![]() |
॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे
पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ शिवयोः कैलासगमनवर्णनम् -
शिव-पार्वती तथा बरातकी विदाई, भगवान् शिवका समस्त देवताओंको विदा करके कैलासपर रहना और शिव-विवाहोपाख्यानके श्रवणकी महिमा - ब्रह्मोवाच अथ सा ब्राह्मणी देव्यै शिक्षयित्वा व्रतं च तत् । प्रोवाच मेनामामन्त्र्य यात्रामस्याश्च कारय ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] इस प्रकार ब्राह्मणीने देवी पार्वतीको पातिव्रत्यधर्मका उपदेश देकर मेनाको बुलाकर कहा-अब इनकी यात्राकी तैयारी कीजिये ॥ १ ॥ तथास्त्विति च सम्प्रोच्य प्रेमवश्या बभूव सा । धृतिं धृत्वाहूय कालीं विश्लेषविरहा कुला ॥ २ ॥ अत्युच्चै रोदनं चक्रे संश्लिष्य च पुनः पुनः । पार्वत्यपि रुरोदोच्चैरुच्चरन्ती कृपावचः ॥ ३ ॥ मेनाने भी 'तथास्तु' कहा और वे प्रेमसे विभोर हो गयीं । तदनन्तर धैर्य धारणकर कालीको बुलाकर उसके विरहसे व्याकुल हो उठीं, उस समय वे मेना पार्वतीको बारंबार गले लगाकर ऊँचे स्वरमें रोने लगीं और पार्वती भी दीनवचन कहती हुई ऊँचे स्वरसे रोने लगीं ॥ २-३ ॥ शैलप्रिया शिवा चापि मूर्च्छामाप शुचार्दिता । मूर्च्छाम्प्रापुर्देवपत्न्यः पार्वत्या रोदनेन च ॥ ४ ॥ सर्वाश्च रुरुदुर्नार्यःसर्वमासीदचेतनम् । स्वयं रुरोद योगीशो गच्छन्कोन्य परः प्रभुः ॥ ५ ॥ शोकव्यथित होकर शैलप्रिया मेना और पार्वती मूच्छित हो गयीं । पार्वतीके रोनेके शब्दसे सभी देवपलियाँ भी अपनी सुध-बुध खो बैठीं । उस समय सभी देवस्त्रियाँ रोने लगीं तथा अचेत हो गयीं । विदा होते हुए स्वयं योगीश्वर भी रो पड़े, तब दूसरोंकी क्या बात ! ॥ ४-५ ॥ एतस्मिन्नन्तरे शीघ्रमाजगाम हिमालयः । ससर्वतनयस्तत्र सचिवैश्च द्विजैः परैः ॥ ६ ॥ स्वयं रुरोद मोहेन वत्सां कृत्वा स्ववक्षसि । क्व यासीत्येवमुच्चार्य शून्यं कृत्वा मुहुर्मुहुः ॥ ७ ॥ इसी समय बड़ी शीघ्रताके साथ हिमालय भी अपने सभी पुत्रों, मन्त्रियों तथा अन्य ब्राह्मणोंके साथ वहाँ आ पहुँचे । उस समय हिमालय भी पार्वतीको गोदमें लेकर मोहवश रोने लगे । हे वत्से ! इस घरको शून्यकर तुम कहाँ जा रही हो ? इस प्रकार कह करके वे बारंबार रोने लगे ॥ ६-७ ॥ ततः पुरोहितो विप्रैरध्यात्मविद्यया सुखम् । सर्वान्प्रबोधयामास कृपया ज्ञानवत्तरः ॥ ८ ॥ ननाम पार्वती भक्त्या मातरं पितरं गुरुम् । महामाया भवाचाराद्रुरोदोच्चैर्मुहुर्मुहुः ॥ ९ ॥ तब ब्राह्मणोंके साथ उनके ज्ञानी तथा श्रेष्ठ पुरोहितने उनपर कृपाकर अध्यात्मविद्याका उपदेश देकर उन्हें समझाया । महामाया पार्वतीने [विदाईके समय] माता-पिता तथा गुरुजनोंको भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और वे लोकाचारवश जोर-जोरसे रोने लगीं ॥ ८-९ ॥ पार्वत्या रोदनेनैव रुरुदुः सर्वयोषितः । नितरां जननी मेना यामयो भ्रातरस्तथा ॥ १० ॥ पार्वतीके रोनेसे वहाँ उपस्थित सभी स्त्रियाँ, माता मेना, सगे-सम्बन्धी तथा अन्य भी रोने लगे ॥ १० ॥ पुनः पुनः शिवामाता यामयोऽन्याश्च योषितः । भ्रातरो जनकः प्रेम्णा रुरुदुर्बद्धसौहृदाः ॥ ११ ॥ तदा विप्राः समागत्य बोधयामासुरादरात् । लग्नन्निवेदयामासुर्यात्रायाः सुखदं परम् ॥ १२ ॥ ततो हिमालयो मेनां धृत्वा धैर्यं विवेकतः । शिबिकामानयामास शिवारोहणहेतवे ॥ १३ ॥ शिवामारोहयामासुस्तत्र विप्राङ्गनाश्च ताम् । आशिषं प्रददुःसर्वाः पिता माता द्विजास्तथा ॥ १४ ॥ इस प्रकार पार्वतीकी माता, सगे-सम्बन्धी तथा अन्य स्त्रियाँ, भाई, पिता तथा सखियाँ अत्यन्त प्रेमवश बार-बार रोते रहे । उस समय ब्राह्मणोंने आकर सबको आदरपूर्वक समझाया और कहा कि यात्राके लिये सुखदायी लग्नवेला आ गयी है । तब हिमालयने मेनाको धीरज बंधाया और स्वयं विवेकयुक्त होकर पार्वतीके चढ़नेके लिये शिविका मँगवायी । तदनन्तर ब्राह्मणस्त्रियोंने पार्वतीको पालकीमें चढ़ाया और माता-पिता, ब्राह्मण आदि सबने आशीर्वाद प्रदान किया ॥ ११-१४ ॥ महाराज्ञ्युपचाराँश्च ददौ मेना गिरिस्तथा । नानाद्रव्यसमूहं च परेषान्दुर्लभं शुभम् ॥ १५ ॥ शिवा नत्वा गुरून्सर्वान् जनकं जननीं तथा । द्विजान्पुरोहितं यामीस्त्रीस्तथान्या ययौ मुने ॥ १६ ॥ मेना और हिमालयने महारानियोंके योग्य उपचार पार्वतीको प्रदान किये और अन्योंके लिये सर्वथा दुर्लभ द्रव्यसमूह दिये । हे मुने ! पार्वतीने अपने मातापिता, गुरुजन, ब्राह्मण, पुरोहित, सम्बन्धी एवं स्त्रियोंको प्रणाम करके प्रस्थान किया ॥ १५-१६ ॥ हिमाचलोऽपि ससुतोऽगच्छत्स्नेहवशी बुधः । प्राप्तस्तत्र प्रभुर्यत्र सामरः प्रीतिमावहन् ॥ १७ ॥ परम बुद्धिमान् हिमालय भी अपने पुत्रोंके साथ प्रेमसे विभोर होकर पालकीके साथ चले और वहाँ पहुँचे, जहाँ सभी देवता ठहरे हुए थे ॥ १७ ॥ प्रीत्याभिरेभिरे सर्वे महोत्सवपुरःसरम् । प्रभुं प्रणेमुस्ते भक्त्या प्रशंसन्तोऽविशन्पुरीम् ॥ १८ ॥ जातिस्मरां स्मारयामि नित्यं स्मरसि चेद्वद । लीलया त्वाञ्च देवेशि सदा प्राणप्रिया मम ॥ १९ ॥ तत्पश्चात् सभी लोगोंने भक्तिसे सदाशिवको प्रणाम किया और प्रशंसा करते हुए अपने नगरको चले आये । तब पार्वतीके कैलास पहुंचते ही सभी लोगोंने बहुत बड़ा उत्सव किया । [शिवजीने पार्वतीके साथ अपने स्थानपर पहुँचकर कहा-] हे देवेशि ! मैं तुम्हें पूर्वजन्मका स्मरण करा रहा हूँ और यदि तुम अपनी लीलासे उसे स्मरण करती हो, तो बताओ तुम तो आजसे नहीं, जन्म-जन्मान्तरसे मेरी प्राणप्रिया हो ॥ १८-१९ ॥ ब्रह्मोवाच इत्याकर्ण्य महेशस्य स्वनाथस्याथ पार्वती । शङ्करस्य प्रिया नित्यं सस्मितोवाच सा सती ॥ २० ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार अपने स्वामी महेशका वचन सुनकर हँसती हुई शिवप्रिया पार्वती कहने लगीं- ॥ २० ॥ पार्वत्युवाच सर्वं स्मरामि प्राणेश मौनी भूतो भवेति च । प्रस्तावोचितमद्याशु कार्यं कुरु नमोऽस्तु ते ॥ २१ ॥ पार्वती बोलीं-हे प्राणेश्वर ! मुझे सभी बातोंका स्मरण है, किंतु हे भव ! इस समय आप चुप रहिये और आज जो कार्य उपस्थित है, उसीको शीघ्र कीजिये, आपको नमस्कार है ॥ २१ ॥ ब्रह्मोवाच इत्याकर्ण्य प्रियावाक्यं सुधाधाराशतोपमम् । मुमुदेऽतीव विश्वेशो लौकिकाचारतत्परः ॥ २२ ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार प्रिया पार्वतीके सैकड़ों सुधाधाराओंके समान वचनको सुनकर विश्वेश्वर प्रसन्न हो गये और लौकिकाचारमें संलग्न हो गये ॥ २२ ॥ शिवः सम्भृतसम्भारो नानावस्तुमनोहरम् । भोजयामास देवांश्च नारायणपुरोगमान् ॥ २३ ॥ तथान्यान्निखिलान्प्रीत्या स्वविवाहसमागतान् । भोजयामास सुरसमन्नं बहुविधं प्रभुः ॥ २४ ॥ ततो भुक्त्वा च ते देवा नानारत्नविभूषिताः । सस्त्रीकाः सगणाः सर्वे प्रणेमुश्चन्द्रशेखरम् ॥ २५ ॥ शिवजीने अनेक प्रकारकी भोजन-सामग्री एकत्रितकर नारायण आदि सभी देवगणोंको नानाविध मनोहर भोज्य-वस्तुओका भोजन कराया । उन्होंने अपने विवाहमें आये हुए सभी लोगोंको यथायोग्य विधिवत् उत्तम रससे सम्पन्न भोजन कराया । तब भोजन करके नाना रलोंसे विभूषित सभी देवताओंने अपनी स्त्रियों तथा गणोंके साथ चन्द्रशेखरको प्रणाम किया ॥ २३-२५ ॥ संस्तुत्य वाग्भिरिष्टाभिः परिक्रम्य मुदान्विताः । प्रशंसन्तो विवाहञ्च स्वधामानि ययुस्ततः ॥ २६ ॥ नारायणं मुने मां च प्रणनाम शिवःस्वयम् । लौकिकाचारमाश्रित्य यथा विष्णुश्च कश्यपम् ॥ २७ ॥ - तदनन्तर उन्होंने प्रिय वचनोंद्वारा प्रसन्नतापूर्वक शिवजीकी स्तुति करते हुए उनकी परिक्रमा की तथा विवाहकी प्रशंसा करते हुए वे सभी अपने अपने स्थानोंको चले गये । हे मुने ! शिवजीने मुझे तथा विष्णुजीको उसी प्रकार प्रणाम किया, जैसे लोकाचारसे विष्णुजी कश्यपको प्रणाम करते हैं ॥ २६-२७ ॥ मयाश्लिष्याशिषं दत्त्वा शिवस्य पुनरग्रतः । मत्वा वै तं परं ब्रह्म चक्रे च स्तुतिरुत्तमा ॥ २८ ॥ तमामन्त्र्य मया विष्णुःसाञ्जलिः शिवयोर्मुदा । प्रशंसंस्तद्विवाहं च जगाम स्वालयं परम् ॥ २९ ॥ मैंने उन्हें गले लगाकर उनको आशीर्वाद दिया, फिर शंकरको परब्रह्म जानकर उनके आगे खड़े होकर मैंने उनकी स्तुति की । इसके पश्चात् मैं तथा विष्णु शिवा एवं शिवजीको हाथ जोड़कर प्रणामकर विवाहको प्रशंसा करते हुए अपने-अपने स्थानोंको चले गये ॥ २८-२९ ॥ शिवोऽपि स्वगिरौ तस्थौ पार्वत्या विहरन् मुदा । सर्वे गणाःसुखं प्रापुरतीव स्वभजन् शिवौ ॥ ३० ॥ इत्येवं कथितस्तात शिवोद्वाहः सुमंगलः । शोकघ्नो हर्षजनक आयुष्यो धनवर्द्धनः ॥ ३१ ॥ इधर, शिवजी भी पार्वतीके साथ आनन्द विहार करते हुए अपने निवासभूत कैलासमें रहने लगे और उनके सभी गण आनन्दपूर्वक प्रेमसे शिवा-शिवको आराधना करने लगे । हे तात ! इस प्रकार मैंने शिवा एवं शिवके विवाहका आपसे वर्णन किया, यह विवाह परम मंगलदायक, शोकनाशक, आनन्ददायक तथा धन एवं आयुकी वृद्धि करनेवाला है ॥ ३०-३१ ॥ य इमं शृणुयान्नित्यं शुचिस्तद्गतमानसः । श्रावयेद्वाथ नियमाच्छिवलोकमवाप्नुयात् ॥ ३२ ॥ इदमाख्यानमाख्यातमद्भुतं मंगलायनम् । सर्वविघ्नप्रशमनं सर्वव्याधिविनाशनम् ॥ ३३ ॥ यशस्यं स्वर्ग्यमायुष्यं पुत्रपौत्रकरं परम् । सर्वकामप्रदं चेह भुक्तिदं मुक्तिदं सदा ॥ ३४ ॥ अपमृत्युप्रशमनं महाशान्तिकरं शुभम् । सर्वदुःस्वप्नप्रशमनं बुद्धिप्रज्ञादिसाधनम् ॥ ३५ ॥ जो पवित्र होकर शिवजीमें मन लगाकर नित्य इस विवाहचरित्रको नियमपूर्वक सुनता है अथवा दूसरोंको सुनाता है, वह अवश्य ही शिवलोकको प्राप्त कर लेता है । मेरा कहा हुआ यह आख्यान अद्भुत, मंगलका धाम, सभी विप्नोंका नाश करनेवाला, समस्त व्याधियोंको दूर करनेवाला, यश देनेवाला, स्वर्ग देनेवाला, आयु प्रदान करनेवाला, पुत्र-पौत्रोंको बढ़ानेवाला, सभी कामनाओंको सिद्ध करनेवाला, भोग और मोक्ष देनेवाला, अपमृत्युको दूर करनेवाला, महाशान्ति प्रदान करनेवाला, कल्याणकारक, समस्त दुःस्वप्नोंको शान्त करनेवाला और बुद्धि-ज्ञान आदिकी वृद्धि करनेवाला है ॥ ३२-३५ ॥ शिवोत्सवेषु सर्वेषु पठितव्यम्प्रयत्नतः । शुभेप्सुभिर्जनैः प्रीत्या शिवसन्तोषकारणम् ॥ ३६ ॥ अपने शुभकी इच्छा रखनेवाले लोगोंको सभी कल्याण-कारक उत्सवोंमें प्रयत्नपूर्वक प्रेमके साथ शिवको सन्तुष्ट करनेवाले इस आख्यानका पाठ करना चाहिये ॥ ३६ ॥ पठेत्प्रतिष्ठाकाले तु देवादीनां विशेषतः । शिवस्य सर्वकार्यस्य प्रारम्भे च सुप्रीतितः ॥ ३७ ॥ शृणुयाद्वा शुचिर्भूत्वा चरितं शिवयोः शिवम् । सिध्यन्ति सर्वकार्याणि सत्यं सत्यं न संशयः ॥ ३८ ॥ विशेष रूपसे देवता आदिकी प्रतिष्ठाके समय और शिवके सभी कार्योंके प्रारम्भमें प्रेमसे इस आख्यानका पाठ करना चाहिये । जो पवित्र होकर शिवा-शिवके इस चरित्रको सुनता है, उसके सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं, यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है ॥ ३७-३८ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे ब्रह्मनारदसंवादे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखण्डे शिवकैलासगमनवर्णनं नाम पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५५ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके ब्रह्मा नारद-संवादके अन्तर्गत द्वितीय रुजसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें शिवकैलासगमनवर्णन नामक पचपनवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५५ ॥ समाप्तोऽयं तृतीयः पार्वतीखण्डः ॥ ३ ॥ ॥ द्वितीय रुद्रसंहिताका तृतीय पार्वतीखण्ड पूर्ण हुआ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |