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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे

त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥

वधूवरयोः यात्राप्रस्थानवर्णनम् -
चतुर्थीकर्म, बरातका कई दिनोंतक ठहरना, सप्तर्षियोंके समझानेसे हिमालयका बरातको विदा करनेके लिये राजी होना, मेनाका शिवको अपनी कन्या सौंपना तथा बरातका पुरीके बाहर जाकर ठहरना -


ब्रह्मोवाच
अथ विष्ण्वादयो देवा मुनयश्च तपोधनाः ।
कृत्वावश्यककर्माणि यात्रां सन्तेनिरे गिरेः ॥ १ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] तदनन्तर विष्णु आदि सभी देवगण एवं तपोधन मुनिगण आवश्यक कर्म करके हिमालयसे प्रस्थान करनेका उपक्रम करने लगे ॥ १ ॥

ततो गिरिवरः स्नात्वा स्वेष्टं सम्पूज्य यत्नतः ।
पौरबन्धून्समाहूय जनवासं ययौ मुदा ॥ २ ॥
तत्र प्रभुं प्रपूज्याथ चक्रे सम्प्रार्थनां मुदा ।
कियद्दिनानि सन्तिष्ठ मद्‌गेहे सकलैः सह ॥ ३ ॥
हिमालय भी स्नानकर अपने इष्टदेवकी यत्नपूर्वक पूजा करके नगरवासियों एवं बन्धुवर्गोको बुलाकर प्रसन्नतापूर्वक जनवासेमें गये । उन्होंने शंकरजीका विधिवत् पूजन करके आनन्दपूर्वक प्रार्थना की-आप इन सभीके साथ कुछ दिनतक मेरे घरपर निवास कीजिये ॥ २-३ ॥

विलोकनेन ते शम्भो कृतार्थोहं न संशयः ।
धन्यश्च यस्य मद्‌गेहे आयातोऽसि सुरैः सह ॥ ४ ॥
हे शम्भो ! आपके दर्शनसे मैं कृतार्थ तथा धन्य हो गया हूँ, इसमें संशय नहीं है, जो कि आप देवताओंके साथ मेरे घर आये हैं ॥ ४ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा बहु शैलेशः करौ बद्ध्वा प्रणम्य च ।
प्रभुं निमन्त्रयामास सह विष्णुसुरादिभिः ॥ ५ ॥
थ ते मनसा गत्वा शिव संयुतमादरात् ।
प्रत्यूचुर्मुनयो देवा हृष्टा विष्णुसुरादिभिः ॥ ६ ॥
ब्रह्माजी बोले-शैलराजने इस प्रकार बहुत कहकर दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करके विष्णु आदि देवगणोंके साथ प्रभुको आमन्त्रित किया । तत्पश्चात् आदरके साथ मनमें शिवजीका ध्यानकर विष्णुके सहित देवता तथा मुनिगण प्रसन्नतापूर्वक हिमालयसे कहने लगे- ॥ ५-६ ॥

देवा ऊचुः
धन्यस्त्वं गिरिशार्दूल तव कीर्तिर्महीयसी ।
त्वत्समो न त्रिलोकेषु कोपि पुण्यतमो जनः ॥ ७ ॥
यस्य द्वारि महेशानः परब्रह्म सतां गतिः ।
समागतः सदासैश्च कृपया भक्तवत्सलः ॥ ८ ॥
देवता बोले-हे गिरिराज ! आप धन्य हैं और आपकी कीर्ति महान् है, तीनों लोकोंमें आपके समान पुण्यात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, जिसके द्वारपर सज्जनोंको गति देनेवाले, भक्तवत्सल एवं परब्रह्म महेश्वर अपने सेवकोंके साथ कृपा करके पधारे ॥ ७-८ ॥

जनावासोऽतिरम्यश्च सम्मानो विविधः कृतः ।
भोजनानि त्वपूर्वाणि न वर्ण्यानि गिरीश्वर ॥ ९ ॥
आपने [हमें ठहरनेके लिये] मनोहर जनवासा दिया एवं विविध सम्मान किया । हे गिरीश्वर ! आपने ऐसे उत्तम भोजन दिये, जो अवर्णनीय हैं ॥ ९ ॥

चित्रं न खलु तत्रास्ति यत्र देवी शिवाम्बिका ।
परिपूर्णमशेषंच यवं धन्या यदागताः ॥ १० ॥
वहाँ कोई आश्चर्य नहीं, जहाँ [साक्षात्] अम्बिका शिवादेवी हैं । सब कुछ सर्वथा परिपूर्ण है, कुछ भी शेष नहीं रहा, हमलोग धन्य हैं, जो यहाँपर आ गये ॥ १० ॥

ब्रह्मोवाच
इत्थं परस्परन्तत्र प्रशंसाभवदुत्तमा ।
उत्सवो विविधो जातो वेदसाधुजयध्वनिः ॥ ११ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] इस प्रकार वहाँ परस्पर एक-दूसरेकी उत्तम प्रशंसा हुई । उस समय वैदिक मन्त्रों, साधु तथा जय शब्दकी ध्वनि होने लगी और नाना प्रकारके उत्सव होने लगे ॥ ११ ॥

अभून्मंगलगानञ्च ननर्ताप्सरसाङ्‌गणः ।
नुतिञ्चक्रुर्मागधाद्या द्रव्यदानमभूद्‌ बहु ॥ १२ ॥
मंगलगान होने लगा, अप्सराएँ नाचने लगीं, मागध स्तुति करने लगे और द्रव्योंका पर्याप्त दान हुआ ॥ १२ ॥

तत आमन्त्रय देवेशं स्वगेहमगमद्‌गिरिः ।
भोजनोत्सवमारेभे नानाविधिविधानतः ॥ १३ ॥
तत्पश्चात् देवेशका आमन्त्रणकर हिमालय अपने घर गये और अनेक विधि-विधानोंसे भोजनोत्सवकी तैयारी करने लगे ॥ १३ ॥

भोजनार्थं प्रभु प्रीत्यानयामास यथोचितम्।
परिवारसमेतं च सकुतूहलमीश्वरम् ॥ १४ ॥
वे कुतूहलपूर्वक परिवारसहित प्रभु शंकरको भोजन करानेके लिये प्रेमके साथ ले आये ॥ १४ ॥

प्रक्षाल्य चरणौ शम्भोर्विष्णोर्मम वरादरात्।
सर्वेषाममराणां च मुनीनां च यथार्थतः ॥ १५ ॥
परेषां च गतानां च गिरीशो मण्डपान्तरे।
आसयामास सुप्रीत्या तांस्तान्बन्धुभिरन्वितः ॥ १६ ॥
परम आदरसे शिवजीके, विष्णुके, मेरे, सभी देवताओंके, मुनियोंके तथा अन्य गये हुए लोगोंके चरणोंको धोकर बन्धु-बान्धवोंसहित गिरिराजने बड़े प्रेमसे उन सबको मण्डपके भीतर [आसन देकर] बैठाया ॥ १५-१६ ॥

सुरसैर्विविधान्नैश्च तर्पयामास तान् गिरिः।
बुभुजुर्निखिलास्ते वै शम्भुना विष्णुना मया ॥ १७ ॥
तदानीं पुरनार्यश्च गालीदानं व्यधुर्मुदा।
मृदुवाण्या हसन्त्यश्च पश्यन्त्यो यत्नतश्च तान् ॥ १८ ॥
विष्णु, सदाशिव एवं मुझ ब्रह्मासहित समस्त लोग भोजन करने लगे । [इस प्रकार] गिरिराजने रसीले विविध अन्नोंसे उन सबको तप्त किया । उस समय नगरकी नारियाँ हँसती हुई एवं उन सभीकी ओर यत्नसे देखती हुई मधुर वाणीमें गालियाँ देने लगीं ॥ १७-१८ ॥

ते भुक्त्वाचम्य विधिवद्‌गिरिमामन्त्र्य नारद।
स्वस्थानं प्रययुः सर्वे मुदितास्तृप्तिमागताः ॥ १९ ॥
हे नारद ! इस प्रकार सब लोग विधिवत् भोजन करके आचमनकर गिरिराजसे आज्ञा लेकर प्रसन्नता एवं तृप्तिसे युक्त हो अपने-अपने स्थानको चले गये ॥ १९ ॥

इत्थं तृतीये घस्त्रेऽपि मानितास्तेऽभवन्मुने ।
गिरीश्वरेण विधिवद्दानमानादरादिभिः ॥ २० ॥
चतुर्थे दिवसे प्राप्ते चतुर्थीकर्म शुद्धितः।
बभूव विधिवद्येन विना खण्डित एव स ॥ २१ ॥
उत्सवो विविधश्चासीत्साधुवादजयध्वनिः ।
बहुदानं सुगानं च नर्तनं विविधं तथा ॥ २२ ॥
हे मुने । इसी प्रकार तीसरे दिन भी गिरिराजने विधिवत् दान, सम्मान एवं आदर आदिके द्वारा उनका सत्कार किया । चौथा दिन प्राप्त होनेपर बड़ी शुद्धताके साथ चतुर्थी कर्म विधिवत् सम्पन्न हुआ, जिसके बिना वह उत्सव अधूरा ही रह जाता । उस समय अनेक प्रकारका उत्सव, जय-जयकार तथा साधु शब्दोंका उच्चारण, नाना प्रकारका दान, गान एवं नृत्य होने लगा ॥ २०-२२ ॥

पञ्चमे दिवसे प्राप्ते सर्वे देवा मुदान्विताः ।
विज्ञप्तिं चक्रिरे शैलं यात्रार्थमतिप्रेमतः ॥ २३ ॥
तदाकर्ण्य गिरीशश्चोवाच देवान् कृताञ्जलिः ।
कियद्दिनानि तिष्ठन्तु कृपाङ्कुर्वन्तु मां सुराः ॥ २४ ॥
पाँचवाँ दिन प्राप्त होनेपर प्रसन्न हुए सभी देवताओंने बड़े प्रेमके साथ गिरिराजसे विदाईके लिये निवेदन किया । यह सुनकर हिमालयने हाथ जोड़कर देवताओंसे कहा-हे देवताओ ! अभी आपलोग कुछ दिन और रहें तथा मेरे ऊपर कृपा करें ॥ २३-२४ ॥

इत्युक्त्वा स्नेहतस्ताँश्च प्रभुं विष्णुं च मां परान् ।
वासयामास दिवसान् बहून्नित्यं समादरात् ॥ २९ ॥
ऐसा कहकर उन्होंने बड़े स्नेहसे शंकर, विष्णु, मुझ ब्रह्मा तथा अन्य देवताओंको बहुत दिनोंतक बड़े आदरके साथ ठहराया ॥ २५ ॥

इत्थं व्यतीयुर्दिवसा बहवो वसतां च तत् ।
सप्तर्षीन्प्रेषयामासुर्गिरीशान्ते ततः सुराः ॥ २६ ॥
इस प्रकार निवास करते हुए जब बहुत दिन बीत गये, तब देवताओंने हिमालयके पास सप्तर्षियोंको भेजा ॥ २६ ॥

ते तं सम्बोधयामासुर्मेनां च समयोचितम् ।
शिवतत्त्वं परं प्रोचुः प्रशंसन्विधिवन्मुदा ॥ २७ ॥
उन्होंने गिरिराज तथा मेनाको समयोचित बातें कहकर समझाया और प्रशंसा करते हुए प्रसन्नतापूर्वक श्रेष्ठ शिवतत्त्वको विधिवत् प्रतिपादित किया ॥ २७ ॥

अङ्‌गीकृतं परेशेन तत्तद्‌बोधनतो मुने ।
यात्रार्थमगमच्छम्भुः शैलेशं सामरादिकः ॥ २८ ॥
हे मुने ! उनके समझानेसे हिमालयने उसे स्वीकार कर लिया । तब शिवजी विदा होनेके लिये देवताओंसहित हिमालयके घर गये ॥ २८ ॥

यात्रां कुर्वति देवेशे स्वशैलं सामरे शिवे ।
उच्चै रुरोद सा मेना तमुवाच कृपानिधिम् ॥ २९ ॥
जब देवेश शिव देवताओंसहित अपने कैलासपर्वतके लिये यात्रा करने लगे, तब मेना ऊंचे स्वरसे रोने लगी और कृपासागर शंकरजीसे कहने लगी- ॥ २९ ॥

मेनोवाच
कृपानिधे कृपां कृत्वा शिवां सम्पालयिष्यसि ।
सहस्रदोषं पार्वत्या आशुतोषः क्षमिष्यसि ॥ ३० ॥
मेना बोलीं-कृपानिधे ! आप कृपा करके भलीभाँति शिवाका पालन कीजियेगा, आप आशुतोष हैं, अत: पार्वतीके हजारों दोषोंको क्षमा कीजियेगा ॥ ३० ॥

त्वत्पादाम्बुजभक्ता च मद्वत्सा जन्मजन्मनि ।
स्वप्ने ज्ञाने स्मृतिर्नास्ति महादेवं प्रभुं विना ॥ ३१ ॥
त्वद्‌भक्तिश्रुतिमात्रेण हर्षाश्रुपुलकान्विता ।
त्वन्निन्दया भवेन्मौना मृत्युञ्जय मृता इव ॥ ३२ ॥
हे प्रभो ! यह मेरी कन्या जन्म जन्मान्तरसे आपके चरणकमलकी भक्त है, आप महादेव प्रभुको छोड़कर इसे सोते अथवा जागते समय भी किसीका स्मरण नहीं रहता । हे मृत्युंजय ! आपकी भक्तिके सुननेमात्रसे ही यह हर्षके आँसू गिराती हुई पुलकित हो जाती है और आपकी निन्दासे यह मौन हो मृतकके समान हो जाती है ॥ ३१-३२ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा मेनका तस्मै समर्प्य स्वसुतान्तदा ।
अत्युच्चै रोदनं कृत्वा मूर्च्छामाप तयोः पुरः ॥ ३३ ॥
अथ मेनां बोधयित्वा तामामन्त्र्य गिरिं तथा ।
चकार यात्रां देवैश्च महोत्सवपुरःसरम् ॥ ३४ ॥
ब्रह्माजी बोले-तब ऐसा कहकर मेना उन्हें अपनी पुत्रीको समर्पितकर जोर-जोरसे रुदन करके उन दोनोंके सामने मूञ्छित हो गयीं । तदनन्तर शंकरने मेनाको समझा करके और उनसे तथा हिमालयसे आज्ञा लेकर देवगणोंके साथ महोत्सवपूर्वक यात्रा की ॥ ३३-३४ ॥

अथ ते निर्जराः सर्वे प्रभुणा स्वगणैः सह ।
यात्रां प्रचक्रिरे तूष्णीं गिरिम्प्रति शिवं दधुः ॥ ३५ ॥
तदनन्तर सभी देवताओंने हिमालयके कल्याणकी कामना करते हुए प्रभु तथा अपने गणोंके साथ मौन हो प्रस्थान किया ॥ ३५ ॥

हिमाचलपुरीबाह्योपवने हर्षिताः सुराः ।
सेश्वराः सोत्सवास्तस्थुः पर्यैषन्त शिवागमम् ॥ ३६ ॥
[कुछ दूर जाकर] हर्षित देवता हिमालयकी पुरीके बाहर बगीचेमें शिवजीसहित आनन्दपूर्वक ठहर गये और शिवाके आगमनकी प्रतीक्षा करने लगे ॥ ३६ ॥

इत्युक्ता शिवसद्यात्रा देवैःसह मुनीश्वर ।
आकर्णय शिवयात्रां विरहोत्सवसंयुताम् ॥ ३७ ॥
हे मुनीश्वर ! इस प्रकार देवगणोंके सहित शिवकी उत्तम यात्राका वृत्तान्त मैंने आपसे कह दिया । अब उत्सव तथा [विदाईके अनन्तर होनेवाले] विरहसे युक्त शिवाकी यात्रा सुनिये ॥ ३७ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये
पार्वती खण्डे शिवयात्रावर्णनं नाम त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५३ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्यतीखण्डमें शिवयात्रावर्णन नामक तिरपनवा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५३ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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