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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे
द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ हिमालयगृहेवरपक्षीयभोजनवर्णनम् -
हिमालयद्वारा सभी बरातियोंको भोजन कराना, शिवका विश्वकर्माद्वारा निर्मित वासगृहमें शयन करके प्रातःकाल जनवासेमें आगमन - ब्रह्मोवाच अथ शैलवरस्तात हिमवान्भाग्यसत्तमः । प्राङ्गणं रचयामास भोजनार्थं विचक्षणः ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे तात ! इसके बाद भाग्यवान् एवं बुद्धिमान् पर्वतश्रेष्ठ हिमालयने सबको भोजन करानेके लिये आँगनको सजाया ॥ १ ॥ मार्जनं लेपनं सम्यक्कारयामास तस्य सः । स सुगन्धैरलञ्चक्रे नानावस्तुभिरादरात् ॥ २ ॥ उन्होंने अच्छी प्रकारसे उसका मार्जन तथा लेपन कराया और अनेक प्रकारकी सुगन्धित वस्तुओंसे आदरपूर्वक उसे अलंकृत कराया ॥ २ ॥ अथ शैलः सुरान् सर्वानन्यानपि च सेश्वरान् । भोजनायाह्वयामास पुत्रैः शैलैः परैरपि ॥ ३ ॥ तदनन्तर अपने पुत्रों तथा अन्य पर्वतोंद्वारा शंकरजी-सहित सभी देवगणों तथा अन्य लोगोंको भोजनके लिये बुलवाया ॥ ३ ॥ शैलाह्वानमथाकर्ण्य स प्रभुः साच्युतो मुने । सर्वैःसुरादिभिस्तत्र भोजनाय ययौ मुदा ॥ ४ ॥ हे मुने ! हिमालयके आमन्त्रणको सुनकर विष्णु तथा सभी देवता आदिके साथ वे प्रभु प्रसनताके साथ भोजनके लिये वहाँ गये ॥ ४ ॥ गिरिः प्रभुं च सर्वांस्तान्सुसत्कृत्य यथाविधि । मुदोपवेशयामास सत्पीठेषु गृहान्तरे ॥ ५ ॥ नानासुभोज्यवस्तूनि परिविष्य च तत्पुनः । साञ्चलिर्भोजनायाज्ञां चक्रे विज्ञप्तिमानतः ॥ ६ ॥ हिमालयने प्रभु तथा उन सभी देवगणोंका यथोचित सत्कार करके घरके भीतर उत्तम आसनोपर प्रसन्नताके साथ बैठाया और उन्हें अनेक प्रकारकी सुभोग्य वस्तुओंको परोसकर नम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर भोजनके लिये प्रार्थना की ॥ ५-६ ॥ अथ सम्मानितास्तत्र देवा विष्णुपुरोगमाः । सदाशिवं पुरस्कृत्य बुभुजुः सकलाश्च ते ॥ ७ ॥ उसके बाद विष्णु आदि सभी देवता [हिमालयसे] इस प्रकार सम्मानित होकर सदाशिवको आगेकर भोजन करने लगे ॥ ७ ॥ तदा सर्वे हि मिलिता ऐकपद्येन सर्वशः । पङ्क्तिभूताश्च बुभुजुर्विहसन्तः पृथक्पृथक् ॥ ८ ॥ उस समय सभी देवगण मिलकर एक साथ पंक्तिबद्ध होकर [परस्पर] हास्य करते हुए अलगअलग भोजन करने लगे ॥ ८ ॥ नन्दिभृङ्गिवीरभद्रवीरभद्रगणाः पृथक् । बुभुजुस्ते महाभागाः कुतूहलसमन्विताः ॥ ९ ॥ महाभाग नन्दी, भुंगी, वीरभद्र तथा वीरभद्रके गण पृथक् होकर कौतूहलमें भरकर भोजन करने लगे ॥ ९ ॥ देवाः सेन्द्रा लोकपाला नानाशोभासमन्विताः । बुभुजुस्ते महाभागा नानाहास्यरसैःसह ॥ १० ॥ अनेक प्रकारकी शोभासे सम्पन्न महाभाग इन्द्र आदि लोकपाल तथा देवगण अनेक प्रकारके हासपरिहासके साथ भोजन करने लगे ॥ १० ॥ सर्वे च मुनयो विप्रा भृग्वाद्या ऋषयस्तथा । बुभुजु प्रीतितः सर्वे पृथक् पङ्क्तिगतास्तदा ॥ ११ ॥ सभी मुनि, ब्राह्मण तथा भृगु आदि ऋषिगण आनन्दके साथ पृथक् पंक्तिमें बैठकर भोजन करने लगे ॥ ११ ॥ तथा चण्डीगणाः सर्वे बुभुजुः कृतभाजनाः । कुतूहलं प्रकुर्वन्तो नानाहास्यकरा मुदा ॥ १२ ॥ इसी प्रकार चण्डीके सभी गणोंने भी भोजन किया । वे भोजन करनेके बाद प्रसन्नतापूर्वक कौतूहल करते हुए अनेक प्रकारके हास-परिहास कर रहे थे ॥ १२ ॥ एवं ते भुक्तवन्तश्चाचम्य सर्वे मुदान्विताः । विश्रामार्थं गताः प्रीत्या विष्ण्वाद्याः स्वं स्वमाश्रमम् ॥ १३ ॥ इस तरह विष्णु आदि उन सभी देवताओंने आनन्दके साथ भोजन किया, फिर आचमन करके विश्रामके लिये वे प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने निवासस्थानको चले गये ॥ १३ ॥ मेनाज्ञया स्त्रियः साध्व्यः शिवं सम्प्रार्थ्य भक्तितः । गेहे निवासयामासुर्वासाख्ये परमोत्सवे ॥ १४ ॥ इधर, मेनाकी आज्ञासे सभी पतिव्रता स्त्रियाँ भक्तिपूर्वक शिवसे प्रार्थनाकर वास नामक परमानन्ददायक निवासगृहमें ले गयीं ॥ १४ ॥ रत्नसिंहासने शम्भुः मेनादत्ते मनोहरे । सन्निधाय मुदा युक्तो ददृशे वासमन्दिरम् ॥ १५ ॥ वहाँपर मेनाके द्वारा दिये गये मनोहर रत्नके सिंहासनपर बैठकर प्रसन्नतापूर्वक शिवजी वासगृहको देखने लगे ॥ १५ ॥ रत्नप्रदीपशतकैर्ज्वलद्भिर्ज्वलितं श्रिया । रत्नपात्रघटाकीर्णं मुक्तामणिविराजितम् ॥ १६ ॥ रत्नदर्प्पणशोभाढ्यं मण्डितं श्वेतचामरैः । मुक्तामणिसुमालाभिर्वेष्टितं परमर्द्धिमत् ॥ १७ ॥ अनौपम्यं महादिव्यं विचित्रं सुमनोहरम् । चित्ताह्लादकरं नानारचनारचितस्थलम् ॥ १८ ॥ वह गृह सैकड़ों जलते हुए रत्नदीपकॉसे प्रकाशित तथा शोभासम्पन्न था, वहाँ अनेक प्रकारके रत्नोंके पात्र विराज रहे थे, उसमें स्थान-स्थानपर मोती तथा मणियाँ लगी हुई थीं । वह रत्नोंके दर्पणकी शोभासे युक्त था, वह श्वेत वर्णक चैवरोंसे मण्डित था, उसमें मोतियों और मणियोंकी मालाएँ लगी हुई थीं । वह परम ऐश्वर्यसे सम्पन्न, अनुपम, महादिव्य, विचित्र, अत्यन्त मनोहर तथा चित्तको प्रसन्न करनेवाला था और उसके प्रत्येक स्थलमें नाना प्रकारकी कारीगरी की गयी थी ॥ १६-१८ ॥ शिवदत्तवरस्यैव प्रभावमतुलं परम् । दर्शयन्तं समुल्लासि शिवलोकाभिधानकम् ॥ १९ ॥ वह गृह शिवके द्वारा दिये गये वरका अतुलनीय प्रभाव प्रकट कर रहा था और शोभासे सम्पन्न होनेके कारण उस गृहका शिवलोक नामकरण किया गया था ॥ १९ ॥ नानासुगन्धसद्द्रव्यैर्वासितं सुप्रकाशकम् । चन्दनागुरुसंयुक्तं पुष्पशयासमन्वितम् ॥ २० ॥ वह अनेक प्रकारके सुगन्धित उत्तम द्रव्योंसे सुवासित, उत्तम प्रकाशसे युक्त, चन्दन-अगरुयुक्त तथा पुष्पकी शय्यासे समन्वित था ॥ २० ॥ नानाचित्रविचित्राढ्यं निर्मितं विश्वकर्मणा । रत्नेन्द्रसाररचितैराचितं हारकैर्वरैः ॥ २१ ॥ वह गृह विश्वकर्माके द्वारा रचित नाना प्रकारके चित्रोंकी विचित्रतासे युक्त था, उसमें सभी उत्तम रत्नोंके सारोंसे रचित श्रेष्ठ हारोंके ढेर लगे हुए थे ॥ २१ ॥ कुत्रचित्सुरनिर्माणं वैकुण्ठं सुमनोहरम् । कुत्रचिच्च ब्रह्मलोकं लोकपालपुरं क्वचित् ॥ २२ ॥ कैलासं कुत्रचिद्रम्यं कुत्रचिच्छक्रमन्दिरम् । कुत्रचिच्छिवलोकं च सर्वोपरि विराजितम् ॥ २३ ॥ कहीं देवताओंके लिये अत्यन्त मनोहर वैकुण्ठ बना हुआ था, कहीं ब्रह्मलोक बना हुआ था, कहीं लोकपालोंका पुर बना हुआ था, कहीं मनोहर कैलास बना हुआ था, कहीं इन्द्रका मन्दिर बना हुआ था और कहीं सबके ऊपर शिवलोक सुशोभित हो रहा था ॥ २२-२३ ॥ एतादृशगृहं सर्वं दृष्टाश्चर्यं महेश्वरः । प्रशंसन् हिमशैलेशं परितुष्टो बभूव ह ॥ २४ ॥ आश्चर्यचकित करनेवाले ऐसे घरको देखकर शिवजी गिरिराज हिमालयकी प्रशंसा करते हुए परम प्रसन्न हो गये ॥ २४ ॥ तत्रातिरमणीये च रत्नपर्यङ्क उत्तमे । अशयिष्ट मुदा युक्तो लीलया परमेश्वरः ॥ २५ ॥ उसके बाद शिवजीने परम रमणीय तथा उत्तम रल पर्यकपर प्रसन्न हो लीलापूर्वक शयन किया ॥ २५ ॥ हिमाचलश्च स्वभ्रातॄन्भोजयामास कृत्स्नशः । सर्वानन्यांश्च सुप्रीत्या शेषकृत्यं चकार ह ॥ २६ ॥ हिमालयने अपने सभी भाइयोंको तथा अन्य लोगोंको बड़े प्रेमसे भोजन कराया तथा शेष कृत्य पूर्ण किया ॥ २६ ॥ एवं कुर्वति शैलेशे स्वपति प्रेष्ठ ईश्वरे । व्यतीता रजनी सर्वा प्रातःकालो बभूव ह ॥ २७ ॥ इस प्रकार हिमालयको सब कार्य पूर्ण करते हुए एवं ईश्वर शिवजीके शयन करते हुए सारी रात बीत गयी और प्रभातकाल उपस्थित हो गया ॥ २७ ॥ अथ प्रभातकाले च धृत्युत्साहपरायणाः । नानाप्रकारवाद्यानि वादयाञ्चक्रिरे जनाः ॥ २८ ॥ तब प्रात:काल होनेपर धैर्य एवं उत्साहसे भरे हुए लोग अनेक प्रकारके बाजे बजाने लगे ॥ २८ ॥ सर्वे सुराःसमुत्तस्थुर्विष्ण्वाद्याः सुमुदान्विताः । स्वेष्टं संस्मृत्य देवेशं सज्जिभूताः ससम्भ्रमाः ॥ २९ ॥ स्ववाहनानि सज्जानि कैलासं गन्तुमुत्सुकाः । कृत्वा सम्प्रेषयामासुर्धर्मं शिवसमीपतः ॥ ३० ॥ वासगेहमथागत्य धर्मो नारायणाज्ञया । उवाच शंकरं योगी योगीशं समयोचितम् ॥ ३१ ॥ विष्णु आदि सभी देवगण उठ गये और अपने इष्टदेव शंकरका स्मरणकर प्रसन्नताके साथ शीघ्रतासे सज्जित होकर तैयार हो गये । अपने-अपने वाहनोंको सजाकर कैलास जानेके लिये उत्सुक उन लोगोंने शिवजीके समीप धर्मको भेजा । तत्पश्चात् नारायणकी आज्ञासे निवासगृहमें आकर योगी धर्म योगीश्वर शंकरसे समयोचित वचन कहने लगे- ॥ २९-३१ ॥ धर्म उवाच उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रन्ते भव नः प्रमथाधिप । जनावासं समागच्छ कृतार्थं कुरु तत्र तान् ॥ ३२ ॥ धर्म बोले-हे भव ! उठिये, उठिये, आपका कल्याण हो । हे प्रमथाधिप ! जनवासेमें चलिये और वहाँ उन सभीको कृतार्थ कीजिये ॥ ३२ ॥ ब्रह्मोवाच इति धर्मवचः श्रुत्वा विजहास महेश्वरः । ददर्श कृपया दृष्ट्या तल्पमुज्झाञ्चकार ह ॥ ३३ ॥ उवाच विहसन् धर्म त्वमग्रे गच्छ तत्र ह । अहमप्यागमिष्यामि द्रुतमेव न संशयः ॥ ३४ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] धर्मराजके इस वचनको सुनकर शिवजी हँसे । उन्होंने कृपादृष्टिसे धर्मकी ओर देखा और शय्याका परित्याग किया । वे हँसते हुए धर्मसे कहने लगे-तुम आगे चलो, मैं भी वहाँ शीघ्र ही आऊँगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३३-३४ ॥ ब्रह्मोवाच इत्युक्तः शंकरेणाथ जनावासं जगाम सः । स्वयं गन्तुमना आसीत्तत्र शम्भुरपि प्रभुः ॥ ३५ ॥ ब्रह्माजी बोले-शंकरजीके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर धर्मराज जनवासेमें गये और बादमें स्वयं प्रभु शंकरजी भी वहाँ जानेका विचार करने लगे ॥ ३५ ॥ तज्ज्ञात्वा स्त्रीगणः सोसौ तत्रागच्छन्महोत्सवः । चक्रे मंगलगानं हि पश्यन्शम्भुपदद्वयम् ॥ ३६ ॥ अथ शंम्भुर्भवाचारी प्रातःकृत्यं विधाय च । मेनामामन्त्र्य कुध्रं च जनावासं जगाम सः ॥ ३७ ॥ इसे जानकर स्त्रियाँ आनन्दमें भरकर वहाँ पहुँच गयीं और शिवके दोनों चरणोंको देखती हुई मंगलगान करने लगीं । इसके बाद वे शिवजी लोकाचार प्रदर्शित करते हुए प्रातःकृत्य करके मेना एवं पर्वतराजसे आज्ञा लेकर जनवासेमें गये ॥ ३६-३७ ॥ महोत्सवस्तदा चासीद्वेदध्वनिरभून्मुने । वाद्यानि वादयामासुर्जनाश्चातुर्विधानि च ॥ ३८ ॥ हे मुने ! उस समय महोत्सव होने लगा, वेदध्वनि होने लगी और लोग चारों प्रकारके बाजे बजाने लगे ॥ ३८ ॥ शम्भुरागत्य स्वस्थानं ववन्दे च मुनींस्तदा । हरिं च मां भवाचारात् वन्दितोऽभूत्सुरादिभिः ॥ ३९ ॥ शिवजीने अपने स्थानपर आकर मुनियोंको, मुझे तथा विष्णुको प्रणाम किया तथा देवता आदिने की लौकिक आचारवश उनकी वन्दना की ॥ ३९ ॥ जयशब्दो बभूवाथ नमः शब्दस्तथैव च । वेदध्वनिश्च शुभदो महाकोलाहलोऽभवत् ॥ ४० ॥ [उस समय चारों ओर] जय शब्द, नमः शब्द और मंगलदायक वेदध्वनि होने लगी, इस प्रकार वहाँ महान् कोलाहल व्याप्त हो गया ॥ ४० ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखण्डे वरवर्गभोजनशिवशयनवर्णनं नाम द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५२ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्ड में वरवर्गका भोजन और शिवशयन-वर्णन नामक बावनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५२ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |