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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे

एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥

विवाहसंस्कारकथनं विधिमोहवर्णनञ्च -
अग्निपरिक्रमा करते समय पार्वतीके पदनखको देखकर ब्रह्माका मोहग्रस्त होना, बालखिल्योंकी उत्पत्ति, शिवका कुपित होना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति -


ब्रह्मोवाच
अथो ममाज्ञया विप्रैःसंस्थाप्यानलमीश्वरः ।
होमं चकार तत्रैवमङ्‌के संस्थाप्य पार्वतीम् ॥ १ ॥
ऋग्यजुःसाममन्त्रैश्चाहुतिं वह्नौ ददौ शिवः ।
लाजाञ्जलिं ददौ कालीभ्राता मैनाकसञ्ज्ञकः ॥ २ ॥
अथ काली शिवश्चोभौ चक्रतुर्विधिवन्मुदा ।
वह्निप्रदक्षिणां तात लोकाचारं विधाय च ॥ ३ ॥
तत्राद्‌भुतमलञ्चक्रे चरितं गिरिजापतिः ।
तदेव शृणु देवर्षे तवस्नेहाद्‌ ब्रवीम्यहम् ॥ ४ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] इसके अनन्तर मेरी आज्ञासे ईश्वरने ब्राह्मणों द्वारा अग्निस्थापन करके पार्वतीको अपने पास बैठाकर हवन किया । शिवने ऋक्, साम तथा यजुर्वेदके मन्त्रोंसे अग्निमें आहुति दी और कालीके भाई मैनाकने लाजाकी अंजलि दी । हे तात ! इसके बाद लोकाचारका विधानकर काली और शिव दोनोंने प्रसन्नताके साथ विधिवत् अग्निकी प्रदक्षिणा की । हे देवर्षे ! उस समय गिरिजापति शंकरने एक अद्‌भुत चरित्र किया, मैं आपके स्नेहके कारण उसका वर्णन करता हूँ, आप सुनिये ॥ १-४ ॥

तस्मिन्नवसरे चाहं शिवमायाविमोहितः ।
अपश्यं चरणे देव्या नखेन्दुं च मनोहरम् ॥ ५ ॥
उस समय शिवकी मायासे मोहित हुआ मैं पार्वतीके चरणोंमें मनोहर नखचन्द्रको देखने लगा ॥ ५ ॥

दर्शनात्तस्य च तदाऽभूवं देवमुने ह्यहम् ।
मदनेन समाविष्टोऽतीव क्षुभितमानसः ॥ ६ ॥
मुहुर्मुहुरपश्यं वै तदङ्‌गं स्मरमोहितः ।
ततस्तद्दर्शनात्सद्यो वीर्यं मे प्राच्युतद्‌भुवि ॥ ७ ॥
रेतसा क्षरता तेन लज्जितोहं पितामहः ।
मुने व्यमर्द तच्छिन्नं चरणाभ्यां हि गोपयन् ॥ ८ ॥
तज्ज्ञात्वा च महादेवश्चुकोपातीव नारद ।
हन्तुमैच्छत्तदा शीघ्रं वां विधिं काममोहितम् ॥ ९ ॥
हे देवमुने ! उसके दर्शनसे मैं मोहित हो उठा और मेरा मन अत्यन्त क्षुब्ध हो गया । मोहित होकर मैं बार-बार उनके अंगोंको देखने लगा, तब उस देखनेसे मेरा तेज शीघ्र ही पृथ्वीपर गिर गया और मैं अत्यन्त लज्जित हो गया । यह देखकर महादेवजी अत्यन्त कुपित हो गये और तब उन्होंने मुझ ब्रह्माको शीघ्र मारनेकी इच्छा की ॥ ६-९ ॥

हाहाकारो महानासीत्तत्र सर्वत्र नारद ।
जनाश्च कम्पिरे सर्व्वे भय मायाति विश्वभृत् ॥ १० ॥
हे नारद ! वहाँ सर्वत्र बड़ा हाहाकार होने लगा, सभी लोग काँपने लगे तथा विश्वको धारण करनेवाले विष्णुको भय होने लगा ॥ १० ॥

ततस्तं तुष्टुवुः शम्भुं विष्ण्वाद्या निर्जरा मुने ।
सकोपम्प्रज्वलन्तं च तेजसा हन्तुमुद्यतम् ॥ ११ ॥
हे मुने ! तब विष्णु आदि देवगण कोपयुक्त, अपने तेजसे प्रज्वलित होते हुए और [मुझ ब्रह्माको] मारनेके लिये उद्यत उन शिवजीकी स्तुति करने लगे ॥ ११ ॥

देवा ऊचुः
देवदेव जगद्व्यापिन् परमेश सदाशिव ।
जगदीश जगन्नाथ सम्प्रसीद जगन्मय ॥ १२ ॥
सर्वेषामपि भावानां त्वमात्मा हेतुरीश्वरः ।
निर्विकारोऽव्ययो नित्यो निर्विकल्पोऽक्षरः परः ॥ १३ ॥
आद्यन्तावस्य यन्मध्यमिदमन्यदहं बहिः ।
यतोऽव्ययः स नैतानि तत्सत्यम्ब्रह्म चिद्‌भवान् । १४ ॥
देवता बोले-हे देवदेव ! हे जगद्व्यापिन् ! हे परमेश ! हे सदाशिव ! हे जगत्पते ! हे जगन्नाथ ! हे जगन्मय ! आप प्रसन्न हों । आप सभी पदार्थोकी आत्मा, सबके हेतु, ईश्वर, निर्विकार, अव्यय, नित्य, निर्विकल्प, अक्षर तथा सबसे परे हैं । आप इस जगत्के आदि, मध्य, अन्त एवं अभ्यन्तर तथा बाहर विराजमान हैं, आप अव्यय, सनातन एवं तात्पदवाच्य, सच्चिदानन्द ब्रह्म हैं ॥ १२-१४ ॥

तवैव चरणाम्भोजं मुक्तिकामा दृढव्रताः ।
विसृज्योभयतः सङ्‌गं मुनयः समुपासते ॥ १५ ॥
त्वं ब्रह्म पूर्णममृतं विशोकं निर्गुणम्परम् ।
आनन्दमात्रमव्यग्रमविकारमनात्मकम् ॥ १६ ॥
मुक्तिकी कामनावाले दृढव्रत मुनिजन सब प्रकारसे संगका परित्यागकर आपके ही चरणकमलकी उपासना करते हैं । आप अमृतस्वरूप, शोकरहित, निर्गुण, श्रेष्ठ, आनन्दमात्र, व्यग्रतारहित, निर्विकार, आत्मासे रहित तथा मायासे परे पूर्णब्रह्म हैं ॥ १५-१६ ॥

विश्वस्य हेतुरुदयस्थितिसंयमनस्य हि ।
तदपेक्षतयात्मेशोऽनपेक्षः सर्वदा विभुः ॥ १७ ॥
आप संसारकी उत्पत्ति, पालन तथा प्रलयके कारण हैं । इस संसारको आपकी अपेक्षा है, किंतु सर्वत्र व्यापक आप परमात्माको किसीकी अपेक्षा नहीं है ॥ १७ ॥

एकस्त्वमेव सदसद् वयमद्वयमेव च ।
स्वर्णं कृताकृतमिव वस्तुभेदो न चैव हि ॥ १८ ॥
आप एक होते हुए भी सत् एवं असत् हैं, द्वैत एवं अद्वैत हैं, गढ़े हुए तथा न गढ़े हुए स्वर्णमें जैसे वस्तुभेद नहीं है, वैसे ही आप भी हैं ॥ १८ ॥

अज्ञानतस्त्वयि जनैर्विकल्पो विदितो यतः ।
तस्माद्‌ भ्रमप्रतीकारो निरुपाधेर्न हि स्वतः ॥ १९ ॥
पुरुषोंने अज्ञानताके कारण आपमें विकल्पका आरोप किया है, इसलिये सोपाधिमें भ्रमका प्रतीकार किया जाता है, किंतु निरुपाधिमें नहीं ॥ १९ ॥

धन्या वयं महेशान तव दर्शनमात्रतः ।
दृढभक्तजनानन्दप्रदः शम्भो दयां कुरु ॥ २० ॥
हे महेशान ! हम सब आपके दर्शनमात्रसे धन्य हो गये; क्योंकि आप दृढ़ भक्तोंको आनन्द प्रदान करते हैं, अत: हे शम्भो ! हमलोगोंपर दया कीजिये ॥ २० ॥

त्वमादिस्त्वमनादिश्च प्रकृतेस्त्वं परः पुमान् ।
विश्वेश्वरो जगन्नाथो निर्विकारः परात्परः ॥ २१ ॥
योऽयं ब्रह्मास्ति रजसा विश्वमूर्तिः पितामहः ।
त्वत्प्रसादात्प्रभो विष्णुः सत्त्वेन पुरुषोत्तमः ॥ २२ ॥
कालाग्निरुद्रस्तमसा परमात्मा गुणः परः ।
सदा शिवो महेशानःसर्वव्यापी महेश्वरः ॥ २३ ॥
आप आदि हैं, आप अनादि हैं, आप प्रकृतिसे परे पुरुष हैं । आप विश्वेश्वर, जगन्नाथ, निर्विकार एवं परसे भी परे हैं । हे प्रभो ! रजोगुणयुक्त ये जो विश्वमूर्ति पितामह ब्रह्मा हैं और सत्त्वगुणसे युक्त पुरुषोत्तम विष्णु हैं, वे आपकी ही कृपासे हैं । कालाग्नि रुद्र तमोगुणसे युक्त हैं, आप परमात्मा सभी गुणोंसे परे हैं, आप सदाशिव महेशान, सर्वव्यापी तथा महेश्वर हैं ॥ २१-२३ ॥

व्यक्तं महच्च भूतादिस्तन्मात्राणीन्द्रियाणि च ।
त्वयैवाधिष्ठितान्येव विश्वमूर्ते महेश्वर ॥ २४ ॥
हे विश्वमूर्ते ! हे महेश्वर ! व्यक्त महत्तत्त्व, पंचभूत, तन्मात्राएँ एवं इन्द्रियाँ आपसे ही अधिष्ठित हैं ॥ २४ ॥

महादेव परेशान करुणाकर शंकर ।
प्रसीद देवदेवेश प्रसीद पुरुषोत्तम । २५ ॥
वासांसि सागराः सप्त दिशश्चैव महाभुजाः ।
द्यौर्मूर्धा ते विभोर्नाभिः खं वायुर्नासिका ततः ॥ २६ ॥
हे महादेव ! हे परेशान ! हे करुणाकर ! हे शंकर ! प्रसन्न होइये । हे देवदेवेश ! पुरुषोत्तम ! प्रसन्न हो जाइये । हे प्रभो ! सातों समुद्र आपके वस्त्र, सभी दिशाएँ आपकी महाभुजाएँ, ह्युलोक आपका सिर, आकाश नाभि तथा वायु नासिका है ॥ २५-२६ ॥

चक्षूंष्यग्नी रविःसोमः केशा मेघास्तव प्रभो ।
नक्षत्रतारकाद्याश्च ग्रहाश्चैव विभूषणम् ॥ २७ ॥
हे प्रभो ! रवि सोम अग्नि आपके नेत्र, मेघ आपके केश और नक्षत्र तारा ग्रह आपके आभूषण हैं ॥ २७ ॥

कथं स्तोष्यामि देवेश त्वां विभो परमेश्वर ।
वाचामगोचरोऽसि त्वं मनसा चापि शंकर ॥ २८ ॥
हे शंकर ! आप वाणी तथा मनसे सर्वथा अगोचर हैं, अतः हे देवेश ! हे विभो ! हे परमेश्वर ! हमलोग आपकी स्तुति किस प्रकार करें ॥ २८ ॥

पञ्चास्याय च रुद्राय पञ्चाशत्कोटिमूर्तये ।
त्र्यधिपाय वरिष्ठाय विद्यातत्त्वाय ते नमः ॥ २९ ॥
पंचमुख, पचास करोड़ मूर्तिवाले, त्रिलोकेश, वरिष्ठ एवं विद्यातत्त्वस्वरूप आप रुद्रको प्रणाम है ॥ २९ ॥

अनिर्देश्याय नित्याय विद्युज्ज्वालाय रूपिणे ।
अग्निवर्णाय देवाय शंकराय नमोनमः ॥ ३० ॥
अनिर्देश्य, नित्य, विधुज्ज्वालाके समान रूपवाले, अग्निवर्ण एवं देवाधिदेव आप शंकरको बार-बार नमस्कार है । करोड़ों विद्युत्के समान प्रकाशमान, अष्ट कोणवाले तथा अत्यन्त सुन्दर रूपको धारण करके इस लोकमें स्थित रहनेवाले आपको नमस्कार है ॥ ३०-३१ ॥

विद्युत्कोटिप्रतीकाशमष्टकोणं सुशोभनम् ।
रूपमास्थाय लोकेऽस्मिन् संस्थिताय नमो नमः ॥ ३१ ॥
ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तेषां प्रसन्नः परमेश्वरः ।
ब्रह्मणो मे ददौ शीघ्रमभयं भक्तवत्सलः ॥ ३२ ॥
ब्रह्माजी बोले-उन [देवताओं]-की यह बात सुनकर प्रसन्न हुए भक्तवत्सल परमेश्वरने मुझ ब्रह्माको शीघ्र ही अभय प्रदान कर दिया ॥ ३२ ॥

अथ सर्वे सुरास्तत्र विष्ण्वाद्या मुनयस्तथा ।
अभवन्सुस्मितास्तात चक्रुश्च परमोत्सवम् ॥ ३३ ॥
हे तात ! उसके बाद विष्णु आदि सभी देवता तथा मुनिगण मन्द-मन्द हँसते हुए परम आनन्दित हो उठे ॥ ३३ ॥

मम तद्‌रेतसा तात मर्दितेन मुहुर्मुहुः ।
अभवन्कणकास्तत्र भूरिशः परमोज्ज्वलाः ॥ ३४ ॥
ऋषयो बहवो जाता वालखिल्याः सहस्रशः ।
कणकैस्तैश्च वीर्यस्य प्रज्वलद्‌भिः स्वतेजसा ॥ ३५ ॥
हे तात ! मेरे उस रेतसे अत्यन्त उज्ज्वल बहुतसे कण हो गये और अपने तेजसे प्रज्वलित उन कणोंसे बालखिल्य नामक हजारों ऋषि प्रकट हो गये ॥ ३४-३५ ॥

अथ ते ऋषयःसर्वे उपतस्थुस्तदा मुने ।
ममान्तिकं परप्रीत्या तात तातेति चाब्रुवन् ॥ ३६ ॥
हे मुने ! तब वे सभी ऋषि मेरे समीप खड़े हो गये और बड़े प्रेमसे मुझे हे तात ! हे तात ! कहने लगे ॥ ३६ ॥

ईश्वरेच्छाप्रयुक्तेन प्रोक्तास्ते नारदेन हि ।
वालखिल्यास्तु ते तत्र कोपयुक्तेन चेतसा ॥ ३७ ॥
तब ईश्वरेच्छासे प्रेरित हुए नारदजी [आप] क्रोधयुक्त चित्तसे उन बालखिल्य ऋषियोंसे कहने लगे- ॥ ३७ ॥

नारद उवाच
गच्छध्वं सङ्‌गता यूयं पर्वतं गन्धमादनम् ।
न स्थातव्यं भवद्‌भिश्च न हि वोऽत्र प्रयोजनम् ॥ ३८ ॥
नारदजी बोले- अब आपलोग एक साथ ही गन्धमादन पर्वतपर चले जाइये । आपलोग यहाँ मत रुकिये; आपलोगोंका यहाँ [कोई] प्रयोजन नहीं है ॥ ३८ ॥

तत्र तप्त्वा तपश्चाति भवितारो मुनीश्वराः ।
सूर्यशिष्याः शिवस्यैवाज्ञया मे कथितं त्विदम् ॥ ३९ ॥
वहाँ कठोर तपस्या करके आपलोग मुनीश्वर और सूर्यके शिष्य होंगे, मैंने यह बात शिवजीकी आज्ञासे कही है ॥ ३९ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्तास्ते तदा सर्वे बालखिल्याश्च पर्वतम् ।
सत्वरं प्रययुर्नत्वा शंकरं गन्धमादनम् ॥ ४० ॥
विष्ण्वादिभिस्तदाभूवं श्वासितोऽहं मुनीश्वर ।
निर्भयः परमेशानप्रेरितैस्तैर्महात्मभिः ॥ ४१ ॥
अस्तवं चापि सर्वेशं शंकरं भक्तवत्सलम् ।
सर्वकार्यकरं ज्ञात्वा दुष्टगर्वापहारकम् ॥ ४२ ॥
ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार कहे गये वेवालखिल्य शंकरजीको नमस्कार करके शीघ्र ही गन्धमादन पर्वतपर चले गये । हे मुनीश्वर ! तब शिवजीके द्वारा प्रेरित विष्णु आदिने मुझे बहुत समझाया और मैं निर्भय हो गया और फिर सर्वेश शंकरको भक्तवत्सल, सम्पूर्ण कार्योको करनेवाला तथा दुष्टोंके गर्वको नष्ट करनेवाला . समझकर उनकी स्तुति करने लगा ॥ ४०-४२ ॥

देवदेव महादेव करुणासागर प्रभो ।
त्वमेव कर्ता सर्वस्य भर्ता हर्त्ता च सर्वथा ॥ ४३ ॥
हे देवदेव ! हे महादेव ! हे करुणासागर ! हे प्रभो ! आप ही सब प्रकारसे सबके कर्ता, भर्ता तथा हर्ता हैं ॥ ४३ ॥

त्वदिच्छया हि सकलं स्थितं हि सचराचरम् ।
तन्त्यां यथा बलीवर्दा मया ज्ञातं विशेषतः ॥ ४४ ॥
मैंने यह अच्छी तरह जान लिया है कि जिस प्रकार बलवान् बैल नाथनेसे वशमें हो जाता है, उसी प्रकार यह सारा चराचर जगत् आपकी इच्छासे स्थित है ॥ ४४ ॥

इत्येवमुक्त्वा सोऽहं वै प्रणामं च कृताञ्जलिः ।
अन्येऽपि तुष्टुवुः सर्वे विष्ण्वाद्यास्तं महेश्वरम् ॥ ४५ ॥
इस प्रकार कहकर हाथ जोड़ मैंने शिवको प्रणाम किया और विष्णु आदि अन्य सभीने भी उन महेश्वरकी स्तुति की ॥ ४५ ॥

अथाकर्ण्य नुतिं शुद्धां मम दीनतया तदा ।
विष्ण्वादीनाञ्च सर्वेषां प्रसन्नोऽभून्महेश्वरः ॥ ४६ ॥
तब दीनभावसे की गयी विष्णु आदि सभी देवताओंकी तथा मेरी शुद्ध स्तुति सुनकर महेश्वर प्रसन्न हो गये । ४६ ॥

ददौ सोऽतिवरं मह्यमभयं प्रीतमानसः ।
सर्वे सुखमतीवापुरत्यामोदमहं मुने ॥ ४७ ॥
हे मुने ! उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर मुझे अतिश्रेष्ठ अभयदान दिया, सभीने महान् सुख प्राप्त किया और मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई ॥ ४७ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये
पार्वतीखण्डे विधिमोहवर्णनं नामैकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ४९ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुगसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें ब्रह्माके मोहका वर्णन नामक उनचासवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४९ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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