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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे

एकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥

विवाहमण्डपं दृष्ट्‍वादेवानां मोहवर्णनम् -
नारदद्वारा हिमालयगृहमें जाकर विश्वकर्माद्वारा बनाये गये विवाहमण्डपका दर्शनकर मोहित होना और वापस आकर उस विचित्र रचनाका वर्णन करना -


ब्रह्मोवाच
ततः सम्मन्त्र्य च मिथः प्राप्याज्ञां शाङ्‌करीं हरिः ।
मुने त्वां प्रेषयामास प्रथमं कुधरालयम् ॥ १ ॥
अथ प्रणम्य सर्वेशं गतस्त्वं नारदाग्रतः ।
हरिणा नोदितः प्रीत्या हिमाचलगृहं प्रति ॥ २ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! उसके बाद आपसमें विचार-विमर्शकर शंकरजीकी आज्ञा लेकर भगवान् विष्णुने पहले आपको हिमालयके घर भेजा । हे नारद ! भगवान् श्रीहरिकी प्रेमपूर्ण प्रेरणासे सर्वेश्वर शिवको प्रणामकर आप बरातसे आगे हिमालयके नगरको चले ॥ १-२ ॥

त्वं मुनेऽपश्य आत्मानं गत्वा तद्‌व्रीडयान्वितम् ।
कृत्रिमं रचितं तत्र विस्मितो विश्वकर्मणा ॥ ३ ॥
श्रान्तस्त्वमात्मना तेन कृत्रिमेण महामुने ।
अवलोकपरः सोऽभूच्चरितं विश्वकर्मणः ॥ ४ ॥
प्रविष्टो मण्डपं तस्य हिमाद्रे रत्नचित्रितम् ।
सुवर्णकलशैर्जुष्टं रम्भादिबहुशोभितम् ॥ ५ ॥
हे मुने ! वहाँ जाकर आपने विश्वकर्माद्वारा रचित लज्जाकी मुद्रासे युक्त अपनी कृत्रिम मूर्ति देखी और उसे देखते ही आप विस्मित हो गये । हे महामुने ! विश्वकर्माद्वारा बनायी गयी अपनी मूर्तिको देखकर तथा विश्वकर्माका सारा चरित्र जानकर आप श्रान्त हो गये । तत्पश्चात् आपने स्वर्णकलशोंसे एवं केलेके खम्भोंसे अत्यन्त मण्डित रत्नचित्रित हिमालयके मण्डपमें प्रवेश किया ॥ ३-५ ॥

सहस्रस्तम्भसंयुक्तं विचित्रं परमाद्‌भुतम् ।
वेदिकां च तथा दृष्ट्‍वा विस्मयं त्वं मुने ह्ययाः ॥ ६ ॥
वह मण्डप अति अद्‌भुत, नाना प्रकारके चित्रोंसे अलंकृत तथा हजारों खम्भोंसे युक्त था । उसमें बनी हुई वेदी देखकर आप आश्चर्यमें पड़ गये ॥ ६ ॥

तदावोचश्च स मुने नारद त्वं नगेश्वरम् ।
विस्मितोऽतीव मनसि नष्टज्ञानो विमूढधीः ॥ ७ ॥
हे मुने ! हे नारद ! उस विस्मयके कारण आपका ज्ञान एवं बुद्धि नष्ट हो गयी, पुन: आपने हिमालयसे पूछा- ॥ ७ ॥

आगतास्ते किमधुना देवा विष्णुपुरोगमाः ।
तथा महर्षयः सर्वे सिद्धा उपसुरास्तथा ॥ ८ ॥
महादेवो वृषारूढो गणैश्च परिवारितः ।
आगतः किं विवाहार्थं वद तथ्यं नगेश्वर ॥ ९ ॥
हे हिमालय ! क्या इस समय विष्णु आदि सभी देवता, महर्षि, सिद्ध एवं गन्धर्व यहाँ पहुँच गये हैं ? हे पर्वतराज ! क्या विवाहहेतु श्वेत बैलपर सवार होकर गणेश्वरोंसे युक्त सदाशिव पधार चुके हैं ? यह बात आप सत्य-सत्य कहिये ॥ ८-९ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्येवं वचनं श्रुत्वा तव विस्मित चेतसः ।
उवाच त्वां मुने तथ्यं वाक्यं स हिमवान् गिरिः ॥ १० ॥
। ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! विस्मितचित्त हुए आपके इस प्रकारके वचनको सुनकर पर्वत हिमालय आपसे तथ्ययुक्त वचन कहने लगे- ॥ १० ॥

हिमवानुवाच
हे नारद महाप्राज्ञागतो नैवाधुना शिवः ।
विवाहार्थं च पार्वत्याः सगणः सवरातकः ॥ ११ ॥
हिमवान् बोले-हे नारद ! हे महाप्राज्ञ ! अभी पार्वतीके विवाहके लिये अपने गणों तथा बरातियोंको लेकर शिवजी नहीं आये हैं ॥ ११ ॥

विश्वकर्मकृतं चित्रं विद्धि नारद सद्धिया ।
विस्मयं त्यज देवर्षे स्वस्थो भव शिवं स्मर ॥ १२ ॥
हे नारद ! आप उत्तम बुद्धिसे विश्वकर्माक द्वारा रचित चित्र जानिये । हे देवर्षे ! आप आश्चर्यका त्याग कीजिये, स्वस्थ हो जाइये और शिवका स्मरण कीजिये ॥ १२ ॥

भुक्त्वा विश्रम्य सुप्रीतः कृपां कृत्वा ममोपरि ।
मैनाकादिधरैः सार्द्धं गच्छ त्वं शंकरान्तिकम् ॥ १३ ॥
आप मुझपर कृपाकर भोजन तथा विश्राम करके मैनाक आदि पर्वतोंके साथ शंकरके समीप जाना ॥ १३ ॥

एभिःसमेतो गिरिभिर्महामते
     सम्प्रार्थ्य शीघ्रं शिवमत्र चानय ।
देवैःसमेतं च महर्षिसङ्‌घैः
     सुरासुरैरर्चितपादपल्लवम् ॥ १४ ॥
हे महामते ! जिनके चरणकमलकी अर्चना देवता तथा असुर भी किया करते हैं उन शिवकी प्रार्थनाकर आप इन पर्वतोंको साथ लेकर देवताओं तथा महर्षियोंसहित उन्हें यहाँ शीघ्र ले आइये ॥ १४ ॥

ब्रह्मोवाच
तथेति चोक्त्वागम आशु हि त्वं
     सदैव तैः शैलसुतादिभिश्च ।
तत्रत्यकृत्यं सुविधाय भुक्त्वा
     महामनास्त्वं शिवसन्निधानम् ॥ १५ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] तब आपने 'तथास्तु' कहा और वहाँका सारा कृत्य अच्छी तरह सम्पन्नकर भोजन करके महामनस्वी आप हिमालयके पुत्रोंसहित बड़ी प्रसन्नतासे शीघ्र शिवजीके समीप गये ॥ १५ ॥

तत्र दृष्टो महादेवो देवादिपरिवारितः ।
नमस्कृतस्त्वया दीप्तः शैलैस्तैर्भक्तितश्च वै ॥ १६ ॥
वहाँ आपने देवताओंसे घिरे हुए महादेवजीको देखा । आपने तथा उन पर्वतोंने भक्तिसे उन कान्तिमान् शिवको प्रणाम किया ॥ १६ ॥

तदा मया विष्णुना च सर्वे देवाः सवासवाः ।
पप्रच्छुस्त्वां मुने सर्वे रुद्रस्यानुचरास्तथा ॥ १७ ॥
विस्मिताः पर्वतान्दृष्ट्‍वा सन्देहाकुलमानसाः ।
मैनाकसह्यमेर्वाद्यान्नानालङ्‌कारसंयुतान् ॥ १८ ॥
तत्पश्चात् हे मुने ! अनेक प्रकारके अलंकारोंसे युक्त मैनाक, सह्य, मेरु आदि पर्वतोंको देखकर सन्देहसे आकुल मनवाले मैंने, विष्णुने तथा इन्द्रसे युक्त देवताओं एवं रुद्रानुचरोंने विस्मित होकर आपसे पूछा- ॥ १७-१८ ॥

देवा ऊचुः
हे नारद महाप्राज्ञ विस्मितस्त्वं हि दृश्यसे ।
सत्कृतोऽसि हिमागेन किं न वा वद विस्तरात् ॥ १९ ॥
एते कस्मात्समायाताः पर्वता इह सत्तमाः ।
मैनाकसह्यमेर्वाद्याः सुप्रतापाः स्वलङ्‌कृताः ॥ २० ॥
कन्यां दास्यति शैलोऽसौ शंभवे वा न नारद ।
हिमालयगृहे तात किं भवत्यद्य तद्वद ॥ २१ ॥
देवता बोले-हे नारद ! हे महाप्राज्ञ ! आप तो आश्चर्यसे चकित दिखायी पड़ते हैं, हिमालयने आपका सत्कार किया या नहीं । हमलोगोंको यह विस्तारपूर्वक बताइये । ये महाबली मैनाक, सहा तथा मेरु आदि पर्वत अनेक अलंकार धारणकर यहाँ किस उद्देश्यसे आये हैं । हे नारद ! आप यह भी बताइये कि पर्वतराज हिमालयका विचार शिवजीको कन्या देनेका है या नाहीं ? हे तात ! इस समय हिमालयके यहाँ क्या हो रहा है, यह सब विस्तारसे कहिये ॥ १९-२१ ॥

इति सन्दिग्धमनसामस्माकं च दिवौकसाम् ।
वद त्वं पृच्छमानानां सन्देहं हर सुव्रत ॥ २२ ॥
हे सुव्रत ! हम देवताओंका मन अनेक प्रकारके सन्देहसे ग्रस्त हो रहा है, इसलिये हमलोग आपसे पूछ रहे हैं, आप हमारा सन्देह दूर करें ॥ २२ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तेषां विष्ण्वादीनान्दिवौकसाम् ।
अवोचस्तान्मुने त्वं हि विस्मितस्त्वाष्ट्रमायया ॥ २३ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! उन विष्णु आदि देवताओंका वचन सुनकर विश्वकर्माकी मायासे विस्मित हुए आपने उनसे कहा- ॥ २३ ॥

एकान्तमाश्रित्य च मां हि विष्णु-
     मभाषथा वाक्यमिदं मुने त्वम् ।
शचीपतिं सर्वसुरेश्वरं वै
     पक्षाच्छिदं पूर्वरिपुन्धराणाम् ॥ २४ ॥
हे मुने ! आप मुझ विष्णुको और सभी देवताओंके ईश्वर शचीके पति, पर्वतोंके पूर्व शत्रु तथा पर्वतोंके पक्षाको काटनेवाले इन्द्रको एकान्तमें बुलाकर कहने लगे- ॥ २४ ॥

नारद उवाच
त्वष्ट्रा कृतन्तद्विकृतं विचित्रं
     विमोहनं सर्वदिवौकसां हि ।
येनैव सर्वान्स विमोहितुं सुरान्
     समिच्छति प्रेमत एव युक्त्या ॥ २५ ॥
नारदजी बोले-विश्वकर्माने हिमालयके घर जैसी कारीगरी की है, उसे देखते ही सभी देवगण मोहित हो जायेंगे । वे हिमालय तो उस कारीगरीके कौशलसे सारे देवताओंको प्रेमपूर्वक युक्तिसे मोहित करना चाहते हैं ॥ २५ ॥

पुरा कृतं तस्य विमोहनं त्वया
     सुविस्मृतं तत् सकलं शचीपते ।
तस्मादसौ त्वां विजिगीषुरेव
     गृहे ध्रुवं तस्य गिरेर्महात्मनः ॥ २६ ॥
अहं विमोहितस्तेन प्रतिरूपेण भास्वता ।
तथा विष्णुः कृतस्तेन ब्रह्मा शक्रोऽपि तादृशः ॥ २७ ॥
हे शचीपते ! आपने पूर्वकालमें विश्वकर्माको भुलावे में डाल दिया था, क्या उसे आप भूल गये हैं ? इसलिये वे आज आपको जीतनेकी इच्छासे हिमालयके घरमें विराजमान हैं । उन्होंने मेरा ऐसा चित्र बनाया है कि उसे देखकर मैं तो मोहित हो गया हूँ । इसी प्रकार उन्होंने विष्णु, ब्रह्मा तथा इन्द्र आदि देवताओंके चित्रका भी निर्माण किया है । २६-२७ ॥

किं बहूक्तेन देवेश सर्वदेवगणाः कृताः ।
कृत्रिमाश्चित्ररूपेण न किञ्चिदवशेषितम् ॥ २८ ॥
विमोहनार्थं सर्वेषां देवानां च विशेषतः ।
कृता माया चित्रमयी परिहासविकारिणी ॥ २९ ॥
हे देवेश ! अधिक कहनेसे क्या ! उन विश्वकर्माने सभी देवगणोंका चित्र इतनी कुशलतासे बनाया है कि वह यथार्थ देवताओंके रूपसे किंचिन्मात्र भी भिन्न नहीं जान पड़ता । उन्होंने परिहास करनेके लिये सभी देवताओंकी यह मायामयी चित्ररचना की है, जिससे देवताओंको मोह उत्पन्न हो जाय ॥ २८-२९ ॥

ब्रह्मोवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य देवेन्द्रो वाक्यमब्रवीत् ।
विष्णुम्प्रति तदा शीघ्रं भयाकुलतनुर्हरिम् ॥ ३० ॥
ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार नारदके वचनको सुनकर भयसे व्याकुल शरीरवाले देवेन्द्रने विष्णुकी ओर देखकर शीघ्रतासे कहा- ॥ ३० ॥

देवेन्द्र उवाच
देवदेव रमानाथ त्वष्टा मां निहनिष्यति ।
पुत्रशोकेन तप्तोऽसौ व्याजेनानेन नान्यथा ॥ ३१ ॥
देवेन्द्र बोले-हे देवदेव ! हे रमानाथ ! त्वष्टापुत्र विश्वकर्मा शोकसे व्याकुल हो मुझसे द्रोह करता है । कहीं ऐसा न हो कि वह इसी बहाने मेरा वध कर दे ॥ ३१ ॥

ब्रह्मोवाच
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा देवदेवो जनार्दनः ।
उवाच प्रहसन् वाक्यं शक्रमाश्वासयंस्तदा ॥ ३२ ॥
ब्रह्माजी बोले- उनका यह वचन सुनकर देवाधिदेव जनार्दन उन्हें समझाते हुए कहने लगे- ॥ ३२ ॥

विष्णुरुवाच
निवातकवचैः पूर्वं मोहितोऽसि शचीपते ।
महाविद्याबलेनैव दानवैः पूर्ववैरिभिः ॥ ३३ ॥
पर्वतो हिमवानेष तथान्येऽखिलपर्वताः ।
विपक्षा हि कृताः सर्वे मम वाक्याच्च वासव ॥ ३४ ॥
तेनुस्मृत्या तु वै दृष्ट्‍वा मायया गिरयो ह्यमी ।
जेतुमिच्छन्तु ये मूढा न भेतव्यमरावपि ॥ ३५ ॥
विष्णुजी बोले-हे शचीपते ! आपके वैरी निवात-कवचादि दानवगणोंने महाविद्याके बलसे पूर्वसमयमें भी आपको मोहित किया था । हे वासव ! इसी प्रकार आपने मेरी आज्ञासे पर्वतराज हिमालयके तथा अन्य दूसरे पर्वतोंके पंखका छेदन कर दिया है । इस कारण ये पर्वत भी उसी मायाको देखकर तथा सुनकर आपको जीतनेकी इच्छा करते हैं । ये सभी मूर्ख हैं और पराक्रम नहीं जानते हैं, अतः आप इनसे भयभीत न हों ॥ ३३-३५ ॥

ईश्वरो नो हि सर्वेषां शंकरो भक्तवत्सलः ।
सर्वथा कुशलं शक्र करिष्यति न संशयः ॥ ३६ ॥
हे देवेन्द्र ! इसमें कोई भी सन्देह नहीं कि भक्तवत्सल भगवान् सदाशिव हम सभीका मंगल करेंगे ॥ ३६ ॥

ब्रह्मोवाच
एवं संवदमानं तं शक्रं विकृतमानसम् ।
हरिणोक्तश्च गिरिशो लौकिकीं गतिमाश्रितः ॥ ३७ ॥
ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार व्याकुल हुए इन्द्रको देखकर विष्णुने उन्हें समझाया । तब लौकिक गतिका आश्रय लेनेवाले भगवान् शिव उनसे कहने लगे- ॥ ३७ ॥

ईश्वर उवाच
हे हरे हे सुरेशान किं ब्रूथोऽद्य परस्परम् ।
इत्युक्त्वा तौ महेशानो मुने त्वाम्प्रत्युवाच सः ॥ ३८ ॥
किंनु वक्ति महाशैलो यथार्थं वद नारद ।
वृत्तान्तं सकलं ब्रूहि न गोप्यं कर्तुमर्हसि ॥ ३९ ॥
ईश्वर बोले-हे हरे ! हे सुरपते ! आपलोग आपसमें क्या विचार-विमर्श कर रहे हैं ? [ब्रह्माजी बोले-] उन दोनोंसे इस प्रकार कहकर हे मुने ! पुनः उन्होंने आपसे कहा-हे नारद ! महाशैलने क्या कहा है, आप यथार्थ रूपसे सारा वृत्तान्त कहिये, आप उसे गुप्त न रखें ॥ ३८-३९ ॥

ददाति वा नैव ददाति शैलः
     सुतां स्वकीयां वद तच्च शीघ्रम् ।
किन्ते दृष्टं किं कृतन्तत्र गत्वा
     प्रीत्या सर्वं तद्वदाश्वद्य तात ॥ ४० ॥
आप शीघ्रतासे बताइये कि शैलराजकी कन्या देनेकी इच्छा है अथवा नहीं ? हे तात ! आपने वहाँ जाकर क्या देखा और क्या किया ? यह सारा वृत्तान्त प्रेमपूर्वक कहिये ॥ ४० ॥

ब्रह्मोवाच
हत्युक्तः शम्भुना तत्र मुने त्वन्देवदर्शनः ।
सर्वं रहस्यवोचो वै यद् दृष्टं तत्र मण्डपे ॥ ४१ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! जब शिवजीने आपसे यह कहा, तब दिव्य दृष्टिवाले आपने मण्डपमें जो कुछ देखा था, वह सब एकान्तमें इस प्रकार कहा- ॥ ४१ ॥

नारद उवाच
देवदेव महादेव शृणु मद्वचनं शुभम् ।
नास्ति विघ्नभयं नाथ विवाहे किञ्चिदेव हि ॥ ४२ ॥
नारदजी बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! आप मेरा शुभ वचन सुनें । इस विवाहमें किसी प्रकारके विघ्न दिखायी नहीं पड़ते और न तो किसी प्रकारका भय ही है ॥ ४२ ॥

अवश्यमेव शैलेशस्तुभ्यं दास्यति कन्यकाम् ।
त्वामानयितुमायाता इमे शैला न संशयः ॥ ४३ ॥
शैलराज निश्चित रूपसे आपको ही अपनी कन्या देना चाहते हैं और ये पर्वत इसी निमित्त आपको लेनेकी इच्छासे यहाँ आये हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४३ ॥

किन्तु ह्यमरमोहार्थं माया विरचिताद्‌भुता ।
कुतूहलार्थं सर्वज्ञ न कश्चिद्विघ्नसम्भवः ॥ ४४ ॥
हे सर्वज्ञ ! परंतु एक बात यह है कि कुतूहलवश वहाँ सभी देवताओंको मोहित करनेके लिये एक अद्‌भुत माया रची गयी है । इसके अतिरिक्त वहाँ और किसी प्रकारके विघ्नकी सम्भावना नहीं है ॥ ४४ ॥

विचित्रं मण्डपं गेहेऽकार्षीत्तस्य तदाज्ञया ।
विश्वकर्मा महामायी नानाश्चर्यमयं विभो ॥ ४५ ॥
सर्वदेवसमाजश्च कृतस्तत्र विमोहनः ।
तं दृष्ट्‍वा विस्मयं प्राप्तोहं तन्मायाविमोहितः ॥ ४६ ॥
हे विभो ! महामाया करनेवाले विश्वकर्माने हिमालयकी आज्ञासे उनके घरमें महान् आश्चर्ययुक्त मण्डपकी रचना की है । उस मण्डपमें विश्वकर्माने सारे देवसमाजके चित्रका निर्माण किया है, उसे देखकर मैं मोहित होकर आश्चर्यमें पड़ गया हूँ । ४५-४६ ॥

ब्रह्मोवाच
तच्छ्रुत्वा तद्वचस्तात लोकाचारकरः प्रभुः ।
हर्षादीन्प्रहसन् शम्भुरुवाच सकलान्सुरान् ॥ ४७ ॥
ब्रह्माजी बोले-नारदका वचन सुनकर लोकाचार करनेवाले प्रभु शिवजी विष्णु आदि देवताओंसे हँसते हुए कहने लगे- ॥ ४७ ॥

ईश्वर उवाच
कन्यां दास्यति चेन्मह्यं पर्वतो हि हिमाचलः ।
मायया मम किं कार्यं वद विष्णो यथातथम् ॥ ४८ ॥
ईश्वर बोले-हे विष्णो ! यदि पर्वत हिमालय मुझे अपनी कन्या देंगे, तो आप यथार्थ रूपसे बताइये कि मुझे मायासे क्या प्रयोजन है ? ॥ ४८ ॥

हे ब्रह्मन् शक्र मुनयः सुरा ब्रूत यथार्थतः ।
मायया मम किं कार्यं कन्यां दास्यति चेद्‌गिरिः ॥ ४९ ॥
हे ब्रह्मन् ! हे शक्र ! हे मुनिगण तथा हे देवताओ ! आपलोग यथार्थ रूपसे कहिये कि हिमालय मुझे अपनी कन्या दे रहे हैं, तो मायासे मेरा क्या प्रयोजन है ? ॥ ४९ ॥

केनाप्युपायेन फलं हि साध्य-
     मित्युच्यते पण्डितैर्न्यायविद्‌भिः ।
तस्मात्सर्वैर्गम्यतां शीघ्रमेव
     कार्यार्थिभिर्विष्णुपुरोगमैश्च ॥ ५० ॥
न्यायशास्त्रके जानकार पण्डितोंने कहा है कि जिस किसी उपायसे अपने साध्यको प्राप्त करना चाहिये । अतः आप सभी विष्णु आदि देवगण इस कार्यसिद्धिकी इच्छासे शीघ्र ही चलें ॥ ५० ॥

ब्रह्मोवाच
एवं संवदमानोऽसौ देवैः शम्भुरभूत्तदा ।
कृतः स्मरेणैव वशी वशं वा प्राकृतो नरः ॥ ५१ ॥
अथ शम्भ्वाज्ञया सर्वे विष्ण्वाद्या निर्जरास्तदा ।
ऋषयश्च महात्मानो ययुर्मोहभ्रमावहम् ॥ ५२ ॥
ब्रह्माजी बोले-देवताओंसे इस प्रकार कहनेवाले जितेन्द्रिय भगवान् सदाशिवको कामदेवने साधारण मनुष्यके सम्मान अपने वशमें कर लिया । उसके बाद शिवजीकी आज्ञासे विष्णु आदि देवता एवं ऋषिगण भ्रान्त तथा मोहित करनेवाले हिमालय-गृहकी ओर गये ॥ ५१-५२ ॥

पुरस्कृत्य मुने त्वां च पर्वतांस्तान्सविस्मयाः ।
हिमाद्रेश्च तदा जग्मुर्मन्दिरं परमाद्‌भुतम् ॥ ५३ ॥
हे मुने ! उन देवताओंने आप नारदको तथा उन पर्वतोंको आगेकर आश्चर्यचकित हो हिमालयके अपूर्व एवं परम अद्‌भुत मन्दिरकी ओर प्रस्थान किया ॥ ५३ ॥

अथ विष्ण्वादिसंयुक्तो मुदितैःस्वबलैर्युतः ।
आजगामोपहैमागपुरं प्रमुदितो हरः ॥ ५४ ॥
इस प्रकार हर्षमें भरे हुए विष्णु आदि देवताओं तथा प्रसन्नतासे युक्त अपने गणोंके साथ वे शिवजी आनन्दित होकर हिमालयके नगरके समीप आ गये ॥ ५४ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये
पार्वतीखण्डे मण्डपरचनावर्णनं नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४१ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुतसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें मण्डपरचनावर्णन नामक इकतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४१ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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