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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां चतुर्थः कुमारखण्डे

अष्टदशोऽध्यायः ॥

गणेशगणाधिपपदवीप्राप्तिः -
पार्वतीद्वारा गणेशको वरदान, देवोंद्वारा उन्हें अग्रपूज्य माना जाना, शिवजीद्वारा गणेशको सर्वाध्यक्षपद प्रदान करना, गणेशचतुर्थीव्रतविधान तथा उसका माहात्म्य, देवताओंका स्वलोक-गमन


नारद उवाच
जीविते गिरिजापुत्रे देव्या दृष्टे प्रजेश्वर ।
ततः किमभवत्तत्र कृपया तद्वदाधुना ॥ १ ॥
नारदजी बोले-हे प्रजेश्वर ! जब गिरिजाने अपने पुत्रको जीवित देख लिया, तब क्या हुआ ? कृपापूर्वक उसको आप कहिये ॥ १ ॥

ब्रह्मोवाच
जीविते गिरिजापुत्रे देव्या दृष्टे मुनीश्वर ।
यज्जातं तच्छृणुष्वाद्य वच्मि ते महदुत्सवम् ॥ २ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुनीश्वर ! जब देवीने देख लिया कि मेरा पुत्र जीवित हो गया, उसके बाद जो हुआ, उसे आप सुनिये, मैं उस महान् उत्सवको कह रहा हूँ ॥ २ ॥

जीवितःस शिवापुत्रो निर्व्यग्रो विकृतो मुने ।
अभिषिक्तस्तदा देवैर्गणाध्यक्षैर्गजाननः ॥ ३ ॥
हे मुने ! जब व्याकुलतासे रहित तथा विशेष आकृतिवाले शिवापुत्र गजानन जीवित हो गये, तय देवताओंने उन्हें गणाध्यक्षके पदपर अभिषिक्त किया ॥ ३ ॥

दृष्ट्‍वा स्वतनयं देवी शिवा हर्षसमन्विता ।
गृहीत्वा बालकं दोर्भ्यां प्रमुदा परिषस्वजे ॥ ४ ॥
भगवती पार्वती अपने पुत्रको [अभिषिक्त] देखकर अत्यन्त हर्षित हो गयीं और अपनी दोनों भुजाओंसे बालकको गोदमें लेकर प्रेमपूर्वक उसका आलिंगन करने लगीं ॥ ४ ॥

वस्त्राणि विविधानीह नानालङ्‌करणानि च ।
ददौ प्रीत्या गणेशाय स्वपुत्राय मुदाम्बिका ॥ ५ ॥
जगदम्बाने उस अपने पुत्रको बड़े प्रेमसे नाना प्रकारके वस्त्र तथा अलंकार प्रदान किये ॥ ५ ॥

पूजयित्वा तया देव्या सिद्धिभिश्चाप्यनेकशः ।
करेण स्पर्शितः सोऽथ सर्वदुःखहरेण वै ॥ ६ ॥
पूजयित्वा सुतं देवी मुखमाचुम्ब्य शाङ्‌करी ।
वरान्ददौ तदा प्रीत्या जातस्त्वं दुःखितोऽधुना ॥ ७ ॥
उन देवीने अनेक प्रकारकी सिद्धियोंसे उस बालकका पूजन करके सभी दु:खोंको दूर करनेवाले अपने कल्याणकारी हाथसे उसका स्पर्श किया । पूजन करनेके उपरान्त देवीने उसका मुख चूमा और प्रेमसे उसे अनेक वरदान दिये और कहा-पुत्र ! तुमने इस समय बड़ा कष्ट उठाया ॥ ६-७ ॥

धन्योसि कृतकृत्योसि पूर्वपूज्यो भवाधुना ।
सर्वेषाममराणां वै सर्वदा दुःखवर्जितः ॥ ८ ॥
आनने तव सिन्दूरं दृश्यते साम्प्रतं यदि ।
तस्मात्त्वं पूजनीयोसि सिन्दूरेण सदा नरैः ॥ ९ ॥
पुष्पैर्वा चन्दनैर्वापि गन्धेनैव शुभेन च ।
नैवेद्ये सुरम्येण नीराजेन विधानतः ॥ १० ॥
तांम्बूलैरथ दानैश्च तथा प्रक्रमणैरपि ।
नमस्कारविधानेन पूजां यस्ते विधास्यति ॥ ११ ॥
तस्य वै सकला सिद्धिर्भविष्यति न संशयः ।
विघ्नान्यनेकरूपाणि क्षयं यास्यन्त्यसंशयम् ॥ १२ ॥
हे पुत्र ! तुम धन्य हो और कृतकृत्य हो, तुम सभी देवताओंके पहले पूजे जाओगे और सदा दुःखरहित रहोगे । चूँकि इस समय तुम्हारे मुखमण्डलपर सिन्दूर दिखायी देता है, इसलिये लोगोंके द्वारा तुम सदा सिन्दूरसे पूजित होओगे । जो मनुष्य पुष्प, चन्दन, सुगन्धित द्रव्य, उत्तम नैवेद्य, विधिपूर्वक आरती, ताम्बूल, दान, परिक्रमा तथा नमस्कारविधानसे तुम्हारी पूजा करेगा, उसे सम्पूर्ण सिद्धि प्राप्त होगी, इसमें सन्देह नहीं । इतना ही नहीं तुम्हारे पूजनसे समस्त विघ्न भी निःसन्देह विनष्ट हो जायेंगे ॥ ८-१२ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा च तदा देवी स्वपुत्रं तं महेश्वरी ।
नानावस्तुभिरुत्कृष्टैः पुनरप्यर्चयत्तथा ॥ १३ ॥
ततःस्वास्थ्यं च देवानां गणानां च विशेषतः ।
गिरिजाकृपया विप्र जातं तत्क्षणमात्रतः ॥ १४ ॥
ब्रह्माजी बोले-ऐसा कहकर उन महेश्वरी देवीने नाना प्रकारके उत्कृष्ट पदार्थोसे पुनः अपने उस पुत्रका पूजन किया । हे विप्र ! तब गिरिजाकी कृपासे क्षणमात्रमें देवताओंको तथा विशेषकर शिवगोंको शान्ति प्राप्त हुई ॥ १३-१४ ॥

एतस्मिंश्च क्षणे देवा वासवाद्याः शिवं मुदा ।
स्तुत्वा प्रसाद्य तं देवं भक्ता निन्युः शिवान्तिकम् ॥ १५ ॥
संसाद्य गिरिशं पश्चादुत्सङ्‌गे सन्न्यवेशयन् ।
बालकं तं महेशान्यास्त्रिजगत्सुखहेतवे ॥ १६ ॥
शिवोपि तस्य शिरसि दत्त्वा स्वकरपङ्‌कजम् ।
उवाच वचनं देवान् पुत्रोऽयमिति मेऽपरः ॥ १७ ॥
उसी समय इन्द्रादि देवता प्रसन्नतासे शिवकी स्तुति करके उन्हें प्रसन्नकर भक्तियुक्त होकर पार्वतीके पास ले गये । शिवको ले जानेके अनन्तर उन देवताओंने तीनों लोकके सुखके लिये महेश्वरीके उस पुत्रको शिवकी गोदमें बैठा दिया । शिवजीने भी उस बालकके सिरपर अपना करकमल रखकर देवगणोंसे यह वचन कहा-यह मेरा दूसरा पुत्र है ॥ १५-१७ ॥

गणेशोपि तदोत्थाय नमस्कृत्य शिवाय वै ।
पार्वत्यै च नमस्कृत्य मह्यं वै विष्णवे तथा ॥ १८ ॥
नारादाद्यानृषीन्सर्वान्स त्वास्थाय पुरोऽब्रवीत् ।
क्षन्तव्यश्चापराधो मे मानश्चैवेदृशो नृणाम् ॥ १९ ॥
तब गणेशने भी उठकर शिवको, पार्वतीको, मुझे, विष्णुको प्रणाम करके सबके सामने खड़े होकर नारदादि सभी ऋषियोंसे कहा-आपलोग मेरे अपराधको क्षमा करें, मनुष्योंमें मान ऐसा ही होता है ॥ १८-१९ ॥

अहं च शंकरश्चैव विष्णुश्चैते त्रयः सुराः ।
प्रत्यूचुर्युगपत्प्रीत्या ददतो वरमुत्तमम् ॥ २० ॥
त्रयो वयं सुरवरा यथा पूज्या जगत्त्रये ।
तथायं गणनाथश्च सकलैः प्रतिपूज्यताम् ॥ २१ ॥
वयं च प्राकृताश्चायं प्राकृतः पूज्य एव च ।
गणेशो विघ्नहर्ता हि सर्वकामफलप्रदः ॥ २२ ॥
एतत्पूजां पुरा कृत्वा पश्चात्पूज्या वयं नरैः ।
वयं च पूजिताः सर्वे नायं चापूजितो यदा ॥ २३ ॥
अस्मिन्नपूजिते देवाः परपूजाकृता यदि ।
तदा तत्फलहानिः स्यान्नात्र कार्या विचारणा ॥ २४ ॥
तब मैं [ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर-इन तीनों देवताओंने एक साथ ही उस बालकको प्रेमपूर्वक उत्तम वर प्रदान करते हुए कहा-जिस प्रकार हम तीनों श्रेष्ठ देवता तीनों लोकोंमें पूज्य हैं, उसी प्रकार ये गणेश भी सभीके द्वारा पूजे जायें । हमलोग प्राकृत (मौलिक) देवता हैं, उसी प्रकार ये भी प्राकृत हैं । गणेश विघ्नोंका हरण करनेवाले तथा सभी कामनाओंका फल प्रदान करनेवाले हैं । पहले इनकी पूजा करके बादमें मनुष्य हमलोगोंकी पूजा करें, यदि हमलोगोंकी पूजा की गयी और इनकी पूजा नहीं की गयी और हे देवताओ ! यदि कोई इनकी पूजा किये बिना अन्य देवताओंकी पूजा करेगा तो उसे पूजाका फल प्राप्त नहीं होगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २०-२४ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा स गणेशानो नानावस्तुभिरादरात् ।
शिवेन पूजितः पूर्वं विष्णुनाऽनु प्रपूजितः ॥ २५ ॥
ब्रह्मणा च मया तत्र पार्वत्या च प्रपूजितः ।
सर्वैर्देवैर्गणैश्चैव पूजितः परया मुदा ॥ २६ ॥
सवैर्मिलित्वा तत्रैव ब्रह्मविष्णुहरादिभिः ।
सगणेशः शिवातुष्ट्यै सर्वाध्यक्षो निवेदितः ॥ २७ ॥
ब्रह्माजी बोले-ऐसा कहकर शिवजीने अनेक प्रकारको वस्तुओंसे गणेशकी पूजा की, उसके बाद विष्णुके द्वारा भी वे पूजित हुए । तदनन्तर मैंने एवं पार्वतीने उनकी पूजा की और देवगणोंने भी बड़े आदरके साथ उनका पूजन किया । उसी स्थानपर ब्रह्मा, विष्णु एवं शिवने एक साथ मिलकर पार्वतीकी प्रसन्नताहेतु उन गणेशको सर्वाध्यक्ष शब्दसे सम्बोधित किया ॥ २५-२७ ॥

पुनश्चैव शिवेनास्मै सुप्रसन्नेन चेतसा ।
सर्वदा सुखदा लोके वरा दत्ता ह्यनेकशः ॥ २८ ॥
इसके बाद शिवने प्रसन्न मनसे उन गणेशको लोकमें सदा सुख देनेवाले अनेक वर दिये ॥ २८ ॥

शिव उवाच
हे गिरीन्द्रसुतापुत्र सन्तुष्टोऽहं न संशयः ।
मयि तुष्टे जगत्तुष्टं विरुद्धः कोपि नो भवेत् ॥ २९ ॥
शिवजी बोले-हे पार्वतीपुत्र ! मैं तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हूँ, इसमें सन्देह नहीं है, मेरे सन्तुष्ट रहनेपर जगत् सन्तुष्ट हो जाता है, कोई भी विरुद्ध नहीं हो सकता ॥ २९ ॥

बालरूपोपि यस्मात्त्वं महाविक्रमकारकः ।
शक्तिपुत्रः सुतेजस्वी तस्माद्‌भव सदा सुखी ॥ ३० ॥
तुम बालकरूपसे हो और शक्तिके महापराक्रमी एवं परम तेजस्वी पुत्र हो । इसलिये सर्वदा सुखी रहो ॥ ३० ॥

त्वन्नाम विघ्नहन्तृत्वे श्रेष्ठं चैव भवत्विति ।
मम सर्वगणाध्यक्षः सम्पूज्यस्त्वं भवाधुना ॥ ३१ ॥
एवमुक्त्वा शंकरेण पूजाविधिरनेकशः ।
आशिषश्चाप्यनेका हि कृतास्तस्मिंस्तु तत्क्षणात् ॥ ३२ ॥
हे बालक ! विघ्नोंके नष्ट करनेमें तुम्हारा नाम सर्वश्रेष्ठ होगा । आजसे तुम मेरे सम्पूर्ण गणोंके अध्यक्ष एवं सबके पूजनीय होओगे । इस प्रकार कहकर शंकरने गणेशको उनकी अनेक पूजाविधि बतलाकर उसी क्षण उन्हें अनेक आशीर्वाद प्रदान किये ॥ ३१-३२ ॥

ततो देवगणाश्चैव गीत वाद्यं च नृत्यकम् ।
मुदा ते कारयामासुस्तथैवप्सरसां गणाः ॥ ३३ ॥
उसके बाद देवताओं एवं अप्सराओंने प्रसन्न होकर [अनेक प्रकारके] गीत, वाद्य तथा नृत्य किये ॥ ३३ ॥

पुनश्चैव वरो दत्तःसुप्रसन्नेन शम्भुना ।
तस्मै च गणनाथाय शिवेनैव महात्मना ॥ ३४ ॥
इसके बाद कल्याणकारी महात्मा शंकरने प्रसन्न होकर उन गणेशको पुनः वर प्रदान किया ॥ ३४ ॥

चतुर्थ्यां त्वं समुत्पन्नो भाद्रे मासि गणेश्वर ।
असिते च तथा पक्षे चन्द्रस्योदयने शुभे ॥ ३५ ॥
प्रथमे च तथा यामे गिरिजायाः सुचेतसः ।
आविर्बभूव ते रूपं यस्मात्ते व्रतमुत्तमम् ।३६ ॥
हे गणेश्वर ! तुम भाद्रपदमासमें कृष्णपक्षकी चतुर्थीको शुभ चन्द्रोदयकालमें उत्पन्न हुए हो और रात्रिके प्रथम प्रहरमें गिरिजाके चित्तसे तुम्हारा रूप आविर्भूत हुआ है, इसलिये उसी दिन तुम्हारा उत्तम व्रत होगा । ३५-३६ ॥

तस्मात्तद्दिनमारभ्य तस्यामेव तिथौ मुदा ।
व्रतं कार्यं विशेषेण सर्वसिद्ध्यै सुशोभनम् ॥ ३७ ॥
यावत्पुनः समायाति वर्षान्ते च चतुर्थिका ।
तावद्‌व्रतं च कर्तव्यं तव चैव ममाज्ञया ॥ ३८ ॥
संसारे सुखमिच्छन्ति येऽतुलं चाप्यनेकशः ।
त्वां पूजयन्तु ते भक्त्या चतुर्थ्यां विधिपूर्वकम् ॥ ३९ ॥
उसी दिनसे आरम्भकर उसी तिथिको सभी सिद्धियोंके लिये मनुष्यको प्रसन्नतापूर्वक इस सुन्दर व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये । एक वर्ष में जब भाद्रमासके कृष्णपक्षकी चतुर्थी तिथि पुनः आये, तबतक वर्षपर्यन्त तुम्हारे व्रतको मेरी आज्ञासे करना चाहिये । जो लोग इस संसारमें अनेक प्रकारके अतुल सुख चाहते हैं, वे प्रत्येक चतुर्थीके दिन विधिपूर्वक तुम्हारी पूजा करें ॥ ३७-३९ ॥

मार्गशीर्षे तथा मासे रमा या वै चतुर्थिका ।
प्रातः स्नानं तदा कृत्वा व्रतं विप्रान्निवेदयेत् ॥ ४० ॥
दूर्वाभिः पूजनं कार्यमुपवासस्तथाविधः ।
रात्रेश्च प्रहरे जाते स्नात्वा सम्पूजयेन्नरः ॥ ४१ ॥
मार्गशीर्षके महीने में रमा नामक जो चतुर्थी होती है, उस दिन प्रात:काल स्नानकर व्रतके लिये ब्राह्मणोंसे निवेदन करे । दूर्वासे पूजन करे तथा उपवास करे, रात्रिका प्रथम प्रहर उपस्थित होनेपर स्नान करके मनुष्यको [गणेशका] पूजन करना चाहिये ॥ ४०-४१ ॥

मूर्तिं धातुमयीं कृत्वा प्रवालसम्भवां तथा ।
श्वेतार्कसम्भवां चापि मार्द्दिकां निर्मितां तथा ॥ ४२ ॥
प्रतिष्ठाप्य तदा तत्र पूजयेत्प्रयतः पुमान् ।
गन्धैर्नानाविधैर्दिव्यैश्चन्दनैः पुष्पकैरिह ॥ ४३ ॥
धातुसे, मूंगेसे, श्वेत अर्कसे अथवा मिट्टीसे गणेशकी मूर्तिका निर्माण करके उसकी प्रतिष्ठाकर मनुष्य सावधान होकर नाना प्रकारके दिव्य गन्ध, चन्दन तथा पुष्पोंसे उनकी पूजा करे ॥ ४२-४३ ॥

वितस्तिमात्रा दूर्वा च त्र्यङ्‌गा वै मूलवर्जिता ।
ईदृशानां तद्‌बलानां शतेनैकोत्तरेण ह ॥ ४४ ॥
एकविंशतिकेनैव पूजयेत्प्रतिमां स्थिताम् ।
धूपैर्दीपैश्च नैवेद्यैर्विविधैर्गणनायकम् ॥ ४५ ॥
ताम्बूलाद्यर्घसद्द्रव्यैः प्रणिपत्य स्तवैस्तथा ।
त्वां तत्र पूजयित्वेत्थं बालचन्द्रं च पूजयेत् ॥ ४६ ॥
गणेशजीकी पूजाके लिये जो दूर्वा हो, वह एक वित्ते (बारह अंगुल लम्बी) की हो और तीन गाँठसे युक्त तथा मूलरहित होनी चाहिये । इस प्रकारकी एक सौ एक दूर्वाओं अथवा इक्कीस दूर्वाओंके द्वारा स्थापित प्रतिमाका पूजन करे । धूप, दीप तथा नाना प्रकारके नैवेद्य, ताम्बूल, अर्घ्य आदि उत्तम द्रव्योंसे और प्रणाम तथा स्तुतिके द्वारा गणेशजीकी पूजा करे । इस प्रकार तुम्हारा पूजनकर बालचन्द्रमाकी पूजा करे ॥ ४४-४६ ॥

पश्चाद्विप्रांश्च सम्पूज्य भोजयेन्मधुरैर्मुदा ।
स्वयं चैव ततो भुञ्ज्यान्मधुरं लवणं विना ॥ ४७ ॥
तदनन्तर ब्राह्मणोंकी पूजा करके प्रसन्नतापूर्वक मधुर पदार्थोंका भोजन कराना चाहिये, इसके बाद स्वयं भी लवणरहित मधुर भोजन करना चाहिये ॥ ४७ ॥

विसर्जयेत्ततः पश्चान्नियमं सर्वमात्मनः ।
गणेशस्मरणं कुर्यात्सम्पूर्णं स्याद्‌व्रतं शुभम् ॥ ४८ ॥
तत्पश्चात् अपना सारा नियम विसर्जित करे और गणेशजीका स्मरण करे । इस प्रकारका अनुष्ठान करनेसे यह शुभ व्रत सम्पूर्ण होता है ॥ ४८ ॥

एवं व्रतेन सम्पूर्णे वर्षे जाते नरस्तदा ।
उद्यापनविधिं कुर्याद्‌व्रतसम्पूर्त्तिहेतवे ॥ ४९ ॥
द्वादश ब्राह्मणास्तत्र भोजनीया मदाज्ञया ।
कुम्भमेकं च संस्थाप्य पूज्या मूर्तिस्त्वदीयिका ॥ ५० ॥
इस प्रकार व्रत करते हुए एक वर्ष बीत जाय, तब उस व्रतकी सम्पूर्णताके लिये उद्यापन करना चाहिये । मेरी आज्ञासे उसमें बारह ब्राह्मणोंको भोजन कराये तथा एक कलशकी स्थापना करके तुम्हारी मूर्तिकी पूजा करे ॥ ४९-५० ॥

स्थण्डिलेऽष्टपलं कृत्वा तदा वेदविधानतः ।
होमश्चैवात्र कर्तव्यो वित्तशाठ्यविवर्जितैः ॥ ५१ ॥
वेदीपर अष्टदल कमल बनाकर मनुष्योंको धनकी कृपणतासे रहित होकर वेदविधिसे होम करना चाहिये ॥ ५१ ॥

स्त्रीद्वयं च तथा चात्र बटुकद्वयमादरात् ।
भोजयेत्पूजयित्वा वै मूर्त्यग्रे विधिपूर्वकम् ॥ ५२ ॥
निशि जागरणं कार्यं पुनः प्रातः प्रपूजयेत् ।
विसर्जनं ततश्चैव पुनरागमनाय च ॥ ५३ ॥
- इसके बाद मूर्तिके आगे दो स्त्रियों एवं दो बटुकोंकी विधिपूर्वक पूजाकर आदरसे उन्हें भोजन कराये । रात्रिमें जागरण करे, प्रात:काल पुनः पूजन करे । इसके बाद गणेशजीसे पुनः आनेके लिये प्रार्थनाकर उनका विसर्जन करे ॥ ५२-५३ ॥

बालकाच्चाशिषो ग्राह्याःस्वस्तिवाचनमेव च ।
पुष्पाञ्जलिं प्रदद्याच्च व्रतसम्पूर्ण हेतवे ॥ ५४ ॥
नमस्कारांस्ततः कृत्वा नानाकार्यं प्रकल्पयेत् ।
एवं व्रतं कृतं येन तस्येप्सितफलं भवेत् ॥ ५५ ॥
तत्पश्चात् बालक वटुओंसे आशीर्वाद ग्रहण करे तथा स्वस्तिवाचन भी कराये और व्रतकी सम्पूर्णताके लिये पुष्पांजलि समर्पित करे । उसके बाद नमस्कारकर अन्य कार्य सम्पन्न करे । जो इस प्रकार व्रतका अनुष्ठान करता है, उसे अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है । ५४-५५ ॥

यो नित्यं श्रद्धया सार्द्धं पूजां चैव स्व शक्तितः ।
कुर्यात्तव गणेशान सर्वकामफलाप्तये ॥ ५६ ॥
सिन्दूरैश्चन्दनैश्चैव तण्डुलैः केतकैस्तथा ।
उपचारैरनेकैश्च पूजयेत्त्वां गणेश्वरम् ॥ ५७ ॥
एवं त्वां पूजयेयुर्ये भक्त्या नानोपचारतः ।
तेषां सिद्धिर्भवेन्नित्यं विघ्ननाशो भवेदिह ॥ ५८ ॥
हे गणेश्वर ! जो श्रद्धाके साथ नित्य अपनी शक्तिके अनुसार सभी कामनाओंका फल प्राप्त करनेके लिये सिन्दूर, चन्दन, तण्डुल, केतकीके फूल तथा अनेक प्रकारके उपचारोंसे तुझ गणेशकी पूजा करेगा और इस प्रकार जो भी लोग भक्तिपूर्वक अनेक उपचारोंसे तुम्हारी पूजा करेंगे, उनको सदा सिद्धि प्राप्त होगी तथा उनके विघ्नोंका नाश हो जायगा ॥ ५६-५८ ॥

सर्वैर्वर्णैः प्रकर्त्तव्या स्त्रीभिश्चैव विशेषतः ।
उदयाभिमुखैश्चैव राजभिश्च विशेषतः ॥ ५९ ॥
सभी वर्गों, विशेषकर स्त्रीजनोंको गणेशजीका पूजन अवश्य करना चाहिये । अपने अभ्युदयकी कामना करनेवाले राजाओंको विशेष रूपसे पूजन करना चाहिये ॥ ५९ ॥

यं यं कामयते यो वै तं तमाप्नोति निश्चितम् ।
अतः कामयमानेन तेन सेव्यः सदा भवान् ॥ ६० ॥
[हे गणेश !] मनुष्य जो जो कामनाएँ करता है, तुम्हारी पूजासे उसे निश्चित रूपसे प्राप्त करता है, इसलिये कामना करनेवाले उस मनुष्यको सदैव तुम्हारा पूजन करना चाहिये ॥ ६० ॥

ब्रह्मोवाच
शिवेनैव तदा प्रोक्तं गणेशाय महात्मने ।
तदानीं दैवतैश्चैव सर्वैश्च ऋषिसत्तमैः ॥ ६१ ॥
तथेत्युक्त्वा तु तैःसर्वैर्गणैः शम्भुप्रियैर्मुने ।
पूजितो हि गणाधीशो विधिना परमेण सः ॥ ६२ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! जब महात्मा शिवजीने गणेशजीसे इस प्रकार कहा, तभी सभी देवगणों, ऋषिवरों तथा समस्त शिवप्रिय गणोंने 'तथास्तु' कहकर विधिपूर्वक गणपतिका पूजन किया ॥ ६१-६२ ॥

ततश्चैव गणाः सर्वे प्रणेमुस्ते गणेश्वरम् ।
समानर्चुर्विशेषेण नानावस्तुभिरादरात् ॥ ६३ ॥
गिरिजायाःसमुत्पन्नो यश्च हर्षो मुनीश्वर ।
चतुर्भिर्वदनैर्वै तमवर्ण्यं च कथं ब्रुवे ॥ ६४ ॥
उसके बाद सभी गणोंने भी गणेशको प्रणाम किया और आदरपूर्वक अनेक प्रकारकी वस्तुओंसे विशेषरूपसे उनकी पूजा की । हे मुनीश्वर ! उस समय भगवती गिरिजाको जो हर्ष उत्पन्न हुआ, उस अवर्णनीय हर्षको मैं अपने चारों मुखोंसे भी कैसे कहूँ । ६३-६४ ॥

देवदुन्दुभयो नेदुर्ननृतुश्चाप्सरोगणाः ।
जगुर्गन्धर्वमुख्याश्च पुष्पवर्षं पपात ह ॥ ६५ ॥
जगत्स्वास्थ्यं तदा प्राप गणाधीशे प्रतिष्ठिते ।
महोत्सवो महानासीत् सर्वं दुःखं क्षयं गणम् ॥ ६६ ॥
देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगौं, अप्सराएँ नाचने लगीं, बड़े-बड़े गन्धर्व गान करने लगे और [आकाशमण्डलसे] पुष्पवृष्टि होने लगी । इस प्रकार गणपतिकी प्रतिष्ठा होनेपर सारा जगत् सुखी हो गया, महोत्सव होने लगा एवं सारा दुःख नष्ट हो गया । ६५-६६ ॥

शिवाशिवौ च मोदेतां विशेषेणाति नारद ।
आसीत्सुमंगलं भूरि सर्वत्र सुखदायकम् ॥ ६७ ॥
हे नारद ! उस समय विशेष रूपसे पार्वती तथा शिव प्रसन्न हुए । सर्वत्र सुखदायक महामंगल होने लगा ॥ ६७ ॥

ततो देवगणाः सर्वे ऋषीणां च गणास्तथा ।
समागताश्च ये तत्र जग्मुस्ते तु शिवाज्ञया ॥ ६८ ॥
प्रशंसन्तः शिवां तत्र गणेशं च पुनः पुनः ।
शिवं चैव तथा स्तुत्वा कीदृशं युद्धमेव च ॥ ६९ ॥
उस समय समस्त देवता एवं ऋषिगण जो सभी वहाँ आये हुए थे, वे शिवजीकी आज्ञासे भगवती पार्वती तथा गणेशकी बारंबार प्रशंसा करते हुए, शिवकी स्तुति करते हुए तथा वह युद्ध कैसा था, उसका वर्णन करते हुए चले गये ॥ ६८-६९ ॥

यदा सा गिरिजा देवी कोपहीना बभूव ह ।
शिवोऽपि गिरिजां तत्र पूर्ववत्सम्प्रपद्य ताम् ॥ ७० ॥
चकार विविधं सौख्यं लोकानां हितकाम्यया ।
स्वात्मारामोऽपि परमो भक्तकार्योद्यतः सदा ॥ ७१ ॥
विष्णुश्च शिवमापृच्छ्य ब्रह्माहं तं तथैव हि ।
आगच्छाव स्वधामं च शिवौ संसेव्य भक्तितः ॥ ७२ ॥
नारद त्वं च भगवन्सङ्‌गीय शिवयोर्यशः ।
आगमो भवनं स्वं च शिवौ पृष्ट्‍वा मुनीश्वर ॥ ७३ ॥
एतत्ते सर्वमाख्यातं मया वै शिवयोर्यशः ।
भवत्पृष्टेन विघ्नेश यशः संमिश्रमादरात् ॥ ७४ ॥
जब भगवती पार्वतीका क्रोध शान्त हो गया, तब शिवजी भी पूर्ववत् पार्वतीके समीप आकर लोकहितकी कामनासे नाना प्रकारके सुखद कार्य करने लगे । यद्यपि वे स्वात्माराम हैं, फिर भी भक्तोंके कार्यके लिये सदैव उद्यत रहते हैं । विष्णु तथा मैं ब्रह्मा उन पार्वती एवं शंकरकी भक्तिपूर्वक सेवाकर तथा शिवसे आज्ञा लेकर अपने स्थानको आ गये । हे नारद ! हे भगवन् ! हे मुनीश्वर ! आप भी शिवाशिवके यशका गान करके उनसे पूछकर अपने भवनको चले आये । हे नारद ! आपके द्वारा पूछे जानेपर मैंने आपसे विघ्नेश्वर गणेशजीके यशसे मिश्रित भगवान् शिव तथा भगवती शिवाके यशका आदरपूर्वक पूर्णरूपसे वर्णन कर दिया ॥ ७०-७४ ॥

इदं सुमंगलाख्यानं यः शृणोति सुसंयतः ।
सर्वमंगल संयुक्तः स भवेन्मंगलालयः ॥ ७५ ॥
अपुत्रो लभते पुत्रं निर्धनो लभते धनम् ।
भार्यार्थी लभते भार्यां प्रजार्थी लभते प्रजाम् ॥ ७६ ॥
आरोग्यं लभते रोगी सौभाग्यं दुर्भगो लभेत् ।
नष्टपुत्रं नष्टधनं प्रोषिता च पतिं लभेत् ॥ ७७ ॥
शोकाविष्टः शोकहीनः स भवेन्नात्र संशयः ।
इदं गाणेशमाख्यानं यस्य गेहे च तिष्ठति ॥ ७८ ॥
सदा मंगलसंयुक्तः स भवेन्नात्र संशयः ।
यात्राकाले च पुण्याहे यः शृणोति समाहितः ।
सर्वाभीष्टं स लभते श्रीगणेशप्रसादतः ॥ ७९ ॥
जो संयत होकर इस मंगलदायक आख्यानको सुनता है, वह सभी मंगलोंसे युक्त होकर मंगलोंका आलय हो जाता है, पुत्रहीनको पुत्र, निर्धनको धन, स्त्रीकी इच्छावालेको स्त्री एवं प्रजा चाहनेवालेको प्रजाकी प्राप्ति होती है, रोगीको आरोग्य, भाग्यहीनको सौभाग्य, नष्ट पुत्रवालेको पुत्र, नष्ट धनवालोंको धन एवं जिस स्वीका पति विदेश गया हो, उसको पतिकी प्राप्ति होती है और शोकयुक्त पुरुष शोकसे रहित हो जाता है, इसमें संशय नहीं है । गणेशसे सम्बन्धित यह आख्यान जिसके घरमें नित्य रहता है, वह सर्वदा मंगलसे युक्त होता है । इसमें संशय नहीं है । यात्राकालमें तथा पवित्र पर्वपर जो कोई सावधान होकर इसे सुनता है, वह गणेशकी कृपासे सम्पूर्ण मनोरथ प्राप्त कर लेता है । ७५-७९ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां चतुर्थे
कुमारखण्डे गणेशगणाधिपपदवीवर्णनं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके चतुर्थ कुमारखण्डमें गणेशको गणाधिपकी पदवीप्राप्तिका वर्णन नामक अठारहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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