात्रां कारयितुं शम्भोस्तत्रोषुस्तेऽखिला मुने ॥ ३४ ॥ हे मुने ! इसी समय जो विष्णु आदि देवगण शिवके यहाँ आये हुए थे, वे सब शिवकी वरयात्राकी तैयारी करानेके लिये प्रसन्नतासे निवास करने लगे ॥ ३४ ॥ शिवाज्ञप्तास्तदा सर्वे मदीयमिति यन्त्रिताः । शिवकार्यमिदं सर्वं चक्रिरे शिवसेवनम् ॥ ३५ ॥ उस समय शिवजीकी आज्ञासे आये हुए सभी लोग शिवजीके कार्यको यह मेरा ही कार्य है-ऐसा समझकर शिवकी सेवा करने लगे । ३५ ॥ मातरःसप्त तास्तत्र शिवभूषाविधिं परम् । चक्रिरे च मुदा युक्ता यथायोग्यन्तथा पुनः ।३६ ॥ सप्तमातृकाओंने शिवजीके विवाहका दूलह वेष बड़े प्रेमसे शिवजीके अनुरूप सजाया ॥ ३६ ॥ तस्य स्वाभाविको वेषो भूषाविविरभूत्तदा । तस्येच्छया मुनिश्रेष्ठ परमेशस्य सुप्रभो ॥ ३७ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! परमेश्वर प्रभुकी इच्छासे ही उनके स्वाभाविक वेषको भूषणोंसे सजाया गया ॥ ३७ ॥ चन्द्रश्च मुकुटस्थाने सान्निध्यमकरोत्तदा । लोचनं सुन्दरं ह्यासीत्तृतीयं तिलकं शुभम् ॥ ३८ ॥ सप्तमातृकाओंने मुकुटके स्थानपर चन्द्रमाको बाँध दिया । उनके ललाटमें रहनेवाला तीसरा नेत्र तिलकरूपसे शोभित किया गया ॥ ३८ ॥ कर्णाभरणरूपौ च यौ हि सर्पौ प्रकीर्तितौ । कुण्डलेऽभवतां तस्य नानारत्नान्विते मुने ॥ ३९ ॥ हे मुने । नाना रत्नोंसे देदीप्यमान दो सर्प दोनों कानोंको अलंकृत करनेवाले कुण्डलके रूपमें शोभित हुए ॥ ३९ ॥ अन्याङ्गसंस्थिताः सर्पाः तदङ्गाभरणानि च । बभूवुरतिरम्याणि नानारत्नमयानि च ॥ ४० ॥ उनके अंगमें निवास करनेवाले अन्य सर्प अनेक रत्नोंसे युक्त आभूषणोंके समान सुशोभित हुए ॥ ४० ॥ विभूतिरङ्गरागोऽभूच्चन्दनादिसमुद्भवः । तद्दुकूलमभूद्दिव्यं गजचर्मादि सुन्दरम् ॥ ४१ ॥ उनके शरीरमें लगी हुई विभूति चन्दनादि पदार्थोंसे उत्पन्न उत्तम अंगराग हो गया । उनका परम सुन्दर गजचर्म दिव्य दुकूलके समान हो गया ॥ ४१ ॥ ईदृशं सुन्दरं रूपं जातं वर्णातिदुष्करम् । ईश्वरोऽपि स्वयं साक्षादैश्वर्यं लब्धवान् स्वतः ॥ ४२ ॥ ततश्च सर्वे सुरपक्षदानवा नागाः पतङ्गाप्सरसो महर्षयः । समेत्य सर्वे शिवसन्निधिं तदा महोत्सवाः प्रोचुरहो मुदान्विताः ॥ ४३ ॥ उस समय शिवजीका ऐसा सुन्दर रूप हो गया, जो अवर्णनीय था । वे साक्षात् ईश्वर हैं, अत: उन्होंने सभी ऐश्वर्य धारण कर लिया था । उस समय सभी देवता, दानव, नाग, पन्नग, अप्सराएँ तथा महर्षिगण उत्सवसे युक्त होकर शिवजीके समीप जाकर प्रसन्न हो कहने लगे ॥ ४२-४३ ॥ सर्व ऊचुः गच्छ गच्छ महादेव विवाहार्थं महेश्वर । गिरिजाया महादेव्याः सहास्माभिः कृपां कुरु ॥ ४४ ॥ सभी लोग कहने लगे-हे महादेव ! हे महेश्वर ! हिमालयपुत्री महादेवी पार्वतीसे विवाह करनेके लिये आप हम सभीके साथ कृपापूर्वक प्रस्थान करें ॥ ४४ ॥ ततो विष्णुरुवाचेदं प्रस्तावसदृशं वचः । प्रणम्य शंकरं भक्त्या विज्ञानप्रीतमानसः ॥ ४५ ॥ तदुपरान्त शिवतत्त्वको जाननेके कारण प्रसन्न चित्तवाले विष्णुने भक्तिपूर्वक शिवजीको प्रणामकर उस प्रस्तावके अनुरूप कहना प्रारम्भ किया ॥ ४५ ॥ विष्णुरुवाच देव देव महादेव शरणागतवत्सल । कार्यकर्त्ता स्वभक्तानां विज्ञप्तिं शृणु मे प्रभो ॥ ४६ ॥ विष्णु बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे शरणागतवत्सल ! आप अपने भक्तोंका मनोरथ पूर्ण करनेवाले हैं । अतः हे प्रभो ! मेरा निवेदन सुनें ॥ ४६ ॥ गृह्योक्तविधिना शम्भो स्वविवाहस्य शंकर । गिरीशसुतया देव्या कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥ ४७ ॥ त्वया च क्रियमाणे तु विवाहस्य विधौ हर । स एव हि तथा लोके सर्वः सुख्यातिमाप्नुयात् ॥ ४८ ॥ मण्डपस्थापनं नान्दीमुखं तत्कुलधर्मतः । कारय प्रीतितो नाथ लोके स्वं ख्यापयन् यशः ॥ ४९ ॥ हे शम्भो ! हे शंकर ! आप गृह्यसूत्रकी विधिसे गिरीशसुता देवी पार्वतीके साथ अपने विवाहका कर्म कीजिये । हे हर ! यदि आप गृह्यसूत्रकी विधिसे विवाहकर्म करेंगे, तो सारे लोकमें इसी प्रकारसे विवाहकी विधि प्रसिद्ध हो जायगी । हे नाथ ! इस लोकमें आप अपने यशकी घोषणा करते हुए कुलधर्मके अनुसार मण्डपस्थापन तथा नान्दीमुख कृत्य प्रसन्नतापूर्वक कीजिये ॥ ४७-४९ ॥ ब्रह्मोवाच एवमुक्तस्तदा शम्भुर्विष्णुना परमेश्वरः । लौकिकाचारनिरतो विधिना तच्चकार सः ॥ ५० ॥ अहं ह्यधिकृतस्तेन सर्वमभ्युदयोचितम् । अकुर्वं मुनिभिः प्रीत्या तत्र तत्कर्म चादरात् ॥ ५१ ॥ ब्रह्माजी बोले-विष्णुके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर परमेश्वर शंकरजीने समस्त लौकिकाचार मुझ ब्रह्माके द्वारा सम्पन्न करवाया । [हे नारद !] उन्होंने सारे अभ्युदयका कार्यभार मेरे ऊपर सौंप दिया और मैंने भी मुनियोंके साथ प्रेमपूर्वक सभी कृत्योंको पूरा किया ॥ ५०-५१ ॥ कश्यपोऽत्रिर्वसिष्ठश्च गौतमो भागुरिर्गुरुः । कण्वो बृहस्पतिः शक्तिर्जमदग्निः पराशरः ॥ ५२ ॥ मार्कण्डेयः शिलापाकोऽरुणपालोऽकृतश्रमः । अगस्त्यश्च्यवनो गर्गः शिलादोऽथ महामुने ॥ ५३ ॥ दधीचिरुपमन्युश्च भरद्वाजोऽकृतव्रणः । पिप्पलादोऽथ कुशिकः कौत्सो व्यासः सशिष्यकः ॥ ५४ ॥ एते चान्ये च बहव आगताः शिवसन्निधिम् । मया सुनोदितास्तत्र चक्रुस्ते विधिवत्क्रियाम् ॥ ५५ ॥ हे महामुने ! कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, गौतम, भागुरि, गुरु, कण्व, बृहस्पति, शक्ति, जमदग्नि, पराशर, मार्कण्डेय, शिलापाक, अरुणपाल, अकृतश्रम, अगस्त्य, च्यवन, गर्ग, शिलाद, दधीचि, उपमन्यु, भरद्वाज, अकृतव्रण, पिप्पलाद, कुशिक, कौत्स, शिष्योंके सहित व्यास-ये तथा अन्य बहुत-से ऋषिगण शिवजीके समीप आये और मेरी प्रेरणासे उन्होंने विधिवत् क्रिया सम्पन्न की ॥ ५२-५५ ॥ वेदोक्तविधिना सर्वे वेदवेदाङ्गपारगाः । रक्षां चक्रुर्महेशस्य कृत्वा कौतुकमंगलम् ॥ ५६ ॥ ऋग्यजुःसामसूक्तैस्तु तथा नानाविधैः परैः । मंगलानि च भूरीणि चक्रुः प्रीत्यर्षयोऽखिलाः ॥ ५७ ॥ ग्रहाणां पूजनं प्रीत्या चक्रुस्ते शम्भुना मया । मण्डलस्थसुराणां च सर्वेषां विघ्नशान्तये ॥ ५८ ॥ वेद-वेदांगके पारगामी उन ऋषियोंने शिवजीका समस्त कौतुक-मंगलकर वेदरीतिके अनुसार उनकी रक्षाका विधान किया । उन सम्पूर्ण ऋषियोंने ऋक्, यजुः, साम एवं अन्य नाना प्रकारके रक्षोन्नसूक्तोंसे अनेक प्रकारसे मंगलपाठ किये । उन्होंने विघ्नशान्तिके लिये मुझसे तथा श्रीशिवजीसे मण्डपस्थ देवताओं तथा समस्त ग्रहोंका पूजन करवाया ॥ ५६-५८ ॥ ततः शिवः सुसन्तुष्टः कृत्वा सर्वं यथोचितम् । लौकिकं वैदिकं कर्म ननाम च मुदा द्विजान् ॥ ५९ ॥ अथ सर्वेश्वरो विप्रान्देवान्कृत्वा पुरःसरान् । निःससार मुदा तस्मात्कैलासात्पर्वतोत्तमात् ॥ ६० ॥ इस प्रकार शिवजीने प्रसन्न होकर समस्त लौकिक कुलाचार तथा वैदिक विधिका सम्पादनकर प्रसन्नतापूर्वक ब्राह्मणोंको प्रणाम किया । उसके बाद देवताओं और ब्राह्मणोंको आगेकर सर्वेश्वर शिवजी अपने पर्वतोत्तम कैलाससे प्रसन्नतापूर्वक चले ॥ ५९-६० ॥ बहिः कैलासकुधराच्छम्भुस्तस्थौ मुदान्वितः । देवैःसह द्विजैश्चैव नानास्वीकारकः प्रभुः ॥ ६१ ॥ लीला करनेमें प्रवीण वे शिवजी उन देवताओं तथा ब्राह्मणोंके साथ कैलासके बहिर्भागमें आकर प्रेमसे स्थित हो गये ॥ ६१ ॥ तदोत्सवो महानासीत्तत्र देवादिभिः कृतः । सन्तुष्ट्यर्थं महेशस्य गानवाद्यसुनृत्यकः ॥ ६२ ॥ देवताओंने उस समय महेशकी प्रसन्नताके लिये अनेक प्रकारके गाने-बजाने तथा नृत्य-सम्बन्धी अनेक प्रकारके उत्सव किये ॥ ६२ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखण्डे देवनिमन्त्रण देवागमन शिवयात्रावर्णनं नामैकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ३९ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें देवनिमन्त्रण, देवागमन, शिवयात्रावर्णन नामक उनतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३९ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |