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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे
षट्चत्शरिंशोऽध्यायः ॥ मण्डपद्वारे वरागमनवर्णनम् -
नगरमें बरातियोंका प्रवेश, द्वाराचार तथा पार्वतीद्वारा कुलदेवताका पूजन - ब्रह्मोवाच अथ शंभुः प्रसन्नात्मा सदूतं स्वगणैःसुरैः । सर्वैरन्यैर्गिरेर्द्धाम जगाम सकुतूहलम् ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले-तदनन्तर शिवजी प्रसन्नचित्त होकर अपने गणों, देवताओं, दूतों तथा अन्य सभी लोगोंके साथ कुतूहलपूर्वक हिमालयके घर गये ॥ १ ॥ मेनापि स्त्रीगणैस्तैश्च हिमाचलवरप्रिया । तत उत्थाय स्वगृहाभ्यन्तरं सा जगाम ह ॥ २ ॥ हिमालयकी श्रेष्ठ प्रिया मेना भी सभी स्त्रियोंके साथ उठकर अपने घरके अन्दर गयीं ॥ २ ॥ नीराजनार्थं शम्भोश्च दीपपात्रकरा सती । सर्वर्षिस्त्रीगणैःसाकमगच्छद् द्वारमादरात् ॥ ३ ॥ इसके बाद वे सती शिवजीकी आरतीके लिये हाथमें दीपक लेकर सभी ऋषियोंकी स्त्रियोंको साथ लेकर आदरपूर्वक द्वारपर आयीं ॥ ३ ॥ तत्रागतं महेशानं शंकरं गिरिजावरम् । ददर्श प्रीतितो मेना सेवितं सकलैः सुरैः ॥ ४ ॥ वहाँ मेनाने द्वारपर आये हुए, सभी देवताओंसे सेवित गिरिजापति महेश्वर शिवको बड़े प्रेमसे देखा ॥ ४ ॥ चारुचम्पकवर्णाभं ह्येकवक्त्रं त्रिलोचनम् । ईषद्धास्यप्रसन्नास्यं रत्नस्वर्णादिभूषितम् ॥ ५ ॥ मालतीमालया युक्तं सद्रत्नमुकुटोज्ज्वलम् । सत्कण्ठाभरणं चारुवलयाङ्गदभूषितम् ॥ ६ ॥ वह्निशौचेनातुलेन त्वतिसूक्ष्मेण चारुणा । अमूल्यवस्त्रयुग्मेन विचित्रेणातिराजितम् ॥ ७ ॥ चन्दनागरुकस्तूरीचारुकुङ्कुमभूषितम् । रत्नदर्पणहस्तं च कज्जलोज्ज्वललोचनम् ॥ ८ ॥ सर्वस्वप्रभयाच्छन्नमतीवसुमनोहरम् । अतीव तरुणं रम्यं भूषिताङ्गैश्च भूषितम् ॥ ९ ॥ कामिनीकान्तमव्यग्रं कोटिचन्द्राननाम्बुजम् । कोटिस्मराधिकतनुच्छविं सर्वाङ्गसुन्दरम् ॥ १० ॥ ईदृग्विधं सुदेवं तं स्थितं स्वपुरतः प्रभुम् । दृष्ट्वा जामातरं मेना जहौ शोकं मुदाऽन्विता ॥ ११ ॥ सुन्दर चम्पक पुष्पके वर्णके समान आभावाले, पाँच मुखवाले, तीन नेत्रवाले, मन्द मुसकान तथा प्रसन्नतायुक्त मुखवाले, रत्न तथा सुवर्ण आदिसे शोभित, मालतीको मालासे युक्त, उत्तम रत्नोंसे जटित मुकुटसे प्रकाशित, गलेमें सुन्दर हार धारण किये हुए. सुन्दर कंगन तथा बाजूबन्दसे सुशोभित, अग्निके समान देदीप्यमान, अनुपम, अत्यन्त सूक्ष्म, मनोहर, बहुमूल्य तथा विचित्र युग्म वस्त्र धारण किये हुए, चन्दन अगरुकस्तूरी तथा सुन्दर कुमकुमके लेपसे शोभित, हाथमें रत्नमय दर्पण लिये हुए, कज्जलके कारण कान्तिमान् नेत्रवाले, सम्पूर्ण प्रभासे आच्छन्न, अत्यन्त मनोहर, पूर्ण यौवनवाले, रम्य, सजे हुए अंगोंसे विभूषित, स्त्रियोंको सुन्दर लगनेवाले, व्यग्रतासे रहित, करोड़ों चन्द्रमाके समान मुखकमलवाले, करोड़ों कामदेवसे भी अधिक शरीरकी छविवाले तथा सर्वांगसुन्दर-इस प्रकारके अपने जामाता सुन्दर देव प्रभु शिवको अपने आगे स्थित देखकर मेनाने अपना शोक त्याग दिया और वे आनन्दमें भर गयीं ॥ ५-११ ॥ प्रशशंस स्वभाग्यं सा गिरिजां भूधरं कुलम् । मेने कृतार्थमात्मानं जहर्ष च पुनः पुनः ॥ १२ ॥ वे अपने भाग्य, गिरिजा तथा पर्वतके कुलकी प्रशंसा करने लगीं । उन्होंने अपनेको कृतार्थ माना और वे बार-बार प्रसन्न होने लगीं ॥ १२ ॥ नीराजनं चकारासौ प्रफुल्लवदना सती । अवलोकपरा तत्र मेना जामातरं मुदा ॥ १३ ॥ गिरिजोक्तमनुस्मृत्य मेना विस्मयमागता । मनसैव ह्युवाचेदं हर्षफुल्लाननाम्बुजा ॥ १४ ॥ यद्वै पुरोक्तं च तया पार्वत्या मम तत्र च । ततोधिकं प्रपश्यामि सौन्दर्यं परमेशितुः ॥ १५ ॥ महेशस्य सुलावण्यमनिर्वाच्यं च सम्प्रति । एवं विस्मयमापन्ना मेना स्वगृहमाययौ ॥ १६ ॥ तब वे सती मेना प्रसन्नमुख होकर आरती करने लगी और आनन्दपूर्वक उन्हें देखने लगीं । वे मेना गिरिजाकी कही हुई बातका स्मरणकर विस्मित हो गयीं । उनका मुखकमल हर्षके कारण खिल उठा और वे अपने मनमें कहने लगीं-उस पार्वतीने मुझसे पूर्वमें जो कहा था, मैं तो इससे भी अधिक सौन्दर्य परमेश्वरका देख रही हूँ । इस समय महेश्वरका सौन्दर्य तो वर्णनसे परे है । इस प्रकार विस्मित हुई मेना अपने घरके भीतर गयीं ॥ १३-१६ ॥ प्रशशंसुर्युवतयो धन्या धन्या गिरेः सुता । दुर्गा भगवतीत्येवमूचुः काश्चन कन्यकाः ॥ १७ ॥ युवतियाँ प्रशंसा करने लगी कि गिरिजा धन्य हैं, धन्य हैं और कुछ कन्याओंने तो यह कहा कि ये साक्षात् भगवती दुर्गा है ॥ १७ ॥ न दृष्टो वर इत्येवमस्माभिर्दानगोचरः । धन्या हि गिरिजादेवीमूचुः काश्चन कन्यकाः ॥ १८ ॥ कुछ कन्याएँ तो इस प्रकार कहने लगी कि ये गिरिजा धन्य हैं, जो इन्हें मनोहर पति प्राप्त हुआ । हमलोगोंने तो इस प्रकारके मनोहर वरका दर्शन ही नहीं किया है ॥ १८ ॥ जगुर्गन्धर्वप्रवरा ननृतुश्चाप्सरोगणाः । दृष्ट्वा शंकररूपं च प्रहृष्टाः सर्वदेवताः ॥ १९ ॥ [उस समय] श्रेष्ठ गन्धर्व गाने लगे, अप्सराएँ नृत्य करने लगीं । सभी देवता शंकरजीके रूपको देखकर अत्यन्त हर्षित हो गये ॥ १९ ॥ नानाप्रकारवाद्यानि वादका मधुराक्षरम् । नानाप्रकारशिल्पेन वादयामासुरादरात् ॥ २० ॥ बाजा बजानेवाले अनेक प्रकारके कौशलसे मधुर ध्वनिमें आदरपूर्वक अनेक प्रकारके वाद्य बजाने लगे ॥ २० ॥ हिमाचलोऽपि मुदितो द्वाराचारमथाकरोत् । मेनापि सर्वनारीभिर्महोत्सवपुरःसरम् ॥ २१ ॥ परपुच्छां चकारासौ मुदिता स्वगृहं ययौ । शिवो निवेदितं स्थानं जगाम गणनिर्जरैः ॥ २२ ॥ इसके बाद हिमालयने भी प्रसन्न होकर द्वाराचार किया । मेनाने भी आनन्दित होकर सभी स्त्रियोंके साथ महोत्सवपूर्वक परिछन किया । फिर वे अपने घरमें चली गयीं । इसके बाद शिवजी भी अपने गणों और देवताओंके साथ निर्दिष्ट स्थानपर चले गये । २१-२२ ॥ एतस्मिन्नन्तरे दुर्गां शैलान्तःपुरचारिका । बहिर्जग्मुःसमादाय पूजितुं कुलदेवताम् ॥ २३ ॥ इसी बीच हिमालयके अन्त:पुरकी परिचारिकाएँ दुर्गाको साथ लेकर कुलदेवताकी पूजा करनेके लिये बाहर गयीं ॥ २३ ॥ तत्र तां ददृशुर्देवा निमेषरहिता मुदा । सुनीलाञ्जनवर्णाभां स्वाङ्गैश्च प्रतिभूषिताम् ॥ २४ ॥ त्रिनेत्रादृतनेत्रां तामन्यवारितलोचनाम् । ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां सकटाक्षां मनोहराम् ॥ २५ ॥ सुचारुकबरीभारां चारुपत्रक शोभिताम् । कस्तूरीबिन्दुभिःसार्द्धं सिन्दूरबिन्दुशोभिताम् ॥ २६ ॥ रत्नेन्द्रसारहारेण वक्षसा सुविराजिताम् । रत्नकेयूरवलयां रत्नकङ्कणमण्डिताम् ॥ २७ ॥ सद्रत्नकुण्डलाभ्यां च चारुगण्डस्थलोज्ज्वलाम् । मणिरत्नप्रभामुष्टिदन्तराजिविराजिताम् ॥ २८ ॥ मधुबिम्बाधरोष्ठां च रत्नयावकसंयुताम् । रत्नदर्पणहस्तां च क्रीडापद्मविभूषिताम् ॥ २९ ॥ चन्दनागुरुकस्तूरीकुङ्कुमेनाति चर्चिताम् । क्वणन्मञ्जीरपादां च रक्ताङ्घ्रितलराजिताम् ॥ ३० ॥ वहाँपर देवताओंने प्रेमपूर्वक अपलक दृष्टिसे नील अंजनके समान वर्णवाली, अपने अंगोंसे विभूषित, शिवजीके द्वारा आदत, तीन नेत्रोंवाली, [शिवजीके अतिरिक्त] अन्यके ऊपरसे हटे हुए नेत्रवाली, मन्दमन्द हासयुक्त तथा प्रसन्न मुखमण्डलवाली, कटाक्षयुक्त, मनोहर, सुन्दर केशपाशवाली, सुन्दर पत्र-रचनासे शोभित, कस्तूरी बिन्दुसहित सिन्दूरबिन्दुसे शोभित, वक्षःस्थलपर श्रेष्ठ रत्नोंके हारसे सुशोभित, रत्ननिर्मित बाजूबन्द धारण करनेवाली, रत्नमय कंकणोंसे मण्डित, श्रेष्ठ रत्नोंके कुण्डलोंसे प्रकाशित, सुन्दर कपोलवाली, मणि एवं रत्नोंको कान्तिको फीकी कर देनेवाली दन्तपंक्तिसे सुशोभित, मनोहर बिम्बफलके समान अधरोष्ठवाली, रत्नोंके यावक (महावर)-से युक्त, हाथमें रत्नमय दर्पण धारण की हुई, क्रीड़ाके लिये कमलसे विभूषित, चन्दनअगरु-कस्तूरी तथा कुमकुमके लेपसे सुशोभित, मधुर शब्द करते हुए पुंघरुओंसे युक्त चरणोंवाली तथा रक्तवर्णके पादतलसे शोभित उन देवीको देखा ॥ २४-३० ॥ प्रणेमुः शिरसा देवीं भक्तियुक्ताः समेनकाम् । सर्वे सुरादयो दृष्ट्वा जगदाद्यां जगत्प्रसूम् ॥ ३१ ॥ उस समय सभी देवता आदिने जगतकी आदिस्वरूपा तथा जगत्को उत्पन्न करनेवाली देवीको देखकर भक्तियुक्त हो सिर झुकाकर मेनासहित उन्हें प्रणाम किया ॥ ३१ ॥ त्रिनेत्रो नेत्रकोणेन तां ददर्श मुदान्वितः । शिवः सत्याकृतिं दृष्ट्वा विजहौ विरहज्वरम् ॥ ३२ ॥ त्रिनेत्र शंकरने भी उन्हें अपने नेत्रके कोणसे देखा और सतीके रूपको देखकर विरहज्वरको त्याग दिया ॥ ३२ ॥ शिवः सर्वं विसस्मार शिवासंन्यस्तलोचनः । पुलकाञ्चितसर्वाङ्गो हर्षाद्गौरीविलोचनः ॥ ३३ ॥ अथ काली बहिः पुर्यां गत्वा पूज्य कुलाम्बिकाम् । विवेश भवनं रम्यं स्वपितुःसद्विजाङ्गना ॥ ३४ ॥ शिवापर टिकाये हुए नेत्रवाले शिव सब कुछ भूल गये । गौरीको देखनेसे हर्षके कारण उनके सभी अंग पुलकित हो उठे । इस प्रकार कालीने नगरके बाहर जाकर कुलदेवीका पूजनकर द्विजपलियोंके साथ अपने पिताके रम्य घरमें प्रवेश किया ॥ ३३-३४ ॥ शङ्करोपि सुरैः सार्द्धं हरिणा ब्राह्मणा तथा । हिमाचलसमुद्दिष्टं स्वस्थानमगमन्मुदा ॥ ३५ ॥ शंकरजी भी देवताओं, ब्रह्मा तथा विष्णुके साथ हिमालयके द्वारा निर्दिष्ट अपने स्थानपर प्रसन्नतापूर्वक चले गये ॥ ३५ ॥ तत्र सर्वे सुखं तस्थुः सेवन्तः शङ्करं यथा । सम्मानिता गिरीशेन नानाविधसुसम्पदा ॥ ३६ ॥ वहाँपर सभी लोग गिरीशके द्वारा नाना प्रकारको सम्पत्तिसे सम्मानित होकर शंकरजीकी सेवा करते हुए सुखपूर्वक ठहर गये ॥ ३६ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखण्डे वरागमादिवर्णनं नाम षट्चत्शरिंशोऽध्यायः ॥ ४६ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें वरके आगमन आदिका वर्णन नामक छियालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४६ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |