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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे

चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥

पतिव्रताधर्मवर्णनम् -
मेनाकी इच्छाके अनुसार एक ब्राह्मणपत्नीका पार्वतीको पातिव्रतधर्मका उपदेश देना -


ब्रह्मोवाच
अथ सप्तर्षयस्ते च प्रोचुर्हिमगिरीश्वरम् ।
कारय स्वात्मजादेव्या यात्रामद्योचितां गिरे ॥ १ ॥
ब्रह्माजी बोले-उसके बाद सप्तर्षियोंने हिमालयसे कहा-आज गिरिजाकी विदाईके लिये उत्तम मुहूर्त है, अतः आप अपनी पुत्री पार्वतीकी विदाई कर दीजिये ॥ १ ॥

इति श्रुत्वा गिरीशो हि बुद्ध्वा तद्विरहं परम् ।
विषण्णोभून्महाप्रेम्णा कियत्कालं मुनीश्वर ॥ २ ॥
हे मुनीश्वर ! यह बात सुनकर वे हिमालय पार्वतीवियोगजन्य दुःखका स्मरणकर कुछ देरके लिये व्याकुल हो गये ॥ २ ॥

कियत्कालेन सम्प्राप्य चेतनां शैलराट् ततः ।
तथास्त्विति गिरामुक्त्वा मेनां सन्देशमब्रवीत् ॥ ३ ॥
फिर कुछ कालके अनन्तर चेतना प्राप्त होनेपर 'ऐसा ही होगा'-यह कहकर उन्होंने मेनाको सन्देश भेजा ॥ ३ ॥

शैलसन्देशमाकर्ण्य हर्षशोकवशा मुने ।
मेना संयापयामास कर्तुमासीत्समुद्यता ॥ ४ ॥
हे मुने ! शैलका सन्देश सुनकर मेना हर्ष तथा शोकसे युक्त हो गयीं और गिरिजाको विदा करानेके, लिये उद्यत हो गयीं ॥ ४ ॥

श्रुतिस्वकुलजाचारं चचार विधिवन्मुने ।
उत्सवं विविधं तत्र सा मेना क्षितिभृत्प्रिया ॥ ५ ॥
हे मुने ! हिमाचलप्रिया उन मेनाने प्रथम वेद तथा अपने कुलकी रीति सम्पन्न की, फिर पार्वतीकी यात्राके निमित्त वे नाना प्रकारके मंगलविधान करने लगीं ॥ ५ ॥

गिरिजां भूषयामास नानारत्नांशुकैर्वरैः ।
द्वादशाभरणैश्चैव शृङ्‌गारैर्नृपसम्मितैः ॥ ६ ॥
मेनामनोगतिं बुद्ध्वा साध्व्येका द्विजकामिनी ।
गिरिजां शिक्षयामास पातिव्रत्यव्रतं परम् ॥ ७ ॥
उन्होंने पार्वतीको अनेक रत्नों तथा श्रेष्ठ वस्त्रोंसे और राजकुलोचित शृंगारों तथा उत्तमोत्तम द्वादश आभरणोंसे अलंकृत किया । तदनन्तर मेनाके मनकी बात जानकर एक पतिव्रता ब्राह्मणपत्नी गिरिजाको श्रेष्ठ पातिव्रत-धर्मका उपदेश देने लगी- ॥ ६-७ ॥

द्विजपत्न्युवाच
गिरिजे शृणु सुप्रीत्या मद्वचो धर्मवर्द्धनम् ।
इहामुत्रानन्दकरं शृण्वतां च सुखप्रदम् ॥ ८ ॥
ब्राह्मणपत्नी बोली-हे गिरिजे ! तुम प्रेमपूर्वक मेरा यह वचन सुनो । मेरे ये वचन स्त्रियोंको इस लोक तथा परलोकमें सुख देनेवाले हैं तथा इनके सुननेसे भी स्त्रियोंका कल्याण हो जाता है ॥ ८ ॥

धन्या पतिव्रता नारी नान्या पूज्या विशेषतः ।
पावनी सर्वलोकानां सर्वपापौघनाशिनी ॥ ९ ॥
इस जगत्में पतिव्रता नारी ही धन्य है, इसके अतिरिक्त और कोई नारी पूजाके योग्य नहीं है । वह सब लोगोंको पवित्र करनेवाली तथा समस्त पापोंको दूर करनेवाली है । ९ ॥

सेवते या पतिं प्रेम्णा परमेश्वरवच्छिवे ।
इह भुक्त्वाखिलान् भोगानन्ते पत्या शिवां गतिम् ॥ १० ॥
हे शिवे ! जो स्त्री अपने स्वामीकी परमेश्वरके समान सेवा करती है, वह यहाँ अनेक भोगोंको भोगकर अन्तमें पतिके साथ उत्तम गतिको प्राप्त होती है ॥ १० ॥

पतिव्रता च सावित्री लोपामुद्रा ह्यरुन्धती ।
शाण्डिल्या शतरूपानसूया लक्ष्मीः स्वधा सती ॥ ११ ॥
सञ्ज्ञा च सुमतिः श्रद्धा मेना स्वाहा तथैव च ।
अन्या बह्व्योऽपि साध्व्यो हि नोक्ता विस्तरजाद्‌भयात् ॥ १२ ॥
सावित्री, लोपामुद्रा, अरुन्धती, शाण्डिल्या, शतरूपा, अनसूया, लक्ष्मी, स्वधा, सती, संज्ञा, सुमति, श्रद्धा, मेना और स्वाहा आदि बहुत-सी पतिव्रताएँ हैं, जिन्हें विस्तारके भयसे यहाँ नहीं कह रही हूँ ॥ ११-१२ ॥

पातिव्रत्यवृषेणैव ता गताःसर्वपूज्यताम् ।
ब्रह्मविष्णुहरैश्चापि मान्या जाता मुनीश्वरैः ॥ १३ ॥
ये सभी पातिव्रत्यधर्मके प्रभावसे ही जगत्में मान्य तथा पूज्य हुई । ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर एवं अन्य मुनीश्वरोंने भी इनका सम्मान किया है ॥ १३ ॥

सेव्यस्त्वया पतिस्तस्मात्सर्वदा शङ्करः प्रभुः ।
दीनानुग्रहकर्ता च सर्वसेव्यःसतां गतिः ॥ १४ ॥
इसलिये तुम्हें अपने पति शंकरकी विशेष रूपसे सेवा करनी चाहिये; क्योंकि ये दीनोंपर अनुग्रह करनेवाले एवं पूज्य होनेके कारण सबके सेव्य हैं और सज्जनोंके गतिदाता हैं ॥ १४ ॥

महान्पतिव्रताधर्मः श्रुतिस्मृतिषु नोदितः ।
यथैष वर्ण्यते श्रेष्ठो न तथान्योऽस्ति निश्चितम् ॥ १५ ॥
पतिव्रताओंका धर्म महान् है, जिसका वर्णन श्रुतियों तथा स्मृतियों में भरा हुआ है । निश्चय ही पातिव्रत्यधर्म जितना श्रेष्ठ है, उतना अन्य धर्म श्रेष्ठ नहीं है ॥ १५ ॥

भुञ्ज्याद्‌भुक्ते प्रिये पत्यौ पातिव्रत्यपरायणा ।
तिष्ठेत्तस्मिंञ्छिवे नारी सर्वथा सति तिष्ठति ॥ १६ ॥
स्त्रीको चाहिये कि जब अपना प्रिय पति भोजन कर ले, तब स्वयं पतिभक्तिमें परायण होकर भोजन करे । हे शिव ! जब पति खड़ा हो, तब साध्वी स्त्रीको भी खड़ा ही रहना चाहिये ॥ १६ ॥

स्वप्यात्स्वपिति सा नित्यं बुध्येत्तु प्रथमं सुधीः ।
सर्वदा तद्धितं कुर्यादकैतवगतिः प्रिया ॥ १७ ॥
अनलङ्‌कृतमात्मानं दर्शयेन्न क्वचिच्छिवे ।
कार्यार्थं प्रोषिते तस्मिन्भवेन्मण्डनवर्जिता ॥ १८ ॥
पतिके सो जानेपर स्वयं शयन करे और उसके उठनेसे पहले स्वयं जाग जाय, पतिका सर्वदा छलरहित हो हित करे । हे शिवे ! कभी अलंकारसे रहित हो अपने स्वामीके सम्मुख न जाय । जब स्वामी कार्यवश परदेश चला जाय, तो कभी शरीरका संस्कार एवं श्रृंगार न करे ॥ १७-१८ ॥

पत्युर्नाम न गृह्णीयात् कदाचन पतिव्रता ।
आक्रुष्टापि न चाक्रोशेत्प्रसीदेत्ताडितापि च ॥
हन्यतामिति च ब्रूयात्स्वामिन्निति कृपां कुरु । १९ ॥
पतिव्रता स्त्रीको चाहिये कि वह पतिका नाम कभी नले, पतिके द्वारा क्रुद्ध होकर कठोर वचन कहनेपर भी उसे बुरा वचन न कहे और पतिके शासित करनेपर भी प्रसन्न रहे । उस समय भी यही कहे कि स्वामिन् ! और अधिक दण्ड देकर मेरे ऊपर कृपा कीजिये ॥ १९ ॥

आहूता गृह कार्याणि त्यक्त्वा गच्छेत्तदन्तिकम् ।
सत्वरं साञ्जलिः प्रीत्यां सुप्रणम्य वदेदिति ॥ २० ॥
किमर्थं व्याहृता नाथ स प्रसादो विधीयताम् ।
तदादिष्टा चरेत्कर्म सुप्रसन्नेन चेतसा ॥ २१ ॥
पतिके बुलानेपर घरका सारा कामकाज छोड़कर उनके समीप जाय और शीघ्रतासे प्रणामकर हाथ जोड़कर उनसे प्रेमपूर्वक कहे । हे स्वामिन् ! आपने किसलिये बुलाया है, कृपाकर आज्ञा दीजिये, इसके बाद उस आज्ञाको प्रसन्नतापूर्वक सम्पन्न करना चाहिये ॥ २०-२१ ॥

चिरं तिष्ठेन्न च द्वारे गच्छेन्नैव परालये ।
आदाय तत्त्वं यत्किञ्चित्कस्मैचिन्नार्पयेत्क्वचित् ॥ २२ ॥
दरवाजेपर खड़ी होकर बहुत कालतक इधर-उधर न देखे और न तो दूसरेके घर जाय । किसीका भेद लेकर किसी अन्यके सामने उसको प्रकाशित न करे ॥ २२ ॥

पूजोपकरणं सर्वमनुक्ता साधयेत्स्वयम् ।
प्रतीक्षमाणावसरं यथाकालोचितं हितम् ॥ २३ ॥
न गच्छेत्तीर्थयात्रां वै पत्याज्ञां न विना क्वचित् ।
दूरतो वर्जयेत्सा हि समाजोत्सवदर्शनम् ॥ २४ ॥
तीर्थार्थिनी तु या नारी पतिपादोदकं पिबेत् ।
तस्मिन्सर्वाणि तीर्थानि क्षेत्राणि च न संशयः ॥ २५ ॥
बिना कहे ही पतिके लिये पूजनकी सामग्री प्रस्तुत करे और पति के हितके लिये निरन्तर अवसरको प्रतीक्षा करती रहे । पतिकी आज्ञाके बिना कभी भी तीर्थयात्राके लिये न जाय और किसी समाज तथा उत्सवको देखनेके लिये भी न जाय । जिस स्वीको तीर्थयात्राकी इच्छा हो, वह अपने स्वामीका चरणामृत लेकर सन्तुष्ट हो जाय; क्योंकि पतिके चरणोदकमें सभी तीर्थ एवं क्षेत्र निवास करते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २३-२५ ॥

भुञ्ज्यात्सा भर्तुरुच्छिष्टमिष्टमन्नादिकं च यत् ।
महाप्रसाद इत्युक्त्वा पतिदत्तं पतिव्रता ॥ २६ ॥
अविभज्य न चाश्नीयाद्देवपित्रतिथिष्वपि ।
परिचारकवर्गेषु गोषु भिक्षुकुलेषु च ॥ २७ ॥
पतिके भोजन करनेके पश्चात् उसका उच्छिष्ट जो भी इष्ट अन्नादि हो, उसे पतिप्रदत्त महाप्रसाद समझकर पतिव्रता स्त्री भोजन करे । देवता, पितर, अतिथि, सेवक, गौ एवं भिक्षुकको बिना दिये अन्नका भोजन न करे ॥ २६-२७ ॥

संयतोपस्करा दक्षा हृष्टा व्ययपराङ्मुखी ।
भवेत्सा सर्वदा देवी पतिव्रतपरायणा ॥ २८ ॥
घरकी समग्र सामग्री ठीक तरहसे रखे, नित्य उत्साहयुक्त तथा सावधान रहे और अधिक व्यय न करे, इस प्रकार सर्वदा पातिव्रत्यधर्मका पालन करे ॥ २८ ॥

कुर्यात्पत्यननुज्ञाता नोपवासव्रतादिकम् ।
अन्यथा तत्फलं नास्ति परत्र नरकं व्रजेत् ॥ २९ ॥
सुखपूर्वं सुखासीनं रममाणं यदृच्छया ।
आन्तरेष्वपि कार्येषु पतिं नोत्थापयेत्क्वचित् ॥ ३० ॥
क्लीबं वा दुरवस्थं वा व्याधितं वृद्धमेव च ।
सुखितं दुःखितं वापि पतिमेकं न लङ्‌घयेत् ॥ ३१ ॥
पतिकी आज्ञाके बिना कोई उपवास तथा व्रत न करे, अन्यथा उसका फल नहीं होता और उसे नरककी प्राप्ति होती है । सुखपूर्वक आनन्दसे बैठे हुए तथा अपनी इच्छासे रमण करते हुए पतिको आवश्यक कार्य आ पड़नेपर भी न उठाये । पति क्लीब, दुर्गतिमें पड़ा हुआ, वृद्ध, रोगी, सुखी अथवा दुखी चाहे जैसा ही क्यों न हो, उसका अपमान न करे ॥ २९-३१ ॥

स्त्रीधर्मिणी त्रिरात्रं च स्वमुखं नैव दर्शयेत् ।
स्ववाक्यं श्रावयेन्नापि यावत्स्नानान्न शुध्यति ॥ ३२ ॥
मासिक धर्म प्राप्त हो जानेपर आरम्भसे तीन रात्रिपर्यन्त अपना मुख पतिको न दिखाये और जबतक चौथे दिन स्नानसे शुद्ध न हो, अपना शब्द भी न सुनाये ॥ ३२ ॥

सुस्नाता भर्तृवदनमीक्षेतान्यस्य न क्वचित् ।
अथवा मनसि ध्यात्वा पतिम्भानुं विलोकयेत् ॥ ३३ ॥
ऋतुस्नान करनेके पश्चात् पतिका ही मुख देखें, कभी अन्यका मुख न देखे अथवा पतिके न होनेपर पतिका ध्यानकर सूर्यका दर्शन करे ॥ ३३ ॥

हरिद्राकुङ्कुमं चैव सिन्दूरं कज्जलादिकम् ।
कूर्पासकं च ताम्बूलं माङ्‌गल्याभरणादिकम् ॥ ३४ ॥
केशसंस्कारकबरीकरकर्णादिभूषणम् ।
भर्तुरायुष्यमिच्छन्ती दूरयेन्न पतिव्रता ॥ ३५ ॥
पतिके आयुष्यकी इच्छा करनेवाली पतिव्रता स्त्रीको हरिद्रा, कुंकुम, सिन्दूर, काजल, कूसिक, ताम्बूल, मांगलिक आभूषण, केशोंका संस्कार, केशपाश बनाना, हाथमें कंगन एवं कानोंमें कर्णफूल नित्य धारण करना चाहिये, इसका परित्याग कभी किसी भी अवस्थामें न करे ॥ ३४-३५ ॥

न रजक्या न बन्धक्या तथा श्रवणया न च ।
न च दुर्भगया क्वापि सखित्वं कारयेत् क्वचित् ॥ ३६ ॥
पतिविद्वेषिणीं नारीं न सा संभाषयेत् क्वचित् ।
नैकाकिनी क्वचित्तिष्ठेन्नग्ना स्नायान्न च क्वचित् ॥ ३७ ॥
धोबिन, वन्ध्या, व्यभिचारिणी, संन्यासिनी अथवा दुर्भाग्ययुक्त स्त्रीसे कभी मित्रता न करे । जो स्त्री अपने पतिसे द्वेष करती हो, उससे बातचीत न करे, कभी अकेली न रहे और न नग्न होकर कभी स्नान करे ॥ ३६-३७ ॥

नोलूखले न मुसले न वर्द्धन्यां दृषद्यपि ।
न यन्त्रके न देहल्यां सती च प्रवसेत् क्वचित् ॥ ३८ ॥
ओखली, मूसल, बुहारी (झाडू), सिल, लोढ़ा तथा देहलीपर सती स्त्री कभी न बैठे ॥ ३८ ॥

विना व्यवायसमयं प्रागल्भ्यं नाचरेत् क्वचित् ।
यत्रयत्र रुचिर्भर्तुस्तत्र प्रेमवती भवेत् ॥ ३९ ॥
सहवासके अतिरिक्त और किसी समय पतिसे धृष्टता न करे । अपना पति जिससे प्रेम करे, उसीसे प्रेम करे ॥ ३९ ॥

हृष्टाहृष्टे विषण्णा स्याद्विषण्णास्ये प्रिये प्रिया ।
पतिव्रता भवेद्देवी सदा पतिहितैषिणी ॥ ४० ॥
पतिके प्रसन्न होनेपर प्रसन्न रहे, पतिके दुखी होनेपर दुखी रहे तथा पतिके प्रियमें ही अपना प्रिय समझे । इस प्रकार पतिव्रता स्त्री सदैव पतिके हितकी इच्छा करे ॥ ४० ॥

एकरूपा भवेत्पुण्या संपत्सु च विपत्सु च ।
विकृतिं स्वात्मनः क्वापि न कुर्याद्धैर्यधारिणी ॥ ४१ ॥
पतिव्रता स्त्री सदैव सम्पत्ति तथा विपत्ति दोनों अवस्थाओंमें एकरूप रहे । विकार उपस्थित होनेपर कभी विकृत न हो और सदैव धैर्य धारण करे ॥ ४१ ॥

सर्पिर्लवणतैलादिक्षयेऽपि च पतिव्रता ।
पतिं नास्तीति न ब्रूयादायासेषु न योजयेत् ॥ ४२ ॥
विधेर्विष्णोर्हराद्वापि पतिरेकोऽधिको मतः ।
पतिव्रताया देवेशि स्वपतिश्शिव एव च ॥ ४३ ॥
घी, नमक, तेल आदिके न होनेपर भी पतिव्रता स्वी पतिसे 'नहीं है'-ऐसा न कहे और पतिको किसी असाध्य कार्यमें नियुक्त न करे । ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवसे भी अधिक पतिका महत्त्व है । अत: हे देवेशि ! पतिव्रता अपने पतिको साक्षात् शिवस्वरूप ही समझे ॥ ४२-४३ ॥

व्रतोपवासनियमं पतिमुल्लङ्‌घ्य या चरेत् ।
आयुष्यं हरते भर्तुर्मृता निरयमृच्छति ॥ ४४ ॥
उक्ता प्रत्युत्तरं दद्याद्या नारी क्रोधतत्परा ।
सरमा जायते ग्रामे शृगाली निर्जने वने ॥ ४५ ॥
पतिकी आज्ञाका उल्लंघन करके जो स्त्री व्रत, उपवास तथा नियमादिका आचरण करती है, वह अपने पतिकी आयुका हरण करती है और मरनेपर नरक प्राप्त करती है । जो स्त्री क्रुद्ध होकर पतिके कुछ कहनेपर उसका प्रत्युत्तर करती है, वह ग्रामकी कुतिया अथवा निर्जन वनमें शृगाली होती है । ४४-४५ ॥

उच्चासनं न सेवेत न व्रजेद्दुष्टसन्निधौ ।
न च कातरवाक्यानि वदेन्नारी पतिं क्वचित् ॥ ४६ ॥
अपवादं न च ब्रूयात्कलहं दूरतस्त्यजेत् ।
गुरूणां सन्निधौ क्वापि नोच्चैर्ब्रूयान्न वै हसेत् ॥ ४७ ॥
स्त्रीको चाहिये कि वह पतिसे ऊँचे स्थानपर न बैठे, दुष्टोंके समीप न जाय और कभी भी पतिसे कातर वाक्य न कहे । किसीकी निन्दा या आक्षेपयुक्त बात न कहे, दूरसे ही कलहका परित्याग करे, गुरुजनोंके समीप कभी जोरसे न बोले और न जोरसे हँसे ॥ ४६-४७ ॥

बाह्यादायान्तमालोक्य त्वरितान्नजलाशनैः ।
ताम्बूलैर्वसनैश्चापि पादसंवाहनादिभिः ॥ ४८ ॥
तथैव चाटुवचनैः खेदसन्नोदनैः परैः ।
या प्रियं प्रीणयेत्प्रीता त्रिलोकी प्रीणता तया ॥ ४९ ॥
पतिको बाहरसे आया हुआ देखकर शीघ्रतासे अन्न, जल, भोजन, ताम्बूल, वस्त्र, पादसंवाहन, खेद दूर करनेवाले मीठे वचनके द्वारा जो स्त्री अपने स्वामीको प्रसन्न रखती है, मानो उसने त्रैलोक्यको प्रसन्न कर लिया ॥ ४८-४९ ॥

मितं ददाति जनको मितं भ्राता मितं सुतः ।
अमितस्य हि दातारं भर्तारं पूजयेत्सदा ॥ ५० ॥
माता, पिता, पुत्र, भाई तो स्त्रीको बहुत थोड़ा ही सुख देते हैं, परंतु पति तो अपरिमित सुख देता है । इसलिये स्त्रीको चाहिये कि वह पतिका सदैव पूजन करे ॥ ५० ॥

भर्ता देवो गुरुर्भर्ता धर्मतीर्थव्रतानि च ।
तस्मात्सर्वं परित्यज्य पतिमेकं समर्चयेत् ॥ ५१ ॥
या भर्तारं परित्यज्य रहश्चरति दुर्मतिः ।
उलूकी जायते क्रूरा वृक्ष कोटरशायिनी ॥ ५२ ॥
पति ही देवता, गुरु, भा, धर्म, तीर्थ एवं व्रतादि सब कुछ है । इसलिये सब कुछ छोड़कर एकमात्र पतिका ही पूजन करे । जो दुष्ट स्त्री अपने पतिको छोड़कर एकान्तमें दूसरेके पास जाती है, बह वृक्षके कोटरमें रहनेवाली उलूकी होती है । ५१-५२ ॥

ताडिता ताडितुं चेच्छेत्सा व्याघ्री वृषदंशिका ।
कटाक्षयति यान्यं वै केकराक्षी तु सा भवेत् ॥ ५३ ॥
या भर्तारं परित्यज्य मिष्टमश्नाति केवलम् ।
ग्रामे वा सूकरी भूयाद्वल्गुर्वापि स्वविड्भुजा ॥ ५४ ॥
जो स्वामीके द्वारा ताड़न करनेपर स्वयं भी ताड़न करना चाहती है, वह वृषभभक्षिणी व्याघ्री होती है । जो अपने पतिको छोड़कर अन्यसे कटाक्ष करती है, वह केकराक्षी होती है । जो अपने पतिको बिना दिये मिष्टान्न खा लेती है, वह ग्रामसूकरी अथवा अपनी विष्ठा खानेवाली वल्गु (बकरी) होती है । ५३-५४ ॥

या तुं कृत्य प्रियं ब्रूयान् मूका सा जायते खलु ।
या सपत्नी सदेर्ष्येत दुर्भगा सा पुनः पुनः ॥ ५५ ॥
जो अपने पतिको 'तू' कहकर बोलती है, वह जन्मान्तरमें गूंगी होती है और जो अपनी सपली (सौत) से डाह करती है, वह बारंबार विधवा होती है ॥ ५५ ॥

दृष्टिं विलुप्य भर्त्तुर्या कश्चिदन्यं समीक्षते ।
काणा च विमुखी चापि कुरूपापि च जायते ॥ ५६ ॥
जो अपने स्वामीकी दृष्टि बचाकर किसी अन्य पुरुषको देखती है, वह काणी, कुमुखी तथा कुरूपा होती है ॥ ५६ ॥

जीवहीनो यथा देहः क्षणादशुचितां व्रजेत् ।
भर्तृहीना तथा योषित्सुस्नाताप्यशुचिः सदा ॥ ५७ ॥
जैसे जीवके बिना देह क्षणमात्रमें अशुचि हो जाता है, उसी प्रकार अपने स्वामीके बिना स्त्री अच्छी तरह स्नान करनेपर भी अपवित्र ही रहती है । ५७ ॥

सा धन्या जननी लोके स धन्यो जनकः पिता ।
धन्यःस च पतिर्यस्य गृहे देवी पतिव्रता ॥ ५८ ॥
इस लोकमें उसकी माता धन्य है और उसके पिता भी धन्य हैं तथा उसका वह पति भी धन्य है, जिसके घरमें पतिव्रता स्त्रीका निवास होता है ॥ ५८ ॥

पितृवंश्याः मातृवंश्याः पतिवंश्यास्त्रयस्त्रयः ।
पतिव्रतायाः पुण्येन स्वर्गे सौख्यानि भुञ्जते ॥ ५९ ॥
पतिव्रता स्त्रीके पुण्यसे उसके पितृवंश, मातृवंश तथा पतिवंशके तीन-तीन पूर्वज स्वर्गमें सुख भोगते हैं ॥ ५१ ॥

शीलभङ्‌गेन दुर्वृत्ताः पातयन्ति कुलत्रयम् ।
पितुर्मातुस्तथा पत्युरिहामुत्रापि दुःखिताः ॥ ६० ॥
दुराचारिणी स्त्रियाँ अपने दुराचरणके द्वारा माता-पिता तथा पति-इन तीनों कुलोंको नरकमें गिराती हैं और वे इस लोक तथा परलोकमें सदैव दुखी रहती हैं ॥ ६० ॥

पतिव्रतायाश्चरणो यत्र यत्र स्पृशेद्‌भुवम् ।
तत्र तत्र भवेत्सा हि पापहन्त्री सुपावनी ॥ ६१ ॥
विभुः पतिव्रतास्पर्शं कुरुते भानुमानपि ।
सोमो गन्धवहश्चापि स्वपावित्र्याय नान्यथा ॥ ६२ ॥
पतिव्रताके चरण जहाँ-जहाँ पड़ते हैं, वहाँवहाँकी पृथिवी सदा पापका हरण करनेवाली तथा अत्यन्त पवित्र हो जाती है । सर्वव्यापक सूर्य, चन्द्रमा तथा वायु भी अपनी पवित्रताके लिये ही पतिव्रताका स्पर्श करते हैं, अन्य किसी कारणसे नहीं ॥ ६१-६२ ॥

आपः पतिव्रतास्पर्शमभिलष्यन्ति सर्वदा ।
अद्य जाड्यविनाशो नो जातस्त्वद्यान्यपावनाः ॥ ६३ ॥
भार्या मूलं गृहस्थास्य भार्या मूलं सुखस्य च ।
भार्या धर्मफलावाप्त्यै भार्या सन्तानवृद्धये ॥ ६४ ॥
गृहे गृहे न किं नार्यो रूपलावण्यगर्विताः ।
परं विश्वेशभक्त्यैव लभ्यते स्त्री पतिव्रता ॥ ६५ ॥
जल तो सदैव पतिव्रताका स्पर्श चाहते हैं, वे कहते हैं कि आज इस पतिव्रताके स्पर्शसे हमारी जड़ता नष्ट हो गयी और हमें दूसरेको पवित्र करनेकी योग्यता प्राप्त हुई । भार्या गृहस्थका मूल है, भार्या ही सुखका मूल है, धर्मफलकी प्राप्ति एवं सन्तानवृद्धिके लिये भार्याकी अत्यन्त आवश्यकता है । क्या अपने रूप, लावण्यका गर्व करनेवाली स्त्रियाँ प्रत्येक घरोंमें नहीं हैं, किंतु विश्वेश्वरमें भक्ति करनेसे ही पतिव्रता स्त्री प्राप्त होती है ॥ ६३-६५ ॥

परलोकस्त्वयं लोको जीयते भार्य या द्वयम् ।
देवपित्रतिथीज्यादि नाभार्यः कर्म चार्हति ॥ ६६ ॥
गृहस्थः स हि विज्ञेयो यस्य गेहे पतिव्रता ।
ग्रस्यतेऽन्यान्प्रतिदिनं राक्षस्या जरया यथा ॥ ६७ ॥
भार्याक द्वारा ही इस लोक तथा परलोक-दोनों लोकोंपर विजय प्राप्त की जा सकती है । देवकर्म, पितृकर्म, अतिथिकर्म तथा यज्ञकर्म बिना भाके फलवान् नहीं होता । गृहस्थ उसीको कहते हैं, जिसके घरमें पतिव्रता स्त्रीका निवास है, अन्य स्त्रियाँ तो प्रतिदिन जरा राक्षसीके समान पुरुषको ग्रसती रहती है ॥ ६६-६७ ॥

यथा गङ्‌गावगाहेन शरीरं पावनं भवेत् ।
तथा पतिव्रतां दृष्ट्‍वा सकलं पावनं भवेत् ॥ ६८ ॥
जिस प्रकार गंगास्नानसे शरीर पवित्र हो जाता है, उसी प्रकार पतिव्रता स्त्रीके दर्शनमात्रसे सब कुछ पवित्र हो जाता है ॥ ६८ ॥

न गङ्‌गाया तया भेदो या नारी पतिदेवता ।
उमाशिवसमौ साक्षात्तस्मात्तौ पूजयेद्‌बुधः ॥ ६९ ॥
गंगा तथा पतिव्रता स्त्रीमें कोई भेद नहीं है । वे दोनों स्त्री-पुरुष शिव तथा पार्वतीके तुल्य हैं, अतः बुद्धिमान् पुरुषको उनका पूजन करना चाहिये ॥ ६९ ॥

तारः पतिः श्रुतिर्नारी क्षमा सा स स्वयं तपः ।
फलं पतिः सत्क्रिया सा धन्यौ तौ दम्पती शिवे ॥ ७० ॥
पति ॐकार है, तो स्त्री श्रुति वेद है, पति तप है, तो स्त्री क्षमा है, स्त्री सक्रिया है, तो पति उसका फल है । हे शिवे ! इस प्रकारके दम्पती धन्य हैं ॥ ७० ॥

एवं पतिव्रताधर्मो वर्णितस्ते गिरीन्द्रजे ।
तद्‌भेदान् शृणु सुप्रीत्या सावधानतयाऽद्य मे ॥ ७१ ॥
हे पार्वति ! इस प्रकारसे मैंने तुमसे पातिव्रत्यधर्मका निरूपण किया । अब उन पतिव्रताओंके भेद सावधानीके साथ प्रेमपूर्वक सुनो ॥ ७१ ॥

चतुर्विधास्ताः कथिता नार्यो देवि पतिव्रताः ।
उत्तमादिविभेदेन स्मरतां पापहारिकाः ॥ ७२ ॥
उत्तम आदिके भेदसे पतिव्रता स्त्रियाँ चार प्रकारकी कही गयी हैं । जिनके स्मरणसे पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ ७२ ॥

उत्तमा मध्यमा चैव निकृष्टातिनिकृष्टिका ।
ब्रुवे तासां लक्षणानि सावधानतया शृणु ॥ ७३ ॥
उत्तम, मध्यम, निकृष्ट तथा अतिनिकृष्ट-[ये चार भेद पतिव्रताओंके होते हैं । ] अब मैं उनका लक्षण कह रहा हूँ, सावधान होकर उसका श्रवण करो ॥ ७३ ॥

स्वप्नेपि यन्मनो नित्यं स्वपतिं पश्यति ध्रुवम् ।
नान्यं परपतिं भद्रे उत्तमा सा प्रकीर्तिता ॥ ७४ ॥
या पितृभ्रातृसुतवत् परं पश्यति सद्धिया ।
मध्यमा सा हि कथिता शैलजे वै पतिव्रता ॥ ७५ ॥
जिसका मन स्वप्नमें भी अपने पतिको ही देखता है और कभी परपतिमें नहीं जाता; हे भद्रे ! वह उत्तम पतिव्रता कही गयी है । जो दूसरोंके पतियोंको पिता, भ्राता तथा पुत्रके समान सद्‌बुद्धिसे देखती है, हे पार्वति ! वह मध्यम पतिव्रता कही गयी है ॥ ७४-७५ ॥

बुद्ध्वा स्वधर्मं मनसा व्यभिचारं करोति न ।
निकृष्टा कथिता सा हि सुचरित्रा च पार्वति ॥ ७६ ॥
हे पार्वति । जो स्त्री मनमें अपना धर्म समझकर व्यभिचार नहीं करती, वह सुन्दर चरित्रवाली स्त्री निकृष्ट पतिव्रता (अधमा) कही गयी है ॥ ७६ ॥

पत्युः कुलस्य च भयाद्‌व्यभिचारं करोति न ।
पतिव्रताऽधमा सा हि कथिता पूर्वसूरिभिः ॥ ७७ ॥
जो मनमें इच्छा रहते हुए भी पत्ति एवं कुलके भयसे व्यभिचार नहीं करती, उसको पुरातन लोगोंने अति-निकृष्ट पतिव्रता कहा है ॥ ७७ ॥

चतुर्विधा अपि शिवे पापहन्त्र्यः पतिव्रताः ।
पावनाः सर्वलोकानामिहामुत्रापि हर्षिताः ॥ ७८ ॥
हे शिवे ! ये चारों प्रकारकी पतिव्रताएँ पापहरण करनेवाली हैं, सम्पूर्ण लोकोंको पवित्र करनेवाली हैं और इस लोक एवं परलोकमें आनन्द प्रदान करनेवाली हैं ॥ ७८ ॥

पातिव्रत्यप्रभावेणात्रिस्त्रिया त्रिसुरार्थनात् ।
जीवितो विप्र एको हि मृतो वाराहशापतः ॥ ७९ ॥
पातिव्रत्यके प्रभावसे ही अत्रिप्रिया अनसूयाने तीनों देवताओंकी प्रार्थनापर वाराहके शापसे मरे हुए ब्राह्मणको जीवनदान दिया था ॥ ७९ ॥

एवं ज्ञात्वा शिवे नित्यं कर्तव्यं पतिसेवनम् ।
त्वया शैलात्मज प्रीत्या सर्वकामप्रदं सदा ॥ ८० ॥
हे शिवे ! ऐसा जानकर तुमको नित्य प्रेमपूर्वक अपने पतिकी सेवा करनी चाहिये, क्योंकि हे शैलपुत्रि ! ऐसा करनेसे तुम्हारे सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण होंगे ॥ ८० ॥

जगदम्बा महेशी त्वं शिवः साक्षात्पतिस्तव ।
तव स्मरणतो नार्यो भवन्ति हि पतिव्रताः ॥ ८१ ॥
तुम तो साक्षात् जगत्की माता तथा महेश्वरी हो और जगत्पिता महेश्वर तुम्हारे साक्षात् पति हैं । तुम्हारे नामके स्मरणमात्रसे स्त्रियाँ पतिव्रता होंगी ॥ ८१ ॥

त्वदग्रे कथनेनानेन किं देवि प्रयोजनम् ।
तथापि कथितं मेऽद्य जगदाचारतः शिवे ॥ ८२ ॥
हे देवि ! तुम्हारे आगे इस कथनसे क्या प्रयोजन ! फिर भी हे शिवे ! संसारके आचरणके अनुसार मैंने तुम्हें यह सब कहा है ॥ ८२ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा विररामासौ द्विजस्त्री सुप्रणम्य ताम् ।
शिवा मुदमतिप्राप पार्वती शङ्करप्रिया ॥ ८३ ॥
ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार कहकर वह द्विजपत्नी भगवतीको प्रणामकर मौन हो गयी और उस उपदेशके श्रवणसे शंकरप्रिया शिवा अत्यन्त प्रसन्नचित्त हो गयीं ॥ ८३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये
पार्वतीखण्डे पतिव्रताधर्म वर्णनं नाम चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५४ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें पतिव्रताधर्मवर्णन नामक चौवनयाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५४ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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