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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

पञ्चमोऽध्यायः

त्रिपुरमोहनम् -
मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति


व्यास उवाच
दैत्यराजे दीक्षिते च मायिना तेन मोहिते ।
किमुवाच तदा मायी किं चकार स दैत्यपः ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-उस मायावीके द्वारा मोहित दैत्यराजके दीक्षित हो जानेपर उस मायावीने क्या कहा और दैत्यराजने क्या किया ? ॥ १ ॥

सनत्कुमार उवाच
दीक्षां दत्त्वा यतिस्तस्मा अरिहन्नारदादिभिः ।
शिष्यैःसेवितपादाब्जो दैत्यराजानमब्रवीत् ॥ २ ॥
सनत्कुमार बोले-उसे दीक्षा देकर नारदादि शिष्योंके द्वारा सेवित चरणकमलोंवाले अरिहन् यतिने दैत्यराजसे कहा- ॥ २ ॥

अरिहन्नुवाच
शृणु दैत्यपते वाक्यं मम सञ्ज्ञानगर्भितम् ।
वेदान्तसारसर्वस्वं रहस्यं परमोत्तमम् ॥ ३ ॥
अनादिसिद्धःसंसारः कर्तृकर्मविवर्जितः ।
स्वयं प्रादुर्भवत्येव स्वयमेव विलीयते ॥ ४ ॥
ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं यावद्देहनिबन्धनम् ।
आत्मैवैकेश्वरस्तत्र न द्वितीयस्तदीशिता ॥ ५ ॥
यद्‌ ब्रह्मविष्णुरुद्राख्यास्तदाख्या देहिनामिमाः ।
आख्यायथास्मदादीनामरिहन्नादिरुच्यते ॥ ६ ॥
अरिहन् बोले-हे दैत्यराज ! मेरे वचनको सुनो, जो वेदान्तका सार-सर्वस्व, परमोत्तम तथा रहस्यमय है । यह संसार कर्ता तथा कर्मसे रहित और अनादिकालसे स्वयंसिद्ध है । यह स्वयं उत्पन्न होता है तथा स्वयं विनष्ट भी हो जाता है । ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त जितने भी शरीरधारी हैं, उनका एक आत्मा ही ईश्वर है, कोई दूसरा उनका शासक नहीं है । जिस प्रकार हम शरीरधारियोंके नाम हैं, उसी प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश आदि-ये नाम उन नामधारियोंके हैं, अनादि तो एक अरिहन् ही है ॥ ३-६ ॥

देहो यथास्मदादीनां स्वकालेन विलीयते ।
ब्रह्मादिमशकान्तानां स्वकालाल्लीयते तथा ॥ ७ ॥
जिस प्रकार हमलोगोंका शरीर समय आनेपर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार ब्रह्मासे लेकर मच्छरतकका शरीर अपने समयसे नष्ट हो जाया करता है ॥ ७ ॥

विचार्यमाणे देहेऽस्मिन्न किञ्चिदधिकं क्वचित् ।
आहारो मैथुनं निद्रा भयं सर्वत्र यत्समम् ॥ ८ ॥
विचार करनेपर ज्ञात होता है कि शरीरमें कहीं भी कोई विशेषता नहीं है; क्योंकि सभी जीवधारियोंमें आहार, मैथुन, निद्रा तथा भय समान हैं ॥ ८ ॥

निराहारपरीमाणं प्राप्य सर्वो हि देहभृत् ।
सदृशीमेव सन्तृप्तिं प्राप्नुयान्नाधिकेतराम् ॥ ९ ॥
यथा वितृषिताः स्याम पीत्वा पेयं मुदा वयम् ।
तृषितास्तु तथान्येऽपि न विशेषोऽल्पकोधिकः ॥ १ ० ॥
सन्तु नार्यः सहस्राणि रूपलावण्यभूमयः ।
परं निधुवने काले ह्यैकेवेहोपयुज्यते ॥ ११ ॥
सभी शरीरधारी निराहार रहनेके उपरान्त भोजन प्राप्त करनेपर समान रूपसे तृप्त होते हैं, कम या अधिक नहीं । जैसे जब हम प्यासे होते हैं, तब प्रसन्नतापूर्वक जल पीकर तृप्त होते हैं, उसी प्रकार अन्य प्राणी भी तृप्त होते हैं, किसीमें न्यूनाधिक्य नहीं होता । रूप लावण्यसे युक्त चाहे सहस्रों स्त्रियाँ क्यों न हों, किंतु सहवासकालमें एक ही स्त्रीका उपभोग सम्भव है ॥ ९-११ ॥

