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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे

चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥

मेनाप्रबोधवर्णनम् -
शिवजीके रूपको देखकर मेनाका विलाप, पार्वती तथा नारद आदि सभीको फटकारना, शिवके साथ कन्याका विवाह न करनेका हठ, विष्णुद्वारा मेनाको समझाना -


ब्रह्मोवाच
सञ्ज्ञां लब्धा ततःसा च मेना शैलप्रिया सती ।
विललापातिसङ्‌क्षुब्धा तिरस्कारमथाकरोत् ॥ १ ॥
तत्र तावत्स्वपुत्रांश्च निनिन्द स्खलिता मुहुः ।
प्रथमं सा ततः पुत्री कथयामास दुर्वचः ॥ २ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] चेतना प्राप्तकर शैलप्रिया सती मेना अत्यन्त क्षुब्ध होकर विलाप करने लगी और सबका तिरस्कार करने लगी । उन्होंने व्याकुल होकर सर्वप्रथम अपने पुत्रोंकी निन्दा की और इसके बाद वे अपनी पुत्रीको दुर्वचन कहने लगीं ॥ १-२ ॥

मेनोवाच
मुने पुरा त्वया प्रोक्तं वरिष्यति शिवा शिवम् ।
पश्चाद्धिमवतः कृत्यं पूजार्थं विनिवेशितम् ॥ ३ ॥
मेना बोली-हे मुने ! पहले आपने ही कहा था कि यह पार्वती शिवको वरण करेगी । तत्पश्चात् हिमवान्से कहकर आपने उसे तपस्याके कार्यमें लगाया ॥ ३ ॥

ततो दृष्टं फलं सत्यं विपरीतमनर्थकम् ।
मुनेऽधमाहं दुर्बुद्धे सर्वथा वञ्चिता त्वया ॥ ४ ॥
उसका तो प्रतिकूल एवं अनर्थकारी परिणाम दिखायी पड़ा, यह सत्य है । हे दुष्टबुद्धिवाले मुने ! आपने मुझ अधमको सर्वथा धोखा दिया ॥ ४ ॥

पुनस्तया तपस्तप्तं दुष्करं मुनिभिश्च यत् ।
तस्य लब्धं फलं ह्येतत्पश्यतां दुःखदायकम् ॥ ५ ॥
किं करोमि क्व गच्छामि को मे दुःखं व्यपोहताम् ।
कुलादिकं विनष्टं मे विहितं जीवितं मम ॥ ६ ॥
हे मुने ! उसने मुनियोंके द्वारा असाध्य परम दुष्कर जो तप किया, उसका यह फल प्राप्त हुआ, जो देखनेवालोंको भी दुःख देनेवाला है । अब मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ ? कौन मेरे दुःखको दूर करेगा, मेरा कुल आदि नष्ट हो गया, मेरा जीवन भी नष्ट हो गया ॥ ५-६ ॥

क्व गता ऋषयो दिव्याः श्मश्रूणि त्रोटयाम्यहम् ।
तपस्विनी च या पत्नी सा धूर्ता स्वयमागता ॥ ७ ॥
वे दिव्य ऋषि कहाँ गये ? मैं उनकी दाढ़ी-मूंछ उखाड़ लूँ । जो वसिष्ठपत्नी तपस्विनी है, वह धूर्त यहाँ स्वयं आयी थी ॥ ७ ॥

केषाञ्चैवापराधेन सर्वं नष्टं ममाधुना ।
इत्युक्त्वा वीक्ष्य च सुतामुवाच वचनं कटु ॥ ८ ॥
किनके अपराधसे मेरा सब कुछ नष्ट हो गया-ऐसा कहकर पुत्रीकी ओर देखकर वे कटु वचन कहने लगीं ॥ ८ ॥

किं कृतं ते सुते दुष्टे कर्म दुःखकरं मम ।
हेम दत्त्वा त्वयानीतः काचो वै दुष्टया स्वयम् ॥ ९ ॥
हे सुते ! हे दुष्टे ! तुमने मुझे दुःख देनेवाला कर्म क्यों किया ? तुझ दुष्टने स्वयं सोना देकर काँच ले लिया ! ॥ ९ ॥

हित्वा तु चन्दनं भूयो लेपितः कर्दमस्त्वया ।
हंसमुड्डीय काको वै गृहीतो हस्तपञ्जरे ॥ १० ॥
चन्दनको छोड़कर तुमने अपने शरीरमें कीचड़का लेप कर लिया ! हंसको उड़ाकर तुमने पिंजड़े में कौआ ग्रहण कर लिया ! ॥ १० ॥

हित्वा ब्रह्मजलं दूरे पीतं कूपोदकं त्वया ।
सूर्यं हित्वा तु खद्योतो गृहीतो यत्नतस्त्वया ॥ ११ ॥
गंगाजलको दूर छोड़कर तुमने कुएँका जल पी लिया और सूर्यको छोड़कर प्रयत्नपूर्वक जुगनू ग्रहण कर लिया ! ॥ ११ ॥

तण्डुलांश्च तथा हित्वा कृतं वै तुषभक्षणम् ।
प्रक्षिप्याज्यं तथा तैलं कारण्डं भुक्तमादरात् ॥ १२ ॥
चावलोंका त्यागकर भूसी खा ली और घीको छोड़कर आदरपूर्वक कारण्डका तेल पी लिया ! ॥ १२ ॥

सिंहसेवां तथा मुक्त्वा शृगालः सेवितस्त्वया ।
ब्रह्मविद्यां तथा मुक्त्वा कुगाथा च श्रुता त्वया ॥ १३ ॥
सिंहकी सेवा छोड़कर तुमने शृगालकी सेवा की और ब्रह्मविद्याका त्यागकर तुमने कुत्सित गाथा सुनी ! ॥ १३ ॥

गृहे यज्ञविभूतिं हि दूरीकृत्य सुमंगलाम् ।
गृहीतश्च चिताभस्म त्वया पुत्रि ह्यमंगलम् ॥ १४ ॥
हे पुत्रि ! तुमने घरको परम मांगलिके यज्ञविभूतिको छोड़कर अमंगल चिताभस्मको धारण किया ! ॥ १४ ॥

सर्वान् देववरांस्त्यक्त्वा विष्ण्वादीन्परमेश्वरान् ।
कृतं त्वया कुबुद्ध्या वै शिवार्थं तप ईदृशम् ॥ १५ ॥
विष्णु आदि परमेश्वरों तथा श्रेष्ठ देवगणोंको छोड़कर तुमने कुबुद्धिसे शिवके निमित्त ऐसा तप किया ! ॥ १५ ॥

धिक्त्वां च तव बुद्धिं च धिग्‌रूपं चरितं तव ।
धिक् चोपदेशकर्त्तारं धिक्सख्यावपि ते तथा ॥ १६ ॥
आवां च धिक्तथा पुत्री यौ ते जन्मप्रवर्तकौ ।
धिक्ते नारद बुद्धिञ्च सप्तर्षींश्च कुबुद्धिदान् ॥ १७ ॥
तुम्हें तथा तुम्हारी बुद्धिको धिक्कार है, तुम्हारे रूप तथा आचरणको धिक्कार है, तुम्हें उपदेश देनेवालेको धिक्कार है और तुम्हारी उन सखियोंको भी धिक्कार है ! हे पुत्रि ! जो तुमको जन्म देनेवाले हैं-ऐसे हम दोनोंको धिक्कार है । हे नारद ! आपकी बुद्धिको धिक्कार है और कुबुद्धि देनेवाले सप्तर्षियोंको धिक्कार है ! ॥ १६-१७ ॥

धिक्कुलं धिक् क्रियादाक्ष्यं सर्वं धिग्यत्कृतं त्वया ।
गृहन्तु धुक्षितं त्वेतन्मरणं तु ममैव हि ॥ १८ ॥
कुलको धिक्कार है, तुम्हारी कार्यकुशलताको धिक्कार है, तुमने जो कुछ किया, उस सबको धिक्कार है, तुमने घरको नष्ट कर दिया, अब तो मेरा मरण ही है ॥ १८ ॥

पर्वतानामयं राजा नायातु निकटे मम ।
सप्तर्षयःस्वयं नैव दर्शयन्तु मुखं मम ॥ १९ ॥
ये पर्वतराज मेरे निकट न आयें और स्वयं सप्तर्षिगण भी मुझे अपना मुँह न दिखायें ॥ १९ ॥

साधितं किं च सर्वैस्तु मिलित्वा घातितं कुलम् ।
वन्ध्याहं न कथं जाता गर्भो न गलितः कथम् ॥ २० ॥
अथो न वा मृता चाहं पुत्रिका न मृता कथम् ।
राक्षसाद्यैः कथं नो वा भक्षिता गगने पुनः ॥ २१ ॥
सब लोगोंने मिलकर यह क्या किया, जिससे मेरा कुल ही नष्ट हो गया । मैं बन्ध्या क्यों न हुई, मेरा गर्भ क्यों नहीं गिर गया । मैं ही क्यों नहीं मर गयी अथवा मेरी पुत्री ही क्यों नहीं मर गयी । आकाशमें [ले जाकर] राक्षसोंने उसे क्यों नहीं खा लिया ? ॥ २०-२१ ॥

छेदयामि शिरस्तेऽद्य किं करोमि कलेवरैः ।
त्यक्त्वा त्वां च कुतो यायां हाहा मे जीवितं हतम् ॥ २२ ॥
आज मैं तुम्हारा सिर काट डाल, अब मुझे इस शरीरसे क्या करना है, किंतु क्या करूँ, तुम्हें त्यागकर भी कहाँ जाऊँ ? हाय ! मेरा जीवन ही नष्ट हो गया ॥ २२ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा पतिता सा च मेना भूमौ विमूर्छिता ।
व्याकुला शोकरोषाद्यैर्न गता भर्तृसन्निधौ ॥ २३ ॥
ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार कहकर वे मेना मूर्च्छित हो पृथिवीपर गिर पड़ीं । वे शोक तथा रोष आदिसे व्याकुल होनेके कारण पतिके पास न जा सकी ॥ २३ ॥

हाहाकारो महानासीत्तस्मिन्काले मुनीश्वर ।
सर्वे समागतास्तत्र क्रमात्तत्सन्निधौ सुराः ॥ २४ ॥
हे मुनीश्वर ! उस समय सारे घरमें हाहाकार मच गया, फिर सब देवता बारी बारीसे वहाँ उनके समीप आये ॥ २४ ॥

पुरा देवमुने चाहमागतस्तु स्वयं तदा ।
मां दृष्ट्‍वा त्वं वचस्ता वै प्रावोच ऋषिसत्तम ॥ २५ ॥
हे देवमुने ! पहले मैं स्वयं ही [उनके समीप] आया । तब हे ऋषिश्रेष्ठ ! मुझे देखकर आप उनसे यह वचन कहने लगे- ॥ २५ ॥

नारद उवाच
यथार्थं सुन्दरं रूपं ना ज्ञातं ते शिवस्य वै ।
लीलयेदं धृतं रूपं न यथार्थं शिवेन च ॥ २६ ॥
तस्मात्क्रोधं परित्यज्य स्वस्था भव पतिव्रते ।
कार्यं कुरु हठं त्यक्त्वा शिवां देहि शिवाय च ॥ २७ ॥
नारदजी बोले-[हे मेने !] तुमने शिवजीके वास्तविक सुन्दर रूपको नहीं पहचाना, शिवजीने यह रूप लीलासे धारण किया है, यह उनका यथार्थ रूप नहीं है । हे पतिव्रते ! इसलिये तुम क्रोध छोड़कर स्वस्थ हो जाओ और हठ छोड़कर कार्य करो तथा पार्वतीको शंकरके निमित्त प्रदान करो ॥ २६-२७ ॥

ब्रह्मोवाच
तदाकर्ण्य वचस्ते सा मेना त्वां वाक्यमब्रवीत् ।
उत्तिष्ठेतो गच्छ दूरं दुष्टाधमवरो भवान् ॥ २८ ॥
इत्युक्ते तु तया देवा इन्द्राद्याः सकलाः क्रमात् ।
समागत्य च दिक्पाला वचनं चेदमब्रुवन् ॥ २९ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! तब आपका वचन सुनकर मेनाने आपसे यह वाक्य कहा-तुम बड़े दुष्ट एवं अधम हो, उठो और यहाँसे दूर चले जाओ । उनके इस प्रकार कहनेपर समस्त इन्द्रादि देवता तथा दिक्पाल क्रमसे आकर मेनासे यह वचन कहने लगे- ॥ २८-२९ ॥

देवा ऊचुः
हे मेने पितृकन्ये हि शृण्वस्मद्वचनं मुदा ।
अयं वै परमः साक्षाच्छिवः परसुखावहः ॥ ३० ॥
कृपया च भवत्पुत्र्यास्तपो दृष्ट्‍वातिदुःसहम् ।
दर्शनं दत्तवाञ्छम्भुर्वरं सद्‌भक्तवत्सलः ॥ ३१ ॥
देवता बोले-हे मेने ! हे पितृकन्ये ! प्रसन्न होकर तुम हमारी बात सुनो । ये दूसरोंको सुख देनेवाले साक्षात् शिवजी हैं । भक्तवत्सल इन भगवान् शिवने तुम्हारी पुत्रीका अत्यन्त कठिन तप देखकर कृपापूर्वक उसे दर्शन देकर वर प्रदान किया ॥ ३०-३१ ॥

ब्रह्मोवाच
अथोवाच सुरान्मेना विलप्याति मुहुर्मुहुः ।
न देया तु मया कन्या गिरिशायोग्ररूपिणे ॥ ३२ ॥
ब्रह्माजी बोले-इसके बाद मेना बारंबार बहुत विलाप करके देवताओंसे बोली-भयानक रूपवाले शिवको मैं अपनी कन्या नहीं दूंगी ॥ ३२ ॥

किमर्थन्तु भवन्तश्च सर्वे देवाः प्रपञ्चिताः ।
रूपमस्याः परन्नाम व्यर्थीकर्तुं समुद्यतः ॥ ३३ ॥
आप सभी देवगण किसलिये प्रपंचमें पड़े हैं और इसके श्रेष्ठ रूपको व्यर्थ करनेके लिये तत्पर हैं ? ॥ ३३ ॥

इत्युक्ते च तया तत्र ऋषयःसप्त एव हि ।
ऊचुस्ते वच आगत्य वसिष्ठाद्या मुनीश्वर ॥ ३४ ॥
हे मुनीश्वर ! उनके इस प्रकार कहनेपर सभी वसिष्ठादि सप्तर्षि वहाँ आकर उनसे यह वचन कहने लगे ॥ ३४ ॥

सप्तर्षयः ऊचुः
कार्यं साधयितुं प्राप्ताः पितृकन्ये गिरिप्रिये ।
विरुद्धं चात्र उक्तार्थे कथं मन्यामहे वयम् ॥ ३५ ॥
ब्रह्मोवाच
अयं वै परमो लाभो दर्शनं शंकरस्य यत् ।
दानपात्रं स ते भूत्वागतस्तव च मन्दिरम् ॥ ३६ ॥
सप्तर्षि बोले-हे पितृकन्ये ! हे गिरिप्रिये ! हम कार्य सिद्ध करनेके लिये आये हैं, जो बात ठीक है, उसे हम विपरीत कैसे मान सकते हैं ? यह सबसे बड़ा लाभ है, जो आपको शंकरजीका दर्शन प्राप्त हुआ और वे दानके पात्र होकर आपके घर आये हैं ॥ ३५-३६ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा तैस्ततो मेना मुनिवाक्यं मृषाकरोत् ।
प्रत्युवाच च रुष्टा सा तानृषीन् ज्ञानदुर्बला ॥ ३७ ॥
ब्रह्माजी बोले-उनके इस प्रकार कहनेपर मैनाने उन मुनियोंके वचनको झूठा समझ लिया और वे अज्ञानतावश रुष्ट होकर उन ऋषियोंसे इस प्रकार कहने लगी- ॥ ३७ ॥

मेनोवाच
शस्त्राद्यैर्घातयिष्येऽहं न हास्ये शंकराय ताम् ।
दूरं गच्छत सर्वे हि नागन्तव्यं मदन्तिके ॥ ३८ ॥
मेना बोलीं-मैं शस्त्र आदिसे उसका वध कर डालूँगी, किंतु शंकरके निमित्त उसे नहीं दूंगी । आप सभी दूर चले जाइये और मेरे पास मत आइयेगा ॥ ३८ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा विररामाशु सा विलप्यातिविह्वला ।
हाहाकारो महानासीत्तत्र तद्वृत्ततो मुने ॥ ३९ ॥
ततो हिमालयस्तत्राजगामातिसमाकुलः ।
ताञ्च बोधयितुं प्रीत्या प्राह तत्त्वं च दर्शयन् ॥ ४० ॥
ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार कहकर वे मेना चुप हो गयीं और पुनः विलाप करके अत्यन्त व्याकुल हो उठी । हे मुने ! उस समय इस समाचारसे बड़ा हाहाकार मच गया । तदनन्तर अत्यन्त व्याकुल होकर हिमालय मेनाको समझानेके लिये वहाँ आये और तत्त्वकी बात कहते हुए प्रेमपूर्वक उनसे कहने लगे ॥ ३९-४० ॥

हिमालय उवाच
शृणु मेने वचो मेऽद्य विकलाऽसि कथं प्रिये ।
के के समागता गेहं कथं चैतान्विनिन्दसि ॥ ४१ ॥
हिमालय बोले-हे मेने ! हे प्रिये ! तुम आज व्याकुल क्यों हो गयी, मेरी बात सुनो, तुम्हारे घर कौन-कौन लोग आये हैं, तुम इनकी निन्दा क्यों करती हो ? ॥ ४१ ॥

शंकरं त्वं च जानासि रूपं दृष्ट्‍वासि विह्वला ।
विकटं तस्य शम्भोस्तु नानारूपाभिधस्य हि ॥ ४२ ॥
स शंकरो मया ज्ञातः सर्वेषां प्रतिपालकः ।
पूज्यानां पूज्य एवासौ कर्तानुग्रहनिशौं ॥ ४३ ॥
तुम शंकरको [अच्छी तरह] नहीं जानती हो, अनेक रूप और नामवाले उन शंकरके विकट रूपको देखकर व्याकुल हो गयी हो । उन शंकरको मैं जानता हूँ । वे सबका पालन करनेवाले, पूज्योंके भी पूज्य और निग्रह तथा अनुग्रह करनेवाले हैं । ४२-४३ ॥

हठं न कुरु मुञ्च त्वं दुःखं प्राणप्रियेऽनघे ।
उत्तिष्ठारं तथा कार्यं कर्तुमर्हसि सुव्रते ॥ ४४ ॥
हे प्राणप्रिये ! हे पुण्यशीले । हठ मत करो और दुःखका त्याग करो । हे सुव्रते ! शीघ्रतासे उठो, कार्य करो ॥ ४४ ॥

यद्वै द्वारगतः शम्भुः पुरा विकटरूपधृक् ।
नानालीलां च कृतवान् चेतयामि च तामिमाम् ॥ ४५ ॥
तुम मेरी बात मानो, ये शंकर विकट रूप धारणकर द्वारपर जो आये हैं, वे अपनी लीला ही दिखा रहे हैं । ४५ ॥

तन्माहात्म्यं परं दृष्ट्‍वा कन्यां दातुं त्वया मया ।
अङ्‌गीकृतं तदा देवि तत्प्रमाणं कुरु प्रिये ॥ ४६ ॥
हे देवि ! पहले हम दोनोंने उनका श्रेष्ठ माहात्म्य देखकर ही कन्या देना स्वीकार किया था । हे प्रिये ! अब उस बातको सत्यरूपसे प्रमाणित करो ॥ ४६ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा सोऽद्रिनाथो हि विरराम ततो मुने ।
तदाकर्ण्य शिवामाता मेनोवाच हिमालयम् ॥ ४७ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! इस प्रकार कहकर उन पर्वतराज हिमालयने मौन धारण कर लिया । तब यह सुनकर पार्वतीकी माता मेना हिमालयसे कहने लगीं- ॥ ४७ ॥

मेनोवाच
मद्वचः श्रूयतां नाथ तथा कर्तुं त्वमर्हसि ।
गृहीत्वा तनुजां चैनां बद्ध्वा कण्ठे तु पार्वतीम् ॥ ४८ ॥
अधः पातय निःशङ्‌कं दास्ये तां न हराय हि ।
तथैनामथवा नाथ गत्वा वै सागरे सुताम् ॥ ४९ ॥
निमज्जय दयां त्यक्त्वा ततोऽद्रीश सुखी भव ।
यदि दास्यसि पुत्री त्वं रुद्राय विकटात्मने ॥
तर्हि त्यक्ष्याम्यहं स्वामिन्निश्चयेन कलेवरम् । ५० ॥
मेना बोली-हे नाथ ! मेरी बात सुनिये और आप वैसा ही कीजिये, इस अपनी कन्या पार्वतीको पकड़कर कण्ठमें रस्सी बाँधकर निःशंक हो नीचे गिरा दीजिये, किंतु मैं शिवको उसे नहीं दूंगी अथवा हे नाथ ! हे पर्वतराज ! इस कन्याको ले जाकर दयारहित होकर समुद्रमें डुबो दीजिये और इसके बाद सुखी हो जाइये । ऐसा करनेसे ही सख मिलेगा । हे स्वामिन् ! यदि आप भयंकर रूपवाले रुद्रको पुत्री देंगे, तो मैं निश्चित रूपसे शरीर त्याग दूंगी ॥ ४८-५० ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्ते च तदा तत्र वचने मेनया हठात् ।
उवाच वचनं रम्यं पार्वती स्वयमागता ॥ ५१ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! जब मेना हठपूर्वक यह बात कह रही थीं, उसी समय पार्वती स्वयं आ गयीं और मनोहर वचन कहने लगीं- ॥ ५१ ॥

पार्वत्युवाच
मातस्ते विपरीता हि बुद्धिर्जाताऽशुभावहा ।
धर्मावलम्बनात्त्वं हि कथं धर्मं जहासि वै ॥ ५२ ॥
अयं रुद्रोऽपरः साक्षात्सर्वप्रभव ईश्वरः ।
शम्भुः सुरूपः सुखदः सर्वश्रुतिषु वर्णितः । ५३ ॥
पार्वती बोलीं-हे मातः ! आपकी बुद्धि विपरीत तथा अमंगलकारिणी कैसे हो गयी ? धर्मका अवलम्बन करनेवाली होनेपर भी आप धर्मका त्याग क्यों कर रही हैं ? ये रुद्र सबसे श्रेष्ठ, साक्षात् ईश्वर, सबको उत्पन्न करनेवाले, शम्भु, सुन्दर रूपवाले, सुख देनेवाले तथा सभी श्रुतियोंमें वर्णित हैं ॥ ५२-५३ ॥

महेशः शंकरश्चायं सर्वदेवप्रभुः स्वराट् ।
नानारूपाभिधो मातर्हरिब्रह्मादिसेवितः ॥ ५४ ॥
हे मातः ! ये ही महेश कल्याण करनेवाले, सर्वदेवोंके प्रभु तथा स्वराट् हैं । नाना प्रकारके रूप एवं नामवाले और ब्रह्मा एवं विष्णु आदिसे भी सेवित हैं ॥ ५४ ॥

अधिष्ठानं च सर्वेषां कर्ता हर्ता च स प्रभुः ।
निर्विकारी त्रिदेवेशो ह्यविनाशी सनातनः ॥ ५५ ॥
यदर्थे देवताः सर्वा आयाता किङ्‌करीकृताः ।
द्वारि ते सोत्सवाश्चाद्य किमतोऽन्यत्परं सुखम् ॥ ५६ ॥
वे सबके कर्ता, हर्ता, अधिष्ठान, निर्विकारी, त्रिदेवेश, अविनाशी तथा सनातन हैं । इन्हींके लिये सभी देवगण दासके समान होकर तुम्हारे द्वारपर उत्सव करते हुए आये हैं । अब इससे बढ़कर और क्या सुख होगा ? ॥ ५५-५६ ॥

उत्तिष्ठातः प्रयत्नेन जीवितं सफलं कुरु ।
देहि मां त्वं शिवायास्मै स्वाश्रमं कुरु सार्थकम् । ५७ ॥
देहि मां परमेशाय शंकराय जनन्यहो ।
स्वीकुरु त्वमिमं मातर्विनयं मे ब्रवीमि ते ॥ ५८ ॥
अतः हे मातः ! प्रयत्नपूर्वक उठिये और अपने जीवनको सफल कीजिये, आप इन शंकरजीके निमित्त मुझे प्रदान कीजिये और अपना गृहस्थाश्रम सफल बनाइये । हे जननि ! आज आप मुझे परमेश्वर शंकरके निमित्त प्रदान कीजिये । हे मातः ! मैं आपसे कह रही हूँ, आप मेरी इस प्रार्थनाको स्वीकार कीजिये ॥ ५७-५८ ॥

चेन्न दास्यसि तस्मै मां न वृणेऽन्यमहं वरम् ।
भागं लभेत्कथं सैंहं शृगालः परवञ्चकः ॥ ५९ ॥
यदि आपने मुझे इनको नहीं दिया, तो मैं किसी दूसरेका पतिके रूपमें वरण नहीं करूँगी । परवंचक शृगाल सिंहके भागको किस प्रकार प्राप्त कर सकता है ? ॥ ५९ ॥

मनसा वचसा मातः कर्मणा च हरः स्वयम् ।
मया वृतो वृतश्चैव यदिच्छसि तथा कुरु ॥ ६० ॥
हे मातः ! मैंने स्वयं मन, वचन तथा कर्मसे शिवजीका वरण कर लिया है, अब आप जैसा चाहती हैं, वैसा कीजिये ॥ ६० ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य शिवावाक्यं मेना शैलेश्वरप्रिया ।
सुविलप्य महाक्रुद्धा गृहीत्वा तत्कलेवरम् ॥ ६१ ॥
मुष्टिभिः कूर्परैश्चैव दन्तान्धर्षयती च सा ।
ताडयामास तां पुत्रीं विह्वलातिरुषान्विता ॥ ६२ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] पार्वतीका यह वचन सुनकर पर्वतराजकी प्रिया मेना बहुत विलापकर अत्यन्त क्रुद्ध होकर उनके शरीरको पकड़कर दाँतोंको कटकटाती हुई व्याकुल तथा रोषयुक्त होकर मुक्के तथा केहुनोंसे पुत्रीको मारने लगीं ॥ ६१-६२ ॥

ये तत्र ऋषयस्तात त्वदाद्याश्चापरे मुने ।
तद्धस्तात्तां परिच्छिद्य नित्युर्दूरतरं ततः ॥ ६३ ॥
तान्वै तथा विधान्दृष्ट्‍वा भर्त्सयित्वा पुनः पुनः ।
उवाच श्रावयन्ती सा दुर्वचो निखिलान्पुनः ॥ ६४ ॥
हे तात ! हे मुने ! तदनन्तर वहाँपर तुम तथा अन्य जो ऋषि थे, वे मेनाके हाथसे पार्वतीको छुड़ाकर दूर ले गये । उन सबको वैसा करते देखकर उन्हें बार-बार फटकारकर वे मेना उन्हें सुनाती हुई पुनः दुर्वचन कहने लगीं- ॥ ६३-६४ ॥

मेनोवाच
किं मेना हि करिष्येऽहं दुष्टां ग्रहवतीं शिवाम् ।
दास्याम्यस्यै गरं तीव्रं कूपे क्षेप्स्यामि वा ध्रुवम् ॥ ६५ ॥
मेना बोलीं-हाय ! इस दुराग्रहशील पार्वतीका अब मैं क्या करूँ ? अब निश्चय ही या तो इसे तीव्र विष दे दूंगी या कुएंमें डाल दूंगी ॥ ६५ ॥

छेत्स्यामि कालीमथवा शस्त्रास्त्रैर्भूरिखण्डशः ।
निमज्जयिष्ये वा सिन्धौ स्वसुतां पार्वतीं खलु ॥ ६६ ॥
अथवा स्वशरीरं हि त्यक्ष्याम्याश्वन्यथा ध्रुवम् ।
न दास्ये शम्भवे कन्यां दुर्गां विकटरूपिणे ॥ ६७ ॥
अथवा अस्त्र-शस्त्रोंसे काटकर इस कालीके टुकड़े-टुकड़े कर डालूँगी अथवा अपनी पुत्री इस पार्वतीको समुद्र में डुबो दूंगी । अथवा मैं शीघ्र ही निश्चित स्वयं अपना शरीर त्याग दूंगी, किंतु विकट रूपधारी शिवको अपनी कन्या दुर्गा नहीं दूंगी ॥ ६६-६७ ॥

वरोऽयं कीदृशो भीमोऽनया लब्धश्च दुष्टया ।
कारितश्चोपहासो मे गिरेश्चापि कुलस्य हि ॥ ६८ ॥
इस दुष्टाने यह कैसा विकराल वर पाया है । ऐसा करके इसने मेरा, गिरिराजका तथा इस कुलका उपहास करा दिया ॥ ६८ ॥

न माता न पिता भ्राता न बन्धुर्गोत्रजोऽपि हि ।
नो सुरूपं न चातुर्यं न गुहं वास्य किञ्चन ॥ ६९ ॥
न वस्त्रं नाप्यलङ्काराः सहायाः केऽपि तस्य न ।
वाहनं न शुभं ह्यस्य न वयो न धनं तथा ॥ ७० ॥
न पावित्र्यं न विद्या च कीदृशः काय आर्तिदः ।
किं विलोक्य मया पुत्री देयास्मै स्यात्सुमंगला ॥ ७१ ॥
इस [शंकर] के न माता हैं, न पिता हैं, न भाई हैं. न गोत्रमें उत्पन्न बन्धु हैं, न तो इसका सुन्दर रूप है, न तो इसमें चतुराई ही है, न इसके पास घर है, न वस्त्र है, न अलंकार है, इसका कोई सहायक भी नहीं हैं, इसका वाहन भी अच्छा नहीं है, इसकी वय भी [विवाहयोग्य] नहीं है । इसके पास धन भी नहीं है । न इसमें पवित्रता है, न विद्या है, इसका कष्टदायक कैसा शरीर है, फिर [इसका] क्या देखकर मैं इसे अपनी सुमंगली पुत्री प्रदान करूँ ? ॥ ६९-७१ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्यादि सुविलप्याथ बहुशो मेनका तदा ।
रुरोदोच्चैर्मुने सा हि दुःखशोकपरिप्लुता ॥ ७२ ॥
अथाहं द्रुतमागत्याकथयं मेनकां च ताम् ।
शिवतत्त्वं च परमं कुज्ञानहरमुत्तमम् ॥ ७३ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! इस प्रकार बहुत विलाप करके दुःख तथा शोकसे व्याप्त होकर वे मेना जोर-जोरसे रोने लगीं । उसके बाद मैं शीघ्रतासे आकर उन मेनासे अज्ञानका हरण करनेवाले श्रेष्ठ तथा परम शिवतत्त्वका वर्णन करने लगा ॥ ७२-७३ ॥

ब्रह्मोवाच
श्रोतव्यं प्रीतितो मेने मदीयं वचनं शुभम् ।
यस्य श्रवणतः प्रीत्या कुबुद्धिस्ते विनश्यति ॥ ७४ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मेने ! आप प्रीतिपूर्वक मेरे शुभ वचनको सुनिये, जिसके प्रेमपूर्वक सननेसे आपकी कुबुद्धि नष्ट हो जायगी ॥ ७४ ॥

शङ्करो जगतः कर्ता भर्ता हर्ता तथैव च ।
न त्वं जानासि तद्‍रूपं कथं दुःखं समीहसे ॥ ७५ ॥
शंकर जगत्की सृष्टि करनेवाले, पालन करनेवाले तथा विनाश करनेवाले हैं । आप उनके रूपको नहीं जानती हैं और दुःख क्यों उठा रही हैं ? ॥ ७५ ॥

अनेकरूपनामा च नाना लीलाकरः प्रभुः ।
सर्वस्वामी स्वतन्त्रश्च मायाधीशोऽविकल्पकः ॥ ७६ ॥
इति विज्ञाय मेने त्वं शिवां देहि शिवाय वै ।
कुहठं त्यज कुज्ञानं सर्वकार्यविनाशनम् ॥ ७७ ॥
ये प्रभु अनेक रूप तथा नामवाले, विविध लीला करनेवाले, सबके स्वामी, स्वतन्त्र, मायाधीश तथा विकल्पसे रहित हैं । हे मेने ! ऐसा जानकर आप शिवाको शिवजीके लिये प्रदान कीजिये और सभी कार्यका नाश करनेवाले इस दुराग्रह तथा दुर्बुद्धिका त्याग कीजिये ॥ ७६-७७ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्ता सा मया मेना विलपन्ती मुहुर्मुहुः ।
लज्जां किञ्चिच्छनैस्त्यक्त्वा मुने मां वाक्यमब्रवीत् ॥ ७८ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! मेरे ऐसा कहनेपर वे मेना बार-बार विलाप करती हुई शनैः शनैः लज्जा त्यागकर मुझसे कहने लगीं- ॥ ७८ ॥

मेनोवाच
किमर्थं तु भवान्ब्रह्मन् रूपमस्य महावरम् ।
व्यर्थीकरोति किमियं हन्यतां न स्वयं शिवा ॥ ७९ ॥
न वक्तव्यं च भवता शिवाय प्रतिदीयताम् ।
न दास्येऽहं शिवायैनां स्वसुता प्राणवल्लभाम् ॥ ८० ॥
मेना बोलीं-हे ब्रह्मन् ! आप इसके अति श्रेष्ठ रूपको किसलिये व्यर्थ कर रहे हैं ? आप इस शिवाको स्वयं मार क्यों नहीं डालते ? आप ऐसा न कहिये कि इसे शिवको दे दीजिये, मैं अपनी इस प्राणप्रिया पुत्रीको शिवके निमित्त नहीं दूंगी ॥ ७९-८० ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्ते तु तदा सिद्धाः सनकाद्या महामुने ।
समागत्य महाप्रीत्या वचनं हीदमब्रुवन् ॥ ८१ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे महामुने ! तब उनके ऐसा कहनेपर सनक आदि सिद्ध आकर [मेनासे] प्रेमपूर्वक यह वचन कहने लगे- ॥ ८१ ॥

सिद्धा ऊचुः
अयं वै परमःसाक्षाच्छिवः परसुखावहः ।
कृपया च भवत्पुत्र्यै दर्शनं दत्तवान्प्रभुः ॥ ८२ ॥
सिद्ध बोले-ये परम सुख प्रदान करनेवाले साक्षात् परमात्मा शिव हैं । इन प्रभुने कृपा करके आपकी पुत्रीको दर्शन दिया है ॥ ८२ ॥

ब्रह्मोवाच
अथोवाच तु तान्मेना विलप्य च मुहुर्मुहुः ।
न देया तु मया सम्यग्गिरिशायोग्ररूपिणे ॥ ८३ ॥
ब्रह्माजी बोले-तब मेनाने बार-बार विलाप करते हुए उनसे भी कहा कि मैं भयंकर रूपवाले शंकरको इसे नहीं दूंगी ॥ ८३ ॥

किमर्थं तु भवन्तश्च सर्वे सिद्धाः प्रपञ्चिनः ।
रूपमस्याः परं नाम व्यर्थीकर्त्तुं समुद्यताः ॥ ८४ ॥
प्रपंचवाले आप सभी सिद्ध लोग इसके श्रेष्ठ रूपको व्यर्थ करनेके लिये क्यों उद्यत हुए हैं ? ॥ ८४ ॥

इत्युक्ते च तया तत्र मुनेऽहं चकितोऽभवम् ।
सर्वे विस्मयमापन्ना देवसिद्धर्षिमानवाः ॥ ८५ ॥
एतस्मिन्समये तस्या हठं श्रुत्वा दृढं महत् ।
द्रुतं शिवप्रियो विष्णुः समागत्याऽब्रवीदिदम् ॥ ८६ ॥
हे मुने ! उनके ऐसा कहनेपर मैं चकित हो गया और सभी देव, सिद्ध, ऋषि तथा मनुष्य भी आश्चर्यमें पड़ गये । इसी समय उनके दृढ़ तथा महान् हठको सुनकर शिवके प्रिय विष्णुजी शीघ्र ही वहाँ आकर यह कहने लगे- ॥ ८५-८६ ॥

विष्णुरुवाच
पितॄणां च प्रिया पुत्री मानसी गुणसंयुता ।
पत्नी हिमवतःसाक्षाद्‌ब्रह्मणः कुलमुत्तमम् ॥ ८७ ॥
सहायास्तादृशा लोके धन्या ह्यसि वदामि किम् ।
धर्मस्याधारभूतासि कथं धर्मं जहासि हि ॥ ८८ ॥
विष्णुजी बोले-आप पितरोंकी प्रिय मानसी कन्या हैं, गुणोंसे युक्त हैं और साक्षात् हिमालयकी पत्नी हैं, आपका अत्यन्त पवित्र ब्रह्मकुल है । वैसे ही आपके सहायक भी हैं, इसलिये आप लोकमें धन्य हैं, मैं विशेष क्या कहूँ । आप धर्मकी आधारभूत हैं, तो आप धर्मका त्याग क्यों कर रही हैं ? ॥ ८७-८८ ॥

देवैश्च ऋषिभिश्चैव ब्रह्मणा वा मया तथा ।
विरुद्धं कथ्यते किं नु त्वयैव सुविचार्यताम् ॥ ८९ ॥
शिवत्वं न च जानासि निर्गुण सगुणः स हि ।
विरूपः स सुरूपो हि सर्वसेव्यः सतां गतिः ॥ ९० ॥
भला, आप ही विचार करें कि सभी देवता, ऋषि, ब्रह्माजी तथा मैं विरुद्ध क्यों बोलेंगे ? आप शिवजीको नहीं जानती हैं । वे निर्गुण, सगुण, कुरूप, सुरूप, सज्जनोंको शरण देनेवाले तथा सभीके सेव्य हैं । ८९-९० ॥

तेनैव निर्मिता देवी मूलप्रकृतिरीश्वरी ।
तत्पार्श्वे च तदा तेन निर्मितः पुरुषोत्तमः ॥ ९१ ॥
ताभ्यां चाहं तथा ब्रह्मा ततश्च गुणरूपतः ।
अवतीर्य स्वयं रुद्रो लोकानां हितकारकः ॥ ९२ ॥
उन्होंने ही मूल प्रकृति ईश्वरीदेवीका निर्माण किया और उस समय उनके बगलमें उन्होंने पुरुषोत्तमकी भी रचना की । तदनन्तर उन दोनोंसे मैं तथा ब्रह्मा अपने गुण तथा रूपके अनुसार उत्पन्न हुए हैं । किंतु वे रुद्र स्वयं अवतरित होकर लोकोंका हित करते हैं ॥ ९१-९२ ॥

ततो वेदास्तथा देवा यत्किञ्चिद्दृश्यते जगत् ।
स्थावरं जङ्‌गमं चैव तत्सर्वं शकरादभूत् ॥ ९३ ॥
तद्‍रूपं वर्णितं केन ज्ञायते केन वा पुनः ।
मया च ब्रह्मणा यस्य ह्यन्तो लब्धश्च नैव हि ॥ ९४ ॥
वेद, देवता तथा जो कुछ स्थावर जंगमरूप जगत् दिखायी देता है, वह सब शिवजीसे ही उत्पन्न हुआ है । उनके स्वरूपका वर्णन किसने किया है और उसे कौन जान सकता है ? मैं तथा ब्रह्माजी भी उनका अन्त न पा सके । ९३-९४ ॥

आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं यत्किञ्चिद् दृश्यते जगत् ।
तत्सर्वं च शिवं विद्धि नात्र कार्या विचारणा ॥ ९५ ॥
स एवेदृक्सुरूपेणावतीर्णो निजलीलया ।
शिवातपःप्रभावाद्धि तव द्वारि समागतः ॥ ९६ ॥
ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त जो कुछ जगत् दिखायी देता है, उस सबको शिव समझिये, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये । अपनी लीलासे इस प्रकारके सुन्दर रूपसे अवतीर्ण हुए वे [शिव] पार्वतीके तपके प्रभावसे ही आपके द्वारपर आये हैं । ९५-९६ ॥

तस्मात्त्वं हिमवत्पत्नि दुःखं मुञ्च शिवं भज ।
भविष्यति महानन्दः क्लेशो यास्यति सङ्‌क्षयम् ॥ ९७ ॥
इसलिये हे हिमालयपत्नि ! आप दुःखका त्याग कीजिये और शिवजीका भजन कीजिये, [ऐसा करनेसे] महान् आनन्द प्राप्त होगा और क्लेश नष्ट हो जायगा ॥ ९७ ॥

ब्रह्मोवाच
एवं प्रबोधितायास्तु मेनकाया अभून्मुने ।
तस्यास्तु कोमलं किञ्चिन्मनो विष्णुप्रबोधितम् ॥ ९८ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! इस प्रकार समझानेपर उन मेनाका विष्णुप्रबोधित मन कुछ कोमल हो गया ॥ ९८ ॥

परं हठं न तत्याज कन्यान्दातुं हराय न ।
स्वीचकार तदा मेना शिवमायाविमोहिता ॥ ९९ ॥
किंतु उस समय शिवकी मायासे विमोहित मेनाने हठका परित्याग नहीं किया और शिवको कन्या देना स्वीकार नहीं किया ॥ ९९ ॥

उवाच च हरिं मेना किञ्चिद्‌बुद्ध्वा गिरिप्रिया ।
श्रुत्वा विष्णुवचो रम्यं गिरिजाजननी हि सा ॥ १०० ॥
यदि रम्यतनुः सः स्यात्तदा देया मया सुता ।
नान्यथा कोटिशो यत्नैर्वच्मि सत्यं दृढं वचः ॥ १०१ ॥
पार्वतीकी माता गिरिप्रिया उन मेनाने विष्णुके मनोहर वचनको सुनकर कुछ उबुद्ध होकर विष्णुजीसे कहा-यदि वे सुन्दर शरीर धारण करें, तो मैं अपनी कन्या दे सकती हैं, अन्यथा करोड़ों प्रयत्नोंसे भी मैं नहीं दूंगी । मैं सत्य तथा दृढ़ वचन कहती हूँ ॥ १००-१०१ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा वचनं मेना तूष्णीमास दृढव्रता ।
शिवेच्छाप्रेरिता धन्या तथा याखिलमोहिनी ॥ १०२ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] जो सबको मोहनेवाली है, उस शिवेच्छासे प्रेरित हुई धन्य तथा दृढ़ व्रतवाली वे मेना इस प्रकार कहकर चुप हो गयीं ॥ १०२ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये
पार्वतीखण्डे मेनाप्रबोधवर्णनो नाम चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४४ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें मैनाप्रबोधवर्णन नामक चौवालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४४ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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