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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे
सप्तचत्शरिंशोऽध्यायः ॥ शिवस्यहिमगिरिगृहाभ्यन्तरगमनोत्सववर्णनम् -
पाणिग्रहणके लिये हिमालयके घर शिवके गमनोत्सवका वर्णन - ब्रह्मोवाच ततः शैलवरः सोपि प्रीत्या दुर्गोपवीतकम् । कारयामास सोत्साहं वेदमन्त्रैः शिवस्य च ॥ १ ॥ अथ विष्ण्वादयो देवा मुनयःसकुतू हलम् । हिमाचलप्रार्थनया विवेशान्तर्गृहं गिरेः ॥ २ ॥ ब्रह्माजी बोले-तदनन्तर शैलराजने प्रसन्नतापूर्वक बड़े उत्साहसे वेदमन्त्रोंके द्वारा शिवा एवं शिवजीका उपनयन संस्कार सम्पन्न कराया । तदनन्तर विष्णु आदि देवताओं एवं मुनियोंने हिमालयके द्वारा प्रार्थना किये जानेपर उनके घरके भीतर प्रवेश किया ॥ १-२ ॥ श्रुत्याचारं भवाचारं विधाय च यथार्थतः । शिवामलङ्कृतां चक्रुः शिवदत्तविभूषणैः ॥ ३ ॥ प्रथमं स्नापयित्वा तां भूषयित्वाथ सर्वशः । नीराजिता सखीभिश्च विप्रपत्नीभिरेव च ॥ ४ ॥ अहताम्बरयुग्मेन शोभिता वरवर्णिनी । विरराज महाशैलदुहिता शङ्करप्रिया ॥ ५ ॥ उन लोगोंने लोक तथा वेदरीतिको यथार्थ रूपसे सम्पन्नकर शिवके द्वारा दिये गये आभूषणोंसे पार्वतीको अलंकृत किया । सखियों और ब्राह्मणोंकी पत्नियोंने पहले पार्वतीको स्नान कराकर पुनः सभी प्रकारसे सजाकर उनकी आरती उतारी । शंकरप्रिया तथा गिरिराजसुता वरवर्णिनी पार्वती उस समय दो नूतन वस्त्र धारण किये हुए अत्यन्त शोभित हो रही थीं ॥ ३-५ ॥ कञ्चुकी परमा दिव्या नानारत्नान्विताद्भुता । विधृता च तया देव्या विलसन्त्याधिकं मुने ॥ ६ ॥ सा बभार तथा हारं दिव्यरत्नसमन्वितम् । वलयानि महार्हाणि शुद्धचामीकराणि च ॥ ७ ॥ हे मुने ! उन देवीने अनेक प्रकारके रत्नोंसे जटित परम दिव्य तथा अद्भुत कंचुकी धारण की, जिससे वे अधिक शोभा पाने लगीं । तदनन्तर उन्होंने दिव्य रत्नोंसे जड़ा हुआ हार तथा शुद्ध सुवर्णके बने हुए बहुमूल्य कंकणोंको भी धारण किया ॥ ६-७ ॥ स्थिता तत्रैव सुभगा ध्यायन्ती मनसा शिवम् । शुशुभेति महाशैलकन्यका त्रिजगत्प्रसूः ॥ ८ ॥ तीनों जगत्को उत्पन्न करनेवाली तथा महाशैलकी कन्या सौभाग्यवती वे पार्वती मनमें शिवजीका ध्यान करते हुए वहींपर बैठी हुई अत्यन्त शोभित होने लगीं ॥ ८ ॥ तदोत्सवो महानासीदुभयत्र मुदा वहः । दानं बभूव विविधं ब्राह्मणेभ्यो विवर्णितम् ॥ ९ ॥ अन्येषां द्रव्यदानं च बभूव विविधं महत् । गीतवाद्यविनोदश्च तत्रोत्सवपुरःसरम् ॥ १० ॥ उस समय दोनों पक्षोंमें आनन्ददायक महान् उत्सव हुआ और [उभयपक्षसे] नाना प्रकारके अवर्णनीय दान ब्राह्मणोंको दिये गये । इसी प्रकार लोगोंको भी अनेक प्रकारके दान दिये गये और वहाँ उत्सवपूर्वक गीत, वाद्य एवं विनोद सम्पन्न हुए ॥ ९-१० ॥ अथ विष्णुरहं धाता शक्राद्या अमरास्तथा । मुनयश्च महाप्रीत्या निखिलाःसोत्सवा मुदा ॥ ११ ॥ सुप्रणम्य शिवां भक्त्या स्मृत्वा शिवपदाम्बुजम् । सम्प्राप्य हिमगिर्याज्ञां स्वं स्वं स्थाने समाश्रिताः ॥ १२ ॥ एतस्मिन्नन्तरे तत्र ज्योतिःशास्त्र विशारदः । हिमवन्तं गिरीन्द्रं तं गर्गो वाक्यमभाषत ॥ १३ ॥ तब मैं ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र आदि सभी देवगण तथा सभी मुनिलोग बड़ी प्रसन्नताके साथ आनन्दपूर्वक उत्सव मनाकर भक्तिपूर्वक पार्वतीको प्रणामकर तथा शिवजीके चरणकमलोंका ध्यानकर हिमालयकी आज्ञा प्राप्त करके अपने-अपने स्थानपर बैठ गये । इसी समय वहाँ ज्योति:शास्त्रके पारंगत विद्वान् गर्गाचार्य उन गिरिराज हिमालयसे यह वचन कहने लगे- ॥ ११-१३ ॥ गर्ग उवाच हिमाचल धराधीश स्वामिन् कालीपतिः प्रभो । पाणिग्रहार्थं शम्भुं चानय त्वं निजमन्दिरम् ॥ १४ ॥ गर्ग बोले-हे हिमालय ! हे धराधीश ! हे स्वामिन् । हे कालीके पिता ! हे प्रभो ! अब आप पाणिग्रहणके निमित्त शिवजीको अपने घरपर ले आइये ॥ १४ ॥ ब्रह्मोवाच अथ तं समयं ज्ञात्वा कन्यादानोचितं गिरिः । निवेदितं च गर्गेण मुमुदेऽतीव चेतसि ॥ १५ ॥ ब्रह्माजी बोले-तत्पश्चात् गर्गके द्वारा निर्देश किये गये कन्यादानके लिये उचित समयको जानकर हिमालय मनमें अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ १५ ॥ महीधरान्द्विजांश्चैव परानपि मुदा गिरिः । प्रेषयामास सुप्रीत्या शिवानयनकाम्यया ॥ १६ ॥ ते पर्वता द्विजाश्चैव सर्वमंगलपाणयः । सञ्जग्मुः सोत्सवाः प्रीत्या यत्र देवो महेश्वरः ॥ १७ ॥ हिमालयने आनन्दित होकर [उसी समय] पर्वतों, द्विजों तथा अन्य लोगोंको भी अत्यन्त प्रेमके साथ शिवजीको बुलानेकी इच्छासे भेजा । वे पर्वत तथा ब्राह्मण हाथोंमें सभी मांगलिक वस्तुएँ लेकर महान् उत्सव करते हुए प्रेमपूर्वक वहाँ गये, जहाँ भगवान् महेश्वर थे ॥ १६-१७ ॥ तदा वादित्रघोषेण ब्रह्मघोषेण भूयसा । महोत्साहोऽभवत्तत्र गीतनृत्यान्वितेन हि ॥ १८ ॥ उस समय गीत-नृत्यसहित वाद्यध्वनि तथा वेदध्वनिसे महान् उत्सव होने लगा ॥ १८ ॥ श्रुत्वा वादित्रनिर्घोषं सर्वे शंकरसेवकाः । उत्थितास्त्वैकपद्येन सदेवर्षिगणा मुदा ॥ १९ ॥ परस्परं समूचुस्ते हर्षनिर्भरमानसाः । अत्रागच्छन्ति गिरयः शिवानयनकाम्यया ॥ २० ॥ वाद्योंके शब्दको सुनकर शंकरजीके सभी सेवक, देवता, ऋषि तथा गण आनन्दित होकर एक साथ ही उठ खड़े हुए और वे हर्षसे परिपूर्ण होकर परस्पर कहने लगे-शिवजीको बुलानेकी इच्छासे [गिरिराजके द्वारा भेजे गये] पर्वत यहाँ आ रहे हैं ॥ १९-२० ॥ पाणिग्रहणकालो हि नूनं सद्यः समागतः । महद्भाग्यं हि सर्वेषां सम्प्राप्तमहि मन्महे ॥ २१ ॥ धन्या वयं विशेषेण विवाहं शिवयोर्ध्रुवम् । द्रक्ष्यामः परमप्रीत्या जगतां मंगलालयम् ॥ २२ ॥ निश्चय ही पाणिग्रहणका काल शीघ्र उपस्थित हो गया है, अतः सभीका महाभाग्य उपस्थित हो गया हैऐसा हमलोग मानते हैं । हमलोग विशेष रूपसे धन्य हैं, क्योंकि हमलोग संसारके मंगलोंके स्थानस्वरूप शिवाशिवके विवाहको अत्यन्त प्रेमसे देखेंगे ॥ २१-२२ ॥ ब्रह्मोवाच एवं यावदभूत्तेषां संवादस्तत्र चादरात् । तावत्सर्वे समायाताः पर्वतेन्द्रस्य मन्त्रिणः ॥ २३ ॥ ते गत्वा प्रार्थयाञ्चक्रुः शिव विष्ण्वादिकानपि । कन्यादानोचितः कालो वर्तते गम्यतामिति ॥ २४ ॥ ब्रह्माजी बोले-जब आदरपूर्वक उनका यह संवाद हो रहा था, उसी समय गिरिराजके सभी मन्त्री वहाँ आ गये । उन लोगोंने जा करके विष्णु आदि तथा शंकरसे प्रार्थना की कि कन्यादानका उचित समय उपस्थित हो गया है, अब आप लोग चलें ॥ २३-२४ ॥ ते तच्छ्रुत्वा सुराःसर्वे मुने विष्ण्वादयोऽखिलाः । मुमुदुश्चेतसातीव जयेत्यूचुर्गिरिं द्रुतम् ॥ २५ ॥ यह सुनकर वे विष्णु आदि सभी देवता मन-हीमन अत्यन्त प्रसन्न हुए और जोर-जोरसे गिरिराज हिमालयकी जय-जयकार करने लगे ॥ २५ ॥ शिवोऽपि मुमुदेऽतीव कालीप्रापणलालसः । गुप्तं चकार तच्चिह्नं मनस्येवाद्भुताकृतिः ॥ २६ ॥ अथ स्नानं कृतं तेन मंगलद्रव्यसंयुतम् । शूलिना सुप्रसन्नेन लोकानुग्रहकारिणा ॥ २७ ॥ इधर, शिवजी भी कालीको प्राप्त करनेकी. लालसासे अत्यन्त प्रसन्न हो उठे, किंतु अद्भुत रूपवाले उन शिवने उसके लक्षणको मनमें गुप्त रखा । इसके उपरान्त लोकपर कृपा करनेवाले शूलधारीने परम प्रसन्न होकर मांगलिक द्रव्योंसे युक्त [जलसे] स्नान किया । २६-२७ ॥ स्नातः सुवाससा युक्तःसर्वैस्तैः परिवारितः । आरोपितो वृषस्कन्धे लोकपालैः सुसेवितः ॥ २८ ॥ पुरस्कृत्य प्रभुं सर्वे जग्मुर्हिमगिरेर्गृहम् । वाद्यानि वादयन्तश्च कृतवन्तः कुतूहलम् ॥ २९ ॥ सभी लोकपालोंने स्नान किये हुए तथा सुन्दर वस्त्रसे युक्त उन शिवको चारों ओरसे घेरकर उनकी सेवा की तथा उन्हें वृषभके स्कन्धपर बैठाया । इसके बाद प्रभुको आगे करके सभी लोग हिमालयके घरको ओर चल पड़े । वे वाद्य बजाते हुए कुतूहल कर रहे थे ॥ २८-२९ ॥ हिमागप्रेषिता विप्रास्तथा ते पर्वतोत्तमाः । शम्भोरग्रचरा ह्यासन्कुतूहलसमन्विताः ॥ ३० ॥ बभौ छत्रेण महता ध्रियमाणो हि मूर्द्धनि । चामरैर्वीज्यमानोऽसौ सवितानो महेश्वरः ॥ ३१ ॥ अहं विष्णुस्तथा चेन्द्रो लोकपाला स्तथैव च । अग्रगाः स्मातिशोभन्ते श्रिया परमया श्रिताः ॥ ३२ ॥ उस समय हिमालयके द्वारा भेजे गये ब्राह्मण तथा श्रेष्ठ पर्वतगण कुतूहलसे युक्त होकर शिवजीके आगे-आगे चल रहे थे । मस्तकपर विशाल छत्र लगाये हुए, चैवर डुलाये जाते एवं वितानसे युक्त वे महेश्वर अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे । उस समय आगे-आगे चलते हुए मैं, विष्णु, इन्द्र तथा समस्त लोकपाल परम ऐश्वयंसे युक्त होकर सुशोभित हो रहे थे । ३०-३२ ॥ ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पटहानकगोमुखाः । पुनः पुनरवाद्यन्त वादित्राणि महोत्सवे ॥ ३३ ॥ उस महोत्सवमें शंख, भेरियाँ, नगाडे, बड़े-बड़े ढोल तथा गोमुख आदि बाजे बार बार बज रहे थे ॥ ३३ ॥ तथैव गायकाः सर्वे जगुः परममंगलम् । नर्तक्यो ननृतुः सर्वा नानातालसमन्विताः ॥ ३४ ॥ सभी गायक भी मंगलगीत गा रहे थे तथा सभी नर्तकियाँ अनेक प्रकारके तालोंके साथ नाच रही थीं ॥ ३४ ॥ एभिःसमेतो जगदेकबन्धु- र्ययौ तदानीं परमेशवर्चसा । सुसेव्यमानःसकलैःसुरेश्वरै- र्विकीर्यमाणः कुसुमैश्च हर्षितैः ॥ ३५ ॥ उस समय इन सभीके साथ जगत्के एकमात्र बन्धु शिव परम तेजसे युक्त होकर समस्त हर्षित सुरेश्वरोंके द्वारा सेवित होते हुए तथा अपने ऊपर पुष्प विकीर्ण किये जाते हुए चल रहे थे ॥ ३५ ॥ सम्पूजितस्तदा शम्भुः प्रविष्टो यज्ञमण्डपम् । संस्तूयमानो बह्वीभिः स्तुतिभिः परमेश्वरः ॥ ३६ ॥ तत्पश्चात् सभी लोगोंसे भली भाँति पूजित होकर शम्भुने यज्ञमण्डपमें प्रवेश किया, उस समय सभी लोग उन परमेश्वरकी नाना प्रकारके स्तोत्रोंसे स्तुति कर रहे थे ॥ ३६ ॥ वृषादुत्तारयामासुर्महेशं पर्वतोत्तमाः । निन्युर्गृहान्तरं प्रीत्या महोत्सवपुरःसरम् ॥ ३७ ॥ श्रेष्ठ पर्वतोंने शिवजीको वृषभसे उतारा और प्रेमके साथ महोत्सवपूर्वक उन्हें घरके भीतर ले गये ॥ ३७ ॥ हिमालयोऽपि सम्प्राप्तं सदेवगणमीश्वरम् । प्रणम्य विधिवद्भक्त्या नीराजनमथाकरोत् ॥ ३८ ॥ हिमालयने भी देवताओं तथा गणोंसहित आये हुए ईश्वरको विधिवत् भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और उनकी आरती उतारी ॥ ३८ ॥ सर्वान्सुरान्मुनीनन्यान् प्रणम्य समहोत्सवः । सम्मानमकरोत्तेषां प्रशंसन्स्वविधिं मुदा ॥ ३९ ॥ [इसी प्रकार] उत्साहयुक्त होकर उन्होंने सभी देवताओं, मुनियों तथा अन्य लोगोंको प्रणामकर अपने भाग्यको प्रशंसा करते हुए प्रेमपूर्वक उन सबका सम्मान किया ॥ ३९ ॥ सोऽगःसाच्युतमीशानं सुपाद्यार्घ्यपुरःसरम् । सदेवमुख्यवर्गं च निनाय स्वालयान्तरम् ॥ ४० ॥ प्राङ्गणे स्थापयामास रत्नसिंहासनेषु तान् । सर्वान्विष्णु च मामीशं विशिष्टांश्च विशेषतः ॥ ४१ ॥ वे हिमालय विष्णु और प्रमुख देवसमुदायसहित ईशानको उत्तम पाद्य तथा अर्ध्य प्रदानकर उन्हें अपने घरमें ले गये और उन्होंने आँगनमें रत्नके सिंहासनपर विशेष विशेष देवताओंको, मुझे, विष्णुको, ईशको तथा सभी विशिष्ट लोगोंको आदरपूर्वक बैठाया ॥ ४०-४१ ॥ सखीभिर्मेनया प्रीत्या ब्राह्मणस्त्रीभिरेव च । अन्याभिश्च पुरन्ध्रीभिश्चक्रे नीराजनं मुदा ॥ ४२ ॥ पुरोधसा कृत्यविदा शंकराय महात्मने । मधुपर्कादिकं यद्यत्कृत्यं तत्तत्कृतं मुदा ॥ ४३ ॥ मेनाने भी बड़े प्रेमसे अपनी सखियों, ब्राह्मणस्त्रियों तथा अन्य पुरन्धियोंके साथ मुदित होकर शिवजीकी आरती उतारी । कर्मकाण्डके ज्ञाता पुरोहितने मधुपर्कदान आदि जो-जो कृत्य था, वह सब महात्मा शंकरके लिये सम्पन्न किया ॥ ४२-४३ ॥ मया स नोदितस्तत्र पुरोधाः कृतवांस्तदा । सुमंगलं च यत्कर्म प्रस्तावसदृशं मुने ॥ ४४ ॥ हे मुने ! पुरोहितने मेरे द्वारा प्रेरित होकर प्रस्तावके अनुकूल जो मांगलिक कार्य था, उसे किया ॥ ४४ ॥ अन्तर्वेद्यां महाप्रीत्या सम्प्रविश्य हिमाद्रिणा । यत्र सा पार्वती कन्या सर्वाभरणभूषिता ॥ ४५ ॥ वेदिकोपरि तन्वङ्गी संस्थिता सुविराजिता । तत्र नीतो महादेवो विष्णुना च मया सह ॥ ४६ ॥ लग्नन्निरीक्षमाणास्ते वाचस्पतिपुरोगमाः । कन्यादानोचितं तत्र बभूवुः परमोत्सवाः ॥ ४७ ॥ उसके बाद अन्तर्वेदीमें बड़े प्रेमसे प्रविष्ट होकर हिमालय वेदीके ऊपर समस्त आभूषणोंसे विभूषित तन्वंगी कन्या पार्वती जहाँ विराजमान थीं, वहाँ विष्णु तथा मेरे साथ महादेवजीको ले गये । उस समय वहाँ बृहस्पति आदि देवता कन्यादानोचित लग्नकी प्रतीक्षा करते हुए अत्यन्त आनन्दित हो रहे थे ॥ ४५-४७ ॥ तत्रोपविष्टो गर्गश्च यत्रास्ति घटिकालयम् । यावच्छेषा घटी तावत्कृतं प्रणवभाषणम् ॥ ४८ ॥ पुण्याहं प्रवदन्गर्गः समादध्रेऽञ्जलिं मुदा । पार्वत्यक्षतपूर्णं च ववृषे च शिवोपरि ॥ ४९ ॥ तया सम्पूजितो रुद्रो दध्यक्षतकुशाम्बुभिः । परमोदारया तत्र पार्वत्या रुचिरास्यया ॥ ५० ॥ जहाँ घटिकायन्त्र स्थापित था, वहींपर गर्गाचार्य बैठे हुए थे । विवाहकी घड़ी आनेतक वे प्रणवका जप कर रहे थे । गर्गाचार्यने पुण्याहवाचन करते हुए अक्षतोंको पार्वतीकी अंजलिमें दिया, तब पार्वतीने प्रेमपूर्वक शिवके ऊपर अक्षतोंकी वर्षा की । इसके बाद परम उदार तथा सुन्दर मुखवाली उन पार्वतीने दही, अक्षत तथा कुशके जलसे शिवजीकी पूजा की ॥ ४८-५० ॥ विलोकयन्ती तं शम्भुं यस्यार्थे परमं तपः । कृतम्पुरा महाप्रीत्या विरराज शिवाति सा ॥ ५१ ॥ मया मुने तदोक्तस्तु गर्गादिमुनिभिश्च सः । समानर्च शिवां शम्भुः लौकिकाचारसंरतः ॥ ५२ ॥ एवं परस्परं तौ वै पार्वतीपरमेश्वरौ । अर्चयन्तौ तदानीं च शुशुभाते जगन्मयौ ॥ ५३ ॥ त्रैलोक्यलक्ष्म्या संवीतौ निरीक्षन्तौ परस्परम् । तदा नीराजितौ लक्ष्म्यादिभिः स्त्रीभिर्विशेषतः ॥ ५४ ॥ जिनके लिये उन शिवाने पूर्वकालसे अत्यन्त कठोर तप किया था, उन शम्भुको प्रेमपूर्वक देखती हुई वे अत्यन्त शोभित हो रही थीं । हे मुने ! तदनन्तर मेरे एवं गर्ग आदि मुनियोंके कहनेपर सदाशिवने लौकिक विधिका आश्रयणकर पार्वतीका पूजन किया । इस प्रकार जगन्मय पार्वती तथा परमेश्वर परस्पर एक-दूसरेका सत्कार करते हुए परम शोभाको प्राप्त हो रहे थे । लक्ष्मी आदि देवियोंने त्रैलोक्यकी शोभासे समन्वित होकर एक दूसरेकी ओर देखते हुए उन दोनोंकी विशेषरूपसे आरती उतारी ॥ ५१-५४ ॥ तथा परा वै द्विजयोषितश्च नीराजयामासुरथो पुरस्त्रियः । शिवां च शम्भुञ्च विलोकयन्त्योऽ- वापुर्मुदं ताःसकला महोत्सवम् ॥ ५५ ॥ तत्पश्चात् ब्राह्मणोंकी स्त्रियों तथा नगरकी अन्य स्त्रियोंने उनकी आरती की । उस समय शिवा तथा शिवको उत्सुकतापूर्वक देखती हुई वे सब बहुत आनन्दित हुई ॥ ५५ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखण्डे शिव हिमगिरिगृहाभ्यन्तरगमनोत्सववर्णनं नाम सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४७ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुगसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें हिमालयके घर शिवके गमनोत्सवका वर्णन नामक सँतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४७ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |