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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे
द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ देवगिरिमिलापवर्णनम् -
हिमालयद्वारा प्रेषित मूर्तिमान् पर्वतों और ब्राह्मणोंद्वादा बरातकी अगवानी, देवताओं और पर्वतोंके मिलापका वर्णन - ब्रह्मोवाच अथाकर्ण्य गिरीशश्च निजपुर्युपकण्ठतः । प्राप्तमीशं सर्वगं वै मुमुदेऽति हिमालयः ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले-गिरिराज हिमालय सर्वव्यापी शिवजीको अपने नगरके निकट आया हुआ सुनकर बड़े प्रसन्न हुए ॥ १ ॥ अथ सम्भृतसम्भारः सम्भाषां कर्तुमीश्वरम् । शैलान्प्रस्थापयामास ब्राह्मणानपि सर्वशः ॥ २ ॥ स्वयं जगाम सद्भक्त्या प्राणेप्सुन्द्रष्टुऽमीश्वरम् । भक्त्युद्रुतमनाः शैलः प्रशंसन् स्वविधिं मुदा ॥ ३ ॥ तदनन्तर उन्होंने सभी सामग्री एकत्रित करके परमेश्वरकी अगवानी करनेके लिये बहुत-से ब्राह्मणों तथा पर्वतोंको भेजा और प्राणोंसे प्रिय ईश्वरका दर्शन करनेके लिये भक्तिसे परिपूर्ण हृदयवाले वे हिमालय अपने भाग्यकी प्रशंसा करते हुए प्रसन्नतापूर्वक स्वयं भी गये । २-३ ॥ देवसेनां तदा दृष्ट्वा हिमवान्विस्मयं गतः । जगाम सम्मुखस्तत्र धन्योऽहमिति चिन्तयन् ॥ ४ ॥ देवा हि तद्बलं दृष्ट्वा विस्मयम्परमं गताः । आनन्दं परमं प्रापुर्देवाश्च गिरयस्तथा ॥ ५ ॥ उस समय देवसेनाको देखकर हिमवान् विस्मित हो गये और मैं धन्य हूँ-ऐसा सोचते हुए वे उनके सामने गये । देवता भी हिमालयकी [विशाल] सेनाको देखकर आश्चर्यचकित हो गये । इस प्रकार देवताओं तथा पर्वतोंको परम आनन्द प्राप्त हुआ ॥ ४-५ ॥ पर्वतानां महासेना देवानां च तथा मुने । मिलित्वा विरराजेव पूर्वपश्चिमसागरौ ॥ ६ ॥ परस्परं मिलित्वा ते देवाश्च पर्वतास्तथा । कृतकृत्यन्तथात्मानं मेनिरे परया मुदा ॥ ७ ॥ हे मुने ! [उस समय] देवताओं तथा पर्वतोंकी विशाल सेना मिलकर पूर्व तथा पश्चिम सागरके समान शोभित हुई । वे देवता तथा पर्वत परस्पर मिलकर बड़ी प्रसन्नतासे अपनेको कृतकृत्य मानने लगे ॥ ६-७ ॥ अथेश्वरं पुरो दृष्ट्वा प्रणनाम हिमालयः । सर्वे प्रणेमुर्गिरयो ब्राह्मणाश्च सदाशिवम् ॥ ८ ॥ उसके बाद हिमालयने ईश्वरको सामने देखकर उन्हें प्रणाम किया और सभी पर्वतों तथा ब्राह्मणोंने भी सदाशिवको प्रणाम किया ॥ ८ ॥ वृषभस्थं प्रसन्नास्यं नानाभरणभूषितम् । दिव्यावयवलावण्यप्रकाशितदिगन्तरम् ॥ ९ ॥ सुसूक्ष्माहतसत्पट्टवस्त्रशोभितविग्रहम् । सद्रत्नविलसन्मौलिं विहसन्तं शुचिप्रभम् ॥ १ ० ॥ भूषाभूताहियुक्ताङ्गमद्भुतावयवप्रभम् । दिव्यद्युतिं सुरेशैश्च सेवितं करचामरैः ॥ ११ ॥ वामस्थिताच्युतं दक्षभागस्थितविधिं प्रभुम् । पृष्ठस्थितहरिं पृष्ठपार्श्वस्थितसुरादिकम् ॥ १२ ॥ नानाविधिसुराद्यैश्च संस्तुतं लोकशंकरम् । स्वहेत्वात्ततनुं ब्रह्म सर्वेशं वरदायकम् ॥ १३ ॥ सगुणं निर्गुणं चापि भक्ताधीनं कृपाकरम् । प्रकृतेः पुरुषस्यापि परं सच्चित्सुखात्मकम् ॥ १४ ॥ हिमालयने वृषभपर सवार, प्रसन्न मुखवाले, नानालंकारोंसे शोभित, अपने दिव्य शरीरकी शोभासे दिगन्तरोंको प्रकाशित करनेवाले, अत्यन्त सूक्ष्म तथा नवीन रेशमी वस्वसे शोभित विग्रहवाले, सिरपर रनोंसे जटित मुकुट धारण किये हुए, हँसते हुए, शुभ्र कान्तिवाले, सर्पोके अलंकारोंसे सुशोभित अंगवाले, अंगोंकी अद्भुत प्रभावाले, दिव्य कान्तिसे सम्पन्न, हाथोंमें चँवर धारण किये देवताओंद्वारा सेवित, बायीं ओर अच्युत, दाहिनी ओर ब्रह्मा, पृष्ठभागमें इन्द्र और पीछे तथा पार्श्वभागमें देवता आदिसे शोभायमान, अनेकविध देवता आदिके द्वारा स्तुत, संसारका कल्याण करनेवाले, अपनी इच्छासे शरीर धारण करनेवाले, ब्रह्मस्वरूप, सर्वेश्वर, वर प्रदान करनेवाले, निर्गुण तथा सगुण रूपवाले, भक्तोंके अधीन रहनेवाले, कृपा करनेवाले, प्रकृति तथा पुरुषसे भी परे और सच्चिदानन्दस्वरूप शिवको देखा ॥ ९-१४ ॥ प्रभोर्दक्षिणभागे तु ददर्श हरिमच्युतम् । विनतातनयारूढं नानाभूषणभूषितम् ॥ १५ ॥ हिमालयने प्रभुके दक्षिण भागमें गरुड़पर सवार तथा नाना प्रकारके आभूषणोंसे सुसज्जित अच्युत श्रीहरिको देखा ॥ १५ ॥ प्रभोश्च वामभागे तु मुने मां सन्ददर्श ह । चतुर्मुखं महाशोभं स्वपरीवारसंयुतम् ॥ १६ ॥ हे मुने ! उन्होंने प्रभुके वामभागमें चार मुखवाले, महान् शोभावाले तथा अपने परिवारसे युक्त मुझे देखा ॥ १६ ॥ एतौ सुरेश्वरौ दृष्ट्वा शिवस्यातिप्रियौ सदा । प्रणनाम गिरीशश्च सपरीवार आदरात् ॥ १७ ॥ इस प्रकार शिवके परम प्रिय हम दोनों सुरेश्वरोंको देखकर गिरीशने परिवारसहित आदरसे प्रणाम किया ॥ १७ ॥ तथा शिवस्य पृष्ठे च पार्श्वयोः सुविराजितान् । देवादीन् प्रणनामासौ दृष्ट्वा गिरिवरेश्वरः ॥ १८ ॥ फिर गिरीश्वरने देवाधिदेव सदाशिवके पीछे तथा पार्श्वभागमें स्थित हुए सभी देवताओंको प्रणाम किया ॥ १८ ॥ शिवाज्ञया पुरो भूत्वा जगाम स्वपुरं गिरिः । शेषहर्यात्मभूः शीघ्रं मुनिभिर्निर्जरादिभिः ॥ १९ ॥ इसके बाद शिवजीकी आज्ञासे गिरिराज हिमालय आगे होकर अपने नगरमें प्रविष्ट हुए, तदनन्तर शेष, विष्णु तथा ब्रह्मा भी देवताओंके साथ नगरमें गये ॥ १९ ॥ सर्वे मुनिसुराद्याश्च गच्छन्तः प्रभुणा सह । गिरेः पुरं समुदिताः शशंसुर्बहु नारद ॥ २० ॥ रचिते शिखरे रम्ये संस्थाप्य देवतादिकम् । जगाम हिमवाँस्तत्र यत्रास्ति विधिवेदिका ॥ २१ ॥ हे नारद ! प्रभुके साथ जाते हुए सभी मुनि, देवता आदि एवं देवगण परम प्रसन्न हो हिमालयके नगरकी प्रशंसा करने लगे । उसके बाद हिमालय सुरम्य तथा निवासके योग्य बनाये गये अपने शिखरपर देवता आदिको ठहराकर स्वयं वहाँ चले गये, जहाँ वेदी बनी थी ॥ २०-२१ ॥ कारयित्वा विशेषेण चतुष्कं तोरणैर्युतम् । स्नानदानादिकं कृत्वा परीक्षामकरोत्तदा ॥ २२ ॥ उसे चौकोर तथा तोरणोंसे विशेष रूपसे सुसज्जित कराकर स्नान-दानादि क्रियाकर उन्होंने [विधिपूर्वक] वहाँका निरीक्षण किया ॥ २२ ॥ स्वपुत्रान्प्रेषयामास शिवस्य निकटे तथा । हिमो विष्ण्वादिसम्पूर्णवर्गयुक्तस्य शैलराट् ॥ २३ ॥ तदनन्तर पर्वतराज हिमालयने विष्णु आदि सम्पूर्ण वर्गसे युक्त शिवके समीप अपने पुत्रोंको भेजा ॥ २३ ॥ कर्तुमेच्छद्वराचारं महोत्सवपुरःसरम् । महाहर्षयुतःसर्वबन्धुयुग्घिमशैलराट् ॥ २४ ॥ अथ ते गिरिपुत्राश्च तत्र गत्वा प्रणम्य तम् । सस्ववर्गं प्रार्थनान्तामूचुः शैलेश्वरस्य वै ॥ २५ ॥ वे पर्वतराज परम प्रसन्न हो अपने बन्धुगणोंके साथ महान् उत्सवपूर्वक वरका यथोचित आचार करना चाहते थे । तब उन पर्वतपुत्रोंने वहाँ जाकर अपने वर्गोंके सहित विराजमान उन शिवको प्रणाम . करके शैलेश्वरकी वह प्रार्थना सुनायी ॥ २४-२५ ॥ ततस्ते स्वालयं जग्मुः शैलपुत्रास्तदाज्ञया । शैलराजाय सञ्चख्युः ते चायान्तीति हर्षिताः ॥ २६ ॥ अथ देवाः प्रार्थनान्तां गिरेः श्रुत्वातिहर्षिताः । मुने विष्ण्वादयः सर्वे सेश्वरा मुमुदुर्भृशम् ॥ २७ ॥ कृत्वा सुवेषं सर्वेपि निर्जरा मुनयो गणाः । गमनं चक्रुरन्येऽपि प्रभुणा गिरिराड्गृहम् ॥ २८ ॥ तत्पश्चात् वे पर्वतपुत्र उनकी आज्ञासे अपने घर चले गये और प्रसन्न होकर शैलराजसे बोले कि अब लोग आ रहे हैं । हे मुने ! इसपर शिवजीसहित विष्णु आदि समस्त देवता गिरिराजकी वह प्रार्थना सुनकर परम प्रसन्न और अत्यन्त आहादित हो गये । उसके बाद सभी देवता, मुनि, गण तथा अन्य लोग उत्तम वेशभूषा धारण करके प्रभुके साथ पर्वतराजके घर गये ॥ २६-२८ ॥ तस्मिन्नवसरे मेना द्रष्टुकामाभवच्छिवम् । प्रभोराह्वाययामास मुने त्वां मुनिसत्तमम् ॥ २९ ॥ अगमस्त्वं मुने तत्र प्रभुणा प्रेरितस्तदा । मनसा शिवहृद्धेतुं पूर्णं कर्तुं तमिच्छता ॥ ३० ॥ उस अवसरपर मेनाने शिवजीको देखना चाहा और हे मुने ! प्रभुको देखनेके लिये उन्होंने आप मुनिश्रेष्ठको बुलवाया । तब हे मुने ! आप प्रभुसे प्रेरित होकर शिवजीके हृदयकी बात पूर्ण करनेकी इच्छासे युक्त मनसे वहाँ गये ॥ २९-३० ॥ त्वां प्रणम्य मुने मेना प्राह विस्मितमानसा । द्रष्टुकामा प्रभो रूपं शंकरस्य मदापहम् ॥ ३१ ॥ हे मुने ! आपको प्रणाम करके विस्मित मनवाली मेना भगवान् शंकरके मदविनाशक रूपको देखनेकी इच्छासे [आपसे] कहने लगीं ॥ ३१ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखण्डे देवगिरिमेलवर्णनं नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४२ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें देवताओं तथा पर्वतोंका मिलाप-वर्णन नामक बयालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४२ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |