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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

सप्तमोऽध्यायः

देवस्तुतिवर्णनम् -
भगवान शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर-विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना


सनत्कुमार उवाच
एतच्छुत्वा तु सर्वेषां देवादीनां वचो हरः ।
अङ्‌गीचकार सुप्रीत्या शरण्यो भक्तवत्सलः ॥ १ ॥
एतस्मिन्नन्तरे देवी पुत्राभ्यां संयुता शिवा ।
आजगाम मुने तत्र यत्र देवान्वितो हरः ॥ २ ॥
सनत्कुमार बोले-समस्त देवता आदिके इस वचनको सुनकर शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले भक्तवत्सल सदाशिवने उनकी बात स्वीकार कर ली । हे मुने ! इसी बीच देवी पार्वती अपने दोनों पुत्रों को लेकर वहाँ आ गयीं, जहाँ सदाशिव देवताओंके साथ स्थित थे ॥ १-२ ॥

अथागतां शिवां दृष्ट्‍वा सर्वे विष्ण्वादयो द्रुतम् ।
प्रणेमुरतिनम्रास्ते विस्मिता गतसम्भ्रमाः ॥ ३ ॥
तब देवीको वहाँ उपस्थित देखकर विष्णु आदि सभी देवता आश्चर्ययुक्त हो गये और सम्भमयुक्त होकर नम्रतासे उन्हें शीघ्रतापूर्वक प्रणाम करने लगे ॥ ३ ॥

प्रोचुर्जयेति सद्वाक्यं मुने सर्वे सुलक्षणम् ।
तूष्णीमासन्नजानन्तस्तदागमनकारणम् ॥ ४ ॥
अथ सर्वैः स्तुता देवैर्देव्यद्‌भुतकुतूहला ।
उवाच स्वामिनं प्रीत्या नानालीलाविशारदम् ॥ ५ ॥
हे मुने ! उन सभीने शुभ लक्षण प्रकट करनेवाला जय-जयकार किया और उनके आनेका कारण न जानते हुए वे लोग मौन हो गये । इसके बाद सभी देवताओंसे स्तुत एवं अद्‌भुत कुतूहल करनेवाली वे देवी नानालीला-विशारद अपने स्वामीसे प्रेमपूर्वक कहने लगीं- ॥ ४-५ ॥

देव्युवाच
क्रीडमानं विभो पश्य षण्मुखं रविसंनिभम् ।
पुत्रं पुत्रवतां श्रेष्ठ भूषितं भूषणैर्वरैः ॥ ६ ॥
देवी बोलीं-हे विभो ! हे पुत्रवानोंमें श्रेष्ठ ! उत्तम आभूषणोंसे भूषित तथा सूर्यके समान देदीप्यमान खेलते हुए अपने षण्मुख पुत्रको देखिये ॥ ६ ॥

इत्येवं लोकमात्रा च वाग्भिःसम्बोधितः शिवः ।
न ययौ तृप्तिमीशानः पिबन् स्कन्दाननामृतम् ॥ ७ ॥
सनत्कुमार बोले-जब लोकमाताने अपनी वाणीसे इस प्रकार शिवजीको सम्बोधित करते हुए कहा, तब स्कन्दके मुखामृतका पान करते हुए शिवजीको तृप्ति नहीं हुई ॥ ७ ॥

न सस्मारागतान् दैत्यान् निजतेजोनिपीडितान् ।
स्कन्दमालिङ्‌ग्य चाघ्राय मुमोदाति महेश्वरः ॥ ८ ॥
उस समय महेश्वरको दैत्योंके तेजसे पीड़ित होकर आये हुए देवताओंका स्मरण नहीं रहा और वे स्कन्दका आलिंगन करके तथा उनका सिर सूंघकर बड़े प्रसन्न हुए ॥ ८ ॥

जगदम्बाथ तत्रैव संमन्त्र्य प्रभुणा च सा ।
स्थित्वा किञ्चित्समुत्तस्थौ नानालीलाविशारदा ॥ ९ ॥
ततः स नन्दी सह षण्मुखेन
    तया च सार्द्धं गिरिराजपुत्र्या ।
विवेश शम्भुर्भवनं सुलीलः
    सुरैः समस्तैरभिवन्द्यमानः ॥ १० ॥
अनेक लीलाओंमें विशारद श्रीजगदम्बा भी महेश्वरसे मन्त्रणाकर कुछ कालतक वहीं स्थित रहकर पुनः उठ खड़ी हुई । इसके बाद सभी देवताओंसे वन्दित होते हुए उत्तम लीलावाले भगवान् सदाशिवने कार्तिकेय, नन्दी तथा उन गिरिराजपुत्रीके साथ अपने भवन में प्रवेश किया ॥ ९-१० ॥

द्वारस्य पार्श्वतः तस्थुर्देवदेवस्य धीमतः ।
तेऽथ देवा महाव्यग्रा विमनस्का मुनेऽखिलाः ॥ ११ ॥
किं कर्तव्यं क्व गन्तव्यं कः स्यादस्मत्सुखप्रदः ।
किं तु किन्त्विति सञ्जातं हा हताः स्मेति वादिनम् ॥ १२ ॥
अन्योन्यं प्रेक्ष्य शक्राद्या बभूवुश्चातिविह्वलाः ।
प्रोचुर्विकलवाक्यं ते धिक्कुर्वन्तो निजं विधिम् ॥ १३ ॥
पापा वयमिहेत्यन्ये ह्यभाग्याश्चेति चापरे ।
ते भाग्यवन्तो दैत्येन्द्रा इति चान्येऽब्रुवन् सुराः ॥ १४ ॥
हे मुने ! [शंकरको घरमें गया देख] सम्पूर्ण देवता महाव्याकुल एवं क्षुब्धमन होकर बुद्धिमान् देवाधिदेवके द्वारके समीप खड़े रहे । अब हम क्या करें, कहाँ जायें, कौन हमलोगोंको सुख देनेवाला है और यह क्या हो गया ? हाय हमलोग मारे गयेऐसा वे सब कहने लगे । एक-दूसरेको देखकर इन्द्र आदि अत्यन्त व्याकुल हो गये और अपने भाग्यको धिक्कारते हुए विकल वचन कहने लगे । कुछ देवताओंने कहा-हाय ! हमलोग बड़े पापी हैं । दूसरोंने कहा-हाय, हम अभागे हैं, अन्योंने कहावे असुर तो बड़े भाग्यवान् हैं ॥ ११-१४ ॥

तस्मिन्नेवान्तरे तेषां श्रुत्वा शब्दाननेकशः ।
कुम्भोदरो महातेजा दण्डेनाताडयत्सुरान् ॥ १५ ॥
दुद्रुवुस्ते भयाविष्टा देवा हाहेति वादिनः ।
अपतन्मुनयश्चान्ये विह्वलत्वं बभूव ह ॥ १६ ॥
इन्द्रस्तु विकलोऽतीव जानुभ्यामवनीं गतः ।
अन्ये देवर्षयोऽतीव विकलाः पतिता भुवि ॥ १७ ॥
उसी समय उनके अनेक प्रकारके शब्दोंको सुनकर महातेजस्वी कुम्भोदर [नामका गण] देवताओंको दण्डसे मारने लगा । तब वे देवता भयभीत होकर हाय-हाय करते हुए वहाँसे भाग गये । कितने ही मुनि तथा अन्य लोग गिर पड़े, उस समय चारों ओर हाहाकार होने लगा । इन्द्र अत्यन्त व्याकुल होकर घुटनोंके बल पृथ्वीपर गिर पड़े, इसी प्रकार अन्य देवता तथा ऋषि भी व्याकुल होकर पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ १५-१७ ॥

सर्वे मिलित्वा मुनयः सुराश्च सममाकुलाः ।
सङ्‌गता विधिहर्योस्तु समीपं मित्रचेतसोः ॥ १८ ॥
तब सभी देवता एवं मुनि परस्पर मिलकर व्याकुल हो शिवके मित्रभूत ब्रह्मा एवं विष्णुके समीप गये ॥ १८ ॥

अहो विधिबलं चैतन्मुनयः कश्यपादयः ।
वदन्ति स्म तदा सर्वे हरि लोकभयापदम् ॥ १९ ॥
अभाग्यान्न समाप्तं तु कार्यमित्यपरे द्विजाः ।
कस्माद्विघ्नमिदं जातमित्यन्ये ह्यति विस्मिताः ॥ २० ॥
इत्येवं वचनं श्रुत्वा कश्यपाद्युदितं मुने ।
आश्वासयन्मुनीन्देवान् हरिर्वाक्यमुपाददे ॥ २१ ॥
उस समय कश्यपादि सभी मुनि संसारका भय दूर करनेवाले विष्णुजीसे कहने लगे-अहो ! यह प्रारब्धका बल है । दूसरे द्विज कहने लगे कि अभाग्यसे हमारा काम पूरा नहीं हुआ और दूसरे लोग अति विस्मित होकर विचार करने लगे कि यह विघ्न कैसे उपस्थित हो गया ! हे मुने ! तब कश्यपादिके द्वारा कहे गये इस वचनको सुनकर विष्णुजी मुनियों तथा देवताओंको सान्त्वना देते हुए यह वचन कहने लगे- ॥ १९-२१ ॥

विष्णुरुवाच
हे देवा मुनयःसर्वे मद्वचः शृणुतादरात् ।
किमर्थं दुःखमापन्ना दुखं तु त्यजताखिलम् ॥ २२ ॥
महदाराधनं देवा न सुसाध्यं विचार्यताम् ।
महदाराधने पूर्वं भवेद्दुःखमिति श्रुतम् ॥
विज्ञाय दृढतां देवाः प्रसन्नो भवति ध्रुवम् । २३ ॥
विष्णु बोले-हे देवताओ ! हे मुनियो ! आप सभीलोग हमारा वचन आदरसे सुनिये, आपलोग इस प्रकार क्यों दुखी हो रहे हैं, आपलोग अपने समस्त दुःखोंका त्याग कर दीजिये । हे देवताओ ! महान् लोगोंका आराधन सरल नहीं है, आपलोग स्वयं विचार कीजिये, बड़े लोगोंकी आराधनामें पहले दुःख ही होता है-ऐसा हमने सुना है । हे देवताओ ! शिवजी दृढ़ताको जानकर निश्चय ही प्रसन्न हो जाते हैं ॥ २२-२३ ॥

शिवःसर्वगणायक्षः सहसा परमेश्वरः ।
विचार्यतां हृदा सर्वैः कथं वश्यो भवेदिति ॥ २४ ॥
प्रणवं पूर्वमुच्चार्य्य नमः पश्चादुदाहरेत् ।
शिवायेति ततः पश्चाच्छुभद्वयमतः परम् ॥ २५ ॥
कुरुद्वयं ततः प्रोक्तं शिवाय च ततः पुनः ।
नमश्च प्रणवश्चैव मन्त्रमेवं सदा बुधाः ॥ २६ ॥
अवर्तध्वं पुनर्यूयं यदि शम्भुकृते तदा ।
कोटिमेकं तथा जप्त्वा शिवः कार्यं करिष्यति ॥ २७ ॥
सदाशिव सभी गणोंके अध्यक्ष एवं परमेश्वर हैं । आप सभीलोग अपने मनमें विचार कीजिये कि वे सहसा कैसे वशमें हो सकते हैं । सबसे पहले ॐ का उच्चारण करके उसके बाद 'नमः' उच्चारण करे । पुनः 'शिवाय', फिर दो बार शुभ-शुभं, इसके बाद दो बार 'कुरु' बताया गया है । तदनन्तर 'शिवाय नमः' तदनन्तर प्रणव लगाना चाहिये । (ॐ नमः शिवाय शुभं शुभं कुरु कुरु शिवाय नमः ॐ) हे देवताओ ! यदि आपलोग शिवजीके लिये इस मन्त्रका एक करोड़ सदा जप करें, तो शिवजी प्रसन्न होकर तुम्हारा कार्य अवश्य करेंगे ॥ २४-२७ ॥

इत्युक्ते च तदा तेन हरिणा प्रभविष्णुना ।
तथा देवाः पुनश्चक्रुर्हरस्याराधनं मुने ॥ २८ ॥
सञ्जजाप हरिश्चापि सविधिः शिवमानसः ।
देवानां कार्यसिद्ध्यर्थं मुनीनां च विशेषतः ॥ २९ ॥
मुहुः शिवेति भाषन्तो देवा धैर्यसमन्विताः ।
कोटिसङ्‌ख्यं तदा कृत्वा स्थितास्ते मुनिसत्तम ॥ ३० ॥
हे मुने ! उन सर्वसमर्थ विष्णुके द्वारा ऐसा कहे जानेपर देवतालोग उसी तरह शिवकी आराधना करने लगे । उस समय विष्णुजी भी ब्रह्माजीके साथ शिवमें अपना मन एकाग्रकर देवताओं एवं मुनियोंका विशेष रूपसे कार्य सिद्ध करनेके निमित्त जप करने लगे । हे मुनिसत्तम ! धैर्य धारणकर वे देवगण बारंबार 'शिव' इस प्रकार उच्चारण करते हुए एक करोड़ मन्त्रका जपकर वहीं स्थित हो गये ॥ २८-३० ॥

एतस्मिन्नन्तरे साक्षाच्छिवः प्रादुरभूत्स्वयम् ।
यथोक्तेन स्वरूपेण वचनं चेदमब्रवीत् ॥ ३१ ॥
इसी बीच स्वयं सदाशिव उनके सामने साक्षात् यथोक्त स्वरूपसे प्रकट हो गये और यह वचन कहने लगे- ॥ ३१ ॥

श्रीशिव उवाच
हे हरे हे विधे देवा मुनयश्च शुभव्रताः ।
प्रसन्नोऽस्मि वरं ब्रूत जयेनानेन चेप्सितम् ॥ ३२ ॥
श्रीशिव बोले-हे हरे ! हे विधे ! हे देवगण ! शुभवतवाले हे मुनियो ! मैं इस जपसे प्रसन्न हूँ, आपलोग अभीष्ट वर माँगिये ॥ ३२ ॥

देवा ऊचुः
यदि प्रसन्नो देवेश जगदीश्वर शंकर ।
सुरान् विज्ञाय विकलान् हन्यन्तां त्रिपुराणि च ॥ ३३ ॥
रक्षास्मान्परमेशान दीनबन्धो कृपाकर ।
त्वयैव रक्षिता देवाःसदापद्‌भ्यो मुहुर्मुहुः ॥ ३४ ॥
देवगण बोले-हे देवेश ! हे जगदीश ! हे शंकर ! यदि आप प्रसन्न हैं, तो देवताओंको व्याकुल जानकर त्रिपुरोंका वध कीजिये । हे परमेशान ! हे दीनबन्धी ! हे कृपाकर ! आप हम सबकी रक्षा करें; क्योंकि आपने ही विपत्तियोंसे देवताओंकी सदा बारंबार रक्षा की है ॥ ३३-३४ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्युक्तं वचनं तेषां श्रुत्वा सहरिवेधसाम् ।
विहस्यान्तस्तदा ब्रह्मन्महेशः पुनरब्रवीत् ॥ ३५ ॥
सनत्कुमार बोले-हे ब्रह्मन् ! तब ब्रह्मा, विष्णु एवं देवताओंका कहा गया यह वचन सुनकर शिवजीने मन-ही-मन हँसकर कहा- ॥ ३५ ॥

महेश उवाच
हे हरे हे विधे देवा मुनयश्चाखिला वचः ।
मदीयं शृणुतादृत्य नष्टं मत्वा पुरत्रयम् ॥ ३६ ॥
रथं च सारथिं दिव्यं कार्मुकं शरमुत्तमम् ।
पूर्वमङ्‌गीकृतं सर्वमुपपादयताचिरम् ॥ ३७ ॥
हे विष्णो हे विधे त्वं हि त्रिलोकाधिपतिर्ध्रुवम् ।
सर्वसम्राट्प्रकारं मे कर्तुमर्हसि यत्नतः ॥ ३८ ॥
नष्टं पुरत्रयं मत्वा देवसाहाय्यमित्युत ।
करिष्यथः प्रयत्नेनाधिकृतौ सर्गपालने ॥ ३९ ॥
महेश बोले-हे विष्णो ! हे विधे ! हे देवगणो ! हे मुनियो ! आप सब त्रिपुरको नष्ट हुआ समझकर आदर करके मेरे वचनको सुनें । आपलोगोंने पूर्व समयमें जो रथ, सारथी, दिव्य धनुष तथा उत्तम बाण देना स्वीकार किया था, वह सब शीघ्र उपस्थित कीजिये । हे विष्णो ! हे विधे ! आप त्रिलोकाधिपति हैं, इसलिये शीघ्र हमारे सम्राट् पदके योग्य सामग्री यत्नपूर्वक उपस्थित कीजिये । त्रिपुरको नष्ट समझकर सृष्टि तथा पालनके लिये नियुक्त किये गये आप दोनों इन देवताओंकी सहायता करें । ३६-३९ ॥

अयं मन्त्रो महापुण्यो मत्प्रीतिजनकः शुभः ।
भुक्तिमुक्तिप्रदःसर्वकामदः शैवकावहः ॥ ४० ॥
धन्यो यशस्य आयुष्यः स्वर्गकामार्थिनां नृणाम् ।
अपवर्गो ह्यकामानां मुक्तानां भुक्तिमुक्तिदः ॥ ४१ ॥
य इमं कीर्तयेन्मन्त्रं शुचिर्भूत्वा सदा नरः ।
शृणुयाच्छ्रावयेद्वापि सर्वान्कामानवाप्नुयात् ॥ ४२ ॥
यह मन्त्र महापुण्यप्रद, मुझे प्रसन्न करनेवाला, शुभ, भोग-मोक्ष प्रदान करनेवाला, सभी प्रकारकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाला, शिवभक्तोंको सुख देनेवाला, धन्य, यश देनेवाला, आयुको बढ़ानेवाला, स्वर्गकी इच्छा करनेवालोंको स्वर्ग तथा कामनारहित पुरुषोंको मुक्ति देनेवाला है, यह मुमुक्षुओंको भोग तथा मोक्ष दोनों प्रदान करता है । जो मनुष्य पवित्र होकर नित्य इस मन्त्रका जप करता है अथवा इस मन्त्रको सुनता अथवा सुनाता है, उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं ॥ ४०-४२ ॥

सनत्कुमार उवाच
इति श्रुत्वा वचस्तस्य शिवस्य परमात्मनः ।
सर्वे देवा मुदं प्रापुर्हरिर्ब्रह्माधिकं तथा ॥ ४३ ॥
सर्वदेवमयं दिव्यं रथं परमशोभनम् ।
रचयामास विश्वार्थे विश्वकर्मा तदाज्ञया ॥ ४४ ॥
सनत्कुमार बोले-उन परमात्मा शिवजीके इस वचनको सुनकर सभी देवता प्रसन्न हो गये और विष्णु एवं ब्रह्माको अधिक प्रसन्नता हुई । तदनन्तर उनकी आज्ञासे विश्वकर्माने संसारके कल्याणके लिये सर्वदेवमय, दिव्य तथा अत्यन्त सुन्दर रथका निर्माण किया ॥ ४३-४४ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां
पञ्चमे युद्धखण्डे देवस्तुतिवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय कनसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें देवस्तुतिवर्णन नामक सातवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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