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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां चतुर्थः कुमारखण्डे
षोडशोऽध्यायः ॥ गणेशशिरश्च्छेदनवर्णनम् -
विष्णु तथा गणेशका युद्ध, शिवद्वारा त्रिशूलसे गणेशका सिर काटा जाना ब्रह्मोवाच इति श्रुत्वा महेशानो भक्तानुग्रहकारकः । त्वद्वाचा युदकामोभूत्तेन बालेन नारद ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! यह सुनकर भक्तोंके ऊपर कृपा करनेवाले महेश्वरने आपके कहनेसे उस बालकके साथ युद्ध करनेकी इच्छा की ॥ १ ॥ विष्णुमाहूय संमन्त्र्य बलेन महता युतः । सामरः सम्मुखस्तस्याप्यभूद्देवस्त्रिलोचनः ॥ २ ॥ भगवान् त्रिलोचन विष्णुको बुलाकर उनसे मन्त्रणाकर एक बहुत बड़ी सेनासे युक्त होकर देवताओंक सहित उस गणेशके सम्मुख उपस्थित हुए ॥ २ ॥ देवाश्च युयुधुस्तेन स्मृत्वा शिवपदाम्बुजम् । महाबला महोत्साहाः शिवसद्दृष्टिलोकिताः ॥ ३ ॥ उस समय सर्वप्रथम शिवकी शुभ दृष्टिसे देखे गये महाबलवान् देवता महान् उत्साहवाले शिवजीके चरण-कमलोंका ध्यान करके उसके साथ युद्धमें प्रवृत्त हुए ॥ ३ ॥ युयुधेऽथ हरिस्तेन महाबलपराक्रमः । महादेव्यायुधो वीरः प्रवणः शिवरूपकः ॥ ४ ॥ यष्ट्या गणाधिपः सोऽथ जघानामरपुङ्गवान् । हरिं च सहसा वीरः शक्तिदत्तमहाबलः ॥ ५ ॥ महाबलवान् एवं अत्यन्त पराक्रमशील भगवान् विष्णु उस बालकसे युद्ध करने लगे । तब महादेवीके द्वारा दिये गये आयुधसे युक्त वह शिवस्वरूप वीर बालक गणेश भी श्रेष्ठ देवताओंको लाठीसे मारने लगा, शक्तिके द्वारा प्रदत्त महान् बलवाला वह सहसा विष्णुपर भी प्रहार करने लगा ॥ ४-५ ॥ सर्वेऽमरगणास्तत्र विकुण्ठितबला मुने । अभूवन् विष्णुना तेन हता यष्ट्या पराङ्मुखाः ॥ ६ ॥ हे मुने ! उसकी लाठीके प्रहारसे विष्णुसहित समस्त देवताओंके बल कुण्ठित हो गये और वे युद्धसे पराङ्मुख हो गये ॥ ६ ॥ शिवोपि सह सैन्येन युद्धं कृत्वा चिरं मुने । विकरालं च तं दृष्ट्वा विस्मयं परमं गतः ॥ ७ ॥ हे मुने ! शिवजी भी अपनी सेनाके सहित बहुत कालतक युद्धकर उस बालकको महाभयंकर देखकर आश्चर्यचकित हो गये ॥ ७ ॥ छलेनैव च हन्तव्यो नान्यथा हन्यते पुनः । इति बुद्धिं समास्थाय सैन्यमध्ये व्यवस्थितः ॥ ८ ॥ 'इसे छलसे ही मारा जा सकता है, अन्यथा नहीं मारा जा सकता है'-ऐसा विचारकर शिवजी सेनाओंके बीचमें स्थित हो गये ॥ ८ ॥ शिवे दृष्टे तदा देवे निर्गुणे गुणरूपिणि । विष्णौ चैवाथ सङ्ग्रामे आयाते सर्वदेवताः ॥ ९ ॥ गणाश्चैव महेशस्य महाहर्षं तदा ययुः । सर्वे परस्परं प्रीत्या मिलित्वा चक्रुरुत्सवम् ॥ १० ॥ उस समय निर्गुण एवं सगुण रूपवाले भगवान् शंकरको तथा विष्णुको युद्धभूमिमें उपस्थित देखकर सभी देवता तथा शिवगण अत्यधिक हर्षित हुए और वे सब आपसमें मिलकर प्रेमपूर्वक उत्सव मनाने लगे ॥ ९-१० ॥ अथ शक्तिसुतो वीरो वीरगत्या स्वयष्टितः । प्रथमं पूजयामास विष्णुं सर्वसुखावहम् ॥ ११ ॥ तब महाशक्तिके पुत्र वीर गणेशने बड़ी बहादुरीके साथ सर्वप्रथम अपनी लाठीसे सबको सुख देनेवाले विष्णुकी पूजा की अर्थात् उनपर प्रहार किया ॥ ११ ॥ अहं च मोहयिष्यामि हन्यतां च त्वया विभो । छलं विना न वध्योऽयं तामसोयं दुरासदः ॥ १२ ॥ इति कृत्वा मतिं तत्र सुसंमन्त्र्य च शम्भुना । आज्ञां प्राप्याऽभवच्छैवीं विष्णुर्मोहपरायणः ॥ १३ ॥ विष्णुने शिवजीसे कहा-'यह बालक बड़ा तामसी है और युद्ध में दुराधर्ष है, बिना छलके इसे नहीं मारा जा सकता, अतः हे विभो ! मैं इसे मोहित करता हूँ और आप इसका वध कीजिये' इस प्रकारको बुद्धि करके तथा शिवसे मन्त्रणा करके और शिवको आज्ञा प्राप्तकर विष्णुजी [गणेशको] मोहपरायण करनेमें संलग्न हो गये ॥ १२-१३ ॥ शक्तिद्वयं तथा लीनं हरिं दृष्ट्वा तथाविधम् । दत्त्वा शक्तिबलं तस्मै गणेशायाभवन्मुने ॥ १४ ॥ शक्तिद्वयेऽथ संलीने यत्र विष्णुः स्थितः स्वयम् । परिघं क्षिप्तवांस्तत्र गणेशो बलवत्तरः ॥ १५ ॥ हे मुने ! विष्णुको वैसा देखकर वे दोनों शक्तियाँ गणेशको अपनी-अपनी शक्ति समर्पितकर वहीं अन्तर्धान हो गयीं । तब उन दोनों शक्तियोंके लीन हो जानेपर महाबलवान् गणेशने, जहाँ विष्णु स्वयं स्थित थे, वहींपर अपना परिघ फेंका ॥ १४-१५ ॥ कृत्वा यत्नं किमप्यत्र वञ्चयामास तद्गतिम् । शिवं स्मृत्वा महेशानं स्वप्रभुं भक्तवत्सलम् ॥ १६ ॥ विष्णुने अपने प्रभु भक्तवत्सल महेश्वरका स्मरणकर यल करके उस परिघकी गतिको विफल कर दिया ॥ १६ ॥ एकतस्तन्मुखं दृष्ट्वा शंकरोप्याजगाम ह । स्वत्रिशूलं समादाय सुक्रुद्धो युद्धकाम्यया ॥ १७ ॥ तब एक ओरसे उसके मुखको देखकर अत्यन्त कुपित हुए शिवजी भी अपना त्रिशूल लेकर युद्धकी इच्छासे वहाँ आ गये ॥ १७ ॥ स ददर्शागतं शम्भुं शूलहस्तं महेश्वरम् । हन्तुकामं निजं वीरः शिवापुत्रो महाबलः ॥ १८ ॥ तब वीर तथा महाबली शिवापुत्रने हाथमें त्रिशूल लेकर मारनेकी इच्छासे आये हुए महेश्वर शिवको देखा ॥ १८ ॥ शक्त्या जघान तं हस्ते स्मृत्वा मातृपदाम्बुजम् । स गणशो महावीरः शिवशक्तिप्रवर्द्धितः ॥ १९ ॥ तब अपनी माताके चरणकमलोंका स्मरण करके शिवाकी शक्तिसे प्रवर्धित होकर उस महावीर गणेशने शक्तिसे उनके हाथपर प्रहार किया ॥ १९ ॥ त्रिशूलं पतितं हस्ताच्छिवस्य परमात्मनः । दृष्ट्वा सदूतिकस्तं वै पिनाकं धनुराददे ॥ २० ॥ तब परमात्मा शिवके हाथसे त्रिशूल गिर पड़ा, यह देखकर उत्तम लीला करनेवाले शिवने अपना पिनाक नामक धनुष उठा लिया ॥ २० ॥ तमप्यपातयद्भूमौ परिघेण गणेश्वरः । हताः पञ्च तथा हस्ताः पञ्चभिः शूलमाददे ॥ २१ ॥ अहो दुःखतरं नूनं सञ्जातमधुना मम । भवेत्पुनर्गणानां किं भवाचारी जगाविति ॥ २२ ॥ गणेश्वरने अपने परिघसे उस धनुषको भूमिपर गिरा दिया और परिपके पाँच प्रहारोंसे उनके पाँच हाथोंको घायल कर दिया । तब शंकरने त्रिशूल ग्रहण किया और लौकिक गति प्रदर्शित करते हुए वे अपने मन में कहने लगे-अहो ! इस समय जब मुझे महान् क्लेश प्राप्त हुआ, तब गोंकी क्या दशा हुई होगी ? ॥ २१-२२ ॥ एतस्मिन्नन्तरे वीरः परिघेण गणेश्वरः । जघान सगणान् देवान् शक्तिदत्तबलान्वितः ॥ २३ ॥ गता दशदिशो देवाः सगणाः परिघार्दिताः । न तस्थुःसमरे केपि तेनाद्भुतप्रहारिणा ॥ २४ ॥ इसी बीच शक्तिके द्वारा दिये गये बलसे युक्त वीर गणेशने गणोंसहित देवताओंको परिघसे मारा । तब परिघके प्रहारसे आहत गणसहित सभी देवता दसों दिशाओंमें भाग गये और अद्भुत प्रहार करनेवाले उस बालकके सामने कोई भी ठहर न सका ॥ २३-२४ ॥ विष्णुस्तं च गणं दृष्ट्वा धन्योयमिति चाब्रवीत् । महाबलो महावीरो महाशूरो रणप्रियः ॥ २५ ॥ बहवो देवताश्चैव मया दृष्टास्तथा पुनः । दानवा बहवो दैत्या यक्षगन्धर्वराक्षसाः ॥ २६ ॥ नैतेन गणनाथेन समतां यान्ति केपि च । त्रैलोक्येऽप्यखिले तेजो रूपशौर्यगुणादिभिः ॥ २७ ॥ विष्णु भी उस गणको देखकर बोले-यह धन्य, महाबलवान्, महावीर, महाशूर तथा रणप्रिय योद्धा है । मैंने बहुत से देवता, दानव, दैत्य, यक्ष, गन्धर्व एवं राक्षसोंको देखा है, किंतु सम्पूर्ण त्रिलोकीमें तेज, रूप, गुण एवं शौर्यादिमें इसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता ॥ २५-२७ ॥ एवं सम्ब्रुवतेऽमुष्मै परिघं भ्रामयन् स च । चिक्षेप विष्णवे तत्र शक्तिपुत्रो गणेश्वरः ॥ २८ ॥ विष्णु इस प्रकार कह ही रहे थे कि शिवापुत्र गणेशने अपना परिघ घुमाते हुए विष्णुपर फेंका ॥ २८ ॥ चक्रं गृहीत्वा हरिणा स्मृत्वा शिवपदाम्बुजम् । तेन चक्रेण परिघो द्रुतं खण्डीकृतस्तदा ॥ २९ ॥ तब विष्णुने भी चक्र लेकर शिवजीके चरणकमलका ध्यान करके उस चक्रसे परिपके टुकड़ेटुकड़े कर दिये ॥ २९ ॥ खण्डं तु परिघस्यापि हरये प्राक्षिपद्गणः । गृहीत्वा गरुडेनापि पक्षिणा विफलीकृतः ॥ ३० ॥ गणेश्वरने उस परिपके टुकड़ेको लेकर विष्णुपर प्रहार किया । तब गरुड़ पक्षीने उसे पकड़कर विफल बना दिया ॥ ३० ॥ एवं विचरितं कालं महावीरावुभावपि । विष्णुश्चापि गणश्चैव युयुधाते परस्परम् ॥ ३१ ॥ इस प्रकार बहुत समयतक विष्णु एवं गणेश्वर दोनों ही वीर परस्पर युद्ध करते रहे ॥ ३१ ॥ पुनर्वीरवरः शक्तिसुतःस्मृतशिवो बली । गृहीत्वा यष्टिमतुलां तया विष्णुं जघान ह ॥ ३२ ॥ पुनः वीरोंमें श्रेष्ठ बलवान् शक्तिपुत्रने शिवका स्मरणकर अनुपम लाठी लेकर उससे विष्णुपर प्रहार किया ॥ ३२ ॥ अविषह्य प्रहारं तं स भूमौ निपपात ह । द्रुतमुत्थाय युयुधे शिवापुत्रेण तेन वै ॥ ३३ ॥ विष्णु उस प्रहारको सहन करने में असमर्थ होकर पृथ्वीपर गिर पड़े और पुनः शीघ्रतासे उठकर उस शिवा-पुत्रसे संग्राम करने लगे ॥ ३३ ॥ एतदन्तरमासाद्य शूलपाणिस्तथोत्तरे । आगत्य च त्रिशूलेन तच्छिरो निरकृन्तत ॥ ३४ ॥ इसी बीच अवसर पाकर पीछेसे आकर शूलपाणि शंकरने त्रिशूलसे उसका सिर काट लिया ॥ ३४ ॥ छिन्ने शिरसि तस्यैव गणनाथस्य नारद । गणसैन्यं देवसैन्यमभवच्च सुनिश्चलम् ॥ ३५ ॥ हेनारद ! तब उस गणेशका सिर कट जानेपर गणोंकी सेना तथा देवगणोंकी सेना निश्चिन्त हो गयी ॥ ३५ ॥ नारदेन त्वयाऽऽगत्य देव्यै सर्वं निवेदितम् । मानिनि श्रूयतां मानस्त्याज्यो नैव त्वयाधुना ॥ ३६ ॥ उसके बाद आप नारदने जाकर देवीसे सब कुछ निवेदन किया और यह भी कहा हे मानिनि ! सुनिये, आप इस समय अपना मान मत छोड़ना ॥ ३६ ॥ इत्युक्त्वाऽन्तर्हितस्तत्र नारद त्वं कलिप्रियः । अविकारी सदा शम्भुर्मनोगतिकरो मुनिः ॥ ३७ ॥ हे नारद ! इस प्रकार कहकर कलहप्रिय आप अन्तर्धान हो गये; आप विकाररहित हैं तथा शिवजीकी इच्छाके अनुसार चलनेवाले मुनि हैं ॥ ३७ ॥ इति श्रीशिवपुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां चतुर्थे कुमारखण्डे गणेशयुद्धगणेशशिरश्छेदन वर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके चतुर्थ कुमारखण्डमें गणेशयुद्धगणेश शिरश्छेदनवर्णन नामक सोलहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १६ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |