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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे
एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ शिवाज्ञयाकामसञ्जीवनप्रकारकथनम् -
रतिके अनुरोधपर श्रीशंकरका कामदेवको जीवित करना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति - ब्रह्मोवाच तस्मिन्नवसरे ज्ञात्वानुकूलं समयं रतिः । सुप्रसन्ना च तं प्राह शङ्करं दीनवत्सलम् ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले-उस अवसरपर अनुकूल समय जानकर प्रसन्नतासे पूर्ण रति दीनवत्सल शंकरसे कहने लगी- ॥ १ ॥ रतिरुवाच गृहीत्वा पार्वतीं प्राप्तं सौभाग्यमतिदुर्लभम् । किमर्थं प्राणनाथो मे निःस्वार्थं भस्मसात्कृतः ॥ २ ॥ रति बोली-[हे भगवन् !] पार्वतीको ग्रहण करके आपने परम दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त किया, किंतु मेरे प्राणनाथको आपने व्यर्थ ही भस्म क्यों कर दिया ? ॥ २ ॥ जीवयात्र पतिं मे हि कामव्यापारमात्मनि । कुरु दूरं च सन्तापं समविश्लेषहेतुकम् ॥ ३ ॥ अपने मनमें विचार करके मेरे पतिको जीवित कर दीजिये और समानरूपसे वियोगके हेतुभूत सन्तापको दूर कीजिये ॥ ३ ॥ विवाहोत्सव एतस्मिन् सुखिनो निखिला जनाः । अहमेका महेशान दुःखिनी स्वपतिं विना ॥ ४ ॥ हे महेश्वर ! इस विवाहोत्सवमें सभी लोग सुखी हैं, केवल मैं ही अपने पतिके बिना दुखी हूँ ॥ ४ ॥ सनाथां कुरु मां देव प्रसन्नो भव शङ्कर । स्वोक्तं सत्यं विधेहि त्वं दीनबन्धो पर प्रभो ॥ ५ ॥ हे देव ! मुझे सनाथ कीजिये । हे शंकर ! अब आप प्रसन्न होइये । हे दीनबन्धो ! हे परप्रभो ! अपने वचनको आप सत्य कीजिये ॥ ५ ॥ त्वां विना कः समर्थोऽत्र त्रैलोक्ये सचराचरे । नाशने मम दुःखस्य ज्ञात्वेति करुणां कुरु ॥ ६ ॥ इस चराचर त्रिलोकीमें आपके बिना कौन मेरा दुःख दूर करनेमें समर्थ है, ऐसा जानकर मुझपर दया कीजिये ॥ ६ ॥ सोत्सवे स्वविवाहेऽस्मिन्सर्वानन्दप्रदायिनी । सोत्सवामपि मां नाथ कुरु दीनकृपाकर ॥ ७ ॥ हे नाथ ! हे दीनोंपर कृपा करनेवाले ! सभीको आनन्द देनेवाले उत्सवपूर्ण अपने इस विवाहमें मुझे भी आनन्दित कीजिये ॥ ७ ॥ जीविते मम नाथे हि पार्वत्या प्रियया सह । सुविहारः प्रपूर्णश्च भविष्यति न संशयः ॥ ८ ॥ मेरे पतिके जीवित होनेपर ही प्रिया पार्वतीके साथ आपका विहार पूर्ण होगा, इसमें सन्देह नहीं ॥ ८ ॥ सर्वं कर्तुं समर्थोऽसि यतस्त्वं परमेश्वरः । किं बहूक्त्यात्र सर्वेश जीवयाशु पतिं मम ॥ ९ ॥ आप सब कुछ करनेमें समर्थ हैं, क्योंकि आप परमेश्वर हैं । हे सर्वेश ! बहुत क्या कहूँ, आप मेरे पतिको शीघ्र जीवित कीजिये ॥ ९ ॥ ब्रह्मोवाच तदित्युक्त्वा कामभस्म ददौ सग्रन्थिबन्धनम् । रुरोद पुरतः शम्भोर्नाथ नाथेत्युदीर्य च ॥ १० ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार कहकर रतिने अपने गाँठमें बँधी हुई कामकी भस्म उन्हें दे दी और हे नाथ ! हे नाथ ! ऐसा कहकर उनके सामने विलाप करने लगी ॥ १० ॥ रतिरोदनमाकर्ण्य सरस्वत्यादयः स्त्रियः । रुरुदुः सकला देव्यः प्रोचुर्दीनतरं वचः ॥ ११ ॥ रतिके रुदनको सुनकर [वहाँ उपस्थित ] सरस्वती आदि सभी स्त्रियाँ रोने लगी और अत्यन्त दोन वचन कहने लगी ॥ ११ ॥ देव्य ऊचुः भक्तवत्सलनामा त्वं दीनबन्धुर्दयानिधिः ॥ काम जीवय सोत्साहां रति कुरु नमोऽस्तु ते ॥ १२ ॥ देवियाँ बोलीं-[हे प्रभो !] आप भक्तवत्सल नामवाले, दीनबन्धु और दयानिधि हैं, आप कामको जीवित कर दीजिये तथा रतिको प्रसन्न कीजिये, आपको नमस्कार है ॥ १२ ॥ ब्रह्मोवाच इति तद्वचनं श्रुत्वा प्रसन्नोऽभून्महेश्वरः । कृपादृष्टिं चकाराशु करुणासागरः प्रभुः ॥ १३ ॥ ब्रह्माजी बोले-उनके इस वचनको सुनकर महेश्वर प्रसन्न हो गये । उन करुणासागर प्रभुने शीघ्र ही [उनपर] कृपादृष्टि की ॥ १३ ॥ सुधादृष्ट्या शूलभृतो भस्मतो निर्गतः स्मरः । तद्रूपवेषचिह्नात्मा सुन्दरोऽद्भुतमूर्तिमान् ॥ १४ ॥ शूलधारी शिवजीकी अमृतमयी दृष्टि पड़ते ही भस्मसे उसी रूप-वेष-चिह्नको धारण किये हुए, सुन्दर तथा अद्भुत शरीरवाले कामदेव प्रकट हो गये ॥ १४ ॥ तद्रूपश्च तदाकार सस्मितं सधनुःशरम् । दृष्ट्वा पतिं रतिस्तं च प्रणनाम महेश्वरम् ॥ १५ ॥ उसी रूप तथा उसी आकारवाले, हास्ययुक्त एवं धनुष-बाणयुक्त [अपने] पतिको देखकर रतिने उन्हें तथा महेश्वरको प्रणाम किया ॥ १५ ॥ कृतार्थाभूच्छिवं देवं तुष्टाव च कृताञ्जलिः । प्राणनाथप्रदं पत्या जीवितेन पुनःपुनः ॥ १६ ॥ वह कृतार्थ हो गयी और हाथ जोड़कर [अपने] जीवित पतिके साथ प्राणनाथ [कामदेव]-को प्रदान करनेवाले देव शंकरकी स्तुति करने लगी ॥ १६ ॥ कामस्य स्तुतिमाकर्ण्य सनारीकस्य शङ्करः । प्रसन्नोऽभवदत्यंतमुवाच करुणार्द्रधीः ॥ १७ ॥ पत्नीसहित कामकी स्तुति सुनकर भगवान् शंकर अत्यन्त प्रसन्न हो गये और करुणासे आर्द्र होकर कहने लगे- ॥ १७ ॥ शङ्कर उवाच प्रसन्नोहं तव स्तुत्या सनारीकस्य चित्तज । स्वयम्भव वरम्बूहि वाञ्छितं तद् ददामि ते ॥ १८ ॥ शंकरजी बोले-हे काम ! स्त्रीसहित तुम्हारी स्तुतिसे मैं प्रसन्न हूँ । हे स्वयम्भव ! अब तुम अभीष्ट वर माँगो, मैं उसे तुम्हें देता हूँ ॥ १८ ॥ ब्रह्मोवाच इति शम्भुवचः श्रुत्वा महानदन्ः स्मरस्ततः । उवाच साञ्जलिर्नम्रो गद्गदाक्षरया गिरा ॥ १९ ॥ ब्रह्माजी बोले-शिवजीका ऐसा वचन सुनकर कामदेव अत्यन्त प्रसन्न हो गये और विनम्र होकर हाथ जोड़कर गद्गद वाणीमें बोले- ॥ १९ ॥ काम उवाच देवदेव महादेव करुणासागर प्रभो । यदि प्रसन्नःसर्वेशः ममानन्दकरो भव ॥ २० ॥ कामदेव बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे करुणासागर ! हे प्रभो ! हे सर्वेश ! यदि आप प्रसन्न हैं, तो मुझे आनन्द प्रदान कीजिये ॥ २० ॥ क्षमस्व मेऽपराधं हि यत्कृतश्च पुरा प्रभो । स्वजनेषु परां प्रीतिं भक्तिं देहि स्वपादयोः ॥ २१ ॥ हे प्रभो ! मैंने पूर्व समयमें जो अपराध किया है, उसे क्षमा कीजिये । स्वजनोंमें परम प्रीति और अपने चरणोंमें भक्ति दीजिये ॥ २१ ॥ ब्रह्मोवाच इत्याकर्ण्य स्मरवचः प्रसन्नः परमेश्वरः । ॐ मित्युक्त्वाऽब्रवीत्तं वै विहसन्करुणानिधिः ॥ २२ ॥ ब्रह्माजी बोले-कामदेवकी यह बात सुनकर करुणासागर परमेश्वर प्रसन्न हो 'तथास्तु'-ऐसा कहकर हँसते हुए उनसे पुनः कहने लगे- ॥ २२ ॥ ईश्वर उवाच हे कामाहं प्रसन्नोऽस्मि भयन्त्यज महामते । गच्छ विष्णुसमीपं च बहिःस्थाने स्थितो भव ॥ २३ ॥ ईश्वर बोले-हे काम ! हे महामते ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, तुम भयका त्याग करो और विष्णुके समीप जाओ तथा बाहर स्थित हो जाओ ॥ २३ ॥ ब्रह्मोवाच तच्छ्रुत्वा शिरसा नत्वा परिक्रम्य स्तुवन्विभुम् । बहिर्गत्वा हरिन्देवान् प्रणम्य समुपास्त सः ॥ २४ ॥ ब्रह्माजी बोले-यह सुनकर वह कामदेव सिर झुकाकर प्रभुको प्रणाम करके परिक्रमाकर उनकी स्तुति करते हुए बाहर जाकर विष्णु एवं अन्य देवताओंको प्रणामकर उनकी उपासना करने लगा ॥ २४ ॥ कामं सम्भाष्य देवाश्च ददुस्तस्मै शुभाशिषम् । विष्ण्वादयः प्रसन्नास्ते प्रोचुः स्मृत्वा शिवं हृदि ॥ २५ ॥ देवताओंने कामदेवसे सम्भाषणकर कल्याणकारी आशीष प्रदान किया, इसके बाद प्रसन्नतापूर्वक शिवजीका हृदयमें स्मरण करके वे विष्णु आदि उनसे कहने लगे- ॥ २५ ॥ देवा ऊचुः धन्यस्त्वं स्मर सन्दग्धः शिवेनानुग्रहीकृतः । जीवयामास सत्त्वांशकृपादृष्ट्या खिलेश्वरः ॥ २६ ॥ देवता बोले-हे काम ! तुम धन्य हो, जो शिवजीके द्वारा दग्ध हो जानेके बाद भी उनके अनुग्रह-पात्र बने और अखिलेश्वरने सात्त्विक कृपादृष्टिसे तुम्हें जीवित कर दिया ॥ २६ ॥ सुखदुःखदो न चान्योऽस्ति यतः स्वकृतभृक् पुमान् । काले रक्षा विवाहश्च निषेकः केन वार्यते ॥ २७ । कोई भी किसीको सुख-दुःख देनेवाला नहीं है, पुरुष स्वयं अपने किये हुए कर्मका फल भोगता है । समयके आनेपर रक्षा, विवाह तथा जन्म होता है, उसे कौन रोक सकता है ? ॥ २७ ॥ ब्रह्मोवाच इत्युक्त्वा ते च सम्मान्य तं सुखेनामरास्तदा । सन्तस्थुस्तत्र विष्ण्वाद्याःसर्वे लब्धमनोरथाः ॥ २८ ॥ ब्रह्माजी बोले-ऐसा कहकर उनका सत्कार करके सफल मनोरथवाले वे सभी विष्णु आदि देवगण सुखपूर्वक वहीं स्थित हो गये ॥ २८ ॥ सोपि प्रमुदितस्तत्र समुवास शिवाज्ञया । जयशब्दो नमः शब्दः साधुशब्दो बभूव ह ॥ २९ ॥ कामदेवने भी प्रमुदित होकर शिवजीकी आज्ञासे वहीं निवास किया । उस समय जय शब्द, नमःशब्द और साधु शब्द होने लगा ॥ २९ ॥ ततः शम्भुर्वासगेहे वामे संस्थाप्य पार्वतीम् । मिष्टान्नं भोजयामास तं च सा च मुदान्विता ॥ ३० ॥ उसके बाद शिवजीने अपने निवासगृहमें पार्वतीको बायीं ओर बैठाकर उन्हें मिष्टान्नका भोजन कराया और उन्होंने भी परम प्रसन्न होकर उन शिवजीको भोजन कराया ॥ ३० ॥ अथ शम्भुर्भवाचारी तत्र कृत्यं विधाय तत् । मेनामामन्त्र्य शैलं च जनवासं जगाम सः ॥ ३१ ॥ इस प्रकार लोकाचारमें लगे हुए वे शम्भु वहाँका कृत्य करके मेना तथा हिमालयसे आज्ञा लेकर जनवासमें चले गये ॥ ३१ ॥ महोत्सवस्तदा चासीद् वेदध्वनिरभून्मुने । वाद्यानि वादयामासुर्जनाश्चतुर्विधानि च ॥ ३२ ॥ हे मुने । उस समय महोत्सव होने लगा, वेदध्वनि होने लगी तथा लोग चारों प्रकारके बाजे बजाने लगे ॥ ३२ ॥ शम्भुरागत्य स्वस्थानं ववन्दे च मुनींस्तदा । हरिं च मां भवाचाराद्वन्दितोऽभूत्सुरादिभिः ॥ ३३ ॥ शिवजीने अपने स्थानपर आकर मुनियोंको, मुझे तथा विष्णुको प्रणाम किया । देवता आदिने लोकाचारके कारण उनको भी प्रणाम किया ॥ ३३ ॥ जयशब्दो बभूवाथ नमःशब्दस्तथैव च । वेदध्वनिश्च शुभदः सर्वविघ्नविदारणः ॥ ३४ ॥ उस समय जय शब्द और नमः शब्दका उच्चारण होने लगा और सभी प्रकारके विजोंको दूर करनेवाली मंगलदायिनी वेदध्वनि होने लगी ॥ ३४ ॥ अथ विष्णुरहं शक्रः सर्वे देवाश्च सर्षयः । सिद्धा उपसुरा नागास्तुष्टुवुस्ते पृथक्पृथक् ॥ ३५ ॥ विष्णु, मैं, इन्द्र, सभी देवगण, ऋषि, सिद्ध, उपदेव एवं नाग अलग-अलग शिवजीकी स्तुति करने लगे- ॥ ३५ ॥ देवा ऊचुः जय शम्भोऽखिलाधार जय नाम महेश्वर । जय रुद्र महादेव जय विश्वम्भर प्रभो ॥ ३६ ॥ जय कालीपते स्वामिन् जयानन्दप्रवर्धक । जय त्र्यम्बक सर्वेश जय मायापते विभो ॥ ३७ ॥ देवता बोले-हे शंकर ! हे सर्वाधार ! आपकी जय हो । हे महेश्वर ! आपकी जय हो । हे रुद्र ! हे महादेव ! हे विश्वम्भर ! हे प्रभो ! आपकी जय हो । हे कालीपते ! हे स्वामिन् ! हे आनन्दप्रवर्धक ! आपकी जय हो । हे त्र्यम्बक ! हे सर्वेश ! आपकी जय हो । हे मायापते ! हे विभो ! आपकी जय हो ॥ ३६-३७ ॥ जय निर्गुण निष्काम कारणातीत सर्वग । जय लीलाखिलाधार धृतरूप नमोऽस्तु ते ॥ ३८ ॥ हे निर्गुण ! हे निष्काम ! हे कारणातीत ! हे सर्वग ! आपकी जय हो । हे सम्पूर्ण लीलाओंके आधार ! आपकी जय हो । हे अवतार धारण करनेवाले ! आपको नमस्कार है ॥ ३८ ॥ जय स्वभक्तसत्कामप्रदेश करुणाकर । जय सानन्दसद्रूप जय मायागुणाकृते ॥ ३९ ॥ अपने भक्तोंकी कामनाको पूर्ण करनेवाले हे ईश । हे करुणासागर ! आपकी जय हो । हे आनन्दमय ! हे सुन्दररूपवाले ! आपकी जय हो । हे मायासे सगुण रूप धारण करनेवाले ! आपकी जय हो ॥ ३९ ॥ जयोग्र मृड सर्वात्मन् दीनबन्धो दयानिधे । जयाविकार मायेश वाङ्मनोतीतविग्रह ॥ ४० ॥ हे उग्र ! हे मृड ! हे सर्वात्मन् ! हे दीनबन्धो । हे दयानिधे ! आपकी जय हो । हे अविकार ! हे मायेश ! हे वाणी तथा मनसे अतीत स्वरूपवाले ! आपकी जय हो ॥ ४० ॥ ब्रह्मोवाच इति स्तुत्वा महेशानं गिरिजानायकं प्रभुम् । सिषेविरे परप्रीत्या विष्ण्वाद्यास्ते यथोचितम् ॥ ४१ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] इस प्रकार गिरिजापति महेश्वर प्रभुकी स्तुतिकर वे विष्णु आदि देवगण परम प्रीतिसे शिवजीकी यथोचित सेवा करने लगे ॥ ४१ ॥ अथ शम्भुर्महेशानो लीलात्ततनुरीश्वरः । ददौ मानवरं तेषां सर्वेषां तत्र नारद ॥ ४२ ॥ हे नारद ! तब लीलासे शरीर धारण करनेवाले महेश्वर भगवान् शम्भुने उन सबको श्रेष्ठ सम्मान प्रदान किया ॥ ४२ ॥ विष्ण्वाद्यास्तेऽखिलास्तात प्राप्याज्ञां परमेशितुः । अतिहृष्टाः प्रसन्नास्याः स्वस्थानञ्जग्मुरादृताः ॥ ४३ ॥ हे तात ! इसके बाद वे विष्णु आदि सभी लोग महेश्वरकी आज्ञा प्राप्त करके अत्यन्त हर्षित, प्रसन्नमुख तथा सम्मानित होकर अपने-अपने स्थानको चले गये ॥ ४३ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे ब्रह्मनारदसंवादे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखण्डे कामसञ्जीवनवर्णनं नामैकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५१ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्यतीखण्डमें कामसंजीवनवर्णन नामक इक्यावनयाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५१ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |