Menus in CSS Css3Menu.com


॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे

पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥

दिव्यस्वरूपेण शिवाविर्भावस्थितिवर्णनम् -
भगवान् शिवका अपने परम सुन्दर दिव्य रूपको प्रकट करना, मेनाकी प्रसन्नता और क्षमा-प्रार्थना तथा पुरवासिनी स्त्रियोंका शिवके रूपका दर्शन करके जन्म और जीवनको सफल मानना -


ब्रह्मोवाच
एतस्मिन्नन्तरे त्वं हि विष्णुना प्रेरितो द्रुतम् ।
अनुकूलयितुं शम्भुमयास्तन्निकटे मुने ॥ १ ॥
तत्र गत्वा स वै रुद्रो भवता सुप्रबोधितः ।
स्तोत्रैर्नानाविधैः स्तुत्वा देवकार्यचिकीर्षया ॥ २ ॥
श्रुत्वा त्वद्वचनं प्रीत्या शम्भुना धृतमद्‌भुतम् ।
स्वरूपमुत्तमं दिव्यं कृपालुत्वं च दर्शितम् ॥ ३ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! इसी समय आप विष्णुजीसे प्रेरित होकर शिवजीको प्रसन्न करनेके लिये शीघ्र उनके पास गये । वहाँ जाकर देवकार्य करनेकी इच्छासे आपने अनेक प्रकारके स्तोत्रोंसे स्तुति करके रुद्रको भलीभांति समझाया । तब सदाशिव शम्भुने आपकी बात सुनकर अपनी कृपालुता दिखायी और प्रेमपूर्वक अद्‌भुत दिव्य तथा उत्तम स्वरूप धारण कर लिया ॥ १-३ ॥

तद्दृष्ट्‍वा सुन्दरं शम्भुं स्वरूपं मन्मथाधिकम् ।
अत्यहृष्यो मुने त्वं हि लावण्यपरमायनम् ॥ ४ ॥
स्तोत्रैर्नानाविधैः स्तुत्वा परमानन्दसंयुतः ।
आगच्छस्त्वं मुने तत्र यत्र मेना स्थिताखिलैः ॥ ५ ॥
कामदेवसे भी अधिक कमनीय, लावण्यके परम निधि तथा सुन्दर रूपवाले उन शिवको देखकर हे मुने । आप अत्यन्त प्रसन्न हो गये और परमानन्दसे युक्त हो अनेक प्रकारके स्तोत्रोंसे उनकी स्तुतिकर आप पुनः वहाँ आये, जहाँ मेना सभी लोगोंके साथ थीं ॥ ४-५ ॥

तत्रागत्य सुप्रसन्नो मुनेऽतिप्रेमसङ्‌कुलः ।
हर्षयंस्तां शैलपत्नी मेनां त्वं वाक्यमब्रवीः। ॥ ६ ॥
हे मुने ! वहाँ आकर अत्यन्त हर्षित तथा प्रेमयुक्त आप हिमालयकी पत्नी मेनाको हर्षित करते हुए यह वचन कहने लगे- ॥ ६ ॥

नारद उवाच
मेने पश्य विशालाक्षि शिवरूपमनुत्तमम् ।
कृता शिवेन तेनैव सुकृपा करुणात्मना ॥ ७ ॥
नारदजी बोले-हे विशाल नेत्रोंवाली मेने । आप शिवजीके अत्युत्तम रूपको देखिये, उन्हीं करुणामय शंकरने यह महती कृपा की है ॥ ७ ॥

ब्रह्मोवाच
श्रुत्वा सा तद्वचो मेना विस्मिता शैलकामिनी ।
ददर्श शिवरूपं तत्परमानन्ददायकम् ॥ ८ ॥
कोटिसूर्यप्रतीकाशं सर्वावयवसुन्दरम् ।
विचित्रवसनं चात्र नानाभूषणभूषितम् ॥ ९ ॥
सुप्रसन्नं सुहासं च सुलावण्यं मनोहरम् ।
गौराभं द्युतिसंयुक्तं चन्द्ररेखाविभूषितम् ॥ १० ॥
सर्वैर्देवगणैः प्रीत्या विष्ण्वाद्यैः सेवितं तथा ।
सूर्येण च्छत्रितं मूर्ध्नि चन्द्रेण च विशोभितम् ॥ ११ ॥
सर्वथा रमणीयं च भूषितस्य विभूषणैः ।
वाहनस्य महाशोभा वर्णितुं नैव शक्यते ॥ १२ ॥
ब्रह्माजी बोले-यह बात सुनकर शैलकामिनी मेना विस्मित हो परमानन्द प्रदान करनेवाले शिवरूपको देखने लगीं । वह रूप करोड़ों सूर्यके समान कान्तिमान्, सभी अंगोंसे सुन्दर, विचित्र वस्त्रसे युक्त, अनेक आभूषणोंसे अलंकृत, अत्यन्त प्रसन्न, सुन्दर हास्यसे युक्त, लावण्यमय, मनको मोहित करनेवाला, गौर आभावाला, कान्तिसम्पन्न, चन्द्ररेखासे विभूषित, विष्णु आदि सभी देवताओंसे प्रेमपूर्वक सेवित, सिरपर सूर्य तथा चन्द्रमाके द्वारा लगाये गये छत्रसे शोभायमान, अत्यन्त शोभामय तथा सभी प्रकारसे रमणीय था । आभूषणोंसे विभूषित उनके वाहनकी महा-शोभाका तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता ॥ ८-१२ ॥

गङ्‌गा च यमुना चैव विधत्तः स्म सुचामरे ।
सिद्धयोऽष्टौ पुरस्तस्य कुर्वन्ति स्म सुनर्तनम् ॥ १३ ॥
गंगा और यमुना उनपर चँवर डुला रही थीं और आठों सिद्धियाँ उनके आगे सुन्दर नृत्य कर रही थीं ॥ १३ ॥

मया चैव तदा विष्णुरिन्द्राद्या ह्यमरास्तथा ।
स्वं स्वं वेषं सुसम्भूष्य गिरिशेनाचरन्युताः ॥ १४ ॥
उस समय मेरे तथा शिवजीके साथ विष्णु, इन्द्र आदि सभी देवता अपने-अपने वेष धारणकर चल रहे थे ॥ १४ ॥

तथा जयेति भाषन्तो नानारूपा गणास्तदा ।
स्वलङ्कृतमहामोदा गिरीशपुरतोऽचरन् ॥ १५ ॥
महान् मोदमें भरे हुए तथा अनेक प्रकारके रूपोंवाले गण उस समय जय-जयकार करते हुए शिवजीके आगे-आगे चल रहे थे ॥ १५ ॥

सिद्धाश्चोपसुराः सर्वे मुनयश्च महासुखाः ।
ययुः शिवेन सुप्रीताः सकलाश्चापरे तथा ॥ १६ ॥
सिद्ध, अन्य देवता, महामंगलकारी मुनिगण तथा अन्य लोग भी प्रसन्न होकर शिवजीके साथ चल रहे थे ॥ १६ ॥

एवं देवादयः सर्वे कुतूहलसमन्विताः ।
परम्ब्रह्म गृणन्तस्ते स्वपत्नीभिरलङ्‌कृताः ॥ १७ ॥
विश्वावसुमुखास्तत्र ह्यप्सरोगणसंयुताः ।
गायन्तोऽप्यग्रतस्तस्य परमं शाङ्करं यशः ॥ १८ ॥
इसी प्रकार सजे हुए सभी देवता अपनी स्त्रियोंको साथ लिये कौतूहलसे युक्त हो परब्रह्म शंकरजीकी स्तुति करते हुए चल रहे थे । समस्त अप्सराओंको साथ लिये हुए विश्वावसु आदि गन्धर्व शिवजीके महान् यशका गान करते हुए उनके आगे-आगे चल रहे थे ॥ १७-१८ ॥

इत्थं महोत्सवस्तत्र बभूव मुनिसत्तम ।
नानाविधो महेशे हि शैलद्वारि च गच्छति ॥ १९ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार हिमालयके द्वारपर शंकरके जाते समय अनेक प्रकारके महोत्सव हो रहे थे ॥ १९ ॥

तस्मिंश्च समये तत्र सुषमा या परात्मनः ।
वर्णितुं तां विशेषेण कः शक्नोति मुनीश्वर ॥ २० ॥
हे मुनीश्वर ! उस समय परमात्मा शंकरकी जैसी शोभा थी, उसका विशेष रूपसे वर्णन कौन कर सकता है ? ॥ २० ॥

तथाविधं च तन्दृष्ट्‍वा मेना चित्रगता इव ।
क्षणमासीत्ततः प्रीत्या प्रोवाच वचनं मुने ॥ २१ ॥
हे मुने ! उस प्रकारके रूपवाले उन शिवजीको देखकर मेना क्षणभरके लिये चित्रलिखितके समान हो गयीं, इसके बाद वे प्रेमपूर्वक यह वचन कहने लगीं- ॥ २१ ॥

मेनोवाच
धन्या पुत्री मदीया च यया तप्तं महत्तपः ।
यत्प्रभावान्महेशान त्वं प्राप्त इह मद्‌गृहे ॥ २२ ॥
मेना बोली-हे महेशान ! मेरी पुत्री धन्य है, जिसने कठिन तपस्या की । जिसके प्रभावसे आप यहाँ मेरे घर पधारे हैं ॥ २२ ॥

मया कृता पुरा या वै शिवनिन्दा दुरत्यया ।
तां क्षमस्व शिवास्वामिन्सुप्रसन्नो भवाधुना ॥ २३ ॥
हे शिवास्वामिन् ! मैंने पहले जो घोर शिवनिन्दा की है, उसे आप क्षमा कीजिये और अब परम प्रसन्न हो जाइये ॥ २३ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्थं सम्भाष्य सा मेना संस्तूयेन्दुललाटकम् ।
साञ्जलिः प्रणता शैलप्रिया लज्जापराऽभवत् ॥ २४ ॥
तावत्स्त्रियः समाजग्मुर्हित्वा कामाननेकशः ।
बह्व्यस्ताः पुरवासिन्यः शिवदर्शनलालसाः ॥ २५ ॥
मज्जनं कुर्वती काचित्तच्चूर्णसहिता ययौ ।
द्रष्टुं कुतूहलाढ्या च शङ्करं गिरिजावरम् ॥ २६ ॥
ब्रह्माजी बोले-शैलप्रिया मेनाने इस प्रकार कहकर चन्द्रमौलिकी स्तुतिकर अत्यन्त लज्जित हो हाथ जोड़कर प्रणाम किया । उसी समय नगरकी बहुत-सी स्त्रियाँ [अपना-अपना] सारा काम छोड़कर शिवदर्शनकी इच्छासे वहाँ पहुँच गयीं । स्नान करती हुई कोई स्त्री स्नानचूर्ण लिये लिये कुतूहलमें भरकर गिरिजापति शंकरको देखनेके लिये पहुँच गयी ॥ २४-२६ ॥

काचित्तु स्वामिनःसेवां सखीयुक्ता विहाय च ।
सुचामरकरा प्रीत्यागाच्छम्भोर्दर्शनाय वै ॥ २७ ॥
काचित्तु बालकं हित्वा पिबन्तं स्तन्यमादरात् ।
अतृप्तं शङ्करं द्रष्टुं ययौ दर्शनलालसा ॥ २८ ॥
कोई [स्त्री] अपने स्वामीको सेवा छोड़कर हाथमें सुन्दर चैंबर लिये हुए अपनी सखीके साथ शंकरजीके दर्शनके लिये प्रेमपूर्वक पहुँच गयी । कोई स्तनपान करते हुए अपने बालकको अतृप्त ही छोड़कर शिवजीके दर्शनकी इच्छासे आदरपूर्वक [वहाँ चली गयी ॥ २७-२८ ॥

रशनां बध्नती काचित्तयैव सहिता ययौ ।
वसनं विपरीतं वै धृत्वा काचिद्ययौ ततः ॥ २९ ॥
भोजनार्थं स्थितं कान्तं हित्वा काचिद्ययौ प्रिया ।
द्रष्टुं शिवावरं प्रीत्या सतृष्णा सकुतूहला ॥ ३० ॥
कोई करधनी बाँध रही थी, उसे वैसे ही लिये पहुँच गयी और कोई विपरीत वस्त्र धारण किये ही पहुँच गयी । कोई स्त्री भोजनके लिये बैठे हुए अपने पतिको छोड़कर प्रेमसे पार्वतीपतिको देखनेकी तृष्णा लिये कुतूहलमें भरकर वहाँ पहुँच गयी ॥ २९-३० ॥

काचिद्धस्ते शलाकां च धृत्वाञ्जनकरा प्रिया ।
अञ्जित्वैकाक्षि सन्द्रष्टुं ययौ शैलसुतावरम् ॥ ३१ ॥
कोई स्त्री एक ही आँख में अंजन लगाकर एक हाथमें अंजन और दूसरे हाथमें शलाका लिये हुए हिमालयपुत्रीके पतिको देखनेके लिये चल पड़ी ॥ ३१ ॥

काचित्तु कामिनी पादौ रञ्जयन्ती ह्यलक्तकैः ।
श्रुत्वा घोषं च तद्धित्वा दर्शनार्थमुपागता ॥ ३२ ॥
इत्यादि विविधं कार्यं हित्वा वासं स्त्रियो ययुः ।
दृष्ट्‍वा तु शाङ्‌करं रूपं मोहं प्राप्तास्तदाऽभवन् ॥ ३३ ॥
ततस्ताः प्रेमसंविग्नाः शिवदर्शनहर्षिताः ।
निधाय हृदि तन्मूर्तिं वचनं चेदमब्रुवन् ॥ ३४ ॥
कोई स्त्री पैरोंमें महावर लगा ही रही थी कि बाजेका शब्द सुनकर वह उसे वहीं छोड़कर दर्शनके लिये दौड़ पड़ी । इस प्रकार स्त्रियाँ विविध कार्योंको तथा निवासस्थानको छोड़कर पहुँच गयीं । [उस समय] शिवका रूप देखकर वे मोहित हो गयीं । तब शिवदर्शनसे हर्षित हुई वे प्रेमसे विभोर हो उनकी मूर्ति हृदयमें धारणकर [परस्पर] यह वचन कहने लगी- ॥ ३२-३४ ॥

पुरवासिन्य ऊचुः
नेत्राणि सफलान्यासन् हिमवत्पुरवासिनाम् ।
यो योऽपश्यददो रूपं तस्य वै सार्थकं जनुः ॥ ३५ ॥
तस्यैव सफलं जन्म तस्यैव सफलाः क्रियाः ।
येन दृष्टः शिवःसाक्षात्सर्वपापप्रणाशकः ॥ ३६ ॥
पुरवासिनियाँ बोलीं-हिमालयपुरीमें रहनेवालोंके नेत्र सफल हो गये, जिस-जिसने इस स्वरूपको देखा, आज उसका जन्म सफल हो गया । उसीका जन्म सफल है एवं उसीकी क्रियाएँ सफल हैं, जिसने सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाले साक्षात् शिवका दर्शन किया ॥ ३५-३६ ॥

पार्वत्या साधितं सर्वं शिवार्थं यत्तपः कृतम् ।
धन्येयं कृतकृत्येयं शिवा प्राप्य शिवं पतिम् ॥ ३७ ॥
पार्वतीने सब कुछ सिद्ध कर लिया, जो उसने शिवके लिये तप किया । यह पार्वती शिवको पतिरूपमें प्राप्तकर धन्य तथा कृतकृत्य हो गयी ॥ ३७ ॥

यदीदं युगलं ब्रह्मा न युञ्ज्याच्छिवयोर्मुदा ।
तदा च सकलोऽप्यस्य श्रमो निष्फलतामियात् ॥ ३८ ॥
यदि ब्रह्मा प्रसन्नतापूर्वक शिवा शिवकी इस जोड़ीको न मिलाते तो, उनका सम्पूर्ण श्रम व्यर्थ हो जाता ॥ ३८ ॥

सम्यक् कृतं तथा चात्र योजितं युग्ममुत्तमम् ।
सर्वेषां सार्थता जाता सर्वकार्यसमुद्‌भवा ॥ ३९ ॥
विना तु तपसा शम्भोर्दर्शनं दुर्लभं नृणाम् ।
दर्शनाच्छङ्‌करस्यैव सर्वे याताः कृतार्थताम् ॥ ४० ॥
लक्ष्मीर्नारायणं लेभे यथा वै स्वामिनं पुरा ।
तथासौ पार्वती देवी हरम्प्राप्य सुभूषिता ॥ ४१ ॥
इन्होंने बहुत ठीक किया, जो यहाँ उत्तम जोड़ीका संयोग करा दिया । इससे सभीके समस्त कार्योंकी सार्थकता हो गयी । बिना तपस्याके मनुष्योंको शिवजीका दर्शन दुर्लभ है, [आज] शिवजीके दर्शनसे ही सभी लोग कृतार्थ हो गये । जिस प्रकार पूर्व समयमें लक्ष्मीने नारायणको पतिरूपमें प्राप्त किया था, उसी प्रकार ये पार्वती देवी भी शिवको प्राप्तकर सुशोभित हो गयीं ॥ ३९-४१ ॥

ब्रह्माणं च यथा लेभे स्वामिनं वै सरस्वती ।
तथासौ पार्वती देवी हरम्प्राप्य सुभूषिता ॥ ४२ ॥
जिस प्रकार सरस्वतीने ब्रह्माको पतिरूपमें पाया था, वैसे ही पार्वती देवी शंकरको प्राप्तकर सुशोभित हो गयीं ॥ ४२ ॥

वयं धन्याः स्त्रियः सर्वाः पुरुषाः सकला वराः ।
ये ये पश्यन्ति सर्वेशं शंकरं गिरिजापतिम् ॥ ४३ ॥
हम सभी स्त्रियाँ धन्य हैं तथा सभी पुरुष धन्य हैं, जो जो गिरिजापति सर्वेश्वर शिवका दर्शन कर रहे हैं ॥ ४३ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्थमुक्त्वा तु वचनं चन्दनैश्चाक्षतैरपि ।
शिवं समर्चयामासुर्लाजान्ववृषुरादरात् ॥ ४४ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] ऐसा कहकर उन लोगोंने चन्दन एवं अक्षतसे शिवजीका पूजन किया और आदरपूर्वक उनके ऊपर लाजाकी वर्षा की ॥ ४४ ॥

तस्थुस्तत्र स्त्रियः सर्वा मेनया सह सोत्सुकाः ।
वर्णयन्त्योऽधिकम्भाग्यं मेनायाश्च गिरेरपि ॥ ४५ ॥
कथास्तथाविधाः शृण्वंस्तद्वामावर्णिताः शुभाः ।
प्रहृष्टोऽभूत्प्रभुः सर्वैर्मुने विष्ण्वादिभिस्तदा ॥ ४६ ॥
उसके अनन्तर सभी स्त्रियाँ उत्सुक होकर मेनाके साथ खड़ी रहीं और हिमालय तथा मेनाके महान् भाग्यकी सराहना करने लगी । हे मुने ! स्त्रियोंके द्वारा कही गयी उस प्रकारकी शुभ बातोंको सुनकर विष्णु आदि सभी देवताओंके साथ प्रभु अत्यन्त प्रसन्न हुए । ४५-४६ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखण्डे
शिवसुन्दरस्वरूपपुरवास्युत्सववर्णनं नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४५ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें शिवके सुन्दर स्वरूप और पुरवासियों के उत्सवका वर्णन नामक पैंतालीसवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४५ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


GO TOP