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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे
चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ हिमगिरिगृहेशिवस्यागमनवर्णनम् -
शिवबरातकी शोभा, भगवान् शिवका बरात लेकर हिमालयपुरीकी ओर प्रस्थान - ब्रह्मोवाच अथ शम्भुः समाहूय नन्द्यादीन् सकलान्गणान् । आज्ञापयामास मुदा गन्तुं स्वेन च तत्र वै ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले-तदनन्तर भगवान् शम्भुने नन्दी आदि सब गणोंको बुलाकर अपने साथ उन्हें वहाँ चलनेकी आज्ञा दी ॥ १ ॥ शिव उवाच अपि यूयं सह मया सङ्गच्छध्वं गिरेः पुरम् । कियद्गणानिहास्थाप्य महोत्सवपुरःसरम् ॥ २ ॥ शिवजी बोले-तुमलोग कुछ गणोंको यहीं रोककर महोत्सव करते हुए मेरे साथ हिमाचलपुरीको चलो ॥ २ ॥ ब्रह्मोवाच अथ ते समनुज्ञप्ता गणेशा निर्ययुर्मुदा । स्वं स्वं बलमुपादाय तान् कथञ्चिद्वदाम्यहम् ॥ ३ ॥ ब्रह्माजी बोले-शिवजीकी आज्ञा पाकर सभी गणेश्वर अपनी-अपनी टोली लेकर प्रसन्नतापूर्वक चलने लगे, मैं कुछ अंशमें उनका वर्णन करता हूँ- ॥ ३ ॥ अभ्यगाच्छङ्खकर्णश्च गणकोट्या गणेश्वरः । शिवेन सार्द्धं सङ्गन्तुं हिमाचलपुरं प्रति ॥ ४ ॥ दशकोट्या केकराक्षो गणानां समहोत्सवः । अष्टकोट्या च विकृतो गणानां गणनायकः ॥ ५ ॥ शंखकर्ण नामक गणेश्वर अपने एक करोड़ गाँसहित शिवजीके साथ हिमालयपुरीको चलनेके लिये उद्यत हुआ । केकराक्ष नामक गणराज दस करोड़ गणोंके साथ महान् उत्सवसे चला । इसी प्रकार विकृत नामक गणराज भी आठ करोड़ गणोंके साथ चला ॥ ४-५ ॥ चतुष्कोट्या विशाखश्च गणानां गणनायकः । पारिजातश्च नवभिः कोटिभिर्गणपुङ्गवः ॥ ६ ॥ गणनायक विशाख चार करोड़ गणोंके साथ तथा गण श्रेष्ठ पारिजात नौ करोड़ गणोंके साथ चले ॥ ६ ॥ षष्टिः सर्वान्तकः श्रीमान् तथैव विकृताननः । गणानान्दुन्दुभोऽष्टाभिः कोटिभिर्गणनायकः ॥ ७ ॥ पञ्चभिश्च कपालाख्यो गणेशः कोटिभिस्तथा । षड्भिःसन्दारको वीरो गणानां कोटिभिर्मुने ॥ ८ ॥ श्रीमान् सर्वान्तक तथा विकृतानन साठ-साठ करोड़ गण लेकर चले । दुन्दुभ नामक गणनायक आठ करोड़ गणोंके साथ चला । हे मुने ! कपाल नाम गणेश्वर पाँच करोड़ गणोंके साथ और बीर सन्दारक छ: करोड़ गणोंको साथ लेकर चले ॥ ७-८ ॥ कोटिकोटिभिरेवेह कन्दुकः कुण्डकस्तथा । विष्टम्भो गणपोऽष्टाभिर्गणानां कोटिभिस्तथा ॥ ९ ॥ कन्दुक तथा कुण्डक एक-एक करोड़ गणोंके साथ और गणेश्वर विष्टम्भ आठ करोड़ गणोंके साथ चले ॥ ९ ॥ सहस्रकोट्या गणपः पिप्पलो मुदितो ययौ । तथा सनादको वीरो गणेशो मुनिसत्तम ॥ १० ॥ हे मुनिसत्तम ! पिप्पल नामक गणेश्वर एक सहस्रकोटि गणोंके साथ और इतने ही गणोंके साथ वीर गणेश्वर सनादक प्रसन्नतापूर्वक चले ॥ १० ॥ आवेशनस्तथाष्टाभिः कोटिभिर्गणनायकः । महाकेशः सहस्रेण कोटीनां गणपो ययौ ॥ ११ ॥ गणेश्वर आवेशन आठ करोड़ गणोंके साथ तथा गणाधीश महाकेश सहस्र कोटि गणों के साथ चले ॥ ११ ॥ कुण्डो द्वादशकोट्या हि तथा पर्वतको मुने । अष्टाभिः कोटिभिर्वीरःसमगाच्चन्द्रतापनः ॥ १२ ॥ हे मुने ! इसी प्रकार कुण्ड और पर्वतक बारह करोड़ गोंको तथा वीर चन्द्रतापन आठ करोड़ गणोंको साथ लेकर चले ॥ १२ ॥ कालश्च कालकश्चैव महाकालः शतेन वै । कोटीनां गणनाथो हि तथैवाग्निकनामकः ॥ १३ ॥ काल, कालक, महाकाल तथा अग्निक नामक गणनायक सौ-सौ करोड़ गणोंको साथ लेकर चले ॥ १३ ॥ कोट्यग्निमुख एवागाद् गणानां गणनायकः । आदित्यमूर्द्धा कोट्या च तथा चैव घनावहः ॥ १४ ॥ इसी प्रकार अग्निमुख, आदित्यमूर्धा तथा घनावह एक-एक करोड़ गणोंको साथ लेकर चले ॥ १४ ॥ सन्नाहः शतकोट्या हि कुमुदो गणपस्तथा । अमोघः कोकिलश्चैव शतकोट्या गणाधिपः ॥ १५ ॥ सुमन्त्रः कोटिकोट्या च गणानां गणानायकः । काकपादोदरः कोटिषष्ट्या सन्तानकस्तथा ॥ १६ ॥ सन्नाह, कुमुद, अमोघ और कोकिल नामक गणराज सौ-सौ करोड़ गण लेकर चले । गणाध्यक्ष सुमन्त्र करोड़ों-करोड़ों गणोंको लेकर तथा काकपादोदर एवं सन्तानक साठ करोड़ गणोंको लेकर चले ॥ १५-१६ ॥ महाबलश्च नवभिर्मधुपिङ्गश्च कोकिलः । नीलो नवत्या कोटीनां पूर्णभद्रस्तथैव च ॥ १७ ॥ महाबल नौ करोड़ और मधुपिंग, कोकिल, नील तथा पूर्णभद्र नब्बे करोड़ गणोंके साथ चले ॥ १७ ॥ सप्तकोट्या चतुर्वक्त्रः करणो विंशकोटिभिः । ययौ नवतिकोट्या तु गणेशानोऽहिरोमकः ॥ १८ ॥ चतुर्वक्त्र सात करोड़, करण बीस करोड़ तथा गणेश्वर नब्बे करोड़ गणोंके साथ चले ॥ १८ ॥ यज्वाक्षः शतमन्युश्च मेघमन्युश्च नारद । तावत्कोट्या ययुः सर्वे गणेशा हि पृथक् पृथक् ॥ १९ ॥ इसी प्रकार हे नारद ! यज्वाक्ष, शतमन्यु एवं मेघमन्यु-ये सभी गणेश्वर नब्बे-नब्बे करोड़ गणोंके साथ पृथक्-पृथक् चले ॥ १९ ॥ काष्ठाङ्गुष्ठश्चतुष्षष्ट्या कोटीनां गणनायकः । विरूपाक्षः सुकेशश्च वृषभश्च सनातनः ॥ २० ॥ गणनायक काष्ठांगुष्ठ, विरूपाक्ष, सुकेश, सनातन और वृषभ चौंसठ करोड़ गणोंके साथ चले ॥ २० ॥ तालकेतुः षडास्यश्च चञ्च्वास्यश्च सनातनः । संवर्तकस्तथा चैत्रो लकुलीशः स्वयम्प्रभुः ॥ २१ ॥ लोकान्तकश्च दीप्तात्मा तथा दैत्यान्तको मुने । देवो भृङ्गिरिटिः श्रीमान्देवदेवप्रियस्तथा ॥ २२ ॥ अशनिर्भानुकश्चैव चतुष्षष्ट्या सहस्रशः । ययुः शिवविवाहार्थं शिवेन सहसोत्सवाः ॥ २३ ॥ हे मुने ! तालकेतु, षण्मुख, चंचुमुख, सनातन, संवर्तक, चैत्र, लकुलीश, स्वयंप्रभु, लोकान्तक, दीप्तात्मा, दैत्यान्तक, देव भूगिरिटि, श्रीमान्, देवदेवप्रिय, अशनि, भानुक आदि चौंसठ हजार गणोंके साथ बड़े उत्साहसे शिवजीके विवाहके लिये उनके साथ चले ॥ २१-२३ ॥ भूतकोटिसहस्रेण प्रमथाः कोटिभिस्त्रिभिः । वीरभद्रश्चतुःषष्ट्या रोमजानान्त्रिकोटिभिः ॥ २४ ॥ प्रमथगण सहस्रों भूतगणोंके साथ तथा तीन करोड़ अपने गणोंके साथ चले । वीरभद्र चौंसठ करोड़ गणोंके साथ तथा तीन करोड़ रोमज प्रेतगणोंको साथ लेकर चले ॥ २४ ॥ कोटिकोटिसहस्राणां शतैर्विंशतिभिर्वृताः । तत्र जग्मुश्च नन्द्याद्या गणपाः शंकरोत्सवे ॥ २५ ॥ इसी प्रकार नन्दी आदि गणेश्वर भी एक सौ बीस हजार करोड़ गोंसे युक्त होकर शंकरके उत्सवमें चले ॥ २५ ॥ क्षेत्रपालो भैरवश्च कोटिकोटिगणैर्युतः । उद्वाहः शंकरस्येत्याययौ प्रीत्या महोत्सवः ॥ २६ ॥ एते चान्ये च गणपा असङ्ख्याता महाबलाः । तत्र जग्मुर्महाप्रीत्या सोत्साहाः शंकरोत्सवे ॥ २७ ॥ यह शंकरका विवाह महोत्सव है-ऐसा जानकर क्षेत्रपाल, भैरव करोड़-करोड़ गणोंके साथ प्रीतिपूर्वक आये । ये गण तथा शिवके असंख्य गण जो अत्यन्त बलवान् थे, वे उत्साह तथा प्रीतिसे युक्त हो शिवजीके विवाहोत्सवमें वहाँ गये ॥ २६-२७ ॥ सर्वे सहस्रहस्ताश्च जटामुकुटधारिणः । चन्द्ररेखावतंसाश्च नीलकण्ठास्त्रिलोचनाः ॥ २८ ॥ रुद्राक्षाभरणाःसर्वे तथा सद्भस्मधारिणः । हारकुण्डलकेयूरमुकुटाद्यैरलङ्कृताः ॥ २९ ॥ ब्रह्मविष्ण्विन्द्रसङ्काशा अणिमादिगुणैर्युताः । सूर्यकोटिप्रतीकाशास्तत्र रेजुर्गणेश्वराः ॥ ३० ॥ इन सभी गणेश्वरोंके हजारों हाथ थे तथा वे सिरपर जटामुकुट धारण किये हुए थे । वे मस्तकपर चन्द्ररेखा धारण किये हुए थे, नीले कण्ठसे युक्त थे तथा तीन नेत्रोंवाले थे । वे सब आभूषणके रूपमें रुद्राक्ष धारण किये हुए थे । उत्तम भस्म लगाये हुए थे । हार, कुण्डल, केयूर तथा मुकुटसे अलंकृत थे । इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा इन्द्रके समान अणिमादि गुणोंसे अलंकृत कोटि सूर्यके समान देदीप्यमान वे सभी गणेश्वर शोभासे समन्वित थे ॥ २८-३० ॥ पृथिवीचारिणः केचित् केचित्पातालचारिणः । केचिद्व्योमचराः केचित्सप्तस्वर्गचरा मुने ॥ ३१ ॥ किं बहूक्तेन देवर्षे सर्वलोकनिवासिनः । आययुःस्वगणाः शम्भोः प्रीत्या वै शङ्करोत्सवे ॥ ३२ ॥ हे मुने ! इनमें कुछ पृथिवीपर, कुछ पातालमें चलनेवाले तथा कोई आकाशगामी तथा कोई सप्तस्वर्गमें विचरण करनेवाले थे । हे देवर्षे ! मैं बहुत वर्णन क्या करूँ, सभी लोकोंमें रहनेवाले वे सभी गणेश्वर शिवके विवाहका महोत्सव देखनेके लिये बड़े प्रेमसे आये ॥ ३१-३२ ॥ इत्थं देवैर्गणैश्चान्यैःसहितः शङ्करः प्रभुः । ययौ हिमगिरिपुरं विवाहार्थं निजस्य वै ॥ ३३ ॥ यदाजगाम सर्वेशो विवाहार्थे सुरादिभिः । तदा तत्र ह्यभूद्वृत्तं तच्छृणु त्वं मुनीश्वर ॥ ३४ ॥ इस प्रकार इन देवताओं तथा गणोंसे युक्त भगवान् सदाशिवने अपना विवाह करनेके लिये हिमालयके नगरको प्रस्थान किया । हे मुनीश्वर ! जिस समय सर्वेश्वर शिवजी देवताओं एवं गणोंके साथ विवाहके लिये चले, उस समयका वृत्तान्त सुनिये ॥ ३३-३४ ॥ रुद्रस्य भगिनी भूत्वा चण्डी सूत्सवसंयुता । तत्राजगाम सुप्रीत्या परेषां सुभयावहा ॥ ३५ ॥ शत्रुओंको भय देनेवाली चण्डी रुद्रकी भगिनी बनकर उत्सव मनाती हुई बड़े प्रेमके साथ वहाँ आयी ॥ ३५ ॥ प्रेतासनसमारूढा सर्पाभरणभूषिता । पूर्णं कलशमादाय हैमं मूर्ध्नि महाप्रभम् ॥ ३६ ॥ स्वपरीवारसंयुक्ता दीप्तास्या दीप्तलोचना । कुतूहलं प्रकुर्वन्ती जातहर्षा महाबला ॥ ३७ ॥ वह चण्डी प्रेतके आसनपर सवार थी; सर्पका आभूषण पहने हुई थी और सिरपर महादेदीप्यमान जलपूर्ण कलश धारण किये हुई थी । वह अपने परिवारसे युक्त थी । उसके मुख तथा नेत्रसे अग्निकी ज्वाला निकल रही थी । वह बलशालिनी हर्षसे युक्त होकर नाना प्रकारके कुतूहल कर रही थी ॥ ३६-३७ ॥ तत्र भूतगणा दिव्या विरूपाः कोटिशो मुने । विराजन्ते स्म बहुशस्तथा नानाविधास्तदा ॥ ३८ ॥ हे मुने ! वहाँ विकृत वेष धारण किये हुए अनेक प्रकारके करोड़ों दिव्य भूतगण शोभित हो रहे थे ॥ ३८ ॥ तैःसमेताग्रतश्चण्डी जगाम विकृतानना । कुतूहलान्विता प्रीता प्रीत्युपद्रवकारिणी ॥ ३९ ॥ इन भूतगणोंको साथ लेकर भयानक मुखवाली उपद्रवकारिणी वह चण्डी कुतूहल करती हुई प्रसन्नतापूर्वक वहाँ गयी ॥ ३९ ॥ चण्ड्या सर्वे रुद्रगणाः पृष्ठतश्च कृतास्तदा । कोट्येकादशसङ्ख्याका रौद्ररुद्रप्रियाश्च ते ॥ ४० ॥ उस चण्डीने रुद्रमें अनन्य प्रीति करनेवाले ग्यारह हजार करोड़ रुद्रगणोंको अपने पीछे कर लिया ॥ ४० ॥ तदा डमरुनिर्घोषैर्व्याप्तमासीज्जगत्त्रयम् । भेरीझङ्कारशब्देन शङ्खानां निनदेन च ॥ ४१ ॥ उस समय डमरूके शब्द, भेरियोंकी गड़गड़ाहट और शंखोंके नादसे तीनों लोक गूंज रहे थे ॥ ४१ ॥ तथा दुन्दुभिनिर्घोषैः शब्दः कोलाहलोऽभवत् । कुर्वञ्जगन्मंगलं च नाशयेन्मंगलेतरत् ॥ ४२ ॥ गणानां पृष्ठतो भूत्वा सर्वे देवाःसमुत्सुकाः । अन्वयुःसर्वसिद्धाश्च लोकपालादिका मुने ॥ ४३ ॥ इसी प्रकार दुन्दुभिके निर्घोषसे बहुत बड़ा कोलाहल हुआ, जो जगत्में मंगल करनेवाला तथा अमंगलका विनाशक था । मुने ! बरातमें गणोंके पीछे होकर सभी देवता, सिद्धगण तथा लोकपाल अत्यन्त उत्कण्ठाके साथ चलने लगे ॥ ४२-४३ ॥ मध्ये व्रजन् रमेशोऽथ गरुडासनमाश्रितः । शुशुभे ध्रियमाणेन क्षत्रेण महता मुने ॥ ४४ ॥ चामरैर्वीज्यमानोऽसौ स्वगणैः परिवारितः । पार्षदैर्विलसद्भिश्च स्वभूषाविधिभूषितः ॥ ४५ हे मुने ! बरातके मध्यभागमें बहुत बड़े छत्रसे शोभित गरुड़ासनपर बैठे हुए भगवान् वैकुण्ठनाथ विष्णु विविध प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित होकर चल रहे थे । उनके अगल-बगल पार्षद धेरै हुए थे तथा उनके दोनों ओर चैंबर डुलाये जा रहे थे । ४४-४५ ॥ तथाहमप्यशोभं वै व्रजन्मार्गे विराजितः । वेदैर्मूर्तिधरैः शास्त्रैः पुराणैरागमैस्तथा ॥ ४६ ॥ सनकादिमहासिद्धैः सप्रजापतिभिः सुतैः । परिवारैः संयुतो हि शिवसेवनतत्परः ॥ ४७ ॥ स्वसैन्यमध्यगः शक्र ऐरावतगजस्थितः । नानाविभूषितोऽत्यन्तं व्रजन् रेजे सुरेश्वरः ॥ ४८ ॥ विग्रहधारी वेदों, शास्त्रों, पुराणों, आगमों तथा सनक आदि महासिद्धों, प्रजापतियों, पुत्रों और परिवारके साथ मैं भी शिवजीकी सेवामें तत्पर हो मार्गमें शोभासम्पन्न होकर चल रहा था । ऐरावत हाथीपर आरूढ़ देवराज इन्द्र अनेक प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित होकर सेनाके मध्यमें चलते हुए शोभा पा रहे थे । ४६-४८ ॥ तदा तु व्रजमानास्ते ऋषयो बहवश्च ते । विरेजुरतिसोत्कण्ठः शिवस्योद्वाहनं प्रति ॥ ४९ ॥ उस समय विवाह देखनेकी उत्कण्ठासे बहुत-से ऋषिगण भी मार्गमें जाते हुए शोभा पा रहे थे ॥ ४९ ॥ शाकिन्यो यातुधानाश्च वेतालाब्रह्मराक्षसाः । भूतप्रेतपिशाचाश्च तथान्ये प्रमथादयः ॥ ५० ॥ तुम्बुरुर्नारदो हाहहूहूश्चेत्यादयो वराः । गन्धर्वाः किन्नरा जग्मुर्वाद्यानाध्माय हर्षिताः ॥ ५१ ॥ इसी प्रकार शाकिनी, यातुधान, वेताल, ब्रह्मराक्षस, भूत, प्रेत, पिशाच, प्रमथ, तुम्बुरु, नारद, हाहा, हूहू आदि श्रेष्ठ गन्धर्व एवं किन्नरगण हर्षित होकर बाजा बजाते हुए चले ॥ ५०-५१ ॥ जगतो मातरः सर्वा देवकन्याश्च सर्वशः । गायत्री चैव सावित्री लक्ष्मीरन्याः सुरस्त्रियः ॥ ५२ ॥ एताश्चान्याश्च देवानां पत्नयो भवमातरः । उद्वाहः शंकरस्येति जग्मुःसर्वा मुदान्विताः ॥ ५३ ॥ सम्पूर्ण जगत्की माताएँ, देवकन्याएँ, गायत्री, सावित्री, लक्ष्मी, अन्य देवस्त्रियाँ-ये सब तथा अन्य देवपत्नियाँ और जगन्माताएँ शंकरजीका विवाह हो रहा है-ऐसा जानकर प्रसन्नतापूर्वक वहाँ गयीं ॥ ५२-५३ ॥ शुद्धस्फटिकसङ्काशो वृषभः सर्वसुन्दरः । यो धर्म उच्यते वेदैः शास्त्रैःसिद्धमहर्षिभिः ॥ ५४ ॥ तमारूढो महादेवो वृषभं धर्मवत्सलः । शुशुभेतीव देवर्षिसेवितः सकलैर्व्रजन् ॥ ५५ ॥ एभिःसमेतैःसफलैमहर्षिभि- र्बभौ महेशो बहुशोऽत्यलङ्कृतः । हिमालयाह्वस्य धरस्य संव्रजन् पाणिग्रहार्थं सदनं शिवायाः ॥ ५६ ॥ शुद्ध स्फटिकके समान सर्वसुन्दर वृषभ, जिसे वेदों, शास्त्रों तथा महर्षियोंने धर्म कहा है, उसपर सवार होकर धर्मवत्सल भगवान् शिवजी सम्पूर्ण देवगणों तथा ऋषियोंसे सेवित हो मार्गमें चलते हुए अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे । इन सभी देवगणों, महर्षियों तथा गणोंके साथ अलंकृत हुए शिवजी पार्वतीसे विवाह करनेके लिये हिमाचलके घर जाते हए मार्गमें अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे ॥ ५४-५६ ॥ इत्युक्तं शम्भुचरितं गमनं परमोत्सवम् । हिमालयपुरोद्भूतं सद्वृत्तं शृणु नारद ॥ ५७ ॥ हे नारद ! इस प्रकार मैंने शिवजीके वरयात्रा प्रस्थानका आपसे वर्णन किया, अब हिमालयके नगरमें जो शिवचरित्र हुआ, उस वृत्तान्तको सुनिये ॥ ५७ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखण्डे यात्रावर्णनं नाम चत्वारिशोऽध्यायः ॥ ४० ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें शिवयात्रावर्णन नामक चालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४० ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |