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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे
षष्ठोऽध्यायः शिवस्तुतिवर्णनम् -
त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति व्यास उवाच तस्मिन् दैत्याधिपे पौरे सभ्रातरि विमोहिते । सनत्कुमार किं वासीत्तदाचक्ष्वाखिलं विभो ॥ १ ॥ व्यासजी बोले-हे सनत्कुमार ! हे विभो ! भाइयों तथा पुरवासियोंसहित उस दैत्यराजके मोहित हो जानेपर क्या हुआ, वह सारा वृत्तान्त कहिये ॥ १ ॥ सनत्कुमार उवाच त्रिपुरे च तथाभूते दैत्ये त्यक्तशिवार्चने । स्त्रीधर्मे निखिले नष्टे दुराचारे व्यवस्थिते ॥ २ ॥ कृतार्थ इव लक्ष्मीशो देवैः सार्द्धमुमापतिम् । निवेदितुं तच्चरित्रं कैलासमगमद्धरिः ॥ ३ ॥ सनत्कुमार बोले-त्रिपुरके वैसा हो जानेपर, उस दैत्यके शिवार्चनका त्याग कर देनेपर और वहाँका सम्पूर्ण स्त्रीधर्म नष्ट हो जानेपर तथा दुराचारके फैल जानेपर लक्ष्मीपति विष्णु कृतार्थ होकर देवताओंके साथ उसके चरित्रको शिवजीसे कहनेके लिये कैलास पहुँचे ॥ २-३ ॥ तस्योपकण्ठं स्थित्वाऽसौ देवैःसह रमापतिः । ततो भूरि स च ब्रह्मा परमेण समाधिना ॥ ४ ॥ मनसा प्राप्य सर्वज्ञं ब्रह्मणा स हरिस्तदा । तुष्टाव वाग्भिरिष्टाभिः शंकरं पुरुषोत्तमः ॥ ५ ॥ देवताओंके साथ ब्रह्मासहित उनके पास स्थित होकर उन पुरुषोत्तम रमापति विष्णुने समाधिसे तथा मनसे प्राप्त होनेवाले उन सर्वज्ञ परमेश्वर सदाशिवकी इष्ट वाणीसे स्तुति की ॥ ४-५ ॥ विष्णुरुवाच महेश्वराय देवाय नमस्ते परमात्मने । नारायणाय रुद्राय ब्रह्मणे ब्रह्मरूपिणे ॥ ६ ॥ एवं कृत्वा महादेवं दण्डवत्प्रणिपत्य ह । जजाप रुद्रमन्त्रं च दक्षिणामूर्तिसम्भवम् ॥ ७ ॥ जले स्थित्वा सार्द्धकोटिप्रमितं तन्मनाः प्रभुः । संस्मरन् मनसा शम्भुं स्वप्रभुं परमेश्वरम् ॥ ८ ॥ तावद्देवास्तदा सर्वे तन्मनस्का महेश्वरम् ॥ ९ ॥ विष्णुजी बोले-आप महेश्वर, देव, परमात्मा, नारायण, रुद्र, ब्रह्मा तथा परब्रह्मस्वरूपको नमस्कार है । ऐसा कहकर महादेवको दण्डवत् प्रणाम करके शिवमें अपना मन लगाये हुए प्रभु विष्णुने अपने स्वामी उन परमेश्वर शिवका मनसे स्मरण करते हुए जलमें स्थित हो दक्षिणामूर्तिसे उत्पन्न हुए रुद्रमन्त्रका डेढ़ करोड़ जप किया । उस समय सभी देवता भी उन महेश्वरमें अपना मन लगाकर उनकी स्तुति करने लगे- ॥ ६-९ ॥ देवा ऊचुः नमःसर्वात्मने तुभ्यं शंकरायार्तिहारिणे । रुद्राय नीलकण्ठाय चिद्रूपाय प्रचेतसे ॥ १० ॥ देवता बोले-सबमें आत्मरूपसे विराजमान, सबके दुःखोंको दूर करनेवाले, रुद्र, नीलकण्ठ, चैतन्यरूप एवं प्रचेता आप शंकरको नमस्कार है ॥ १० ॥ गतिर्नः सर्वदा त्वं हि सर्वापद्विनिवारकः । त्वमेव सर्वदात्माभिर्वन्द्यो देवारिसूदन ॥ ११ ॥ त्वमादिस्त्वमनादिश्च स्वानन्दश्चाक्षयः प्रभुः । प्रकृतेः पुरुषस्यापि साक्षात्स्रष्टा जगत्प्रभुः ॥ १२ ॥ आप हम सबकी आपत्तियोंको दूर करनेवाले हैं तथा हम सबकी गति हैं । हे दैत्यसूदन ! आप सर्वदा हमलोगोंसे वन्दनीय हैं । आप आदि, अनादि, स्वात्मानन्द, अक्षयरूप तथा प्रभु हैं । आप ही जगत्प्रभु तथा साक्षात् प्रकृति एवं पुरुषके भी स्रष्टा हैं ॥ ११-१२ ॥ त्वमेव जगतां कर्ता भर्ता हर्ता त्वमेव हि । ब्रह्मा विष्णुर्हरो भूत्वा रजःसत्त्वतमोगुणैः ॥ १३ ॥ तारकोऽसि जगत्यस्मिन् सर्वेषामधिपोऽव्ययः । वरदो वाङ्मयो वाच्यो वाच्यवाचकवर्जितः ॥ १४ ॥ आप ही रज, सत्त्व तथा तमोगुणसे युक्त होकर ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्रस्वरूप होकर जगत्का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं । आप इस जगत्में सबको तारनेवाले, सबके स्वामी, अविनाशी, वर देनेवाले, वाणीमय, वाच्य और वाच्य-वाचकभावसे रहित भी हैं ॥ १३-१४ ॥ याच्यो मुक्त्यर्थमीशानो योगिभिर्योगवित्तमैः । हृत्पुण्डरीकविवरे योगिनां त्वं हि संस्थितः ॥ १५ ॥ योगवेत्ताओंमें श्रेष्ठ योगिजन मुक्तिके लिये आप ईशानसे ही याचना करते हैं । आप ही योगियोंके हृदयरूप कमलमें विराजमान हैं ॥ १५ ॥ वदन्ति वेदास्त्वां सन्तः परब्रह्मस्वरूपिणम् । भवन्तं तत्त्वमित्यद्य तेजोराशिं परात्परम् ॥ १६ ॥ सभी वेद एवं सन्तगण आपको ही तेजोराशि, परात्परस्वरूप और तत्त्वमसि इत्यादि वाक्यसे जाननेयोग्य परब्रह्मस्वरूप कहते हैं ॥ १६ ॥ परमात्मानमित्याहुररस्मिन् जगति यद्विभो । त्वमेव शर्व सर्वात्मन् त्रिलोकाधिपते भव ॥ १७ ॥ हे विभो ! हे शर्व ! हे सर्वात्मन् ! हे त्रिलोकाधिपते ! हे भव ! इस संसारमें जिसे परमात्मा कहा जाता है, वह आप ही हैं ॥ १७ ॥ दृष्टं श्रुतं स्तुतं सर्वं ज्ञायमानं जगद्गुरो । अणोरल्पतरं प्राहुर्महतोपि महत्तरम् ॥ १८ ॥ हे जगद्गुरो ! आपको ही दृष्ट, श्रुत, जाननेयोग्य, छोटेसे भी छोटा एवं महान्से भी महान् कहा गया है ॥ १८ ॥ सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । सर्वतः श्रवणघ्राणं त्वां नमामि च सर्वतः ॥ १९ ॥ आपके हाथ, चरण, नेत्र, सिर, मुख, कान तथा नासिका सभी दिशाओंमें व्याप्त हैं, अतः मैं आपको सभी ओरसे नमस्कार करता हूँ ॥ १९ ॥ सर्वज्ञं सर्वतो व्यापिन् सर्वेश्वरमनावृतम् । विश्वरूपं विरूपाक्षं त्वां नमामि च सर्वतः ॥ २० ॥ हे सर्वव्यापिन् ! आप सर्वज्ञ, सर्वेश्वर, अनावृत, विश्वरूप, विरूपाक्षको मैं सब ओरसे नमस्कार करता हूँ ॥ २० ॥ सर्वेश्वरं भवाध्यक्षं सत्यं शिवमनुत्तमम् । कोटि भास्करसङ्काशं त्वां नमामि च सर्वतः ॥ २१ ॥ सर्वेश्वर, संसारके अधिष्ठाता, सत्य, कल्याणकारी, सर्वोत्तम, करोड़ों सूर्यके समान प्रकाशमान आपको मैं सब ओरसे नमस्कार करता हूँ ॥ २१ ॥ विश्वदेवमनाद्यन्तं षट्त्रिंशत्कमनीश्वरम् । प्रवर्तकं च सर्वेषां त्वां नमामि च सर्वतः ॥ २२ ॥ विश्वदेव, आदि-अन्तसे रहित, छत्तीस तत्त्वोंवाले, सबसे महान् और सबको प्रवृत्त करनेवाले-आपको मैं सब ओरसे नमस्कार करता हूँ ॥ २२ ॥ प्रवर्तकं च प्रकृतेः सर्वस्य प्रपितामहम् । सर्वविग्रहमीशं हि त्वां नमामि च सर्वतः ॥ २३ ॥ प्रकृतिको प्रवृत्त करनेवाले, सबके प्रपितामह, सर्वविग्रह तथा ईश्वर आपको मैं सब ओरसे नमस्कार करता हूँ ॥ २३ ॥ एवं वदन्ति वरदं सर्वावासं स्वयम्भुवम् । श्रुतयः श्रुतिसारज्ञं श्रुतिसारविदश्च ये ॥ २४ ॥ जो श्रुतियाँ तथा श्रुतिसिद्धान्तवेत्ता हैं, वे आपको ही वरद, सबका निवासस्थान, स्वयम्भू तथा श्रुतिसारज्ञाता कहते हैं ॥ २४ ॥ अदृश्यमस्माभिरनेकभूतं त्वया कृतं यद्भवताथ लोके । त्वामेव देवासुरभूसुराश्च अन्ये च वै स्थावरजङ्गमाश्च ॥ २५ ॥ आपने इस लोकमें जो अनेक प्रकारकी सृष्टि की है, वह हमलोगोंके दृष्टिपथमें नहीं आ सकती । देवता, असुर, ब्राह्मण, स्थावर, जंगम तथा अन्य जो भी हैं, उनका कर्ता आपको ही कहते हैं ॥ २५ ॥ पाह्यनन्यगतीन् शम्भो सुरान्नो देववल्लभ । नष्टप्रायांस्त्रिपुरतो विनिहत्यासुरान्क्षणात् ॥ २६ ॥ हे शम्भो ! हे देववल्लभ ! क्षणभरमें असुरोंका वध करके त्रिपुराधिपके द्वारा विनष्ट किये जा रहे हम अनन्यगतिवाले देवताओंकी रक्षा कीजिये ॥ २६ ॥ मायया मोहितास्तेऽद्य भवतः परमेश्वर । विष्णुना प्रोक्तयुक्त्या त उज्झिता धर्मतः प्रभो ॥ २७ ॥ हे परमेश्वर ! हे प्रभो ! इस समय वे असुर विष्णुजीके द्वारा बताये गये उपायसे आपकी मायाद्वारा मोहित हो रहे हैं और धर्मसे बहिर्मुख हो रहे हैं ॥ २७ ॥ सन्त्यक्तसर्वधर्माश्च बोद्धागमसमाश्रिताः । अस्मद्भाग्यवशाज्जाता दैत्यास्ते भक्तवत्सल ॥ २८ ॥ हे भक्तवत्सल ! उन दैत्योंने हमलोगोंके भाग्यसे समस्त धर्मोंका त्याग कर दिया है और वेदविरुद्ध धर्मोंका आश्रय ले लिया है ॥ २८ ॥ सदा त्वं कार्यकर्त्ता हि देवानां शरणप्रद । वयं ते शरणापन्ना यथेच्छसि तथा कुरु ॥ २९ ॥ हे शरणप्रद ! आप तो सदासे ही देवताओंका कार्य करनेवाले हैं और इस समय हम आपकी शरणमें आये हुए हैं, आप जैसा चाहें, वैसा करें ॥ २९ ॥ सनत्कुमार उवाच इति स्तुत्वा महेशानं देवास्तु पुरतः स्थिताः । कृताञ्जलिपुटा दीना आसन् संनतमूर्तयः ॥ ३० ॥ सनत्कुमार बोले-इस प्रकार महेश्वरकी स्तुतिकर वे देवता दीन हो हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर उनके आगे खड़े हो गये ॥ ३० ॥ स्तुतश्चैवं सुरेन्द्राद्यैर्विष्णोर्जाप्येन चेश्वरः । अगच्छत्तत्र सर्वेशो वृषमारुह्य हर्षितः ॥ ३१ ॥ इस प्रकार इन्द्रादि देवताओंके द्वारा स्तुति किये जानेपर तथा विष्णुके जपसे प्रसन्न हुए भगवान् सर्वेश्वर बैलपर सवार हो वहाँ गये ॥ ३१ ॥ विष्णुमालिङ्ग्य नन्दिशादवरुह्य प्रसन्नधीः । ददर्श सुदृशा तत्र नन्दीदत्तकरोऽखिलान् ॥ ३२ ॥ वहाँपर नन्दीश्वरसे उतरकर विष्णुका आलिंगन करके प्रसन्नचित्तवाले प्रभु नन्दीश्वरपर हाथ रखकर सभीकी ओर मनोहर दृष्टिसे देखने लगे ॥ ३२ ॥ अथ देवान् समालोक्य कृपादृष्ट्या हरिं हरः । प्राह गम्भीरया वाचा प्रसन्नः पार्वतीपतिः ॥ ३३ ॥ तत्पश्चात् पार्वतीपति शंकर प्रसन्न होकर कृपादृष्टिसे देवताओं एवं विष्णुजीकी ओर देखकर गम्भीर वाणीमें कहने लगे- ॥ ३३ ॥ शिव उवाच ज्ञातं मयेदमधुना देवकार्यं सुरेश्वर । विष्णोर्मायाबलं चैव नारदस्य च धीमतः ॥ ३४ ॥ शिवजी बोले-हे सुरेश्वर ! इस समय मैंने देवताओंका कार्य भलीभाँति जान लिया है तथा महाबुद्धिमान् विष्णु एवं नारदके मायाबलको भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ ॥ ३४ ॥ तेषामधर्मनिष्ठानां दैत्यानां देवसत्तम । पुरत्रयविनाशं च करिष्येऽहं न संशयः ॥ ३५ ॥ हे देवसत्तम ! मैं उन अधर्मी दैत्यों तथा त्रिपुरका विनाश करूँगा, इसमें संशय नहीं है ॥ ३५ ॥ परन्तु ते महादैत्या मद्भक्ता दृढमानसाः । अथ वध्या मयैव स्युर्व्याजत्यक्तवृषोत्तमाः ॥ ३६ ॥ किंतु दृढ़ मनवाले वे महादैत्य मेरे भक्त हैं, यद्यपि मायासे मोहित होकर उन्होंने धर्मका त्याग कर दिया है, इसलिये मैं किस प्रकार उनका वध कर सकता हूँ ॥ ३६ ॥ विष्णुर्हन्यात्परो वाथ यत्त्याजितवृषाः कृताः । दैत्या मद्भक्तिरहिताः सर्वे त्रिपुरवासिनः ॥ ३७ ॥ जब त्रिपुरमें रहनेवाले सभी दैत्य मेरी भक्तिसे रहित हो गये हैं, तो उनका वध भगवान् विष्णु करेंगे, जिन्होंने बहानेसे दैत्योंको धर्मच्युत किया है ॥ ३७ ॥ इति शम्भोस्तु वचनं श्रुत्वा सर्वे दिवौकसः । विमनस्का बभूवुस्ते हरिश्चापि मुनीश्वर ॥ ३८ ॥ हे मुने ! इस प्रकार शिवजीके वचनको सुनकर सभी देवता तथा विष्णु अनमने हो गये ॥ ३८ ॥ देवान् विष्णुमुदासीनान् दृष्ट्वा च भवकृद्विधिः । कृताञ्जलिपुरः शम्भुं ब्रह्मा वचनमब्रवीत् ॥ ३९ ॥ अनन्तर देवताओं एवं विष्णुको उदास देखकर सृष्टिकर्ता ब्रह्माने हाथ जोड़कर शिवजीसे कहा- ॥ ३९ ॥ ब्रह्मोवाच न किञ्चिद्विद्यते पापं यस्मात्त्वं योगवित्तमः । परमेशः परब्रह्म सदा देवर्षिरक्षकः ॥ ४० ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे प्रभो !] आपको कोई पाप नहीं लगेगा; क्योंकि आप परम योगवेत्ता हैं, आप परमेश्वर, परब्रह्म तथा सर्वदा देवताओं एवं ऋषियोंके रक्षक हैं ॥ ४० ॥ तवैव शासनात्ते वै मोहिताः प्रेरको भवान् । त्यक्तस्वधर्मत्वत्पूजाः परवध्यास्तथापि न ॥ ४१ ॥ आप ही प्रेरणा देनेवाले हैं । आपके ही शासनसे मोहित होकर उन्होंने अपने धर्म तथा आपकी पूजाका त्याग कर दिया है, फिर भी वे दूसरोंके द्वारा अवध्य हैं ॥ ४१ ॥ अतस्त्वया महादेव सुरर्षिप्राणरक्षक । साधूनां रक्षणार्थाय हन्तव्या म्लेच्छजातयः ॥ ४२ ॥ अतः हे महादेव ! हे देवर्षिप्राणरक्षक ! आप सज्जनोंकी रक्षाके लिये इन म्लेच्छजातियोंका वध कीजिये ॥ ४२ ॥ राज्ञस्तस्य न तत्पापं विद्यते धर्मतस्तव । तस्माद्रक्षेद्द्विजान् साधून् कंटकाद्वै विशोधयेत् ॥ ४३ ॥ राजाका कर्तव्य होता है कि धर्मकी रक्षा करे तथा पापियोंका वध करे । आप राजा हैं, इसलिये ब्राह्मण तथा साधुओंकी रक्षाके निमित्त स्वयं आपको इस कण्टकका शोधन करना चाहिये । ऐसा करनेसे आपको पाप नहीं लगेगा ॥ ४३ ॥ एवमिच्छेदिहान्यत्र राजा चेद्राज्यमात्मनः । प्रभुत्वं सर्वलोकानां तस्माद्रक्षस्व मा चिरम् ॥ ४४ ॥ यदि राजा इस प्रकार अपने राज्यकी रक्षा करे, तो उसे इस लोकमें सर्वलोकाधिपत्य तथा परम कल्याण प्राप्त होता है । इस कारण आप स्वयं त्रिपुरका वधकर इन देवताओंकी रक्षा कीजिये, [प्रभो !]विलम्ब न करें ॥ ४४ ॥ मुनीन्द्रेशास्तथा यज्ञा वेदाः शास्त्रादयोखिलाः । प्रजास्ते देवदेवेश ह्ययं विष्णुरपि ध्रुवम् ॥ ४५ ॥ देवता सार्वभौमस्त्वं सम्राट्सर्वेश्वरः प्रभो । परिवारस्तवैवैष हर्यादि सकलं जगत् ॥ ४६ ॥ हे देवदेवेश ! मुनि, इन्द्र, ईश्वर, यज्ञ, वेद, समस्त शास्त्र तथा मैं और विष्णु-ये सभी आपकी प्रजाएँ हैं । हे प्रभो ! आप देवगणोंके सार्वभौम सम्राट, सर्वेश्वर हैं और विष्णुसे लेकर सारा संसार आपका परिवार है ॥ ४५-४६ ॥ युवराजो हरिस्तेऽज ब्रह्माहं ते पुरोहितः । राजकार्यकरः शक्रस्त्वदाज्ञापरिपालकः ॥ ४७ ॥ हे अज ! विष्णु आपके युवराज हैं, मैं आपका पुरोहित हूँ एवं ये इन्द्र आपके राज्यकी देखभाल करनेवाले तथा आपकी आज्ञाके परिपालक हैं ॥ ४७ ॥ देवा अन्येपि सर्वेश तव शासनयन्त्रिताः । स्वस्वकार्यकरा नित्यं सत्यं सत्यं न संशयः ॥ ४८ ॥ हे सर्वेश ! इसी प्रकार अन्य देवता भी आपके शासनमें रहकर सदा अपने-अपने कार्य करते हैं, यह सत्य है, सत्य है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४८ ॥ सनत्कुमार उवाच एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य ब्रह्मणः परमेश्वरः । प्रत्युवाच प्रसन्नात्मा शंकरःसुरपो विधिम् ॥ ४९ ॥ सनत्कुमार बोले-इस प्रकार उन ब्रह्माका वचन सुनकर देवरक्षक भगवान् शंकर प्रसन्नचित्त होकर ब्रह्मासे कहने लगे- ॥ ४९ ॥ शिव उवाच हे ब्रह्मन् यद्यहं देवराजःसम्राट् प्रकीर्त्तितः । तत्प्रकारो न मे कश्चिद् गृह्णीयां यमिह प्रभुः ॥ ५० ॥ शिवजी बोले-हे ब्रह्मन् ! यदि मैं वस्तुतः देवराज तथा सबका सम्राट कहा गया है. फिर भी मेरे पास ऐसा कोई साधन नहीं है, जिससे मैं इस पदको ग्रहण कर सकूँ ॥ ५० ॥ रथो नास्ति महादिव्यस्तादृक् सारथिना सह । धनुर्बाणादिकं चापि सङ्ग्रामे जयकारकम् ॥ ५१ ॥ यमास्थाय धनुर्बाणान् गृहीत्वा योज्य वै मनः । निहनिष्याम्यहं दैत्यान् प्रबलानपि सङ्गरे ॥ ५२ ॥ मेरे पास योग्य सारथीसहित महादिव्य रथ नहीं है और संग्राममें विजय दिलानेवाला धनुष-बाण आदि भी नहीं है, जिस रथपर बैठकर, धनुष-बाण लेकर तथा अपना मन लगाकर उन प्रबल दैत्योंका संग्राममें वध कर सकूँ । ५१-५२ ॥ सनत्कुमार उवाच अद्य सब्रह्मका देवाःसेन्द्रोपेन्द्राः प्रहर्षिताः । श्रुत्वा प्रभोस्तदा वाक्यं नत्वा प्रोचुर्महेश्वरम् ॥ ५३ ॥ सनत्कुमार बोले-तब ब्रह्मा, इन्द्र एवं विष्णुके सहित सभी देवता प्रभुके वचनको सुनकर परम प्रसन्न हो उठे और महेश्वरको प्रणामकर उनसे कहने लगे- ॥ ५३ ॥ देवा ऊचुः वयं भवाम देवेश तत्प्रकारा महेश्वर । रथादिकाः तव स्वामिन्संनद्धाः सङ्गराय हि ॥ ५४ ॥ देवता बोले-हे देवेश ! हे महेश्वर ! हे स्वामिन् ! हमलोग आपके रथादि उपकरण बनकर युद्धके लिये तैयार हैं ॥ ५४ ॥ इत्युक्त्वा संहताः सर्वे शिवेच्छामधिगम्य ह । पृथगूचुः प्रसन्नास्ते कृताञ्जलिपुटाःसुराः ॥ ५५ ॥ इस प्रकार कहकर प्रसन्न हुए वे सभी देवता एकत्रित हो शिवजीकी इच्छा जानकर हाथ जोड़कर अलग-अलग कहने लगे ॥ ५५ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे शिवस्तुतिवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें शिवस्तुतिवर्णन नामक छठा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |