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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां चतुर्थः कुमारखण्डे
षष्ठोऽध्यायः ॥ कुमाराद्भुतचरित्रवर्णनम् -
कुमार कार्तिकेयकी ऐश्वर्यमयी बाललीला ब्रह्मोवाच अथ तत्र स गाङ्गेयो दर्शयामास सूतिकाम् । तामेव शृणु सुप्रीत्या नारद त्वं स्वभक्तिदाम् ॥ १ ॥ द्विज एको नारदाख्य आजगाम तदैव हि । तत्राध्वरकरः श्रीमान् शरणार्थं गुहस्य वै ॥ २ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! वहाँपर रहकर कार्तिकेयने अपनी भक्ति देनेवाली जो बाललीला की, उस लीलाको आप प्रेमपूर्वक सुनिये । उस समय नारद नामक एक ब्राह्मण, जो यज्ञ कर रहा था, कार्तिकेयकी शरणमें आया ॥ १-२ ॥ स विप्रः प्राप्य निकटं कार्त्तिकस्य प्रसन्नधीः । स्वाभिप्रायं समाचख्यौ सुप्रणम्य शुभैः स्तवैः ॥ ३ ॥ वह प्रसन्नमन ब्राह्मण कार्तिकेयके पास आकर उन्हें प्रणाम करके और सुन्दर स्तोत्रोंसे स्तुतिकर अपना अभिप्राय निवेदन करने लगा ॥ ३ ॥ विप्र उवाच शृणु स्वामिन्वचो मेद्य कष्टं मे विनिवारय । सर्वब्रह्माण्डनाथस्त्वमतस्ते शरणं गतः ॥ ४ ॥ ब्राह्मण बोला-हे स्वामिन् ! आप समस्त ब्रह्माण्डके अधिपति हैं, अतः मैं आपकी शरणमें आया हूँ आप मेरा वचन सुनिये और आज मेरा कष्ट दूर कीजिये ॥ ४ ॥ अजमेधाध्वरं कर्तुमारम्भं कृतवानहम् । सोऽजो गतो गृहान्मे हि त्रोटयित्वा स्वबन्धनम् ॥ ५ ॥ मैंने अजमेधयज्ञ करना प्रारम्भ किया था, किंतु वह अज अपना बन्धन तोड़कर मेरे घरसे भाग गया ॥ ५ ॥ न जाने स गतः कुत्राऽन्वेषणं तत्कृतं बहु । न प्राप्तोऽतः स बलवान् भङ्गो भवति मे क्रतोः ॥ ६ ॥ वह न जाने कहाँ चला गया, मैंने उसे बहुत खोजा, किंतु वह प्राप्त न हो सका । वह बड़ा बलवान् है । अतः अब तो मेरा यज्ञ भंग हो जायगा ॥ ६ ॥ त्वयि नाथे सति विभो यज्ञभङ्गः कथं भवेत् । विचार्यैवाऽखिलेशान काम पूर्णं कुरुष्व मे ॥ ७ ॥ हे विभो ! आप-जैसे स्वामीके रहते मेरे यज्ञका विनाश किस प्रकार हो सकता है, इसलिये हे अखिलेश्वर ! इस प्रकारसे विचारकर मेरी कामना पूर्ण कीजिये ॥ ७ ॥ त्वां विहाय शरण्यं कं यायां शिवसुत प्रभो । सर्वब्रह्माण्डनाथं हि सर्वामरसुसेवितम् ॥ ८ ॥ हे प्रभो । हे शिवपुत्र ! सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके स्वामी और समस्त देवताओंसे सेवित होनेवाले आपको छोड़कर अब मैं किसकी शरणमें जाऊँ ॥ ८ ॥ दीनबन्धुर्दयासिन्धुः सुसेव्या भक्तवत्सलः । हरिब्रह्मादिदेवैश्च सुस्तुतः परमेश्वरः ॥ ९ ॥ आप दीनबन्धु, दयासागर, भक्तवत्सल तथा सब प्रकारसे सेवाके योग्य हैं । ब्रह्मा, विष्णु तथा समस्त देवगण आप परमेश्वरकी स्तुति करते हैं ॥ ९ ॥ पार्वतीनन्दनःस्कन्दः परमेकः परन्तपः । परमात्माऽत्मदः स्वामी सतां च शरणार्थिनाम् ॥ १० ॥ आप पार्वतीको आनन्दित करनेवाले, स्कन्द नामवाले, परम, अद्वितीय, परंतप, परमात्मा, आत्मज्ञान देनेवाले तथा शरणकी इच्छा रखनेवाले सज्जनोंके स्वामी हैं ॥ १० ॥ दीनानाथ महेश शंकरसुत त्रैलोक्यनाथ प्रभो मायाधीश समागतोऽस्मि शरणं मां पाहि विप्रप्रिय । त्वं सर्वप्रभुरानताऽखिलविद- ब्रह्मादिदेवैः स्तुतः त्वं मायाकृतिरात्मभक्तसुखदो रक्षापरो मायिकः ॥ ११ ॥ हे दीनानाथ ! हे महेश ! हे शंकरसुत ! हे त्रैलोक्यनाथ ! हे प्रभो ! हे मायाधीश ! हे ब्राह्मणप्रिय ! मैं आपकी शरणमें आया हूँ, मेरी रक्षा कीजिये । आप सबके स्वामी हैं । ब्रह्मादि सभी देवता आपको प्रणामकर आपकी स्तुति करते हैं । आप मायासे शरीर धारण करनेवाले, अपने भक्तोंको सुख देनेवाले, सबकी रक्षा करनेवाले तथा मायाको वशमें रखनेवाले हैं ॥ ११ ॥ भक्तप्राणगुणाकरस्त्रिगुणतो भिन्नोसि शम्भुप्रियः शम्भुः शम्भुसुतः प्रसन्नसुखदः सच्चित्स्वरूपो महान् । सर्वज्ञस्त्रिपुरघ्नशंकरसुतः सत्प्रेमवश्यःसदा षड्वक्त्रः प्रियसाधुरानतप्रियः सर्वेश्वरः शंकरः ॥ साधुद्रोहकरघ्न शंकरगुरो ब्रह्माण्डनाथो प्रभुः सर्वेषाममरादिसेवितपदो मां पाहि सेवाप्रिय ॥ १२ ॥ वैरिभयङ्कर शंकर जनशरणस्य वन्दे तव पदपद्मं सुखकरणस्य । विज्ञप्तिं मम कर्णे स्कन्द निधेहि निजभक्तिं जनचेतसि सदा विधेहि ॥ १३ ॥ आप भक्तोंके प्राण, गुणोंके आगार, तीनों गुणोंसे भिन्न, शिवप्रिय, शिवस्वरूप, शिवके पुत्र, प्रसन्न, सुखदायक, सच्चित्स्वरूप, महान्, सर्वज्ञ, त्रिपुरका विनाश करनेवाले, श्रीशिवजीके पुत्र, सदा सत्प्रेमके वशमें रहनेवाले, छः मुखवाले, साधुओंके प्रिय, प्रणतजनपालक, सर्वेश्वर तथा सबके कल्याणकारी हैं । आप साधुओंसे द्रोह करनेवालोंके विनाशक, शिवको गुरु माननेवाले, ब्रह्माण्डके अधिपति, सर्वसमर्थ और सभी । देवताओंसे सेवित चरणवाले हैं । हे सेवाप्रिय ! मेरी रक्षा कीजिये । हे वैरियोंके लिये भयंकर तथा भक्तोंका कल्याण करनेवाले ! लोगोंके शरणस्वरूप तथा सुखकारी आपके चरणकमलमें मैं प्रणाम करता हूँ । हे स्कन्द ! मेरी प्रार्थनाको सुनिये और मेरे चित्तमें अपनी भक्ति प्रदान कीजिये ॥ १२-१३ ॥ करोति किं तस्य बली विपक्षो दक्षोऽपि पक्षोभयापार्श्वगुप्तः । किं तक्षकोप्यामिषभक्षको वा त्वं रक्षको यस्य सदक्षमानः ॥ १४ ॥ जिसके पक्षमें होकर आप उभय पार्श्वमें रक्षा करते हैं, उसका अत्यन्त बलवान् तथा दक्ष शत्रु भी क्या कर सकता है ! दक्षलोगोंसे माननीय आप जिसके रक्षक हैं, उसका तक्षक अथवा आमिषभक्षक क्या कर सकता है ! ॥ १४ ॥ विबुधगुरुरपि त्वां स्तोतुमीशो न हि स्यात् कथय कथमहं स्यां मन्दबुद्धिर्वरार्च्यः । शुचिरशुचिरनार्यो यादृशस्तादृशो वा पदकमल परागं स्कन्द ते प्रार्थयामि ॥ १५ ॥ देवगुरु बृहस्पति भी आपकी स्तुति करनेमें समर्थ नहीं हैं, फिर आप ही बतलाइये कि अत्यन्त मन्दबुद्धि मैं आप परम पूज्यकी किस प्रकार स्तुतिप्रशंसा एवं पूजा करूं । हे स्कन्द ! मैं पवित्र, अपवित्र, अनार्य चाहे कुछ भी हूँ, आपके चरणकमलोंके परागके लिये प्रार्थना करता हूँ ॥ १५ ॥ हे सर्वेश्वर भक्तवत्सल कृपा- सिन्धो त्वदीयोऽस्म्यहं भृत्यःस्वस्य न सेवकस्य गणप- स्यागःशतं सत्प्रभो । भक्तिं क्वापि कृतां मनागपि विभो जानासि भृत्यार्तिहा ॥ त्वत्तो नास्त्यपरोऽविता न भगवन् मत्तो नरः पामरः । १६ ॥ हे सर्वेश्वर ! हे भक्तवत्सल ! हे कृपासिन्धो ! मैं आपका सेवक हूँ, हे सत्प्रभो ! आप गणोंके पति हैं, अतः अपने सेवकके अपराधपर ध्यान न दें । हे विभो ! मैंने कभी भी आपकी थोड़ी भी भक्ति नहीं की है, यह आप जानते हैं । हे भगवन् ! आपसे बढ़कर कोई अपने भक्तोंकी रक्षा करनेवाला नहीं है और मुझसे बढ़कर कोई पामर जन नहीं है ॥ १६ ॥ कल्याणकर्त्ता कलिकल्मषघ्नः कुबेरबन्धुः करुणार्द्रचित्तः । त्रिषट्कनेत्रो रसवक्त्रशोभी यज्ञं प्रपूर्णं कुरु मे गुह त्वम् ॥ १७ ॥ आप कल्याण करनेवाले, कलिके पापको नष्ट करने वाले, कुबेरके बन्धु, करुणाई चित्तवाले, अठारह नेत्र तथा छः मुखबाले हैं । हे गुह ! आप मेरे यज्ञको पूर्ण कीजिये ॥ १७ ॥ रक्षकस्त्वं त्रिलोकस्य शरणागतवत्सलः । यज्ञकर्त्ता यज्ञभर्त्ता हरसे विघ्नकारिणाम् ॥ १८ ॥ विघ्नवारण साधूनां सर्ग कारण सर्वतः । पूर्णं कुरु ममेशान सुतयज्ञ नमोस्तु ते ॥ १९ ॥ आप त्रिलोकीके रक्षक, शरणागतोंसे प्रेम करनेवाले, यज्ञके कर्ता, यज्ञके पालक और विघ्नकारियोंका वध करनेवाले हैं । साधुजनोंके विघ्नको दूर करनेवाले और सब प्रकारसे सृष्टि करनेवाले हे महेश्वरपुत्र ! मेरे यज्ञको पूर्ण कीजिये; आपको नमस्कार है ॥ १८-१९ ॥ सर्वत्राता स्कन्द हि त्वं सर्वज्ञाता त्वमेव हि । सर्वेश्वरस्त्वमीशानो निवेशसकलाऽवनः ॥ २० ॥ हे स्कन्द ! आप सबके रक्षक तथा सब कुछ जाननेवाले हैं । आप सर्वेश्वर, सबके शासक, सबके एकमात्र स्थान और सबका पालन करनेवाले हैं ॥ २० ॥ सङ्गीतज्ञस्त्वमेवासि वेदविज्ञः परः प्रभुः । सर्वस्थाता विधाता त्वं देवदेवः सतां गतिः ॥ २१ ॥ भवानीनन्दनः शम्भुतनयो वयुनः स्वराट् । ध्याता ध्येयः पितॄणां हि पिता योनिः सदात्मनाम् ॥ २२ ॥ आप संगीतज्ञ, वेदवेत्ता, परमेश्वर, सबको स्थिति प्रदान करनेवाले, विधाता, देवदेव तथा सज्जनोंकी एकमात्र गति हैं । आप भवानीनन्दन, शम्भुपुत्र, ज्ञानके स्वरूप, स्वराट्, ध्याता, ध्येय, पितरोंके पिता तथा महात्माओंके मूल कारण है ॥ २१-२२ ॥ ब्रह्मोवाच इत्याकर्ण्य वचस्तस्य देवसम्राट् शिवात्मजः । स्वगणं वीरबाह्वाख्यं प्रेषयामास तत्कृते ॥ २३ ॥ ब्रह्माजी बोले-शिवजीके पुत्र देवसम्राट् कार्तिकेयने उस ब्राह्मणका वचन सुनकर वीरबाहु नामक अपने गणको उसे (यज्ञके बकरेको) खोजनेके लिये भेजा ॥ २३ ॥ तदाज्ञया वीरबाहुस्तदन्वेषणहेतवे । प्रणम्य स्वामिनं भक्त्या महावीरो द्रुतं ययौ ॥ २४ ॥ अन्वेषणं चकारासौ सर्वब्रह्माण्डगोलके । न प्राप तमजं कुत्र शुश्राव तदुपद्रवम् ॥ २५ ॥ जगामाऽथ स वैकुण्ठं तत्राऽजं प्रददर्श तम् । उपद्रवं प्रकुर्वन्तं गलयूपं महाबलम् ॥ २६ ॥ उनकी आज्ञासे महावीर वीरबाहु भक्तिपूर्वक अपने स्वामीको प्रणामकर उसे खोजनेके लिये शीघ्र ही चल पड़ा । उसने सारे ब्रह्माण्डमें उस बकरेकी खोज की, परंतु उसे कहीं नहीं पाया, केवल लोगोंसे उसके उपद्रवका समाचार सुना । तब वह वैकुण्ठमें गया और वहाँ उस महाबलवान् अजको उसने देखा, जो अपने गलेमें यज्ञके यूपको बाँधे हुए उपद्रव कर रहा था ॥ २४-२६ ॥ धृत्वा तं शृङ्गयो वीरो धर्षयित्वातिवेगतः । आनिनाय स्वामिपुरो विकुर्वन्तं रवं बहु ॥ २७ ॥ वीरबाहु बड़े वेगके साथ उसकी दोनों सींगें पकड़कर एवं पटककर ऊँचे स्वरसे चिल्लाते हुए उस अजको अपने स्वामीके पास ले लाया ॥ २७ ॥ दृष्ट्वा तं कार्तिकःसोऽरमारुरोह स तं प्रभुः । धृतब्रह्माण्डगरिमा महासूतिकरो गुहः ॥ २८ ॥ उसको देखते ही सृष्टिकर्ता प्रभु कार्तिकेय समस्त ब्रह्माण्डका भार धारणकर उसके ऊपर आरूढ़ हो गये ॥ २८ ॥ मुहूर्तमात्रतःसोऽजो ब्रह्माण्डं सकलं मुने । बभ्राम श्रम एवाशु पुनस्तत्स्थानमागतः ॥ २९ ॥ हे मुने ! वह अज बिना विश्राम किये ही क्षणमात्रमें सारा ब्रह्माण्ड घूमकर फिर वहीं आ गया ॥ २९ ॥ तत उत्तीर्य स स्वामी समुवास स्वमासनम् । सोऽजः स्थितस्तु तत्रैव स नारद उवाच तम् ॥ ३० ॥ तब कार्तिकेय उससे उतरकर अपने आसनपर बैठ गये और वह अज वहीं खड़ा रहा । तब वह नारद [ब्राह्मण] कार्तिकेयसे कहने लगा- ॥ ३० ॥ नारद उवाच नमस्ते देव देवेश देहि मेऽजं कृपानिधे । कुर्यामध्वरमानन्दात्सखायं कुरु मामहो ॥ ३१ ॥ नारद बोला-हे देवदेवेश ! आपको प्रणाम है । हे कृपानिधे ! अब आप मेरे इस अजको मुझे प्रदान कीजिये, जिससे मैं आनन्दपूर्वक यज्ञ करूँ; आप मुझसे मित्रभाव रखिये ॥ ३१ ॥ कार्त्तिक उवाच वधयोग्यो न विप्राऽजः स्वगृहं गच्छ नारद । पूर्णोऽस्तु तेऽध्वरः सर्वः प्रसादादेव मे कृतः ॥ ३२ ॥ कार्तिकेय बोले-हे ब्राह्मण ! यह अज वधके योग्य नहीं है । हे नारद ! अब आप अपने घर जाइये, आपका सम्पूर्ण यज्ञ मेरी कृपासे पूर्ण हो गया ॥ ३२ ॥ ब्रह्मोवाच इत्याकर्ण्य द्विजःस्वामी वचनं प्रीतमानसः । जगाम स्वालयं दत्त्वा तस्मा आशिषमुत्तमाम् ॥ ३३ ॥ ब्रह्माजी बोले-कार्तिकेयके इस वचनको सुनकर प्रसन्नचित्त वह ब्राह्मण कार्तिकेयको उत्तम आशीर्वाद देकर अपने घर चला गया ॥ ३३ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां चतुर्थे कुमारखण्डे कुमाराऽद्भुतचरितवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसहिताके चतुर्थ कुमारखण्डमें कुमारके अद्भुतचरितका वर्णन नामक छठा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |