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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां चतुर्थः कुमारखण्डे
सप्तदशोऽध्यायः ॥ गणेशदेहे गजमुखयोजनवर्णनम् -
पुत्रके वधसे कुपित जगदम्बाका अनेक शक्तियोंको उत्पन्न करना और उनके द्वारा प्रलय मचाया जाना, देवताओं और ऋषियोंका स्तवनद्वारा पार्वतीको प्रसन्न करना, शिवजीके आज्ञानुसार हाथीका सिर लाया जाना और उसे गणेशके धड़से जोड़कर उन्हें जीवित करना नारद उवाच ब्रह्मन् वद महाप्राज्ञ तद्वृत्तान्तेखिले श्रुते । किमकार्षीन्महादेवी श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ १ ॥ नारदजी बोले-हे ब्रह्मन् ! हे महाप्राज्ञ ! अब आप मुझे बताइये कि सम्पूर्ण समाचार सुन लेनेपर महादेवीने क्या किया ? उसे ठीक-ठीक सुनना चाहता हूँ ॥ १ ॥ ब्रह्मोवाच श्रूयतां मुनिशार्दूल कथयाम्यद्य तद्ध्रुवम् । चरितं जगदम्बाया यज्जातं तदनन्तरम् ॥ २ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! उसके बाद जगदम्बाका जो चरित्र हुआ, उसे अब मैं सम्पूर्ण रूपसे कह रहा हूँ, सुनिये ॥ २ ॥ मृदङ्गान्पटहांश्चैव गणाश्चावादयंस्तथा । महोत्सवं तदा चक्रुर्हते तस्मिन्गणाधिपे ॥ ३ ॥ गणाधिप उस गणेशके मार दिये जानेपर शिवजीके गणोंने मृदंग एवं पटह बजाये तथा महान् उत्सव किया ॥ ३ ॥ शिवोपि तच्छिरश्छित्वा यावद्दुःखमुपाददे । तावच्च गिरिजा देवी चुक्रोधाति मुनीश्वर ॥ ४ ॥ हे मुनीश्वर ! शिवजी भी गणेशजीका शिरश्छेदनकर ज्यों ही दुखी हुए. उसी समय गिरिजादेवी अत्यन्त क्रोधित हो ग ॥ ४ ॥ किं करोमि क्व गच्छामि हाहा दुःखमुपागतम् । कथं दुःखं विनश्येतास्याऽतिदुखं ममाधुना ॥ ५ ॥ उन्होंने कहा-हाय, मैं क्या करूँ कहाँ जाऊँ ? मुझे बहुत बड़ा दुःख उत्पन्न हो गया है । इसके मरनेसे तो मुझे बड़ा क्लेश हुआ, वह दुःख किस प्रकारसे दूर हो सकता है ! ॥ ५ ॥ मत्सुतो नाशितश्चाद्य देवेःसर्वैर्गणैस्तथा । सर्वांस्तान्नाशयिष्यामि प्रलयं वा करोम्यहम् ॥ ६ ॥ सभी देवताओं तथा गणोंने मेरे पुत्रको मार डाला है । अतः मैं उनका नाश कर दूँगी अथवा प्रलय कर दूँगी ॥ ६ ॥ इत्येवं दुःखिता सा च शक्तीः शतसहस्रशः । निर्ममे तत्क्षणं क्रुद्धा सर्वलोकमहेश्वरी ॥ ७ ॥ इस प्रकार दुखी हुई उन सर्वलोकमहेश्वरीने उसी क्षण कुपित होकर करोड़ों शक्तियोंको उत्पन्न किया ॥ ७ ॥ निर्मितास्ता नमस्कृत्य जगदम्बां शिवां तदा । जाज्वल्यमाना ह्यवदन्मातरादिश्यतामिति ॥ ८ ॥ तेजसे जाज्वल्यमान उन उत्पन्न हुई शक्तियोंने जगदम्बा पार्वतीको नमस्कारकर कहा-हे मातः ! आज्ञा दीजिये ॥ ८ ॥ तच्छुत्वा शम्भुशक्तिःसा प्रकृतिः क्रोधतत्परा । प्रत्युवाच तु ताः सर्वा महामाया मुनीश्वर ॥ ९ ॥ हे मुनीश्वर ! यह सुनकर शम्भुकी शक्ति महामाया प्रकृतिने क्रोधमें भरकर उन सभी शक्तियोंसे कहा- ॥ ९ ॥ देव्युवाच हे शक्तयोऽधुना देव्यो युष्माभिर्मन्निदेशतः । प्रलयश्चात्र कर्त्तव्यो नात्र कार्या विचारणा ॥ १० ॥ देवी बोलीं-हे शक्तियो ! हे देवियो ! तुम सब मेरी आज्ञासे प्रलय कर डालो; इसमें आप सभीको विचार नहीं करना चाहिये ॥ १० ॥ देवांश्चैव ऋषींश्चैव यक्षराक्षसकांस्तथा । अस्मदीयान्परांश्चैव सख्यो भक्षत वै हठात् ॥ ११ ॥ हे सखियो ! तुमलोग देवता, ऋषि, यक्ष, राक्षस और अपने तथा दूसरे सबको हठपूर्वक खा डालो ॥ ११ ॥ ब्रह्मोवाच तदाज्ञप्ताश्च ताः सर्वाः शक्तयः क्रोधतत्पराः । देवादीनां च सर्वेषां संहारं कर्तुमुद्यताः ॥ १२ ॥ ब्रह्माजी बोले-तब पार्वतीकी आज्ञा पाते ही वे सभी शक्तियाँ क्रोधमें भरकर देवता आदि सभीका संहार करनेके लिये उद्यत हो गयीं ॥ १२ ॥ यथा च तृणसंहारमनलः कुरुते तथा । एवं ताः शक्तयः सर्वाः संहारं कर्तुमुद्यताः ॥ १३ ॥ जिस प्रकार अग्नि तृणोंका संहार कर देती है, उसी प्रकार वे समस्त शक्तियाँ भी संहार करने लगीं ॥ १३ ॥ गणपो वाथ विष्णुर्वा ब्रह्मा वा शंकरस्तथा । इन्द्रो वा यक्षराजो वा स्कन्दो वा सूर्य एव वा ॥ १४ ॥ सर्वेषां चैव संहारं कुर्वन्ति स्म निरन्तरम् । यत्रयत्र तु दृश्येत तत्रतत्रापि शक्तयः ॥ १५ ॥ [शिवके] गणाधिप, विष्णु, ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र, यक्षराज, स्कन्द अथवा सूर्य आदिका वे निरन्तर संहार करने लगीं । जहाँ जहाँ दृष्टि जाती, वहाँ-वहाँ केवल शक्तियाँ ही दिखायी पड़ती थीं ॥ १४-१५ ॥ कराली कुब्जका खञ्जा लम्बशीर्षा ह्यनेकशः । हस्ते धृत्वा तु देवांश्च मुखे चैवाक्षिपंस्तदा ॥ १६ ॥ उस समय कराली, कुब्जका, खंजा, लम्बशीर्षा आदि अनेक शक्तियाँ देवताओंको हाथसे पकड़कर मुखमें डालने लगीं ॥ १६ ॥ तं संहारं तदा दृष्ट्वा हरो ब्रह्मा तथा हरिः । इन्द्रादयोऽखिलाः देवा गणाश्च ऋषयस्तथा ॥ १७ ॥ किं करिष्यति सा देवी संहारं वाप्यकालतः । इति संशयमापन्ना जीवनाशा हताऽभवत् ॥ १८ ॥ उस संहारको देखकर हर, ब्रह्मा, हरि तथा इन्द्रादि सभी देवतागण एवं ऋषि इस सन्देहमें पड़ गये कि क्या देवी अकालमें ही प्रलय कर देंगी ? इस प्रकार उनमें जीवनकी आशा समाप्त-सी हो गयी ॥ १७-१८ ॥ सर्वे च मिलिताश्चेमे कि कर्त्तव्यं विचिन्त्यताम् । एवं विचारयन्तस्ते तूर्णमूचुः परस्परम् ॥ १९ ॥ सभी लोगोंने मिलकर कहा कि अब हमें क्या करना चाहिये-सब लोग इसपर विचार करें । इस प्रकार परस्पर विचार करते हुए वे कहने लगे- ॥ १९ ॥ यदा च गिरिजा देवी प्रसन्ना हि भवेदिह । तदा चैव भवेत्स्वास्थ्यं नान्यथा कोटियत्नतः ॥ २० ॥ यदि गिरिजादेवी प्रसन्न हो जाये तो शान्ति हो सकती है अन्यथा करोड़ों उपायोंसे भी शान्ति सम्भव नहीं है ॥ २० ॥ शिवोपि दुःखमापन्नो लौकिकीं गतिमाश्रितः । मोहयन्सकलांस्तत्र नानालीलाविशारदः ॥ २१ ॥ अनेक प्रकारकी लीलाओंको करनेमें प्रवीण शिवजी भी सबको मोहित करते हुए लौकिक गतिका आश्रय लेकर दुःखमें पड़ गये ॥ २१ ॥ सर्वेषां चैव देवानां कटिर्भग्ना यदा तदा । शिवा क्रोधमयी साक्षाद् गन्तुं न पुर उत्सहेत् ॥ । २२ ॥ किंतु सभी देवताओंकी कमर उस समय टूट गयी, जब पार्वतीके पास जानेका प्रश्न उठा । उन्होंने सोचा कि पार्वती साक्षात् क्रोधकी मूर्ति हैं, कोई भी उनके सामने जानेका साहस नहीं कर सकता है ॥ २२ ॥ स्वीयो वा परकीयो वा देवो वा दानवोपि वा । गणो वापि च दिक्पालो यक्षो वा किन्नरो मुनिः ॥ २३ ॥ विष्णुर्वापि तथा ब्रह्मा शंकरश्च तथा प्रभुः । न कश्चिद्गिरिजाग्रे च स्थातुं शक्तोऽभवन्मुने ॥ २४ ॥ हे मुने ! उस समय देवता, दानवगण, दिक्पाल, यक्ष, किन्नर, मुनि, विष्णु, ब्रह्मा एवं महाप्रभु शंकर आदि तथा अपना-पराया कोई भी गिरिजाके सामने खड़ा होनेमें समर्थ नहीं हुआ ॥ २३-२४ ॥ जाज्वल्यमानं तत्तेजःसर्वतो दाहि तेऽखिलाः । दृष्ट्वा भीततरा आसन् सर्वे दूरतरं स्थिताः ॥ २५ ॥ सभी ओरसे पार्वतीके जलते हुए उस दाहक तेजको देखकर सभी लोग दूर खड़े हो गये ॥ २५ ॥ एतस्मिन्समये तत्र नारदो दिव्यदर्शनः । आगतस्त्वं मुने देवगणानां सुखहेतवे ॥ २६ ॥ ब्रह्माणं मां भवं विष्णुं शंकरं च प्रणम्य साः । समागत्य मिलित्वोचे विचार्य कार्यमेव वा ॥ २७ ॥ हे मुने ! उसी समय दिव्य दर्शनवाले आप नारद देवगणोंको सुखी करने वहाँ पहुँच गये । पास आकर मुझ ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकरको प्रणामकर सबके साथ मिलकर आप कहने लगे कि सोच विचारकर ही कोई काम करना चाहिये । २६-२७ ॥ सर्वे संमन्त्रयां चक्रुस्त्वया देवा महात्मना । दुःखशान्तिः कथं स्याद्वै समूचुस्तत एव ते ॥ २८ ॥ यावच्च गिरिजा देवी कृपां नैव करिष्यति । तावन्नैव सुखं स्याद्वै नात्र कार्या विचारणा ॥ २९ ॥ उसके बाद सभी देवताओंने आप महात्माके साथ मन्त्रणा की कि इस दुःखको शान्ति किस प्रकार होगी; इसके बाद उन्होंने कहा-जबतक गिरिजादेवी कृपा नहीं करेंगी, तबतक दुःखकी शान्ति सम्भव नहीं है, इसमें कोई विचार नहीं करना चाहिये । २८-२९ ॥ ऋषयो हि त्वदाद्याश्च गतास्ते वै शिवान्तिकम् । सर्वे प्रसादयामासुः क्रोधशान्त्यै तदा शिवाम् ॥ ३० ॥ उसके बाद सभी ऋषि आपको साथ लेकर पार्वतीके पास गये और क्रोध शान्त करनेके लिये शिवाको प्रसन्न करने लगे ॥ ३० ॥ पुनः पुनः प्रणेमुश्च स्तुत्वा स्तोत्रैरनेकशः । सर्वे प्रसादयन्प्रीत्या प्रोचुर्देवगणाज्ञया ॥ ३१ ॥ सभीने बारम्बार प्रणाम किया और अनेक स्तोत्रोंसे स्तुति करके उन्हें प्रसन्न करते हुए देवगणोंकी आज्ञासे प्रेमपूर्वक कहा- ॥ ३१ ॥ सुरर्षय ऊचुः जगदम्ब नमस्तुभ्यं शिवायै ते नमोस्तु ते । चण्डिकायै नमस्तुभ्यं कल्याण्यै ते नमोस्तु ते ॥ ३२ ॥ देवर्षि बोले-हे जगदम्ब ! आपको नमस्कार है, आप शिवाको नमस्कार है, आप चण्डिकाको नमस्कार है, आप कल्याणीको नमस्कार है ॥ ३२ ॥ आदिशक्तिस्त्वमेवाम्ब सर्वसृष्टिकरी सदा । त्वमेव पालिनी शक्तिस्त्वमेव प्रलयङ्करी ॥ ३३ ॥ हे अम्ब ! आप ही आदिशक्ति हैं, आप ही सर्वदा सृष्टि करनेवाली, पालन करनेवाली तथा प्रलय करनेवाली शक्ति हैं ॥ ३३ ॥ प्रसन्ना भव देवेशि शान्तिं कुरु नमोऽस्तु ते । सर्वं हि विकलं देवि त्रिजगत्तव कोपतः ॥ ३४ ॥ हे देवेशि ! आप प्रसन्न हों, शान्ति कीजिये । आपको नमस्कार है, हे देवि ! आपके क्रोधसे सारा त्रैलोक्य विकल हो रहा है ॥ ३४ ॥ ब्रह्मोवाच एवं स्तुता परा देवी ऋषिभिश्च त्वदादिभिः । क्रुद्धदृष्ट्या तदा ताश्च किञ्चिन्नोवाच सा शिवा ॥ ३५ ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार आप सभी ऋषियोंने मिलकर पराम्बाकी स्तुति की, तब भी क्रोधपूर्ण दृष्टिसे उनकी ओर देखती हुई उन शिवाने कुछ भी नहीं कहा ॥ ३५ ॥ तदा च ऋषयः सर्वे नत्वा तच्चरणाम्बुजम् । पुनरूचुः शिवां भक्त्या कृताञ्जलिपुटाः शनैः ॥ ३६ ॥ पुनः सभी ऋषियोंने उनके चरणकमलको नमस्कारकर परम भक्तिसे हाथ जोड़कर धीरेसे शिवासे कहा- ॥ ३६ ॥ ऋषय ऊचुः क्षम्यतां देवि संहारो जायतेऽधुना । तव स्वामी स्थितश्चात्र पश्य पश्य तमम्बिके ॥ ३७ ॥ ऋषिगण बोले-हे देवि ! क्षमा कीजिये, क्षमा कीजिये । इस समय प्रलय होना चाहता है । हे अम्बिके ! आपके स्वामी यहींपर स्थित हैं, देखिये, देखिये ॥ ३७ ॥ वयं के च इमे देवा विष्णुब्रह्मादयस्तथा । प्रजाश्च भवदीयाश्च कृताञ्जलिपुटाः स्थिताः ॥ ३८ ॥ हम कौन हैं ? ये ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता कौन हैं ? वस्तुतः हम सब आपकी प्रजाएं हैं और हाथ जोड़कर खड़े हैं ॥ ३८ ॥ क्षन्तव्यश्चापराधो वै सर्वेषां परमेश्वरि । सर्वे हि विकलाश्चाद्य शान्तिं तेषां शिवे कुरु ॥ ३९ ॥ हे परमेश्वरि ! हम सभीका अपराध क्षमा कीजिये । हे शिवे ! सभी लोग व्याकुल हैं, अतः इनकी शान्ति कीजिये ॥ ३९ ॥ ब्रह्मोवाच इत्युक्त्वा ऋषयःसर्वे सुदीनतरमाकुलाः । सन्तस्थिरे चण्डिकाग्रे कृताञ्जलिपुटास्तदा ॥ ४० ॥ ब्रह्माजी बोले-ऐसा कहकर सभी ऋषिगण अत्यन्त दीनतासे व्याकुल हो अम्बिकाके सामने हाथ जोड़े हुए खड़े रहे ॥ ४० ॥ एवं श्रुत्वा वचस्तेषां प्रसन्ना चण्डिकाऽभवत् । प्रत्युवाच ऋषींस्तान्वै करुणाविष्टमानसा ॥ ४१ ॥ इस प्रकार उनका बचन सुनकर चण्डिका प्रसन्न हो गयीं और करुणाचित्त हो ऋषियोंसे कहने लगी- ॥ ४१ ॥ देव्युवाच मत्पुत्रो यदि जीवेत तदा संहरणं न हि । यथा हि भवतां मध्ये पूज्योऽयं च भविष्यति ॥ ४२ ॥ सर्वाध्यक्षो भवेदद्य यूयं कुरुत तद्यदि । तदा शान्तिर्भवेल्लोके नान्यथा सुखमाप्स्यथ ॥ ४३ ॥ देवी बोलीं-यदि मेरा पुत्र जीवित हो जाय और तुमलोगोंके बीच प्रथम पूज्य हो, तो यह संहार नहीं होगा । यह आजसे सबका अध्यक्ष हो जाय और यदि तुमलोग उसे ऐसा कर दो तो लोकमें शान्ति हो सकती है अन्यथा तुमलोगोंको सुखकी प्राप्ति नहीं होगी ॥ ४२-४३ ॥ ब्रह्मोवाच इत्युक्तास्ते तदा सर्वे ऋषयो युष्मदादयः । तेभ्यो देवेभ्य आगत्य सर्वं वृत्तं न्यवेदयन् ॥ ४४ ॥ ब्रह्माजी बोले-[भगवतीके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर आप सभी ऋषियोंने आ करके देवगणोंके समीप जाकर उन देवताओंसे सारा वृत्तान्त निवेदन किया ॥ ४४ ॥ ते च सर्वे तथा श्रुत्वा शंकराय न्यवेदयन् । नत्वा प्राञ्जलयो दीनाः शक्रप्रभृतयः सुराः ॥ ४५ ॥ तब यह सुनकर दुःखित इन्द्रादि सभी देवगणोंने हाथ जोड़कर प्रणाम करके [इस वृत्तान्तको] शंकरसे निवेदित किया ॥ ४५ ॥ प्रोवाचेति सुराञ्छ्रुत्वा शिवश्चापि तथा पुनः । कर्त्तव्यं च तथा सर्वलोकस्वास्थ्यं भवेदिह ॥ ४६ ॥ यह सुनकर शिवजीने भी देवताओंसे कहाहमलोगोंको भी वही करना चाहिये, जिससे सारे संसारका कल्याण हो ॥ ४६ ॥ उत्तरस्यां पुनर्यात प्रथमं यो मिलेदिह । तच्छिरश्च समाहृत्य योजनीयं कलेवरे ॥ ४७ ॥ अतः आपलोग उत्तर दिशाकी ओर जाइये और सर्वप्रथम जो मिले, उसका सिर लाकर इसके धड़में जोड़ दीजिये । ४७ ॥ ब्रह्मोवाच ततस्तैस्तत्कृतं सर्वं शिवाज्ञाप्रतिपालकैः । कलेवरं समानीय प्रक्षाल्य विधिवच्च तत् ॥ ४८ ॥ पूजयित्वा पुनस्ते वै गताश्चोदङ्मुखास्तदा । प्रथमं मिलितस्तत्र हस्ती चाप्येकदन्तकः ॥ ४९ ॥ ब्रह्माजी बोले-तदनन्तर शिवकी आज्ञा पालन करनेवाले देवताओंने ऐसा ही किया । गणेशजीका शरीर लाकर विधिपूर्वक उसका प्रक्षालन करके उसकी पूजाकर वे उत्तर दिशाकी ओर चल दिये, वहींपर उन्हें सर्वप्रथम एक दाँतवाला हाथी मिला ॥ ४८-४९ ॥ तच्छिरश्च तदा नीत्वा तत्र तेऽयोजयन् ध्रुवम् । संयोज्य देवताःसर्वाः शिवं विष्णुं विधिं तदा ॥ ५० ॥ प्रणम्य वचनं प्रोचुर्भवदुक्तं कृतं च नः । अनन्तरं च तत्कार्यं भवताद्भवशेषितम् ॥ ५१ ॥ तब उसीका सिर लेकर उन्होंने गणेशके शरीरमें जोड़ दिया । सिर जोड़कर सभी देवताओंने ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकरको प्रणाम करके यह वचन कहा-आपने जैसा कहा था, वैसा हमने किया, अब इसके बाद जो कार्य शेष हो, उसे आपको करना चाहिये । ५०-५१ ॥ ब्रह्मोवाच ततस्ते तु विरेजुश्च पार्षदाश्च सुराः सुखम् । अथ तद्वचनं श्रुत्वा शिवोक्तं पर्यपालयन् ॥ ५२ ॥ इसके बाद शिवके गण तथा देवता सुखपूर्वक सुशोभित हुए । पुनः शिवजीने जैसा कहा, वैसा ही उन लोगोंने पालन किया ॥ ५२ ॥ ऊचुस्ते च तदा तत्र ब्रह्मविष्णुसुरास्तथा । प्रणम्येशं शिवं देवं स्वप्रभुं गुणवर्जितम् ॥ ५३ ॥ यस्मात्त्वत्तेजसःसर्वे वयं जाता महात्मनः । त्वत्तेजस्तत्समायातु वेदमन्त्राभियोगतः ॥ ५४ ॥ तब ब्रह्मा, विष्णु आदि देवगण अपने प्रभु निर्गुण ब्रह्म ईश्वर शिवको प्रणाम करके उनसे बोले-जिस प्रकार हम महात्मालोग आपके तेजसे उत्पन्न हुए हैं, उसी प्रकार आपका तेज वेदमन्त्रोंके प्रभावसे इस शरीरमें भी प्रकट हो जाय ॥ ५३-५४ ॥ इत्येवमभिमन्त्रेण मन्त्रितं जलमुत्तमम् । स्मृत्वा शिवं समेतास्ते चिक्षिपुस्तत्कलेवरे ॥ ९५ ॥ इस प्रकार उन लोगोंने शिवजीका स्मरण करके मन्त्रके द्वारा अभिमन्त्रित उत्तम जलको गणेशके शरीरपर छिड़का ॥ ५५ ॥ तज्जलस्पर्शमात्रेण चिद्युतो जीवितो द्रुतम् । तदोत्तस्थौ सुप्त इव स बालश्च शिवेच्छया ॥ ५६ ॥ उस जलके स्पर्शमात्रसे ही वह बालक शिवजीकी इच्छासे चेतनायुक्त हो जीवित हो गया और सोये हुएकी भाँति उठ बैठा ॥ ५६ ॥ सुभगः सुन्दरतरो गजवक्त्रः सुरक्तकः । प्रसन्नवदनश्चाति सुप्रभो ललिताकृतिः ॥ ५७ ॥ वह सुभग, अत्यन्त सुन्दर, हाथीके मुखवाला, लाल वर्णवाला, प्रसन्न मुखमण्डलवाला, अत्यन्त तेजस्वी तथा मनोहर आकृतिवाला था ॥ ५७ ॥ तं दृष्ट्वा जीवितं बालं शिवापुत्रं मुनीश्वर । सर्वे मुमुदिरे तत्र सर्वं दुःखं क्षयं गतम् ॥ ५८ ॥ हे मुनीश्वर ! उस बालक पार्वतीपुत्रको जीवित देखकर सभी लोग अत्यन्त प्रसन्न हो गये और सबका दुःख नष्ट हो गया ॥ ५८ ॥ देव्यै सन्दर्शयामासुः सर्वे हर्षसमन्विताः । जीवितं तनयं दृष्ट्वा देवी हृष्टतराभवत् ॥ ५९ ॥ इसके बाद हर्षसे युक्त सभी लोगोंने देवीको उसे दिखाया और अपने पुत्रको जीवित देखकर देवी अत्यन्त प्रसन्न हुई । ५९ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां चतुर्थे कुमारखण्डे गणेशजीवनवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके चतुर्थ कुमारखण्डमें गणेशजीवनवर्णन नामक सत्रहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |