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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

तृतीयोऽध्यायः

त्रिपुरवधोपाख्याने भूतत्रिपुरधर्मवर्णनम् -
त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना


शिव उवाच
अयं वै त्रिपुराध्यक्ष पुण्यवान्वर्ततेऽधुना ।
यत्र पुण्यं प्रवर्तेत न हन्तव्यो बुधैः क्वचित् ॥ १ ॥
जानामि देवकष्टं च विबुधाः सकलं महत् ।
दैत्यास्ते प्रबला हन्तुमशक्यास्तु सुरासुरैः ॥ २ ॥
शिवजी बोले-हे देवताओ ! इस समय यह त्रिपुराध्यक्ष पुण्यवान् है, जिसमें पुण्य हो, उसे विद्वानोंको कभी नहीं मारना चाहिये । हे देवताओ ! मैं देवताओंके समस्त बड़े कष्टोंको जानता हूँ । वे दैत्य प्रबल हैं, देवता तथा असुर कोई भी उन्हें मारनेमें समर्थ नहीं है ॥ १-२ ॥

पुण्यवन्तस्तु ते सर्वे समयास्तारकात्मजाः ।
दुःसाध्यस्तु वधस्तेषां सर्वेषां पुरवासिनाम् ॥ ३ ॥
दानव मयसहित वे सभी तारकपुत्र पुण्यवान् हैं, त्रिपुरमें रहनेवाले उन सभीका वध दुःसाध्य है ॥ ३ ॥

मित्रद्रोहं कथं जानन्करोमि रणकर्कशः ।
सुहृद्द्रोहे महत्पापं पूर्वमुक्तं स्वयम्भुवा ॥ ४ ॥
युद्धमें अजेय होते हुए भी मैं जान बूझकर किस प्रकार मित्रद्रोहका आचरण करूँ; क्योंकि स्वयम्भूने पहले कहा है कि मित्रद्रोह करनेमें महान् पाप होता है ॥ ४ ॥

ब्रह्मघ्नं च सुरापे च स्तेये भग्नव्रते तथा ।
निष्कृतिर्विहिता सद्‌भिः कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः ॥ ५ ॥
मम भक्तास्तु ते दैत्या मया वध्या कथं सुराः ।
विचार्यतां भवद्‌भिश्च धर्मज्ञैरेव धर्मतः ॥ ६ ॥
तावत्ते नैव हन्तव्या यावद्‌भक्तिकृतश्च मे ।
तथापि विष्णवे देवा निवेद्यं कारणं त्विदम् ॥ ७ ॥
ब्रह्महत्यारा, सुरापान करनेवाला, स्वर्णकी चोरी करने वाला तथा व्रतभंग करनेवाला-इन सभीके लिये शास्त्रकारोंने प्रायश्चित्त बताया है, किंतु कृतघ्नके लिये कोई प्रायश्चित्त-विधान नहीं है । हे देवताओ ! धर्मके ज्ञाता आपलोग ही धर्मपूर्वक विचार करें कि वे दैत्य मेरे भक्त हैं, तब मैं उनका वध किस प्रकार कर सकता हूँ ? हे देवताओ ! जबतक वे मुझमें भक्ति रखते हैं, तबतक मैं उन्हें नहीं मार सकता तथापि आपलोग विष्णुसे इस कारणको बताइये ॥ ५-७ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्येवं तद्वचः श्रुत्वा देवाः शक्रपुरोगमाः ।
न्यवेदयन् द्रुतं सर्वे ब्रह्मणे प्रथमं मुने ॥ ८ ॥
ततो विधिं पुरस्कृत्य सर्वे देवाः सवासवाः ।
वैकुण्ठं प्रययुः शीघ्रं सर्वे शोभासमन्वितम् ॥ ९ ॥
सनत्कुमार बोले-हे मुने ! उनका यह वचन सुनकर इन्द्र आदि सभी देवताओंने सर्वप्रथम इस बातको ब्रह्माजीसे कहा । तदनन्तर ब्रह्माजीको आगेकर इन्द्रसहित सभी देवता शोभासम्पन्न वैकुण्ठधामको शीघ्र गये ॥ ८-९ ॥

तत्र गत्वा हरिं दृष्ट्‍वा प्रणेमुर्जातसम्भ्रमाः ।
तुष्टुवुश्च महाभक्त्या कृताञ्जलिपुटाः सुराः ॥ १० ॥
स्वदुःखकारणं सर्वं पूर्ववत्तदनन्तरम् ।
न्यवेदयन्द्रुतं तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे ॥ ११ ॥
देवदुःखं ततः श्रुत्वा दत्तं च त्रिपुरालये ।
ज्ञात्वा व्रतं च तेषां तद्विष्णुर्वचनमब्रवीत् ॥ १२ ॥
वहाँ जाकर आश्चर्यचकित उन देवताओंने विष्णुको देखकर उन्हें प्रणाम किया और दोनों हाथ जोड़कर परम भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति की, उसके अनन्तर सर्वसमर्थ उन विष्णुसे पूर्वकी भाँति अपने दुःखका समस्त कारण शीघ्र निवेदित किया । तब त्रिपुरवासियोंके द्वारा दिये गये देवगणोंके दुःखको सुनकर तथा उनके व्रतको जानकर विष्णुने यह वचन कहा- ॥ १०-१२ ॥

विष्णुरुवाच
इदं सत्यं वचश्चैव यत्र धर्मः सनातनः ।
तत्र दुःखं न जायेत सूर्ये दृष्टे यथा तमः ॥ १३ ॥
विष्णु बोले-यह बात सत्य है कि जहाँ सनातनधर्म विद्यमान होता है, वहाँ दुःख उसी प्रकार नहीं होता, जिस प्रकार सूर्यके दिखायी देनेपर अन्धकार नहीं रहता है ॥ १३ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्येतद्वचनं श्रुत्वा देवा दुःखमुपागताः ।
पुनरूचुस्तथा विष्णुं परिम्लानमुखाम्बुजाः ॥ १४ ॥
सनत्कुमार बोले-इस बातको सुनकर दुःखित तथा मुरझाये हुए मुखकमलवाले देवता विष्णुसे पुनः कहने लगे- ॥ १४ ॥

देवा ऊचुः
कथं चैव प्रकर्त्तव्यं कथं दुःखं निरस्यते ।
कथं भवेम सुखिनः कथं स्थास्यामहे वयम् ॥ १५ ॥
कथं धर्मा भविष्यन्ति त्रिपुरे जीविते सति ।
देवदुःखप्रदा नूनं सर्वे त्रिपुरवासिनः ॥ १६ ॥
देवगण बोले-अब क्या करना चाहिये, यह दुःख किस प्रकारसे दूर हो, हमलोग कैसे सुखी रहें तथा किस प्रकारसे निवास करें । इस त्रिपुरके जीवित रहते धर्माचरण किस प्रकार हो सकेंगे, ये त्रिपुरवासी तो निश्चय ही देवताओंको दःख देनेवाले हैं ॥ १५-१६ ॥

किं वा ते त्रिपुरस्येह वधश्चैव विधीयताम् ।
नोचेदकालिकी देवसंहतिः क्रियतां ध्रुवम् ॥ १७ ॥
[हे विष्णो !] आप या तो त्रिपुरका वध कीजिये, अन्यथा देवताओंको ही अकालमें मार डालिये ॥ १७ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्युक्त्वा ते तदा देवा दुःखं कृत्वा पुनः पुनः ।
स्थितिं नैव गतिं ते वै चक्रुर्देववरादिह ॥ १८ ॥
तान्वै तथाविधान्दृष्ट्‍वा हीनान्विनयसंयुतान् ।
सोपि नारायणः श्रीमांश्चिन्तयंश्चेतसा तथा ॥ १९ ॥
किं कार्यं देवकार्येषु मया देवसहायिना ।
शिवभक्तास्तु ते दैत्यास्तारकस्य सुता इति ॥ २० ॥
सनत्कुमार बोले-तब इस प्रकार कहकर वे देवता बारंबार बड़े दुखी हुए और न तो विष्णुके पाससे उन्हें जाते बना और न तो रुकते ही बना । तब विष्णुने उन देवताओंको इस प्रकारसे हीन तथा विनययुक्त देखकर अपने मनमें विचार किया कि देवताओंकी सहायता करनेवाला मैं इन देवताओंके कार्यके लिये कौन-सा उपाय करूँ, तारका-सुरके वे पुत्र भी तो शिवजीके भक्त ही हैं ॥ १८-२० ॥

इति सञ्चिन्त्य तत्काले विष्णुना प्रभविष्णुना ।
ततो यज्ञाः स्मृतास्तेन देवकार्यार्थमक्षयाः ॥ २१ ॥
ऐसा सोचकर उसी समय सर्वसमर्थ उन विष्णुने देवताओंके कार्यके लिये अक्षय यज्ञोंका स्मरण किया ॥ २१ ॥

तद्विष्णुस्मृतिमात्रेण यज्ञास्ते तत्क्षणं द्रुतम् ।
आगतास्तत्र यत्रास्ते श्रीपतिः पुरुषोत्तमः ॥ २२ ॥
ततो विष्णुं यज्ञपतिं पुराणं पुरुषं हरिम् ।
प्रणम्य तुष्टुवुस्ते वै कृताञ्जलिपुटास्तदा ॥ २३ ॥
भगवानपि तान्दृष्ट्‍वा यज्ञान्प्राह सनातनम् ।
सनातनस्तदा सेन्द्रान्देवानालोक्य चाच्युतः ॥ २४ ॥
उन विष्णुके स्मरणमात्रसे वे यज्ञ उसी क्षण शीघ्रता-पूर्वक वहाँ आ गये, जहाँ लक्ष्मीपति पुरुषोत्तम विद्यमान थे । उसके बाद उन्होंने हाथ जोड़कर प्रणाम करके यज्ञपति पुराणपुरुष श्रीहरिकी स्तुति की । तब सनातन भगवान् विष्णुने भी उन सनातन यज्ञोंको देखकर पुनः इन्द्रसहित देवताओंकी ओर देखकर उनसे कहा- ॥ २२-२४ ॥

विष्णुरुवाच
अनेनैव सदा देवा यजध्वं परमेश्वरम् ।
पुरत्रयविनाशाय जगत्त्रयविभूतये ॥ २५ ॥
विष्णु बोले-हे देवगण ! आपलोग त्रिपुरोंके विनाश एवं तीनों लोकोंके कल्याणके निमित्त इन यज्ञोंद्वारा सदा परमेश्वरका यजन कीजिये ॥ २५ ॥

सनत्कुमार उवाच
अच्युतस्य वचः श्रुत्वा देवदेवस्य धीमतः ।
प्रेम्णा ते प्रणतिं कृत्वा यज्ञेशं तेऽस्तुवन्सुराः ॥ २६ ॥
एवं स्तुत्वा ततो देवा अजयन्यज्ञपूरुषम् ।
यज्ञोक्तेन विधानेन सम्पूर्णविधयो मुने ॥ २७ ॥
सनत्कुमार बोले-देवाधिदेव बुद्धिमान् विष्णुका वचन सुनकर वे देवता प्रेमपूर्वक यज्ञेशको प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे । हे मुने ! इस प्रकार स्तुति करनेके पश्चात् सम्पूर्ण विधियोंके ज्ञाता वे देवता यज्ञोक्त विधानसे यज्ञपुरुषका यजन करने लगे ॥ २६-२७ ॥

ततस्तस्माद्यज्ञकुण्डात्समुत्पेतुः सहस्रशः ।
भूतसङ्‌घा महाकायाः शूलशक्तिगदायुधाः ॥ २८ ॥
तब उस यज्ञकुण्डसे शूल, शक्ति और गदा हाथमें धारण किये महाकाय हजारों भूतसमुदाय उत्पन्न हुए ॥ २८ ॥

ददृशुस्ते सुरास्तान् वै भूतसङ्‌घान् सहस्रशः ।
शूल शक्तिगदाहस्तान्दण्डचापशिलायुधान् ॥ २९ ॥
नानाप्रहरणोपेतान् नानावेषधराँस्तथा ।
कालाग्निरुद्रसदृशान्कालसूर्योपमाँस्तदा ॥ ३० ॥
दृष्ट्‍वा तानब्रवीद्विष्णुः प्रणिपत्य पुरःस्थितान् ।
भूतान्यज्ञपतिः श्रीमान् रुद्राज्ञाप्रतिपालकः ॥ ३१ ॥
उन देवताओंने हाथमें शूल-शक्ति-गदा-दण्डधनुष तथा शिलाका आयुध धारण किये हुए, इसके अतिरिक्त और भी अनेक प्रकारके अस्त्र धारण किये हुए, नाना प्रकारके वेष धारण किये हुए, कालाग्नि रुद्रके समान तथा कालसूर्यके समान प्रतीत होनेवाले उन हजारों भूत-समुदायोंको देखा । अपने आगे खड़े उन भूतोंको देखकर और उन्हें प्रणामकर रुद्रकी आज्ञाका पालन करनेवाले यज्ञपति श्रीमान् विष्णु उनसे कहने लगे- ॥ २९-३१ ॥

विष्णुरुवाच
भूताः शृणुत मद्वाक्यं देवकार्यार्थमुद्यताः ।
गच्छन्तु त्रिपुरं सद्यः सर्वे हि बलवत्तराः ॥ ३२ ॥
गत्वा दग्ध्वा च भित्त्वा च भङ्क्त्वा दैत्यपुरत्रयम् ।
पुनर्यथागता भूतागन्तुमर्हथ भूतये ॥ ३३ ॥
विष्णुजी बोले-हे भूतगणो ! तुम मेरी बात सुनो । तुमलोग महाबलवान् हो, अतः देवकार्यके लिये तत्पर हो शीघ्र त्रिपुरको जाओ । हे भूतगणो ! वहाँ जाकर दैत्योंके तीनों पुरोंको तोड़-फोड़कर तथा जलाकर पुनः लौट आना, इसके बाद अपने कल्याणके लिये जहाँ इच्छा हो, वहाँ चले जाना ॥ ३२-३३ ॥

सनत्कुमार उवाच
तच्छ्रुत्वा भगवद्वाक्यं ततो भूतगणाश्च ते ।
प्रणम्य देवदेवं तं ययुर्दैत्यपुरत्रयम् ॥ ३४ ॥
गत्वा तत्प्रविशन्तश्च त्रिपुराधिपतेजसि ।
भस्मसादभवन्सद्यः शलभा इव पावके ॥ ३५ ॥
अवशिष्टाश्च ये केचित्पलायनपरायणाः ।
निःसृत्यारं समायाता हरेर्निकटमाकुलाः ॥ ३६ ॥
सनत्कुमार बोले-तब भगवान् विष्णुकी वह बात सुनकर वे भूतगण उन देवाधिदेवको प्रणामकर दैत्योंके त्रिपुरकी ओर चल दिये । वहाँ जाकर त्रिपुरमें प्रवेश करते ही वे त्रिपुरके अधिपतिके तेजमें उसी प्रकार शीघ्र भस्म हो गये, जैसे अग्निमें पतिंगे भस्म हो जाते हैं । उनमें जो कोई शेष बचे, वे भाग गये और वहाँसे निकलकर व्याकुल हो शीघ्र विष्णुके समीप चले आये ॥ ३४-३६ ॥

तान्दृष्ट्‍वा स हरिः श्रुत्वा तच्च वृत्तमशेषतः ।
चिन्तयामास भगवान्मनसा पुरुषोत्तमः ॥ ३७ ॥
किं कृत्यमधुना कार्यमिति सन्तप्तमानसः ।
सन्तप्तानमरान्सर्वानाज्ञाय च सवासवान् ॥ ३८ ॥
कथं तेषां च दैत्यानां बलाद्धत्वा पुरत्रयम् ।
देवकार्यं करिष्यामीत्यासीच्चिन्तासमाकुलः ॥ ३९ ॥
तब पुरुषोत्तम भगवान् हरि उनको देखकर तथा वह सारा वृत्तान्त सुनकर और इन्द्रसहित सभी देवताओंको दुखी जानकर सन्तप्तचित्त हो गये और सोचने लगे कि इस समय कौन-सा कार्य करना चाहिये । उन दैत्योंके तीनों पुरोंको बलपूर्वक नष्ट करके मैं देवताओंका कार्य किस प्रकार करूँ-वे इसी चिन्तासे व्याकुल हो उठे ॥ ३७-३९ ॥

नाशोऽभिचारतो नास्ति धर्मिष्ठानां न संशयः ।
इति प्राह स्वयं चेशः श्रुत्याचारप्रमाणकृत् ॥ ४० ॥
दैत्याश्च ते हि धर्मिष्ठाःसर्वे त्रिपुरवासिनः ।
तस्मादवध्यतां प्राप्ता नान्यथासुरपुङ्‌गवाः ॥ ४१ ॥
कृत्वा तु सुमहत्पापं रुद्रमभ्यर्चयन्ति ते ।
मुच्यन्ते पातकैः सर्वैः पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ ४२ ॥
रुद्राभ्यर्चनतो देवाः सर्वे कामा भवन्ति हि ।
नानोपभोगसम्पत्तिर्वश्यतां याति वै भुवि ॥ ४३ ॥
तस्मात्तद्‌भोगिनो दैत्या लिङ्‌गार्चनपरायणाः ।
अनेकविधसम्पत्तेर्मोक्षस्यापि परत्र च ॥ ४४ ॥
ततः कृत्वा धर्मविघ्नं तेषामेवात्ममायया ।
दैत्यानां देवकार्यार्थं हरिष्ये त्रिपुरं क्षणात् ॥ ४५ ॥
विचार्येत्थं ततस्तेषां भगवान्पुरुषोत्तमः ।
कर्तुं व्यवस्थितः पश्चाद्धर्मविघ्नं सुरारिणाम् ॥ ४६ ॥
धर्मात्माओंका अभिचारसे भी नाश नहीं होता, इसमें संशय नहीं है-ऐसा श्रुतिके आचारको प्रमाणित करनेवाले शंकरजीने स्वयं कहा है । हे श्रेष्ठ देवताओ ! त्रिपुरमें रहनेवाले वे सभी दैत्य बड़े धर्मनिष्ठ हैं, इसलिये सर्वथा अवध्य हैं, यह बात असत्य नहीं है । वे महान् पाप करके भी रुद्रकी अर्चना करते हैं, इसलिये सभी प्रकारके पापोंसे वैसे ही मुक्त हो जाते हैं, जैसे पद्मपत्र जलसे पृथक् रहता है । हे देवताओ ! रुद्रकी अर्चनासे सभी कामनाएं पूर्ण होती हैं और पृथ्वीके अनेक प्रकारके भोग एवं सम्पत्तियाँ वशीभूत हो जाती हैं । अतः लिंगार्चनपरायण ये दैत्य इस लोकमें अनेक प्रकारको सम्पत्तिका भोग कर रहे हैं और परलोकमें भी उन्हें मोक्ष प्राप्त होगा । फिर भी मैं अपनी मायासे उन दैत्योंके धर्ममें विघ्न डालकर देवताओंकी कार्यसिद्धिके निमित्त क्षणभरमें त्रिपुरका संहार करूँगा-इस प्रकार विचार करनेके पश्चात् वे भगवान् पुरुषोत्तम उन दैत्योंके धर्ममें विघ्न करनेके लिये तत्पर हो गये ॥ ४०-४६ ॥

यावच्च वेद धर्मास्तु यावद्वै शंकरार्चनम् ।
यावच्च शुचिकृत्यादि तावन्नाशो भवेन्न हि ॥ ४७ ॥
तस्मादेवं प्रकर्तव्यं वेदधर्मस्ततो व्रजेत् ।
त्यक्तलिङ्‌गार्चना दैत्या भविष्यन्ति न संशयः ॥ ४८ ॥
इति निश्चित्य वै विष्णुर्विघ्नार्थमकरोत्तदा ।
तेषां धर्मस्य दैत्यानामुपायं श्रुति खण्डनम् ॥ ४९ ॥
तदैवोवाच देवान्स विष्णुर्देवसहायकृत् ।
शिवाज्ञया शिवेनैवाज्ञप्तस्त्रैलोक्यरक्षणे ॥ ५० ॥
जबतक उनमें वेदके धर्म हैं, जबतक वे शंकरकी अर्चना करते हैं और जबतक वे पवित्र कृत्य करते हैं, तबतक उनका नाश नहीं हो सकता । इसलिये अब ऐसा उपाय करना चाहिये कि वहाँसे वेदधर्म चला जाय, तब वे दैत्य लिंगार्चन त्याग देंगे, इसमें सन्देह नहीं-ऐसा निश्चय करके विष्णुजीने उन दैत्योंके धर्ममें विघ्न करनेके लिये श्रुतिखण्डनरूप उपाय किया । इसके बाद त्रैलोक्यरक्षणके लिये शिवके द्वारा आदिष्ट देवसहायक उन विष्णुने शिवकी आज्ञासे देवताओंसे कहा- ॥ ४७-५० ॥

विष्णुरुवाच
हे देवाः सकला यूयं गच्छत स्वगृहान्ध्रुवम् ।
देवकार्यं करिष्यामि यथामति न संशयः ॥ ५१ ॥
तान् रुद्राद्विमुखान्नूनं करिष्यामि सुयत्नतः ।
स्वभक्तिरहितान् ज्ञात्वा तान्करिष्यति भस्मसात् ॥ ५२ ॥
विष्णुजी बोले-हे देवो ! [इस समय] आप सभी लोग निश्चित रूपसे अपने घरको चले जायँ, मैं अपनी बुद्धिके अनुसार देवताओंका कार्य अवश्य करूँगा, इसमें सन्देह नहीं है । मैं बड़े यत्नसे उन्हें रुद्रसे अवश्य विमुख करूँगा और तब शिवजी अपनी शक्तिसे रहित जानकर उन्हें भस्म कर देंगे ॥ ५१-५२ ॥

सनत्कुमार उवाच
तदाज्ञां शिरसाधायश्वासितास्तेऽमरा मुने ।
स्वस्वधामानि विश्वस्ता ययुः परममोदिताः ॥ ५३ ॥
ततश्चैवाकरोद्विष्णुर्देवार्थं हितमुत्तमम् ।
तदेव श्रूयतां सम्यक्सर्वपापप्रणाशनम् ॥ ५४ ॥
सनत्कुमार बोले-हे मुने ! तब वे देवगण विष्णुकी आज्ञाको सिरपर धारणकर कुछ निश्चिन्त हुए और फिर ब्रह्माके द्वारा आश्वासित होनेपर प्रसन्न हो अपने-अपने स्थानोंको चले गये । इसके बाद विष्णुने देवताओंके लिये जो उत्तम उपाय किया, उसे आप भलीभाँति सुनिये, वह सभी पापोंका नाश करनेवाला है । ५३-५४ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे
त्रिपुरवधोपाख्याने भूतत्रिपुरधर्मवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें त्रिपुरवधोपाख्यानान्तर्गत भूतत्रिपुरधर्मवर्णन नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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