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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

चतुर्थोऽध्यायः

सनत्कुमारपाराशर्य संवादे त्रिपुरदीक्षाविधानम् -
त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना


सनत्कुमार उवाच
असृजच्च महातेजाः पुरुषं स्वात्मसम्भवम् ।
एकं मायामयं तेषां धर्मविघ्नार्थमच्युतः ॥ १ ॥
सनत्कुमार बोले-उन महातेजस्वी विष्णुने उनके धर्ममें विघ्न उत्पन्न करनेके लिये अपने ही शरीद्वारा एक मायामय मुनिरूप पुरुषको उत्पन्न किया ॥ १

मुण्डिनं म्लानवस्त्रं च गुंफिपात्रसमन्वितम् ।
दधानं पुञ्जिकां हस्ते चालयन्तं पदेपदे ॥ २ ॥
वस्त्रयुक्तं तथा हस्तं क्षीयमाणं मुखे सदा ।
धर्मेति व्याहरन्तं हि वाचा विक्लवया मुनिम् ॥ ३ ॥
वह अपना सिर मुड़ाये हुए, मलिन वस्त्र धारण किये हुए, हाथमें एक गुम्फि (काष्ठ)-का पात्र लिये हुए. दूसरे हाथमें झाड़ लिये तथा उससे पग-पगपर बुहारी करता हुआ, हस्तपरिमाणका वस्त्र अपने मुखपर लपेटे हुए विकल वाणीसे धर्म-धर्म इस प्रकार कह रहा था ॥ २-३ ॥

स नमस्कृत्य विष्णुं तं तत्पुरः संस्थितोऽथ वै ।
उवाच वचनं तत्र हरिं स प्राञ्जलिस्तदा ॥ ४ ॥
अरिहन्नच्युतं पूज्यं किं करोमि तदादिश ।
कानि नामानि मे देव स्थानं वापि वद प्रभो ॥ ५ ॥
इत्येवं भगवान्विष्णुः श्रुत्वा तस्य शुभं वचः ।
प्रसन्नमानसो भूत्वा वचनं चेदमब्रवीत् ॥ ६ ॥
वह उन विष्णुको प्रणामकर उनके आगे स्थित हो गया, इसके बाद उसने हाथ जोड़कर पूज्य, अच्युत विष्णुसे यह वचन कहा-हे अरिहन् ! [शत्रुनाशक] मैं क्या करूँ ? इसके लिये आज्ञा दीजिये । हे देव ! मेरे क्या-क्या नाम होंगे ? हे प्रभो ! मेरे स्थानका भी निर्देश कीजिये । इस प्रकार उसका यह शुभ वचन सुनकर भगवान् विष्णु प्रसन्नचित्त होकर यह वचन कहने लगे- ॥ ४-६ ॥

विष्णुरुवाच
यदर्थं निर्मितोऽसि त्वं निबोध कथयामि ते ।
मदङ्‌गज महाप्राज्ञ मद्‌रूपस्त्वं न संशयः ॥ ७ ॥
विष्णुजी बोले-मेरे शरीरसे उत्पन्न हे महाप्राज्ञ ! मैंने जिसके लिये तुम्हारा निर्माण किया है, उसे सुनो, मैं कह रहा हूँ । तुम मेरे ही रूप हो, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ७ ॥

ममाङ्‌गाच्च समुत्पन्नो मत्कार्यं कर्तुमर्हसि ।
मदीयस्त्वं सदा पूज्यो भविष्यति न संशयः ॥ ८ ॥
मेरे शरीरसे उत्पन्न हुए तुम मेरा कार्य करने में समर्थ हो । तुम मुझसे अभिन्न हो, इसलिये [लोकमें] सदा पूज्य होओगे, इसमें संशय नहीं है ॥ ८ ॥

अरिहन्नाम ते स्यात्तु ह्यन्यानि न शुभानि च ।
स्थानं वक्ष्यामि ते पश्चाच्छृणु प्रस्तुतमादरात् ॥ ९ ॥
तुम्हारा नाम अरिहन् होगा, तुम्हारे अन्य भी शुभ नाम होंगे । मैं तुम्हारे स्थानको बादमें बताऊँगा, इस समय मेरा प्रस्तुत कार्य आदरसे सुनो ॥ ९ ॥

मायिन्मायामयं शास्त्रं तत्षोडशसहस्रकम् ।
श्रौतस्मार्तविरुद्धं च वर्णाश्रमविवर्जितम् ॥ १० ॥
अपभ्रंशमयं शास्त्रं कर्मवादमयं तथा ।
रचयेति प्रयत्नेन तद्विस्तारो भविष्यति ॥ ११ ॥
ददामि तव निर्माणे सामर्थ्यं तद्‌भविष्यति ।
माया च विविधा शीघ्रं त्वदधीना भविष्यति ॥ १२ ॥
हे मायावी ! तुम सोलह हजार श्लोकोंवाला एक शास्त्र प्रयत्नपूर्वक बनाओ, जो मायामय, श्रुतिस्मृतिसे विरुद्ध, वर्णाश्रमधर्मसे रहित, अपभ्रंश शब्दोंसे युक्त और कर्मवादपर आधारित हो, आगे चलकर उसका विस्तार होगा । मैं तुम्हें उस शास्त्रके निर्माणका सामर्थ्य देता हूँ । अनेक प्रकारकी माया भी तुम्हारे अधीन हो जायगी ॥ १०-१२ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य हरेश्च परमात्मनः ।
नमस्कृत्य प्रत्युवाच स मायी तं जनार्दनम् ॥ १३ ॥
उन परमात्मा श्रीविष्णुका वचन सुनकर वह मायावी प्रणामकर जनार्दनसे कहने लगा- ॥ १३ ॥

मुण्ड्युवाच
यत्कर्तव्यं मया देव द्रुतमादिश तत्प्रभो ।
त्वदाज्ञयाखिलं कर्म सफलश्च भविष्यति ॥ १४ ॥
मुण्डी बोला-हे देव ! मुझे जो करना हो, उसे शीघ्र बताइये । हे प्रभो ! आपकी आज्ञासे सारा कार्य सिद्ध होगा ॥ १४ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्युक्त्वा पाठयामास शास्त्रं मायामयं तथा ।
इहैव स्वर्गनरकप्रत्ययो नान्यथा पुनः ॥ १५ ॥
सनत्कुमार बोले-मुण्डीके द्वारा ऐसा कहे जानेपर भगवान्ने उसे मायामय शास्त्र पढ़ाया और बताया कि स्वर्ग-नरककी प्रतीति यहीपर है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ १५ ॥

तमुवाच पुनर्विष्णुः स्मृत्वा शिवपदाम्बुजम् ।
मोहनीया इमे दैत्याः सर्वे त्रिपुरवासिनः ॥ १६ ॥
कार्यास्ते दीक्षिता नूनं पाठनीयाः प्रयत्नतः ।
मदाज्ञया न दोषस्ते भविष्यति महामते ॥ १७ ॥
धर्मास्तत्र प्रकाशन्ते श्रौतस्मार्त्ता न संशयः ।
अनया विद्यया सर्वे स्फोटनीया ध्रुवं यते ॥ १८ ॥
उसके बाद विष्णुने शिवजीके चरणकमलका स्मरण करके उससे पुनः कहा कि तुम त्रिपुरमें रहनेवाले इन समस्त दैत्योंको मोहित करो । तुम उन्हें दीक्षित करो और प्रयत्नपूर्वक इस शास्त्रको पढ़ाओ । हे महामते ! मेरी आज्ञाके कारण तुम्हें [ऐसा करनेसे] दोष नहीं लगेगा । हे यते ! इसमें सन्देह नहीं कि वहाँ श्रौत स्मार्त धर्म प्रकाश कर रहे हैं, किंतु तुम इस विद्याके द्वारा उन सभीको धर्मसे च्युत करो ॥ १६-१८ ॥

गन्तुमर्हसि नाशार्थं मुण्डिंस्त्रिपुरवासिनाम् ।
तमोधर्मं सम्प्रकाश्य नाशयस्व पुरत्रयम् ॥ १९ ॥
ततश्चैव पुनर्गत्वा मरुस्थल्यां त्वया विभो ।
स्थातव्यं च स्वधर्मेण कलिर्यावत्समाव्रजेत् ॥ २० ॥
प्रवृत्ते तु युगे तस्मिन्स्वीयो धर्मः प्रकाश्यताम् ।
शिष्यैश्च प्रतिशिष्यैश्च वर्तनीयस्त्वया पुनः ॥ २१ ॥
हे मुण्डिन् ! अब तुम उन त्रिपुरवासियोंके विनाशके लिये जाओ और तमोगुणी धर्मको प्रकाशितकर तीनों पुरोका नाश करो । हे विभो ! उसके बाद वहाँसे मरुस्थलमें जाकर कलियुगके आनेतक वहीं अपने धर्मके साथ निवास करना और उस युगके आ जानेपर तुम शिष्य-प्रशिष्योंके साथ अपने धर्मका प्रचार करना और उसीका व्यवहार करना ॥ १९-२१ ॥

मदाज्ञया भवद्धर्मो विस्तारं यास्यति ध्रुवम् ।
मदनुज्ञापरो नित्यं गतिं प्राप्स्यसि मामकीम् ॥ २२ ॥
एवमाज्ञा तदा दत्ता विष्णुना प्रभविष्णुना ।
शासनाद्देवदेवस्य हृदा त्वन्तर्दधे हरिः ॥ २३ ॥
मेरी आज्ञासे तुम्हारे इस धर्मका निश्चित रूपसे विस्तार होगा तथा मेरी आज्ञामें तत्पर होकर तुम मेरी गति प्राप्त करोगे । इस प्रकार देवाधिदेव शंकरकी आज्ञासे सर्वसमर्थ विष्णुने उसे हृदयसे आदेश दिया, इसके बाद विष्णुजी अन्तर्धान हो गये ॥ २२-२३ ॥

ततःस मुण्डी परिपालयन्हरे
    राज्ञां तथा निर्मितवांश्च शिष्यान् ।
यथास्वरूपं चतुरस्तदानीं
    मायामयं शास्त्रमपाठयत्स्वयम् ॥ २४ ॥
उसके बाद उस मुण्डीने विष्णुकी आज्ञाका पालन करते हुए उस समय अपने रूपके अनुसार चार शिष्योंका निर्माण किया और उन्हें स्वर्य मायामय शास्त्र पढ़ाया ॥ २४ ॥

यथा स्वयं तथा ते च चत्वारो मुण्डिनः शुभाः ।
नमस्कृत्य स्थितास्तत्र हरये परमात्मने ॥ २५ ॥
हरिश्चापि मुनेस्तत्र चतुरस्तांस्तदा स्वयम् ।
उवाच परमप्रीतः शिवाज्ञापरिपालकः ॥ २६ ॥
यथा गुरुस्तथा यूयं भविष्यथ मदाज्ञया ।
धन्याः स्थ सद्‌गतिमिह सम्प्राप्स्यथ न संशयः ॥ २७ ॥
जैसा वह स्वयं था, उसी प्रकारके वे चारों शुभ 'मुण्डी भी थे, वे परमात्मा श्रीविष्णुको नमस्कारकर वहींपर स्थित हो गये । हे मुने ! तब शिवकी आज्ञाका पालन करनेवाले श्रीविष्णुने भी परम प्रसन्न होकर उन चारों शिष्योंसे स्वयं कहा-जैसे तुमलोगोंके गुरु हैं, वैसे ही मेरी आज्ञासे तुमलोग भी बनो । तुमलोग धन्य हो और इस लोकमें सद्‌गति प्राप्त करोगे, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २५-२७ ॥

चत्वारो मुण्डिनस्तेऽथ धर्मं पाषण्डमाश्रिताः ।
हस्ते पात्रं दधानाश्च तुण्डवस्त्रस्य धारकाः ॥ २८ ॥
मलिनान्येव वासांसि धारयन्तो ह्यभाषिणः ।
धर्मो लाभः परं तत्त्वं वदन्तस्त्वतिहर्षतः ॥ २९ ॥
मार्जनीं ध्रियमाणाश्च वस्त्रखण्डविनिर्मिताम् ।
शनैः शनैश्चलन्तो हि जीवहिंसाभयाद्ध्रुवम् ॥ ३० ॥
ते सर्वे च तदा देवं भगवन्तं मुदान्विताः ।
नमस्कृत्य पुनस्तत्र मुने तस्थुस्तदग्रतः ॥ ३१ ॥
इसके बाद वे चारों मुण्डी हाथमें पात्र लिये, नासिकापर वस्त्र बाँधे, मलिन वस्त्र धारण किये हुए, अत्यधिक न बोलते हुए 'धर्म ही लाभ तथा परम तत्त्व है'-ऐसा अति हर्षपूर्वक कहते हुए, वस्त्रके छोटे-छोटे टुकड़ोंसे बनी हुई मार्जनी धारण किये हुए और जीवहिंसाके भयसे धीरे-धीरे चलते हुए विचरण करने लगे । हे मुने ! तब वे सभी प्रसन्न होकर देवाधिदेव श्रीविष्णुको नमस्कारकर उनके आगे स्थित हो गये ॥ २८-३१ ॥

हरिणा च तदा हस्ते धृत्वा च गुरवेर्पिताः ।
अभ्यधायि च सुप्रीत्या तन्नामापि विशेषतः ॥ ३२ ॥
यथा त्वं च तथैवैते मदीया वै न संशयः ।
आदिरूपं च तन्नाम पूज्यत्वात्पूज्य उच्यते ॥ ३३ ॥
उसके अनन्तर भगवान् विष्णुने उनका हाथ पकड़कर उन्हें गुरुको अर्पित कर दिया और अत्यन्त प्रेमके साथ विशेषरूपसे उनके नामोंको बताया और कहा-जैसे तुम मेरे हो, उसी प्रकार ये भी मेरे हैं, इसमें संशय नहीं है । तुम्हारा आदिरूप है, इसलिये आदिरूप यह नाम होगा और पूज्य होनेसे तुम पूज्य भी कहे जाओगे ॥ ३२-३३ ॥

ऋषिर्यतिस्तथाकीर्य उपाध्याय इति स्वयम् ।
इमान्यपि तु नामानि प्रसिद्धानि भवन्तु वः ॥ ३४ ॥
ममापि च भवद्‌भिश्च नाम ग्राह्यं शुभं पुनः ।
अरिहन्निति तन्नाम ध्येयं पापप्रणाशनम् ॥ ३५ ॥
भवद्‌भिश्चैव कर्तव्यं कार्यं लोकसुखावहम् ।
लोकानुकूलं चरतां भविष्यत्युत्तमा गतिः ॥ ३६ ॥
ऋषि, यति, कीर्य एवं उपाध्याय-ये नाम भी तुमलोगोंके प्रसिद्ध होंगे । तुमलोगोंको मेरे भी शुभ नामको ग्रहण करना चाहिये । अरिहन्-यह मेरा नाम ध्यानयोग्य तथा पापनाशक है । अब आपलोगोंको लोककल्याणकारी कार्य करते रहना चाहिये । लोकके अनुकूल आचरण करते हुए तुमलोगोंकी उत्तम गति होगी ॥ ३४-३६ ॥

सनत्कुमार उवाच
ततः प्रणम्य तं मायी शिष्ययुक्तःस्वयं तदा ।
जगाम त्रिपुरं सद्यः शिवेच्छाकारिणं मुमा ॥ ३७ ॥
प्रविश्य तत्पुरं तूर्णं विष्णुना नोदितो वशी ।
महामायाविना तेन ऋषिर्मायां तदाकरोत् ॥ ३८ ॥
नगरोपवने कृत्वा शिष्यैर्युक्तः स्थितिं तदा ।
मायां प्रवर्तयामास मायिनामपि मोहिनीम् ॥ ३९ ॥
सनत्कुमार बोले-इसके बाद विष्णुको प्रणाम करके वह मायावी अपने शिष्योंके साथ प्रसन्नतापूर्वक शीघ्र ही शिवकी इच्छाके अनुसार कार्य करनेवाले त्रिपुरके पास गया । महामायावी विष्णुद्वारा प्रेरित वह जितेन्द्रिय ऋषि त्रिपुरमें शीघ्र प्रविष्ट होकर मायाचार करने लगा । उसने शिष्योंके सहित नगरके उपवनमें निवासकर बड़े बड़े मायावियोंको भी मोहित करनेवाली माया फैलायी ॥ ३७-३९ ॥

शिवार्चनप्रभावेण तन्माया सहसा मुने ।
त्रिपुरे न चचालाशु निर्विण्णोऽभूत्तदा यतिः ॥ ४० ॥
अथ विष्णुं स सस्मार तुष्टाव च हृदा बहु ।
नष्टोत्साहो विचेतस्को हृदयेन विदूयता ॥ ४१ ॥
तत्स्मृतस्त्वरितं विष्णुःसस्मार शंकरं हृदि ।
प्राप्याज्ञां मनसा तस्य स्मृतवान्नारदं द्रुतम् ॥ ४२ ॥
हे मुने ! जब शिवजीके अर्चनके प्रभावके कारण उसकी माया त्रिपुरमें सहसा न चल सकी, तो यति व्याकुल हो उठा । इसके बाद उत्साहहीन तथा चेतनारहित उसने दुखी मनसे विष्णुका स्मरण किया और हदयसे उनकी स्तुति की । उसके द्वारा स्मरण किये गये विष्णुजीने हृदयमें शंकरजीका ध्यान किया और उनकी आज्ञा प्राप्तकर शीघ्र ही मनसे नारदजीका स्मरण किया । ४०-४२ ॥

स्मृतमात्रेण विष्णोश्च नारदः समुपस्थितः ।
नत्वा स्तुत्वा पुरस्तस्य स्थितोभूत्साञ्जलिस्तदा ॥ ४३ ॥
अथ तं नारदं प्राह विष्णुर्मनिमतां वरः ।
लोकोपकारनिरतो देवकार्यकरःसदा ॥ ४४ ॥
शिवाज्ञयोच्यते तात गच्छ त्वं त्रिपुरं द्रुतम् ।
ऋषिस्तत्र गतः शिष्यैर्मोहार्थं तत्सुवासिनाम् ॥ ४५ ॥
विष्णुजीके स्मरण करते ही नारदजी उपस्थित हुए और उन्हें प्रणामकर तथा उनकी स्तुतिकर हाथ जोड़े हुए वे उनके आगे खड़े हो गये । तब बुद्धिमानों में श्रेष्ठ विष्णुजीने नारदजीसे कहा-आप तो सर्वदा लोकोपकारमें निरत तथा देवताओंका कार्य करनेवाले हैं । हे तात ! मैं शिवजीकी आज्ञासे कहता हूँ कि आप शीघ्र ही त्रिपुरमें जायँ, उस पुरके निवासियोंको मोहित करनेके लिये एक ऋषि अपने शिष्योंके साथ वहाँ गये हैं ॥ ४३-४५ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य नारदो मुनिसत्तमः ।
गतस्तत्र द्रुतं यत्र स ऋषिर्मायिनां वरः ॥ ४६ ॥
नारदोऽपि तथा मायी नियोगान्मायिनः प्रभोः ।
प्रविश्य तत्पुरं तेन मायिना सह दीक्षितः ॥ ४७ ॥
ततश्च नारदो गत्वा त्रिपुराधीशसन्निधौ ।
क्षेमप्रश्नादिकं कृत्वा राज्ञे सर्वं न्यवेदयत् ॥ ४८ ॥
सनत्कुमार बोले-उनका यह वचन सुनकर मुनिश्रेष्ठ नारदजी बड़ी शीघ्रतासे वहाँ गये, जहाँ मायावियोंमें श्रेष्ठ वह ऋषि था । नारदजी भी बड़े मायावी थे, उन्होंने मायावी प्रभु [विष्णु] की आज्ञासे उस पुरमें प्रवेशकर उस मायावीसे दीक्षा ग्रहण कर ली । उसके बाद नारदजीने त्रिपुराधिपतिके पास जाकर उसका कुशल-मंगल आदि पूछकर राजासे सारा वृत्तान्त कहा ॥ ४६-४८ ॥

नारद उवाच
कश्चित्समागतश्चात्र यतिर्धर्मपरायणः ।
सर्वविद्याप्रकृष्टो हि वेदविद्यापरान्वितः ॥ ४९ ॥
दृष्ट्‍वा च बहवो धर्मा नैतेन सदृशाः पुनः ।
वयं सुदीक्षिताश्चात्र दृष्ट्‍वा धर्मं सनातनम् ॥ ५० ॥
तवेच्छा यदि वर्तेत तद्धर्मे दैत्यसत्तम ।
तद्धर्मस्य महाराज ग्राह्या दीक्षा त्वया पुनः ॥ ५१ ॥
नारदजी बोले-[हे राजन् !] धर्मपरायण सभी विद्याओंमें पारंगत और वेदविद्या में प्रवीण कोई यति आपके नगरमें आया है । हमने बहुत धर्म देखे हैं, परंतु इसके समान नहीं । इसके सनातनधर्मको देखकर हमने इससे दीक्षा ले ली है । अत: हे दैत्यसत्तम ! हे महाराज ! यदि आपकी भी इच्छा उस धर्ममें हो, तो आप भी उस धर्मकी दीक्षा ग्रहण कर लें ॥ ४९-५१ ॥

सनत्कुमार उवाच
तदीयं स वचः श्रुत्वा महदर्थसुगर्भितम् ।
विस्मितो हृदि दैत्येशो जगौ तत्र विमोहितः ॥ ५२ ॥
नारदो दीक्षितो यस्माद्वयं दीक्षामवाप्‍नुमः ।
इत्येवं च विदित्वा वै जगाम स्वयमेव ह ॥ ५३ ॥
सनत्कुमार बोले-नारदजीका विशद अर्थगर्भित वचन सुनकर वह दैत्याधिपति बड़ा विस्मित हो उठा और मोहित होकर मनमें कहने लगा कि जब नारदजीने स्वयं दीक्षा ली है, तो हम भी उससे दीक्षा ग्रहण कर लें-ऐसा सोचकर वह स्वयं वहाँ गया ॥ ५२-५३ ॥

तद्‌रूपं च तदा दृष्ट्‍वा मोहितो मायया तथा ।
उवाच वचनं तस्मै नमस्कृत्य महात्मने ॥ ५४ ॥
उसके स्वरूपको देखकर उसकी मायासे मोहित दैत्यने उस महात्माको नमस्कार करके यह वचन कहा- ॥ ५४ ॥

त्रिपुराधिप उवाच
दीक्षा देया त्वया मह्यं निर्मलाशय भो ऋषे ।
अहं शिष्यो भविष्यामि सत्यं सत्यं न संशयः ॥ ५५ ॥
त्रिपुराधिप बोला-पवित्र अन्त:करणवाले हे ऋषे ! आप मुझे भी दीक्षा दीजिये, मैं आपका शिष्य बनूँगा, यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है ॥ ५५ ॥

इत्येवं तु वचः श्रुत्वा दैत्यराजस्य निर्मलम् ।
प्रत्युवाच सुयत्नेन ऋषिः स च सनातनः ॥ ५६ ॥
मदीया करणीया स्याद्यद्याज्ञा दैत्यसत्तम ।
तदा देया मया दीक्षा नान्यथा कोटियत्नतः ॥ ५७ ॥
इत्येवं तु वचः श्रुत्वा राजा मायामयोऽभवत् ।
उवाच वचनं शीघ्रं यतिं तं हि कृताञ्जलिः ॥ ५८ ॥
दैत्यराजके इस निर्मल वचनको सुनकर उस सनातन ऋषिने प्रयत्नके साथ कहा-हे दैत्यसत्तम ! यदि तुम मेरी आज्ञाका सर्वथा पालन करोगे, तभी मैं दीक्षा दे सकता है, अन्यथा करोड़ों यल करनेपर भी दीक्षा नहीं दूंगा । इस प्रकार यह वचन सुनकर राजा मायाके अधीन हो गया और हाथ जोड़कर बड़ी शीघ्रतासे यतिसे यह वचन कहने लगा- ॥ ५६-५८ ॥

दैत्य उवाच
यथाज्ञां दास्यसि त्वं च तत्तथैव न चान्यथा ।
त्वदाज्ञां नोल्लङ्‌घयिष्ये सत्यं सत्यं न संशयः ॥ ५९ ॥
दैत्यराज बोला-आप जैसी आज्ञा देंगे, मैं वैसा ही करूँगा । उसके विपरीत नहीं करूँगा, मैं आपकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं करूँगा, यह सत्य है-सत्य है, इसमें संशय नहीं है ॥ ५९ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य त्रिपुराधीशितुस्तदा ।
दूरीकृत्य मुखाद्‌वस्त्रमुवाच ऋषिसत्तमः ॥ ६० ॥
दीक्षां गृह्णीष्व दैत्येन्द्र सर्वधर्मोत्तमोत्तमाम् ।
ददौ दीक्षाविधानेन प्राप्स्यसि त्वं कृतार्थताम् ॥ ६१ ॥
सनत्कुमार बोले-त्रिपुराधिपतिका यह वचन सुनकर उस ऋषिश्रेष्ठने अपने मुखसे वस्त्र हटाकर उससे कहा-हे दैत्येन्द्र ! आप सभी धर्मोंमें परम उत्तम इस दीक्षाको ग्रहण कीजिये, जिस दीक्षाके विधानसे तुम कृतार्थ हो जाओगे ॥ ६०-६१ ॥

इत्युक्त्वा स तु मायावी दैत्यराजाय सत्वरम् ।
ददौ दीक्षां स्वधर्मोक्तां तस्मै विधिविधानतः ॥ ६२ ॥
दैत्यराजे दीक्षिते च तस्मिन्ससहजे मुने ।
सर्वे च दीक्षिता जातास्तत्र त्रिपुरवासिनः ॥ ६३ ॥
[सनत्कुमार बोले- ऐसा कहकर उस मायावीने विधि-विधानके साथ अपने धर्ममें बतायी गयी दीक्षा उस दैत्यराजको शीघ्र ही प्रदान की । हे मुने ! अपने सहोदरोंके सहित उस दैत्यराजके दीक्षित हो जानेपर सभी त्रिपुरवासी भी उस धर्ममें दीक्षित हो गये ॥ ६२-६३ ॥

मुनेः शिष्यैः प्रशिष्यैश्च व्याप्तमासीद् द्रुतं तदा ।
महामायाविनस्तत्तु त्रिपुरं सकलं मुने ॥ ६४ ॥
हे मुने ! उस समय महामायावी उस ऋषिके शिष्यों तथा प्रशिष्योंसे वह सम्पूर्ण त्रिपुर शीघ्र ही व्याप्त हो गया ॥ ६४ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे
सनत्कुमारपाराशर्य संवादे त्रिपुरदीक्षाविधानं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें सनत्कुमारपाराशर्थसंवादमें त्रिपुरदीक्षाविधानवर्णन नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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