अश्वाः पराः शताःसन्तु सन्त्वेनेकेऽप्यनेकधा ।
अधिरोहे तथाप्येको न द्वितीयस्तथात्मनः ॥ १२ ॥
पर्यङ्‌कशायिनां स्वापे सुखं यदुपजायते ।
तदेव सौख्यं निद्राभिर्भूतभूशायिनामपि ॥ १३ ॥
यथैव मरणाद्‌भीतिरस्मदादिवपुष्मताम् ।
ब्रह्मादिकीटकान्तानां तथा मरणतो भयम् ॥ १४ ॥
अनेक प्रकारके घोड़े चाहे सौ हों, चाहे हजार हों, किंतु अपने अधिरोहणके समय एकका ही उपयोग सम्भव है, दूसरेका नहीं । निद्राकालमें पलंगपर सोनेवालेको जो सुख प्राप्त होता है, वही सुख निद्रासे व्याकुल हो पृथ्वीपर सोनेवालेको भी प्राप्त होता है । जैसे हम शरीरधारियोंको मरनेका भय है, उसी प्रकार ब्रह्मासे लेकर कीटपर्यन्त सभीको मृत्युसे भय होता है ॥ १२-१४ ॥

सर्वे तनुभृतस्तुल्या यदि बुद्ध्या विचार्य्यते ।
इदं निश्चित्य केनापि नो हिंस्यः कोऽपि कुत्रचित् ॥ १५ ॥
धर्मो जीवदयातुल्यो न क्वापि जगतीतले ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन कार्या जीवदया नृभिः ॥ १६ ॥
एकस्मिन् रक्षिते जीवे त्रैलोक्यं रक्षितं भवेत् ।
घातिते घातितं तद्वत्तस्माद्‌रक्षेन्न घातयेत् ॥ १७ ॥
अहिंसा परमो धर्मः पापमात्मप्रपीडनम् ।
अपराधीनता मुक्तिः स्वर्गोऽभिलषिताशनम् ॥ १८ ॥
पूर्वसूरिभिरित्युक्तं सत्प्रमाणतया ध्रुवम् ।
तस्मान्न हिंसा कर्त्तव्यो नरैर्नरकभीरुभिः ॥ १९ ॥
न हिंसासदृशं पापं त्रैलोक्ये सचराचरे ।
हिंसको नरकं गच्छेत्स्वर्गं गच्छेदहिंसकः ॥ २० ॥
यदि बुद्धिसे विचार किया जाय, तो सभी शरीरधारी समान हैं-ऐसा निश्चय करके किसीको भी कभी किसी जीवकी हिंसा नहीं करनी चाहिये । पृथ्वीतलपर जीवोंपर दया करनेके समान कोई दूसरा धर्म नहीं है, अतः ऐसा जानकर सभी प्रकारके प्रयत्नोंद्वारा मनुष्योंको जीवोंपर दया करनी चाहिये । एक जीवकी भी रक्षा करनेसे जैसे तीनों लोकोंकी रक्षा हो जाती है, उसी प्रकार एक जीवके मारनेसे त्रैलोक्यवधका पाप लगता है, इसलिये जीवोंकी रक्षा करनी चाहिये, हिंसा नहीं । अहिंसा सर्वश्रेष्ठ धर्म है तथा आत्माको पीड़ा पहुँचाना पाप है, दूसरोंके अधीन न रहना ही मुक्ति है और अभिलषित भोजनकी प्राप्ति ही स्वर्ग है । प्राचीन विद्वानोंने उत्तम प्रमाणके साथ ऐसा कहा है, इसलिये नरकसे डरनेवाले मनुष्योंको हिंसा नहीं करनी चाहिये । इस चराचर जगत्में हिंसाके समान कोई पाप नहीं है । हिंसक नरकमें जाता है तथा अहिंसक स्वर्गको जाता है ॥ १५-२० ॥

सन्ति दानान्यनेकानि किं तैस्तुच्छफलप्रदैः ।
अभीतिसदृशं दानं परमेकमपीह न ॥ २१ ॥
इह चत्वारि दानानि प्रोक्तानि परमर्षिभिः ।
विचार्य नानाशास्त्राणि शर्मणेऽत्र परत्र च ॥ २२ ॥
संसारमें अनेक प्रकारके दान हैं, परंतु तुच्छ फल देनेवाले उन दानोंसे क्या लाभ ? अभयदानके सदृश कोई दूसरा दान नहीं है । मनीषियोंने अनेक शास्त्रोंका विचारकर इस लोक तथा परलोक कल्याणके लिये चार दानोंका वर्णन किया है । २१-२२ ॥

भीतेभ्यश्चाभयं देयं व्याधितेभ्यस्तथोषधम् ।
देया विद्यार्थिनां विद्या देयमन्नं क्षुधातुरे ॥ २३ ॥
यानि यानीह दानानि बहु मुन्युदितानि च ।
जीवाभयप्रदानस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ २४ ॥
भयभीत लोगोंको अभय प्रदान करना चाहिये, रोगियोंको औषधि देनी चाहिये, विद्यार्थियोंको विद्या देनी चाहिये तथा भूखोंको अन्न प्रदान करना चाहिये । अनेक मुनियोंने जो-जो दान कहे हैं, वे अभयदानकी सोलहवीं कलाकी भी बराबरी नहीं कर सकते ॥ २३-२४ ॥

अविचिन्त्य प्रभावं हि मणिमन्त्रौषधं बलम् ।
तदभ्यस्यं प्रयत्नेन नामार्थोपार्जनाय वै ॥ २५ ॥
मणि, मन्त्र एवं औषधिके प्रभाव तथा बलको अविचिन्त्य समझकर केवल यश तथा अर्थक उपार्जनके लिये ही उसका प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करना चाहिये ॥ २५ ॥

अर्थानुपार्ज्य बहुशो द्वादशायतनानि वै ।
परितः परिपूज्यानि किमन्यैरिह पूजितैः ॥ २६ ॥
पञ्चकर्मेन्द्रियग्रामाः पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि च ।
मनो बुद्धिरिह प्रोक्तं द्वादशायतनं शुभम् ॥ २७ ॥
बहुत धन उपार्जितकर द्वादशायतनोंका ही चारों ओरसे पूजन करना चाहिये, दूसरोंके पूजनसे क्या लाभ ? पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, मन एवं बुद्धि-यही शुभ द्वादशायतन कहा गया है ॥ २६-२७ ॥

इहैव स्वर्गनरकौ प्राणिनां नान्यतः क्वचित् ।
सुखं स्वर्गः समाख्याता दुःखं नरकमेव हि ॥ २८ ॥
सुखेषु भुज्यमानेषु यत्स्याद्देहविसर्जनम् ।
अयमेव परो मोक्षो विज्ञेयस्तत्त्वचिन्तकैः ॥ २९ ॥
वासनासहिते क्लेशसमुच्छेदे सति ध्रुवम् ।
अज्ञानो परमो मोक्षो विज्ञेयस्तत्त्वचिन्तकैः ॥ ३० ॥
प्राणियोंके लिये यहींपर स्वर्ग तथा नरक है, अन्यत्र कहीं नहीं । सुखका ही नाम स्वर्ग है तथा दुःखको नरक कहा गया है । सुखोंका भोग कर लेनेपर जो इस देहका परित्याग होता है, तत्त्वचिन्तकोंको इसे ही परम मोक्ष जानना चाहिये । वासनासहित समस्त क्लेशोंके नष्ट हो जानेपर अज्ञानके नाशको तत्त्वचिन्तकोंको मोक्ष जानना चाहिये ॥ २८-३० ॥

प्रामाणिकी श्रुतिरियं प्रोच्यते वेदवादिभिः ।
न हिंस्यात्सर्वभूतानि नान्या हिंसाप्रवर्तिका ॥ ३१ ॥
अग्निष्टोमीयमिति या भ्रामिका साऽसतामिह ।
न सा प्रमाणं ज्ञातॄणां पश्वालम्भनकारिका ॥ ३२ ॥
वृक्षांश्छित्वा पशून् हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम् ।
दग्ध्वा वह्नौ तिलाज्यादि चित्रं स्वर्गोऽभिलष्यते ॥ ३३ ॥
वेदवेत्ता इस श्रुतिको प्रामाणिक कहते हैं कि किसी भी प्राणीकी हिंसा न करे । हिंसामें प्रवर्तन करनेवाली अन्य कोई श्रुति उपलब्ध नहीं है । अग्निष्टोमादि यज्ञोंसे सम्बद्ध जो पश्वालम्भन श्रुति है, वह तो भ्रम उत्पन्न करनेवाली है और असज्जनोंके लिये है । पशुवधसे सम्बन्धित अति तो ज्ञानियोंके लिये प्रमाण नहीं है । यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है कि वृक्षोंको काटकर, पशुओंका वधकर, उनके रुधिरका कीच बनाकर तथा आगमें तिल-घी आदिको जलाकर लोग स्वर्गकी अभिलाषा करते हैं ॥ ३१-३३ ॥

इत्येवं स्वमतं प्रोच्य यतिस्त्रिपुरनायकम् ।
श्रावयित्वाखिलान् पौरानुवाच पुनरादरात् ॥ ३४ ॥
दृष्टार्थप्रत्ययकरान्देहसौख्यैकसाधकान् ।
बौद्धागम विनिर्दिष्टान्धर्मान्वेदपरांस्ततः ॥ ३५ ॥
इस प्रकार उस त्रिपुराधिपतिसे अपना विचार कहकर समस्त त्रिपुरवासियोंको सुनाकर वह यति आदरसे वेदोंके विपरीत, देहमात्रको सुख देनेवाले और प्रत्यक्षपर ही विश्वास करनेवाले धर्मोका पुनः वर्णन करने लगा- ॥ ३४-३५ ॥

आनन्दं ब्रह्मणो रूपं श्रुत्यैवं यन्निगद्यते ।
तत्तथैव ह मन्तव्यं मिथ्या नानात्वकल्पना ॥ ३६ ॥
यावत्स्वस्थमिदं वर्ष्म यावन्नेन्द्रियविक्लवः ।
यावज्जरा च दूरेऽस्ति तावत्सौख्यं प्रसाधयेत् ॥ ३७ ॥
श्रुति जो ऐसा कहती है कि आनन्द ही ब्रह्मका रूप है, उसे सही मानना चाहिये, अनेक धर्मांकी कल्पना मिथ्या है । जबतक यह शरीर स्वस्थ है, जबतक इन्द्रियाँ निर्बल नहीं होती और जबतक वृद्धावस्था दूर है, तबतक सुखका उपभोग करते रहना चाहिये । ३६-३७ ॥

अस्वास्थ्येन्द्रियवैकल्ये वार्द्धके तु कुतः सुखम् ।
शरीरमपि दातव्यमर्थिभ्योऽतःसुखेप्सुभिः ॥ ३८ ॥
अस्वस्थ हो जानेपर, इन्द्रियोंके विकल हो जानेपर एवं वृद्धावस्था आ जानेपर सुखकी प्राप्ति किस प्रकारसे हो सकती है ? इसलिये सुख चाहने वालोंको अपना शरीर भी याचना करनेवालोंको प्रदान कर देना चाहिये ॥ ३८ ॥

याचमानमनोवृत्तिप्रीणने यस्य नो जनिः ।
तेन भूर्भारवत्येषा समुद्रागद्रुमैर्न हि ॥ ३९ ॥
जिसका जन्म माँगनेवालोंकी मनोवृत्तिको प्रसन्न करनेके लिये नहीं हुआ, उसीसे यह पृथ्वी भारयुक्त है, समुद्रों, पर्वतों तथा वृक्षोंसे नहीं ॥ ३९ ॥

सत्वरं गत्वरो देहः सञ्चयाः सपरिक्षयाः ।
इति विज्ञाय विज्ञाता देहसौख्यं प्रसाधयेत् ॥ ४० ॥
यह शरीर शीघ्र ही नष्ट होनेवाला है तथा संचित धन विनष्ट हो जानेवाले हैं-ऐसा जानकर ज्ञानवान्को देहसुखका उपाय करते रहना चाहिये ॥ ४० ॥

श्ववायसकृमीणां च प्रातर्भोज्यमिदं वपुः ।
भस्मान्तं तच्छरीरं च वेदे सत्यं प्रपठ्यते ॥ ४१ ॥
मुधा जातिविकल्पोऽयं लोकेषु परिकल्प्यते ।
मानुष्ये सति सामान्ये कोऽधर्मः कोऽथ चोत्तमः ॥ ४२ ॥
यह शरीर कुत्तों, कौवों तथा कीटोंका प्रात:कालीन भोजन है और शरीर अन्तमें भस्म होनेवाला है-ऐसा वेदमें ठीक ही कहा गया है । लोकोंमें जाति-कल्पना व्यर्थ ही की गयी है, सभी मनुष्य समान हैं तो कौन उच्च है और कौन नीच है ! ॥ ४१-४२ ॥

ब्रह्मादिसृष्टिरेषेति प्रोच्यते वृद्धपूरुषैः ।
तस्य जातौ सुतौ दक्षमरीची चेति विश्रुतौ ॥ ४३ ॥
प्राचीन पुरुष कहते हैं कि इस सृष्टिके आदिमें ब्रह्मा उत्पन्न हुए, उनके विख्यात दक्ष तथा मरीचि दो पुत्र उत्पन्न हुए ॥ ४३ ॥

मारीचेन कश्यपेन दक्षकन्याःसुलोचनाः ।
धर्मेण किल मार्गेण परिणीतास्त्रयोदश ॥ ४४ ॥
अपीदानीन्तनैर्मर्त्यैरल्पबुद्धिपराक्रमैः ।
अपि गम्यस्त्वगम्योऽयं विचारः क्रियते मुधा ॥ ४५ ॥
मुखबाहूरुसञ्जातं चातुर्वर्ण्यं सहोदितम् ।
कल्पनेयं कृता पूर्वैर्न घटेत विचारतः ॥ ४६ ॥
जब मरीचिपुत्र कश्यपने दक्षकी सुन्दर नेत्रवाली तेरह कन्याओंसे धर्मपूर्वक विवाह किया तो फिर इस समयके अल्पबुद्धि तथा अल्प पराक्रमवाले लोगोंके द्वारा यह गम्य है, यह अगम्य है-ऐसा विचार व्यर्थ ही किया जाता है । मुख, बाहु, जंधा एवं चरणसे चारों वर्ण उत्पन्न हुए हैं-पूर्व पुरुषोंने यह कल्पना की है, जो कि विचार करनेपर ठीक नहीं लगती है ॥ ४४-४६ ॥

एकस्यां च तनौ जाता एकस्माद्यदि वा क्वचित् ।
चत्वारस्तनयास्तत्किं भिन्नवर्णत्वमाप्नुयुः ॥ ४७ ॥
वर्णावर्णविभागोऽयं तस्मान्न प्रतिभासते ।
अतो भेदो न मन्तव्यो मानुष्ये केनचित्‌क्वचित् ॥ ४८ ॥
एक ही पुरुषसे एक ही शरीरसे यदि चार पुत्र उत्पन्न हुए तो वे भिन्न-भिन्न वर्गों के किस प्रकार हो सकते हैं । अत: वर्ण एवं अवर्णका यह विभाग उचित नहीं प्रतीत होता है और इसलिये किसीको भी मनुष्यमें कोई भेद नहीं मानना चाहिये । ४७-४८ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्थमाभाष्य दैत्येशं पौरांश्च स यतिर्मुने ।
सशिष्यो वेदधर्माश्च नाशयामास चादरात् ॥ ४९ ॥
स्त्रीधर्मं खण्डयामास पातिव्रत्यपरं महत् ।
जितेन्द्रियत्वं सर्वेषां पुरुषाणां तथैव सः ॥ ५० ॥
देवधर्मान्विशेषेण श्राद्धधर्मांस्तथैव च ।
मखधर्मान्व्रतादींश्च तीर्थश्राद्धं विशेषतः ॥ ५१ ॥
शिवपूजां विशेषेण लिङ्‌गाराधनपूर्विकाम् ।
विष्णुसूर्यगणेशादिपूजनं विधिपूर्वकम् ॥ ५२ ॥
स्नानदानादिकं सर्वं पर्वकाले विशेषतः ।
खण्डयामास स यतिर्मायी मायाविनां वरः ॥ ५३ ॥
किं बहूक्तेन विप्रेन्द्र त्रिपुरे तेन मायिना ।
वेदधर्माश्च ये केचित्ते सर्वे दूरतः कृताः ॥ ५४ ॥
सनत्कुमार बोले-हे मुने ! दैत्यपति तथा पुरवासियोंसे आदरपूर्वक ऐसा कहकर शिष्योंसहित उस यतिने वेदधर्मोंका नाश कर दिया । पातिव्रत्यरूपी महान् स्त्रीधर्मको तथा समस्त पुरुषोंके जितेन्द्रियत्वधर्मको खण्डित कर दिया । देवधर्म, श्राद्धधर्म, यज्ञधर्म, व्रत-तीर्थ विशेषरूपसे श्राद्ध, शिवपूजा, लिंगार्चन, विष्णु सूर्य-गणेश आदिका विधिपूर्वक पूजन और विशेष रूपसे पर्वकालमें किये जानेवाले स्नान दान आदि इन सबका खण्डन किया । हे विप्रेन्द्र ! बहुत कहनेसे क्या लाभ ! मायावियों में श्रेष्ठ उस मायावी यतिने त्रिपुरमें जो कुछ भी धर्म थे, उन सबको दूर कर दिया ॥ ४९-५४ ॥

पतिधर्माश्रयाः सर्वा मोहितास्त्रिपुराङ्‌गनाः ।
भर्तृशुश्रूषणवतीं विजहुर्मतिमुत्तमाम् ॥ ५५ ॥
अभ्यस्याकर्षणीं विद्यां वशीकृत्यमयीमपि ।
पुरुषाः सफलीचक्रुः परदारेषु मोहिताः ॥ ५६ ॥
त्रिपुरकी सभी स्त्रियाँ उस यतिके धर्मका आश्रय लेकर मोहमें पड़ गयीं और उन्होंने पतिकी सेवाके उत्तम विचारका त्याग कर दिया । आकर्षण एवं वशीकरण विद्याका अभ्यासकर मोहित हुए पुरुष दूसरोंकी स्त्रियोंमें अपने मनोरथ सफल करने लगे ॥ ५५-५६ ॥

अन्तःपुरचरा नार्यस्तथा राजकुमारकाः ।
पौराः पुराङ्‌गनाश्चापि सर्वे तैश्च विमोहिताः ॥ ५७ ॥
अन्तःपुरकी स्त्रियाँ, राजकुमार, पुरवासी, पुरकी स्त्रियाँ आदि सभी मोहित हो गये ॥ ५७ ॥

एवं पौरेषु सर्वेषु निजधर्मेषु सर्वथा ।
पराङ्मुखेषु जातेषु प्रोल्ललास वृषेतरः ॥ ५८ ॥
इस प्रकार सभी पुरवासियोंके अपने धर्मोंसे सर्वथा विमुख हो जानेपर अधर्मकी वृद्धि होने लगी ॥ ५८ ॥

माया च देवदेवस्य विष्णोस्तस्याज्ञया प्रभो ।
अलक्ष्मीश्च स्वयं तस्य नियोगात्‌त्रिपुरं गता ॥ ५९ ॥
हे प्रभो ! उन देवाधिदेव विष्णुजीकी मायासे और उनकी आज्ञासे स्वयं दरिद्रताने त्रिपुरमें प्रवेश किया ॥ ५९ ॥

या लक्ष्मीस्तपसा तेषां लब्धा देवेश्वराद्‌वरात् ।
बहिर्गता परित्यज्य नियोगाद्‌ब्रह्मणः प्रभोः ॥ ६० ॥
उन लोगोंने जिस महालक्ष्मीको तपस्याके द्वारा श्रेष्ठ देवेश्वरसे प्राप्त किया था, प्रभु ब्रह्मदेवकी आज्ञासे उन्हें छोड़कर वह बाहर चली गयी ॥ ६० ॥

बुद्धिमोहं तथाभूतं विष्णोर्मायाविनिर्मितम् ।
तेषां दत्त्वा क्षणादेव कृतार्थोऽभूत्स नारदः ॥ ६१ ॥
नारदोपि तथारूपो यथा मायी तथैव सः ।
तथापि विकृतो नाभूतपारमेशादनुग्रहात् ॥ ६२ ॥
आसीत्कुण्ठितसामर्थ्यो दैत्यराजोऽपि भो मुने ।
भ्रातृभ्यां सहितस्तत्र मयेन च शिवेच्छया ॥ ६३ ॥
इस प्रकार विष्णुको मायासे निर्मित उस प्रकारके बुद्धिमोहको उन्हें क्षणभरमें देकर वे नारदजी कृतार्थ हो गये । उन नारदने भी उस मायावी-जैसा रूप धारण कर लिया था, फिर भी परमेश्वरके अनुग्रहसे वे विकारयुक्त नहीं हुए । हे मुने ! दोनों भाइयों तथा मयसहित वह दैत्यराज भी शिवजीकी इच्छासे पराक्रमहीन हो गया ॥ ६१-६३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां
पञ्चमे युद्धखण्डे त्रिपुरमोहनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें त्रिपुरमोहनवर्णन नामक पाँचौं अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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