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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे
अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ शिवाशिवयोर्विवाहविधिकथनम् -
शिव-पार्वतीके विवाहका प्रारम्भ, हिमालयद्वारा शिवके गोत्रके विषयमें प्रश्न होनेपर नारदजीके द्वारा उत्तरके रूपमें शिवमाहात्म्य प्रतिपादित करना, हर्षयुक्त हिमालयद्वारा कन्यादानकर विविध उपहार प्रदान करना - ब्रह्मोवाच एतस्मिन्नन्तरे तत्र गर्गाचार्यप्रणोदितः । हिमवानमेनया सार्धं कन्या दातुं प्रचक्रमे ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले- इसी समय वहाँ गर्गाचार्यसे प्रेरित हो मेनासहित हिमवान् कन्यादान करनेहेतु उद्यत हुए ॥ १ ॥ हैमं कलशमादाय मेना चार्धाङ्गमाश्रिता । हिमाद्रेश्च महाभागा वस्त्राभरणभूषिता ॥ २ ॥ पाद्यादिभिस्ततः शैलः प्रहृष्टः स्वपुरोहितः । तं वरं वरयामास वस्त्रचन्दनभूषणैः ॥ ३ ॥ उस समय वस्त्र तथा आभूषणोंसे शोभित महाभागा मेना सोनेका कलश लेकर पति हिमवान्के दाहिने भागमें बैठ गयीं । तत्पश्चात् पुरोहितके सहित हिमालयने प्रसन्न होकर पाद्य आदिसे और वस्त्र, चन्दन तथा आभूषणसे उन वरका वरण किया ॥ २-३ ॥ ततो हिमाद्रिणा प्रोक्ता द्विजास्तिथ्यादिकीर्तने । प्रयोगो भण्यतां तावदस्मिन्समय आगते ॥ ४ ॥ तथेति चोक्त्वा ते सर्वे कालज्ञा द्विजसत्तमाः । तिथ्यादिकीर्तनं चक्रुः प्रीत्या परमनिर्वृताः ॥ ५ ॥ इसके बाद हिमालयने ब्राह्मणोंसे कहा-अब [कन्या दानका] यह समय उपस्थित हो गया है, अतः आपलोग संकल्पके लिये तिथि आदिका उच्चारण कीजिये । उनके यह कहनेपर कालके ज्ञाता श्रेष्ठ ब्राह्मण निश्चिन्त होकर प्रेमपूर्वक तिथि आदिका उच्चारण करने लगे ॥ ४-५ ॥ ततो हिमाचलः प्रीत्या शम्भुना प्रेरितो हृदा । सूतीकृतपरेशेन विहसन् शम्भुमब्रवीत् ॥ ६ ॥ स्वगोत्रं कथ्यतां शम्भो प्रवरश्च कुलं तथा । नाम वेदं तथा शाखां मा कार्षीत्समयात्ययम् ॥ ७ ॥ तब सृष्टिकर्ता परमेश्वर शम्भुके द्वारा हृदयसे प्रेरित हुए हिमालयने हँसते हुए प्रसन्नताके साथ शिवजीसे कहा-हे शम्भो ! अब आप अपने गोत्र, प्रवर, कुल, नाम, वेद तथा शाखाको कहिये, विलम्ब मत कीजिये ॥ ६-७ ॥ ब्रह्मोवाच इत्याकर्ण्य वचस्तस्य हिमाद्रेः शंकरस्तदा । सुमुखाविमुखः सद्योऽप्यशोच्यः शोच्यतां गतः ॥ ८ ॥ ब्रह्माजी बोले-उन हिमालयकी यह बात सुनकर भगवान् शंकर प्रसन्न होते हुए भी उदास हो गये और शोकके योग्य न होते हुए भी शोकयुक्त हो गये ॥ ८ ॥ एवंविधःसुरवरैर्मुनिभिस्तदानीं गन्धर्वयक्षगणसिद्धगणैस्तथैव । दृष्टो निरुत्तरमुखो भगवान्महेशोऽ- कार्षीःसुहास्यमथ तत्र स नारद त्वम् ॥ ९ ॥ वीणामवादयस्त्वं हि ब्रह्मविज्ञोऽथ नारद । शिवेन प्रेरितस्तत्र मनसा शंभुमानसः ॥ १० ॥ तदा निवारितो धीमान् पर्वतेन्द्रेण वै हठात् । विष्णुना च मया देवैर्मुनिभिश्चाखिलैस्तथा ॥ ११ ॥ उस समय श्रेष्ठ देवताओं, मुनियों, गन्धों , यक्षों तथा सिद्धोंने जब शंकरको निरुत्तरमुख देखा, तब हे नारद ! आपने सुन्दर हास्य किया । हे नारद ! उस समय ब्रह्मवेत्ता तथा शिवजीमें आसक्त चित्तवाले आपने शिवजीके द्वारा मनसे प्रेरित होकर वीणा बजायी । उस समय पर्वतराज, विष्णु, मैंने, देवताओं तथा सभी मुनियोंने आप बुद्धिमान्को ऐसा करनेसे हठपूर्वक रोका ॥ ९-११ ॥ न निवृत्तोऽभवस्त्वं हि स यदा शंकरेच्छया । इति प्रोक्तोऽद्रिणा तर्हि वीणां मा वादयाधुना ॥ १२ ॥ सुनिषिद्धो हठात्तेन देवर्षे त्वं यदा बुध । प्रत्यवोचो गिरीशं तं सुसंस्मृत्य महेश्वरम् ॥ १३ ॥ किंतु जब शिवजीकी इच्छासे आप नहीं माने. तब [पुनः] हिमालयने आपसे कहा-इस समय आप वीणा मत बजाइये । हे बुद्धिमान् ! हे देवर्षे ! जब उन्होंने हठपूर्वक आपको मना किया, तब आप महेश्वरका स्मरण करके हिमालयसे कहने लगे- ॥ १२-१३ ॥ नारद उवाच त्वं हि मूढत्वमापन्नो न जानासि च किञ्चन । वाच्ये महेशविषयेऽतीवासि त्वं बहिर्मुखः ॥ १४ ॥ नारदजी बोले-[हे पर्वतराज !] आप मूढ़तासे युक्त हैं, अत: कुछ भी नहीं जानते । महेश्वरके विषयमें कथनीय बातोंसे आप सर्वथा अनभिज्ञ हैं ॥ १४ ॥ त्वया पृष्ठो हरः साक्षात्स्वगोत्रकथनं प्रति । समयेऽस्मिंस्तदत्यन्तमुपहासकरं वचः ॥ १५ ॥ आपने इस समय जो इन साक्षात् महेश्वरसे गोत्र बतानेके लिये कहा है, वह वचन अत्यन्त हास्यास्पद है ॥ १५ ॥ अस्य गोत्रं कुलं नाम नैव जानन्ति पर्वत । विष्णुब्रह्मादयोऽपीह परेषां का कथा स्मृता ॥ १६ ॥ हे पर्वत ! ब्रह्मा, विष्णु आदि भी इनका गोत्र, कुल, नाम नहीं जानते, दूसरोंकी क्या बात कही जाय ! ॥ १६ ॥ यस्यैकदिवसे शैल ब्रह्मकोटिर्लयं गता । स एव शंकरस्तेद्य दृष्टः कालीतपोबलात ॥ १७ ॥ हे शैल ! जिनके एक दिनमें करोड़ों ब्रह्मा लयको प्राप्त हो जाते हैं, उन शंकरका दर्शन आपने आज कालीके तपके प्रभावसे ही किया है ॥ १७ ॥ अरूपोऽयं परब्रह्म निर्गुणः प्रकृतेः परः । निराकारो निर्विकारो मायाधीशः परात्परः ॥ १८ ॥ ये प्रकृतिसे परे, परब्रह्म, अरूप, निर्गुण, निराकार, निर्विकार, मायाधीश तथा परात्पर हैं ॥ १८ ॥ अगोत्रकुलनामा हि स्वतन्त्रो भक्तवत्सलः । तदिच्छया हि सगुणः सुतनुर्बहुनामभृत् ॥ १९ ॥ ये स्वतन्त्र, भक्तवत्सल और गोत्र, कुल तथा नामसे सर्वथा रहित हैं । ये अपनी इच्छासे ही सगुण, सुन्दर शरीरवाले तथा अनेक नामवाले हो जाते हैं ॥ १९ ॥ सुगोत्री गोत्रहीनश्च कुलहीनः कुलीनकः । पार्वतीतपसा सोऽद्य जामाता ते न संशयः ॥ २० ॥ ये गोत्रहीन होते हुए भी श्रेष्ठ गोत्रवाले हैं, कुलहीन होते हुए भी उत्तम कुलवाले हैं और आज पार्वतीके तपसे आपके जामाता हुए हैं, इसमें' सन्देह नहीं ॥ २० ॥ लीलाविहारिणा तेन मोहितं च चराचरम् । नो जानाति शिवं कोऽपि प्राज्ञोऽपि गिरिसत्तम ॥ २१ ॥ लिङ्गाकृतेर्महेशस्य केन दृष्टं न मस्तकम् । विष्णुर्गत्वा हि पातालं तदैनं नापविस्मितः ॥ २२ ॥ उन लीलाविहारीने चराचरसहित जगत्को मोहित कर रखा है । हे गिरिसत्तम ! कोई महान् ज्ञानी भी इन्हें नहीं जानता । ब्रह्माजी भी लिंगकी आकृतिवाले महेशके मस्तकको नहीं देख सके । विष्णु भी पातालतक जाकर इन्हें नहीं प्राप्त कर पाये और आश्चर्यचकित हो गये ॥ २१-२२ ॥ किं बहूक्त्या नगश्रेष्ठ शिवमाया दुरत्यया । तदधीनास्त्रयो लोका हरिब्रह्मादयोऽपि च ॥ २३ ॥ हे गिरिश्रेष्ठ ! अधिक कहनेसे क्या लाभ, शिवजीकी माया बड़ी दुस्तर है । त्रैलोक्य और विष्णु, ब्रह्मा आदि भी उसी [माया] के अधीन हैं ॥ २३ ॥ तस्मात्त्वया शिवा तात सुविचार्य प्रयत्नतः । न कर्तव्यो विमर्शोऽत्र त्वेवंविधवरे मनाक् ॥ २४ ॥ इसलिये हे पार्वतीतात ! प्रयत्नपूर्वक भली-भाँति विचार करके आप वरके गोत्र, कुल एवं इस प्रकारके वरके सम्बन्धमें थोड़ा भी सन्देह मत कीजिये ॥ २४ ॥ ब्रह्मोवाच इत्युक्त्वा त्वं मुने ज्ञानी शिवेच्छाकार्यकारकः । प्रत्यवोचः पुनस्तं वै शैलेद्रं हर्षयन् गिरा ॥ २५ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! ऐसा कहकर ज्ञानी तथा शिवकी इच्छासे कार्य करनेवाले आप पर्वतराजको [अपनी] वाणीसे हर्षित करते हुए पुन: उनसे कहने लगे- ॥ २५ ॥ नारद उवाच शृणु तात महाशैल शिवाजनक मद्वचः । तच्छ्रुत्वा तनयां देवीं देहि त्वं शंकराय हि ॥ २६ ॥ नारदजी बोले-हे तात ! हे महाशैल ! हे शिवाजनक ! आप मेरी बात सुनिये तथा उसे सुनकर शंकरजीको अपनी कन्या प्रदान कीजिये ॥ २६ ॥ सगुणस्य महेशस्य लीलया रूपधारिणः । गोत्रं कुलं विजानीहि नादमेव हि केवलम् ॥ २७ ॥ [अपनी] लीलासे अनेक रूप धारण करनेवाले सगुण महेशका गोत्र तथा कुल केवल नाद ही जानिये ॥ २७ ॥ शिवो नादमयः सत्त्यं नादः शिवमयस्तथा । उभयोरन्तरं नास्ति नादस्य च शिवस्य च ॥ २८ ॥ शिव नादमय हैं और नाद भी शिवमय है, यही सत्य है । शिव तथा नाद-इन दोनोंमें भेद नहीं है ॥ २८ ॥ सृष्टौ प्रथमजत्वाद्धि लीलासगुणरूपिणः । शिवान्नादस्य शैलेन्द्र सर्वोत्कृष्टस्ततः स हि ॥ २९ ॥ सृष्टिके आरम्भमें लीलासे सगुण रूप धारण करनेवाले शिवके द्वारा सर्वप्रथम नादकी उत्पत्ति होनेके कारण वह सर्वश्रेष्ठ है ॥ २९ ॥ अतो हि वादिता वीणा प्रेरितेन मयाद्य वै । सर्वेश्वरेण मनसा शंकरेण हिमालय ॥ ३० ॥ इसलिये हे हिमालय ! अपने मनमें सर्वेश्वर शिवसे प्रेरित होकर मैंने आज वीणा बजायी है ॥ ३० ॥ ब्रह्मोवाच एतच्छ्रुत्वा तव मुने वचस्तत्तु गिरिश्वरः । हिमाद्रिस्तोषमापन्नो गतविस्मयमानसः ॥ ३१ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! गिरीश्वर हिमालय आपका यह वचन सुनकर सन्तुष्ट हो गये और उनके मनका विस्मय जाता रहा ॥ ३१ ॥ अथ विष्णुप्रभृतयःसुराश्च मुनयस्तथा । साधुसाध्विति ते सर्वे प्रोचुर्विगतविस्मयाः ॥ ३२ ॥ तब विष्णु आदि वे देवता एवं मुनि विस्मयरहित हो 'साधु-साधु'-ऐसा कहने लगे ॥ ३२ ॥ महेश्वरस्य गाम्भीर्यं ज्ञात्वा सर्वे विचक्षणाः । सविस्मया महामोदान्विताः प्रोचुः परस्परम् ॥ ३३ ॥ यस्याज्ञया जगदिदं च विशालमेव जातं परात्परतरो निजबोधरूपः । शर्वः स्वतन्त्रगतिकृत्परभावगम्यः सोऽसौ त्रिलोकपतिरद्य च नः सुदृष्टः ॥ ३४ ॥ सभी विद्वान् लोग महेश्वरके गाम्भीर्यको जानकर विस्मित होकर परम आनन्दमें निमग्न हो परस्पर कहने लगे । जिनकी आज्ञासे यह विशाल जगत् उत्पन्न हुआ है और जो परसे भी परे, निजबोधस्वरूप हैं, स्वतन्त्र गतिवाले एवं उत्कृष्ट भावसे जाननेयोग्य हैं, उन त्रिलोकपति शिवको आज हमलोगोंने भलीभाँति देखा ॥ ३३-३४ ॥ अथ ते पर्वतश्रेष्ठा मेर्वाद्या जातसम्भ्रमाः । ऊचुस्ते चैकपद्येन हिमवन्तं नगेश्वरम् ॥ ३५ ॥ तदनन्तर वे सुमेरु आदि सभी श्रेष्ठ पर्वत सन्देहरहित होकर एक साथ पर्वतराज हिमालयसे कहने लगे- ॥ ३५ ॥ पर्वता ऊचुः कन्यादाने स्थीयतां चाद्य शैल- नाथोक्त्या किं कार्यनाशस्तवैव । सत्यं ब्रूमो नात्र कार्यो विमर्शः तस्मात्कन्या दीयतामीश्वराय ॥ ३६ ॥ पर्वत बोले-हे शैलराज ! अब आप कन्यादान करनेके लिये समुद्यत हो जाइये । विवादसे क्या लाभ ! ऐसा करनेसे [निश्चय ही] आपके कार्यमें बाधा होगी । हमलोग सत्य कहते हैं, अब आपको विचार नहीं करना चाहिये, अतः आप शिवको कन्या प्रदान कीजिये ॥ ३६ ॥ ब्रह्मो वाच तच्छ्रुत्वा वचनं तेषां सुहृदां स हिमालयः । स्वकन्यादानमकरोच्छिवाय विधिनोदितः ॥ ३७ ॥ ब्रह्माजी बोले-उन सुडदोंकी वह बात सुनकर विधिसे प्रेरित होकर हिमालयने शिवको अपनी कन्याका दान कर दिया ॥ ३७ ॥ इमां कन्यां तुभ्यमहं ददामि परमेश्वर । भार्यार्थे परिगृह्णीष्व प्रसीद सकलेश्वर ॥ ३८ ॥ [उन्होंने कहा-] हे परमेश्वर ! मैं अपनी कन्या आपको दे रहा हूँ, हे सकलेश्वर ! आप भार्याके रूपमें इसे ग्रहण कीजिये और प्रसन्न होइये ॥ ३८ ॥ तस्मै रुद्राय महते मन्त्रेणानेन दत्तवान् । हिमाचलो निजां कन्यां पार्वतीं त्रिजगत्प्रसूम् ॥ ३९ ॥ इस प्रकार तीनों लोकोंको उत्पन्न करनेवाली अपनी कन्या पार्वतीको हिमालयने इस मन्त्रसे उन महान् शिवको अर्पण कर दिया ॥ ३९ ॥ इत्थं शिवाकरं शैलं शिवहस्ते निधाय च । मुमोदातीव मनसि तीर्णकाममहार्णवः ॥ ४० ॥ इस प्रकार पार्वतीका हाथ शिवजीके हाथमें रखकर वे हिमालय मनमें बहुत प्रसन्न हुए, मानो उन्होंने इच्छारूपी महासागरको पार कर लिया हो ॥ ४० ॥ वेदमन्त्रेण गिरिशो गिरिजाकरपङ्कजम् । जग्राह स्वकरेणाशु प्रसन्नः परमेश्वरः ॥ ४१ ॥ क्षितिं संस्पृश्य कामस्य कोऽदादिति मनुं मुने । पपाठ शंकरः प्रीत्या दर्शयँल्लौकिकीं गतिम् ॥ ४२ ॥ पर्वतपर शयन करनेवाले परमेश्वरने प्रसन्न होकर अपने हाथसे वेदमन्त्रके द्वारा पार्वतीका करकमल ग्रहण किया । हे मुने ! लौकिक गति प्रदर्शित करते हुए पृथिवीका स्पर्शकर महादेवने भी 'कोऽदात्" इस कामसम्बन्धी मन्त्रका प्रेमपूर्वक पाठ किया ॥ ४१-४२ ॥ महोत्सवो महानासीत्सर्वत्र प्रमुदावहः । बभूव जयसंरावो दिवि भूम्यन्तरिक्षके ॥ ४३ ॥ साधुशब्दं नमः शब्दं चक्रुःसर्वेऽतिहर्षिताः । गन्धर्वाःसुजगुः प्रीत्या ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥ ४४ ॥ उस समय सर्वत्र आनन्ददायक महान् उत्सव होने लगा और स्वर्ग, भूमि तथा अन्तरिक्षमें तीव्र जयध्वनि होने लगी । सभी लोगोंने अत्यन्त प्रसन्न होकर 'साधु' शब्द तथा 'नमः' शब्दका उच्चारण किया, गन्धर्वगण प्रीतिपूर्वक गान करने लगे तथा अप्सराएँ नाचने लगीं । ४३-४४ ॥ हिमाचलस्य पौरा हि मुमुदुश्चाति चेतसि । मंगलं महदासीद्वै महोत्सवपुरःसरम् ॥ ४५ ॥ हिमालयके नगरके लोग भी अपने मनमें परम आनन्दका अनुभव करने लगे । [उस समय] महान् उत्सवके साथ परम मंगल मनाया जाने लगा ॥ ४५ ॥ अहं विष्णुश्च शक्रश्च निर्जरा मुनयोऽखिलाः । हर्षिता ह्यभवंश्चाति प्रफुल्लवदनाम्बुजाः ॥ ४६ ॥ मैं, विष्णु, इन्द्र, देवता एवं सभी मुनिगण अत्यन्त हर्षित हुए और सभीके मुखकमल खिल उठे ॥ ४६ ॥ अथ शैलवरःसोदात्सुप्रसन्नो हिमाचलः । शिवाय कन्यादानस्य साङ्गतां सुयथोचिताम् ॥ ४७ ॥ उसके बाद उन शैलराज हिमालयने अति प्रसन्न होकर कन्यादानकी यथोचित सांगता शिवको प्रदान की ॥ ४७ ॥ ततो वन्धुजनास्तस्य शिवां सम्पूज्य भक्तितः । ददुः शिवाय सद्द्रव्यं नानाविधिविधानतः ॥ ४८ ॥ हिमालयस्तुष्टमनाः पार्वतीशिवप्रीतये । नानाविधानि द्रव्याणि ददौ तत्र मुनीश्वर ॥ ४९ ॥ तत्पश्चात् उनके बन्धुजनोंने भक्तिपूर्वक भलीभाँति पार्वतीका पूजनकर शिवजीको विधि-विधानसे अनेक प्रकारके उत्तम द्रव्य प्रदान किये । हे मुनीश्वर ! हिमालयने भी प्रसन्नचित्त होकर पार्वती तथा शिवकी प्रसन्नताके लिये अनेक प्रकारके द्रव्य दिये । ४८-४९ ॥ कौतुकानि ददौ तस्मै रत्नानि विविधानि च । चारुरत्नविकाराणि पात्राणि विविधानि च ॥ ५० ॥ गवां लक्षं हयानां च सज्जितानां शतं तथा । दासीनामनुरक्तानां लक्षं सद्द्रव्यभूषितम् ॥ ५१ ॥ नागानां शतलक्षं हि रथानां च तथा मुने । सुवर्णजटितानां च रत्नसारविनिर्मितम् ॥ ५२ ॥ इत्थं हिमालयो दत्त्वा स्वसुतां गिरिजां शिवाम् । शिवाय परमेशाय विधिनाप कृतार्थताम् ॥ ५३ ॥ उन्होंने उपहारस्वरूप नाना प्रकारके रत्न एवं उत्तम रत्नोंसे जड़े हुए विविध पात्र प्रदान किये । हे मुने ! उन्होंने एक लाख सुसज्जित गायें, सजे-सजाये सौ घोड़े, नाना रलोंसे विभूषित एक लाख अनुरागिणी दासियाँ दी और एक करोड़ हाथी तथा सुवर्णजटित एवं उत्तम रत्नोंसे निर्मित रथ प्रदान किये । इस प्रकार परमेश्वर शिवको विधिपूर्वक अपनी पुत्री शिवा गिरिजाको प्रदान करके हिमालय कृतार्थ हो गये ॥ ५०-५३ ॥ अथ शैलवरो माध्यन्दिनोक्तस्तोत्रतो मुदा । तुष्टाव परमेशानं सद्गिरा सुकृताञ्जलिः ॥ ५४ ॥ ततो वेदविदा तेनाज्ञप्ता मुनिगणास्तदा । शिरोऽभिषेकं चक्रुस्ते शिवायाः परमोत्सवाः ॥ ५५ ॥ देवाभिधानमुच्चार्य पर्यक्षणविधिं व्यधुः । महोत्सवस्तदा चासीन्महानन्दकरो मुने ॥ ५६ ॥ तत्पश्चात् पर्वतराजने हाथ जोड़कर श्रेष्ठ वाणीमें माध्यन्दिनी शाखामें कहे गये स्तोत्रसे परमेश्वरकी स्तुति की । इसके बाद वेदज्ञ हिमालयकी आज्ञा पाकर मुनियोंने अतिप्रसन्न होकर शिवाके सिरपर अभिषेक किया और देवताओंके नामका उच्चारणकर पर्युक्षणविधि सम्पन्न की । हे मुने ! उस समय परम आनन्द उत्पन्न करनेवाला महोत्सव हुआ ॥ ५४-५६ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखण्डे कन्यादानवर्णनं नामाष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४८ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुजसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें कन्यादानवर्णन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४८ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |