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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे
पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ विवाहमहोत्सवे स्त्रीविनोदवर्णनम् -
शिवा-शिवके विवाहकृत्यसम्पादनके अनन्तर देवियोंका शिवसे मधुर वार्तालाप - ब्रह्मोवाच ततश्चाहं मुनिगणैः शेषकृत्यं शिवाज्ञया । अकार्षं नारद प्रीत्या शिवाशिवविवाहतः ॥ १ ॥ तयोः शिरोऽभिषेकश्च बभूवादरतस्ततः । ध्रुवस्य दर्शनं विप्राः कारयामासुरादरात ॥ २ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! तदनन्तर मैंने शिवजीकी आज्ञासे मुनियोंके साथ परमप्रीतिसे शिवाशिवके विवाहके शेष कृत्योंका सम्पादन किया । उन दोनोंके सिरपर आदरपूर्वक मांगलिक अभिषेक हुआ और ब्राह्मणोंने आदरके साथ उन्हें ध्रुवदर्शन कराया ॥ १-२ ॥ हृदयालम्भनं कर्म बभूव तदनन्तरम् । स्वस्तिपाठश्च विप्रेन्द्र महोत्सवपुरःसरः ॥ ३ ॥ हे विप्रेन्द्र ! उसके बाद हृदयालम्भनका कर्म तथा बड़े महोत्सवके साथ स्वस्तिवाचन हुआ ॥ ३ ॥ शिवाशिरसि सिन्दूरं ददौ शम्भुर्द्विजाज्ञया । तदानीं गिरिजाभिख्याद्भुतावर्ण्या बभूव ह ॥ ४ ॥ ततो विप्राज्ञया तौ द्वावेकासनसमास्थितौ । लेभाते परमां शोभां भक्तचित्तमुदावहाम् ॥ ५ ॥ ब्राह्मणोंकी आज्ञासे शम्भुने शिवाकी माँगमें सिन्दूर लगाया, उस समय गिरिजा अत्यन्त अद्भुत अवर्णनीय रूपवती हो गयीं । तत्पश्चात् ब्राह्मणोंकी आज्ञासे दोनों एक आसनपर विराजमान हुए और भक्तोंके चित्तको आनन्द देनेवाली अपूर्व शोभासे सम्पन्न हो गये ॥ ४-५ ॥ ततः स्वस्थानमागत्य संस्रवप्राशनं मुदा । चक्रतुस्तौ निदेशान्मेऽद्भुतलीलाकरौ मुने ॥ ६ ॥ इत्थं निवृत्ते विधिवद्यज्ञे वैवाहिके शिवः । ब्रह्मणे पूर्णपात्रं मे ददौ लोककृते प्रभुः ॥ ७ ॥ गोदानं विधिवच्छम्भुराचार्याय ददौ ततः । महादानानि च प्रीत्या यानि मंगलदानि वै ॥ ८ ॥ हे मुने ! तदनन्तर अद्भुत लीला करनेवाले उन दोनोंने अपने स्थानपर आकर मेरी आज्ञासे प्रसन्नतापूर्वक संसव* -प्राशन किया । इस प्रकार विवाह-यज्ञके विधिवत् सम्पन्न हो जानेपर प्रभु शिवने मुझ लोककर्ता ब्रह्माको पूर्णपात्रका दान किया । तत्पश्चात् शिवजीने आचार्यको विधिपूर्वक गोदान दिया तथा मंगल प्रदान करनेवाले जो अन्य महादान हैं, उन्हें भी बड़े प्रेमसे दिया ॥ ६-८ ॥ ततः शतसुवर्णं च विप्रेभ्यः स ददौ पृथक् । बहुभ्यो रत्नकोटीश्च नानाद्रव्याण्यनेकशः ॥ ९ ॥ तदानीममराः सर्वे परे जीवाश्चराचराः । मुमुदुश्चेतसातीव बभूवाति जयध्वनिः ॥ १० ॥ मंगलध्वनिगानं च बभूव बहु सर्वतः । वाद्यध्वनिरभूद्रम्यो सर्वानन्दप्रवर्द्धनः ॥ ११ ॥ हरिर्मयाथ देवाश्च मुनयश्चापरेऽखिलाः । गिरिमामन्त्र्य सुप्रीत्या स्वस्थानं प्रययुर्द्रुतम् ॥ १२ ॥ उसके बाद उन्होंने बहुत-से ब्राह्मणोंको अलग-अलग सौ-सौ स्वर्णमुद्राएँ, करोड़ों रत्न तथा अनेक प्रकारके द्रव्य दिये । उस समय सभी देवगण एवं अन्य चराचर जीव हृदयसे अत्यन्त प्रसन्न हुए और जोर-जोरसे जयध्वनि होने लगी । सभी ओर मंगलध्वनिके साथ गान होने लगा और सबके आनन्दको बढ़ानेवाली रम्य वाद्य-ध्वनि होने लगी । उसके बाद मेरे साथ विष्णु, देवता, मुनिगण तथा अन्य लोग हिमालयसे आज्ञा लेकर प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने निवासस्थानको गये ॥ ९-१२ ॥ तदानीं शैलनगरे स्त्रियश्च मुदिता वरम् । शिवाशिवौ समानीय ययुः कुहवरालयम् ॥ १३ ॥ उस समय हिमालयके नगरकी स्त्रियाँ प्रसन्न होकर शिवा एवं शिवको लेकर दिव्य कोहवर-घरमें गयीं ॥ १३ ॥ लौकिकाचारमाजह्रुस्ताः स्त्रियस्तत्र चादृताः । महोत्साहो बभूवाथ सर्वतः प्रमुदावहः ॥ १४ ॥ अथ तास्तौ समानीय दम्पती जनशंकरौ । वासालयं महादिव्यं भवाचारं व्यधुर्मुदा ॥ १५ ॥ वहाँपर वे स्त्रियाँ आदरके साथ लौकिकाचार करने लगीं । चारों ओर आनन्द प्रदान करनेवाला महान् उत्साह फैल गया । उसके बाद उन सबने लोगोंका कल्याण करनेवाले उन शिव शिवाको महादिव्य निवासस्थानमें ले जाकर प्रसन्नतापूर्वक लौकिकाचार किया ॥ १४-१५ ॥ अथो समीपमागत्य शैलेन्द्रनगरस्त्रियः । निर्वृत्य मंगलं कर्म प्रापयन्दम्पती गृहम् ॥ १६ ॥ तत्पश्चात् हिमालयके नगरकी स्त्रियाँ समीपमें आकर मंगलकर्म करके दम्पतीको घरमें ले गयीं ॥ १६ ॥ कृत्वा जयध्वनिं चक्रुर्ग्रन्थिनिर्मोचनादिकम् । सस्मिताःसकटाक्षाश्च पुलकाञ्चितविग्रहाः ॥ १७ ॥ वे जय-जयकारकर ग्रन्थि-बन्धन खोलने लगीं । उस समय वे कटाक्ष करती हुई मन्द-मन्द हँस रही थी और उनका शरीर रोमांचित हो रहा था ॥ १७ ॥ वासगेहं सम्प्रविश्य मुमुहुः कामिनीवराः । प्रसंशन्त्यः स्वभाग्यानि पश्यन्तः परमेश्वरम् ॥ १८ ॥ महासुरूपवेषं च सर्व लावण्यसंयुतम् । नवीनयौवनस्थं च कामिनीचित्तमोहनम् ॥ १९ ॥ ईषद्धास्यप्रसन्नास्यं सकटाक्षं सुसुन्दरम् । सुसूक्ष्मवासो बिभ्राणं नानारत्न विभूषितम् ॥ २० ॥ । वे श्रेष्ठ स्त्रियाँ वासगृहमें प्रवेश करते ही मोहित हो गयीं और सुन्दर रूप तथा वेषवाले, सम्पूर्ण लावण्यसे युक्त, नवीन यौवनसे परिपूर्ण, कामिनियोंके चित्तको मोहित करनेवाले, मन्द-मन्द मुसकानयुक्त प्रसन्न मुख-मण्डलवाले, कटाक्षयुक्त, अत्यन्त सुन्दर, अत्यन्त सूक्ष्म वस्त्र धारण किये हुए और अनेक रत्नोंसे विभूषित परमेश्वरको देखती हुई अपने-अपने भाग्यकी प्रशंसा करने लगीं ॥ १८-२० ॥ तदानीं दिव्यनार्यश्च षोडशारं समाययुः । तौ दम्पती च सन्द्रष्टुं महादरपुरःसरम् ॥ २१ ॥ सरस्वती च लक्ष्मीश्च सावित्री जाह्नवी तथा । अदितिश्च शची चैव लोपामुद्राप्यरुन्धती ॥ २२ ॥ अहल्या तुलसी स्वाहा रोहिणी च वसुन्धरा । शतरूपा च सञ्ज्ञा च रतिरेताः सुरस्त्रियः ॥ २३ ॥ देवकन्या नागकन्या मुनिकन्या मनोहराः । तत्र या याः स्थितास्तासां सङ्ख्यां कर्तुं च कः क्षमः ॥ २४ ॥ उस समय सोलह दिव्य नारियाँ बड़े आदरके साथ इन दम्पतीको देखनेके लिये शीघ्र ही पहुँच गयीं । सरस्वती, लक्ष्मी, सावित्री, जाह्नवी, अदिति, शची, लोपामुद्रा, अरुन्धती, अहल्या, तुलसी, स्वाहा, रोहिणी, वसुन्धरा, शतरूपा, संज्ञा और रति-ये देवस्त्रियाँ हैं । अन्य जो-जो मनोहर देवकन्याएँ एवं मुनिकन्याएँ वहाँ स्थित थीं, उनकी गणना करने में कौन समर्थ है ॥ २१-२४ ॥ ताभी रत्नासने दत्ते तत्रोवास शिवो मुदा । तमूचुः क्रमतो देव्यः सुहासं मधुरं वचः ॥ २५ ॥ उनके द्वारा दिये गये रत्नके आसनपर शिवजी प्रसन्नताके साथ बैठे । इसके बाद सब देवियाँ क्रमसे मन्द मन्द हँसती हुई उनसे मधुर वचन कहने लगीं ॥ २५ ॥ सरस्वत्युवाच प्राप्ता सती महादेवाधुना प्राणाधिका मुदा । दृष्ट्वा प्रियास्यं चन्द्राभं सन्तापं त्यज कामुक ॥ २६ ॥ सरस्वती बोलीं-हे महादेव ! अब प्राणोंसे भी अधिक प्यारी सतीदेवी आपको प्राप्त हो गयी हैं । हे कामुक ! इनके चन्द्रमाके समान आभावाले प्रिय मुखको प्रसन्नतापूर्वक देखकर आप सन्तापको त्याग दीजिये ॥ २६ ॥ कालं गमय कालेश सतीसंश्लेषपूर्वकम् । विश्लेषस्ते न भविता सर्वकालं समाश्रिता ॥ २७ ॥ हे कालेश ! आप इस सतीका आलिंगन करते हुए अपना समय व्यतीत कीजिये । सभी समय आपके आश्रित रहनेवाली इस सखीसे आपका वियोग नहीं होगा ॥ २७ ॥ लक्ष्मीरुवाच लज्जां विहाय देवेश सतीं कृत्वा स्ववक्षसि । तिष्ठ तां प्रति का लज्जा प्राणा यान्ति यया विना ॥ २८ ॥ लक्ष्मी बोलीं-हे देवेश ! अब लज्जाका त्यागकर सतीको अपने वक्षःस्थलमें स्थित कीजिये, जिसके बिना आपके प्राण निकल रहे थे, उसके प्रति कौनसी लज्जा ! ॥ २८ ॥ सावित्र्युवाच भोजयित्वा सतीं शम्भो शीघ्रं त्वं भुङ्क्ष्व मा खिदः । तदाचम्य सकर्पूरन्ताम्बूलं देहि सादरम् ॥ २९ ॥ सावित्री बोलीं-हे शम्भो ! सतीको भोजन कराकर आप भी शीघ्र भोजन कीजिये, किसी बातका खेद मत कीजिये और आचमन करके सतीको आदरसे कपूरमिश्रित ताम्बूल दीजिये ॥ २९ ॥ जाह्नव्युवाच स्वर्णकान्तिकरां धृत्वा केशान्मार्जय योषितः । कामिन्याः स्वामिसौभाग्यसुखं नातः परं भवेत् ॥ ३० ॥ जाह्नवी बोलीं-अब इस सुवर्णकान्तिवाली पार्वतीके केशोंको पकड़कर संवारिये; क्योंकि कामिनी स्त्रियोंका इससे बढ़कर और कोई पतिसे प्राप्त होनेवाला सौभाग्यसुख नहीं होता ॥ ३० ॥ अदितिरुवाच भोजनान्ते शिवः शम्भुं मुखं शुद्ध्यर्थमादरात् । जलं देहि महाप्रीत्या दम्पतिप्रेम दुर्लभम् ॥ ३१ ॥ अदिति बोलीं-हे शिवे ! आप भोजनके पश्चात् मुख शुद्ध करनेके लिये शम्भुको अति प्रेमसे जल प्रदान कीजिये; क्योंकि दम्पतीका परस्पर प्रेम [सर्वथा] दुर्लभ है ॥ ३१ ॥ शच्युवाच कृत्वा विलापं यद्धेतोः शिवां कृत्वा च वक्षसि । यो बभ्रामानिशं मोहात् का लज्जा ते प्रियां प्रति ॥ ३२ ॥ शची बोलीं-जिसके लिये आप मोहवश विलाप करते-करते [दर-दर भटक रहे थे, उस शिवाको वक्षःस्थलपर धारण कीजिये, उस प्रियाके प्रति आपको लज्जा क्यों ? ॥ ३२ ॥ लोपामुद्रोवाच व्यवहारोऽस्ति च स्त्रीणां भुक्त्वा वासगृहे शिव । दत्त्वा शिवायै ताम्बूलं शयनं कर्तुमर्हसि ॥ ३३ ॥ लोपामुद्रा बोलीं-हे शंकर ! भोजन करके आप वासगृहमें जाइये, यह स्त्रियोंका व्यवहार है । आप शिवाको ताम्बूल देकर शयन कीजिये ॥ ३३ ॥ अरुन्धत्युवाच मया दत्तां सतीमेनां तुभ्यं दातुमनीप्सिता । विविधं बोधयित्वेमां सुरतिं कर्तुमर्हसि ॥ ३४ ॥ अरुन्धती बोलीं-हे शिव ! मेना आपके निमित्त पार्वतीको देना नहीं चाहती थी, किंतु मेरे बहुत समझानेपर उन्होंने पार्वतीको देना स्वीकार किया, अब आप इनसे अधिक प्रेम कीजिये ॥ ३४ ॥ अहल्योवाच वृद्धावस्थां परित्यज्य ह्यतीव तरुणो भव । येन मेनानुमन्येत त्वां सुतार्पितमानसा ॥ ३५ ॥ अहल्या बोलीं-अब आप वृद्धावस्थाको छोड़कर पूर्ण युवा हो जाइये, जिससे कन्या देनेवाली इस मेनाको पुत्रीदानसे सन्तुष्टि प्राप्त हो जाय ॥ ३५ ॥ तुलस्युवाच सती त्वया परित्यक्ता कामो दग्धः पुरा कृतः । कथं तदा वसिष्ठश्च प्रभो प्रस्थापितोऽधुना ॥ ३६ ॥ तुलसी बोलीं-हे प्रभो ! आपने पूर्वकालमें सतीका त्याग किया, उसके बाद कामदेवको जलाया, अब आपने [पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये] हिमालयके घर वसिष्ठको कैसे भेजा ? ॥ ३६ ॥ स्वाहोवाच स्थिरो भव महादेव स्त्रीणां वचसि साम्प्रतम् । विवाहे व्यवहारोऽस्ति पुरन्ध्रीणां प्रगल्भता ॥ ३७ ॥ स्वाहा बोलीं-हे महादेव ! अब आप स्त्रियाँके वचनमें स्थिर हो जाइये; क्योंकि विवाहमें स्त्रियोंकी प्रगल्भता एक व्यवहार होता है ॥ ३७ ॥ रोहिण्युवाच कामं पूरय पार्वत्याः कामशास्त्रविशारद । कुरु पारं स्वयं कामी कामिनीकामसागरम् ॥ ३८ ॥ रोहिणी बोलीं-हे कामशास्त्रविशारद ! अब आप पार्वतीकी कामना पूर्ण कीजिये, आप स्वयं कामी हैं, अत: कामिनीके कामसागरको पार कीजिये ॥ ३८ ॥ वसुन्धरोवाच जानासि भावं भावज्ञ कामार्तानां च योषिताम् । न च स्वं स्वामिनं शम्भो ईश्वरं पाति सन्ततम् ॥ ३९ ॥ वसुन्धरा बोली-हे भावज्ञ ! आप कामात स्त्रियोंके भावको जानते हैं । हे शम्भो ! स्त्री अपने स्वामीकी इश्वरभावसे निरन्तर सेवा करती है, वह पतिके अतिरिक्त अपनी किसी भी वस्तुकी रक्षा करना. नहीं चाहती ॥ ३९ ॥ शतरूपोवाच भोगं दिव्यं विना भुक्त्वा न हि तुष्येत्क्षुधातुरः ॥ येन तुष्टिर्भवेच्छम्भो तत्कर्तुमुचितं स्त्रियाः । ४० ॥ शतरूपा बोलीं-भूखसे तड़पता हुआ व्यक्ति दिव्य सुखका भोग किये बिना सन्तुष्ट नहीं होता । अतः हे शम्भो ! जिससे स्त्रीको सन्तुष्टि हो, आपको वही करना उचित है ॥ ४० ॥ सञ्ज्ञोवाच तूर्णं प्रस्थापय प्रीत्या पार्वत्या सह शङ्करम् । रत्नप्रदीपं ताम्बूलं तल्पं निर्माय निर्जने ॥ ४१ ॥ संज्ञा बोलीं-[हे सखि !] रत्नदीपक जलाकर एकान्तमें पलंग बिछाकर और उसपर ताम्बूल रखकर परम प्रीतिसे शीघ्रतापूर्वक शिवाके साथ शिवको स्थापित करो ॥ ४१ ॥ ब्रह्मोवाच स्त्रीणां तद्वचनं श्रुत्वा ता उवाच शिवः स्वयम् । निर्विकारश्च भगवान्योगीन्द्राणां गुरोर्गुरुः ॥ ४२ ॥ ब्रह्माजी बोले-स्त्रियोंके वे वचन सुनकर निर्विकार एवं महान् योगियोंके गुरुके भी गुरु भगवान् शंकरजी उनसे स्वयं कहने लगे- ॥ ४२ ॥ शंकर उवाच देव्यो न ब्रूत वचनमेवम्भूतं ममान्तिकम् । जगतां मातरः साध्व्यः पुत्रे चपलता कथम् ॥ ४३ ॥ शंकरजी बोले-हे देवियो ! मेरे समीप इस प्रकारके वचनको आपलोग न बोलें, आप सब पतिव्रताएँ एवं जगत्की माताएँ हैं, फिर पुत्रके विषयमें इस प्रकारकी चपलता क्यों ? ॥ ४३ ॥ ब्रह्मोवाच शङ्करस्य वचः श्रुत्वा लज्जिताःसुरयोषितः । बभूवुः सम्भ्रमात्तूष्णीं चित्रपुत्तलिका यथा ॥ ४४ ॥ ब्रह्माजी बोले-शंकरकी यह बात सुनकर सभी देवस्त्रियाँ लज्जित हो गयीं और सम्भ्रमके कारण चित्रलिखित पुतलियोंकी भाँति चुप हो गयीं ॥ ४४ ॥ भुक्त्वा मिष्टान्नमाचम्य महेशो हृष्टमानसः । सकर्पूरं च ताम्बूलं बुभुजे भार्य या सह ॥ ४५ ॥ तदनन्तर मिष्टान्न ग्रहणकर आचमनकर प्रसन्नचित्त महेशने पार्वतीके साथ कर्पूरयुक्त पानका सेवन किया ॥ ४५ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीय पार्वतीखण्डे परिहासवर्णनंनाम पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५० ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें परिहासवर्णन नामक पचासवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५० ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |