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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

नवमोऽध्यायः

शिवयात्रावर्णनम् -
ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर-वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण


सनत्कुमार उवाच
ईदृग्विधं महादिव्यं नानाश्चर्यमयं रथम् ।
संनह्य निगमानश्वांस्तं ब्रह्मा प्रार्पयच्छिवम् ॥ १ ॥
शम्भवेऽसौ निवेद्याधिरोपयामास शूलिनम् ।
बहुशः प्रार्थ्य देवेशं विष्ण्वादिसुरसंमतम् ॥ २ ॥
ततस्तस्मिन्‌ रथे दिव्ये रथप्राकारसंयुते ।
सर्वदेवमयः शम्भुरारुरोह महाप्रभुः ॥ ३ ॥
सनत्कुमार बोले-इस प्रकारके महादिव्य तथा अनेक आश्चर्योंसे युक्त रथमें वेदरूपी घोड़े जोतकर ब्रह्माजीने उसे शिवजीको समर्पित किया । इसे शिवजीको अर्पण करके उन्होंने विष्णु आदि देवगणोंके सम्माननीय देवेश शिवजीसे बहुत प्रार्थना करके उन्हें रथपर बैठाया । तब समस्त रथ-सामग्रियोंसे सम्पन्न उस दिव्य रथपर सर्वदेवमय महाप्रभु शम्भु आरूढ़ हुए ॥ १-३ ॥

ऋषिभिः स्तूयमानश्च देवगन्धर्वपन्नगैः ।
विष्णुना ब्रह्मणा चापि लोकपालैर्बभूव ह ॥ ४ ॥
उस समय ऋषि, देवता, गन्धर्व, नाग, ब्रह्मा, विष्णु तथा समस्त लोकपाल उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४ ॥

उपावृतश्चाप्सरसांगणैर्गीतविशारदैः ।
शुशुभे वरदः शम्भुः स तं प्रेक्ष्य च सारथिम् ॥ ५ ॥
तस्मिन्नारोऽहति रथं कल्पितं लोकसम्भृतम् ।
शिरोभिः पतिता भूमौ तुरगा वेदसम्भवाः ॥ ६ ॥
चचाल वसुधा चेलुः सकलाश्च महीधराः ।
चकम्पे सहसा शेषोऽसोढा तद्‌भारमातुरः ।७ ॥
अथाधः स रथस्यास्य भगवान्धरणीधरः ।
वृषेन्द्ररूपी चोत्थाय स्थापयामास वै क्षणम् ॥ ८ ॥
क्षणान्तरे वृषेन्द्रोऽपि जानुभ्यामगमद्धराम् ।
रथारूढमहेशस्य सुतेजः सोढुमक्षमः ॥ ९ ॥
गानमें प्रवीण अप्सराओंसे घिरे हुए वरदायक शिवजी उस सारथी (ब्रह्मा) की ओर देखते हुए शोभित होने लगे । सर्वलोकमय उस निर्मित रथपर सदाशिवके चढ़ते ही वेदरूपी घोड़े सिरके बल पृच्चीपर गिर पड़े, जिससे पृथ्वी तथा सभी पर्वत चलायमान हो गये और शेषनाग भी उस भारको सहने में असमर्थ होनेके कारण कम्पित हो उठे । तब पृथ्वीको धारण करनेवाले भगवान् शेष वृषेन्द्रका रूप धारणकर क्षणमात्रके लिये उस रथको उठाकर स्थापित करने लगे, किंतु रथपर आरूढ़ शिवजीके परम तेजको सहन करनेमें असमर्थ वृषेन्द्र भी घुटनोंके बल पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ ५-९ ॥

अभीषुहस्तो भगवानुद्यम्य च हयांस्तदा ।
स्थापयामास देवस्य पचनाद्वै रथं वरम् ॥ १० ॥
तब हाथमें लगाम पकड़े हुए ब्रह्माजीने शंकरजीकी आज्ञासे घोड़ोंको उठाकर रथको व्यवस्थित किया ॥ १० ॥

ततोऽसौ नोदयामास मनोमारुतरंहसः ।
ब्रह्मा हयान्वेदमयान्नद्धान् रथवरे स्थितः ॥ ११ ॥
पुराण्युद्दिश्य वै त्रीणि तेषां खस्थानि तानि हि ।
अधिष्ठिते महेशे तु दानवानां तरस्विनाम् ॥ १२ ॥
उसके बाद ब्रह्माजी स्वयं उस श्रेष्ठ रथपर सवार हो शिवकी आज्ञासे मन तथा पवनके समान वेगवाले रथमें जुते हुए उन वेदरूपी घोड़ोंको तेजीसे हाँकने लगे । शिवजीके बैठ जानेपर वह रथ उन बलवान् दानवोंके आकाशस्थित तीनों पुरोंको उद्देश्य करके चलने लगा ॥ ११-१२ ॥

अथाह भगवान् रुद्रो देवानालोक्य शंकरः ।
पशूनामाधिपत्यं मे दध्वं हन्मि ततोऽसुरान् ॥ १३ ॥
पृथक् पशुत्वं देवानां तथान्येषां सुरोत्तमाः ।
कल्पयित्वैव वध्यास्ते नान्यथा दैत्यसत्तमाः ॥ १४ ॥
उस समय देवगणोंकी ओर देखकर कल्याण करनेवाले भगवान् रुद्रने कहा-हे श्रेष्ठ देवताओ ! यदि आपलोग मुझे पशुओका अधिपति बना दें, तो मैं असुरोंका वध करूँ । देवताओं तथा अन्य लोगोंके पृथक्-पृथक् पशुत्वकी कल्पना करनेपर ही वे दैत्यश्रेष्ठ वधके योग्य हो सकते हैं, अन्यथा नहीं ॥ १३-१४ ॥

सनत्कुमार उवाच
इति श्रुत्वा वचस्तस्य देवदेवस्य धीमतः ।
विषादमगमन् सर्वे पशुत्वं प्रतिशङ्‌किताः ॥ १५ ॥
तेषां भावमथ ज्ञात्वा देवदेवोऽम्बिकापतिः ।
विहस्य कृपया देवान् शम्भुस्तानिदमब्रवीत् ॥ १६ ॥
सनत्कुमार बोले-उन बुद्धिमान् देवाधिदेवके इस वचनको सुनकर सभी देवता पशुत्वके प्रति शंकित होकर दु:खित हो गये । तब देवाधिदेव अम्बिकापति शंकर देवताओंका भाव जानकर हँसते हुए उन देवताओंसे कहने लगे- ॥ १५-१६ ॥

शम्भुरुवाच
मा वोऽस्तु पशुभावेऽपि पातो विबुधसत्तमाः ।
श्रूयतां पशुभावस्य विमोक्षः क्रियतां च सः ॥ १७ ॥
यौ वै पाशुपतं दिव्यं चरिष्यति स मोक्ष्यति ।
पशुत्वादिति सत्यं वः प्रतिज्ञातं समाहिताः ॥ १८ ॥
शम्भु बोले-हे देवगणो ! पशुभावको प्राप्त होनेपर भी आपलोगोंका पात नहीं होगा, मेरी बात सुनिये और उस पशुभावसे अपनेको मुक्त कीजिये । जो इस दिव्य पाशुपत व्रतका आचरण करेगा, वह पशुत्वसे मुक्त हो जायगा, मैंने आपलोगोंसे सत्य प्रतिज्ञा की है ॥ १७-१८ ॥

ये चाप्यन्ये करिष्यन्ति व्रतं पाशुपतं मम ।
मोक्ष्यन्ति ते न सन्देहः पशुत्वात्सुरसत्तमाः ॥ १९ ॥
नैष्ठिकं द्वादशाब्दं वा तदर्थं वर्षकत्रयम् ।
शुश्रूषां कारयेद्यस्तु स पशुत्वाद्विमुच्यते ॥ २० ॥
तस्मात्परमिदं दिव्यं चरिष्यथ सुरोत्तमाः ।
पशुत्वान्मोक्ष्यथ तदा यूयमत्र न संशयः ॥ २१ ॥
हे श्रेष्ठ देवताओ ! जो अन्य लोग भी मेरे पाशुपतव्रतका आचरण करेंगे, वे पशुत्वसे मुक्त हो जायेंगे, इसमें संशय नहीं है । जो निष्ठापूर्वक बारह वर्ष, छ: वर्ष अथवा तीन वर्षतक मेरी उपासना करेगा, वह पशुभावसे छूट जायगा । इसलिये हे श्रेष्ठ देवताओ ! यदि आप लोग इस श्रेष्ठ एवं दिव्य व्रतका आचरण करेंगे, तो पशुत्वसे मुक्त हो जायेंगे, इसमें सन्देह नहीं है ॥ १९-२१ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य महेशस्य परात्मनः ।
तथेति चाब्रुवन्देवा हरिब्रह्मादयस्तथा ॥ २२ ॥
तस्माद्वै पशवः सर्वे देवासुरवराः प्रभोः ।
रुद्रः पशुपतिश्चैव पशुपाशविमोचकः ॥ २३ ॥
सनत्कुमार बोले-उन परमात्मा महेश्वरका यह वचन सुनकर ब्रह्मा, विष्णु आदि देवगणोंने कहाऐसा ही होगा । इसलिये [हे वेदव्यास !] देवता एवं असुर सभी उन प्रभुके पशु हैं और पशुओंको पाशसे मुक्त करनेवाले रुद्र भगवान् शंकर पशुपति हैं । २२-२३ ॥

तदा पक्षुपतीत्येतत्तस्य नाम महेशितुः ।
प्रसिद्धमभवद् ह्यद्धा सर्वलोकेषु शर्मदम् ॥ २४ ॥
तभीसे उन महेश्वरका यह कल्याणप्रद पशुपति नाम भी सभी लोकोंमें प्रसिद्ध हुआ ॥ २४ ॥

मुदा जयेति भाषन्तः सर्वे देवर्षयस्तदा ।
अमुदंश्चाति देवेशो ब्रह्मा विष्णुः परेऽपि च ॥ २५ ॥
तस्मिंश्च समये यच्च रूपं तस्य महात्मनः ।
जातं तद्वर्णितुं शक्यं न हि वर्षशतैरपि ॥ २६ ॥
उसके बाद सभी देवता तथा ऋऋषि प्रसन्नतापूर्वक जय-जयकार करने लगे । स्वयं देवेश, ब्रह्मा, विष्णु एवं अन्य लोग भी बहुत प्रसन्न हुए । उस समय उन परमात्माका जैसा अद्‌भुत रूप था, उसका वर्णन सैकड़ों वर्षामें भी नहीं किया जा सकता ॥ २५-२६ ॥

एवं विधो महेशानो महेशान्यखिलेश्वरः ।
जगाम त्रिपुरं हन्तुं सर्वेषां सुखदायकः ॥ २७ ॥
तं देवदेवं त्रिपुरं निहन्तुं
    तदानु सर्वे तु रविप्रकाशाः ।
गजैर्हयैःसिंहवरै रथैश्च
    वृषैर्ययुस्तेऽमरराजमुख्याः ॥ २८ ॥
हलैश्च शालैर्मुशलैर्भुशुण्डै-
    र्गिरीन्द्रकल्पैर्गिरिसंनिभाश्च ।
नानायुधैः संयुतबाहवस्ते
    ततो नु हृष्टाः प्रययुःसुरेशाः ॥ २९ ॥
इस प्रकारके स्वरूपवाले, सबके लिये सुखदायक अखिलेश्वर महेश तथा महेशानी त्रिपुरको मारनेके लिये चल पड़े । जिस समय देवाधिदेव उस त्रिपुरका वध करनेके लिये चले, उस समय सूर्यके समान तेजस्वी इन्द्र आदि सभी देवता उत्तम हाथी, घोड़े, सिंह, रथ तथा बैलपर सवार हो उनके पीछे-पीछे चले । हाथोंमें हल, शाल, मूसल, विशाल पर्वतके समान भुशुण्ड तथा विविध आयुध धारण किये हुए पर्वतसदृश वे इन्द्रादि देवता प्रसन्न होकर [त्रिपुरका वध करनेके लिये] चले ॥ २७-२९ ॥

नानायुधाढ्याः परमप्रकाशा
    महोत्सवश्शम्भुजयं वदन्तः ।
ययुः पुरस्तस्य महेश्वरस्य
    तदेन्द्रपद्मोद्‌भवविष्णुमुख्याः ॥ ३० ॥
उस समय अनेक प्रकारके आयुधोंसे युक्त तथा - परम प्रकाशमान इन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता महोत्सव मनाते हुए तथा शिवजीकी जय-जयकार करते हुए उन महेश्वरके आगे-आगे चल रहे थे ॥ ३० ॥

जहृषुर्मुनयःसर्वे दण्डहस्ता जटाधराः ।
ववृषुः पुष्पवर्षाणि खेचराः सिद्धचारणाः ॥ ३१ ॥
उस समय हाथमें दण्ड लिये हुए तथा जटा धारण किये हुए सभी मुनि हर्षित हुए और आकाशमें विचरण करनेवाले सिद्ध तथा चारण पुष्पवृष्टि करने लगे ॥ ३१ ॥

पुत्रत्रयं च विप्रेन्द्रा व्रजन्सर्वे गणेश्वराः ।
तेषां सङ्‌ख्या च कः कर्तुं समर्थो वच्मि कांश्चन ॥ ३२ ॥
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! जो सभी गणेश्वर तीनों पुरोंको जा रहे थे, उनकी संख्या बतानेमें कौन समर्थ है, तथापि मैं कुछको कह रहा हूँ ॥ ३२ ॥

गणेश्वरैर्देवगणैश्च भृङ्‌गी
    समावृतःसर्वगणेन्द्रवर्यः ।
जगाम योगांस्त्रिपुरं निहन्तुं
    विमानमारुह्य यथा महेन्द्रः ॥ ३३ ॥
केशो विगतवासश्च महाकेशो महाज्वरः ।
सोमवल्लीसवर्णश्च सोमपः सनकस्तथा ॥ ३४ ॥
सोमधृक् सूर्यवर्चाश्च सूर्यप्रेषणकस्तथा ।
सूर्याक्षःसूरिनामा च सुरः सुन्दर एव च ॥ ३५ ॥
प्रस्कन्दः कुन्दरश्चण्डः कम्पनश्चातिकम्पनः ।
इन्द्रश्चेन्द्रजवश्चैव यन्ता हिमकरस्तथा ॥ ३६ ॥
शताक्षश्चैव पञ्चाक्षः सहस्राक्षो महोदरः ।
सतीजुहः शतास्यश्च रङ्‌कः कर्पूरपूतनः ॥ ३७ ॥
द्विशिखस्त्रिशिखश्चैव तथाहङ्‌कारकारकः ।
अजवक्त्रोऽष्टवक्त्रश्च हयवक्त्रोऽर्द्धवक्त्रकः ॥ ३८ ॥
इत्याद्या गणपा वीरा बहवोऽपरिमेयकाः ।
प्रययुः परिवार्येशं लक्ष्यलक्षणवर्जिताः ॥ ३९ ॥
गणेश्वरों और देवगणोंके साथ सभी गणोंसे श्रेष्ठ भुंगी विमानमें चढ़कर महेन्द्रके समान त्रिपुरका वध करनेके लिये चला । केश, विगतवास, महाकेश, महाज्वर, सोमवल्ली, सवर्ण, सोमप, सनक, सोमधूक, सूर्यवर्चा, सूर्यप्रेषण, सूर्याक्ष, सूरि, सुर, सुन्दर, प्रस्कन्द, कुन्दर, चण्ड, कम्पन, अतिकम्पन, इन्द्र, इन्द्रजव, हिमकर, यन्ता, शताक्ष, पंचाक्ष, सहस्राक्ष, महोदर, सतीजुह, शतास्य, रंक, कर्पूरपूतन, द्विशिख, त्रिशिख, अहंकारकारक, अजवक्त्र, अष्टवका, हयवक्त्र तथा अर्थवक्त्र इत्यादि बहुत-से असंख्य वीरगण, जो लक्ष्य-लक्षणसे रहित थे, वे शिवजीको घेरकर चले ॥ ३३-३९ ॥

समावृत्य महादेवं तदापुस्ते पिनाकिनम् ।
दग्धुं समर्था मनसा क्षणेन सचराचरम् ॥ ४० ॥
दग्धुं जगत्सर्वमिदं समर्थाः
    किं त्वत्र दग्धुं त्रिपुरं पिनाकी ।
रथेन किं चात्र शरेण तस्य
    गणैश्च किं देवगणैश्च शम्भोः ॥ ४१ ॥
स एव दग्धुं त्रिपुराणि तानि
    देवद्विषां व्यास पिनाकपाणिः ।
स्वयं गतस्तत्र गणैश्च सार्द्धं
    निजैःसुराणामपि सोऽद्‌भुतोतिः ॥ ४२ ॥
जो गण महादेव शिवको घेरकर उनके साथ चल रहे थे, वे मनसे ही चराचर जगत्को भस्म करने में समर्थ थे । किंतु यहाँ तो पिनाकधारी भगवान् शंकर स्वयं ही त्रिपुरको जलानेमें समर्थ थे । उन शम्भुको रथ, बाण, गणों तथा देवताओंकी क्या आवश्यकता थी, किंतु हे व्यास ! हाथमें पिनाक धारण किये वे अपने गणों तथा देवताओंके साथ दैत्योंके उन तीनों पुरोको जलानेके लिये जा रहे थे । यह उनकी अद्‌भुत लीला है । ४०-४२ ॥

किं तत्र कारणं चान्यद्वच्मि ते ऋषिसत्तम ।
लोकेषु ख्यापनार्थं वै यशः परमलापहम् ॥ ४३ ॥
अन्यच्च कारणं ह्येतद्दुष्टानां प्रत्ययाय वै ।
सर्वेष्वपि च देवेषु यस्मान्नान्यो विशिष्यते ॥ ४४ ॥
हे ऋषिश्रेष्ठ ! उसमें जो कारण है, उसे मैं आपसे कह रहा हूँ । दूसरोंके पापोंका नाश करनेवाले उन्होंने अपने यशका त्रिलोकीमें विस्तार करनेके निमित्त ऐसा किया और दूसरा यह भी कारण है कि दुष्टोंके मनमें यह विश्वास हो जाय कि सभी देवगणोंमें शिवजीसे बढ़कर अन्य कोई नहीं है ॥ ४३-४४ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां
पञ्चमे युद्धखण्डे शिवयात्रावर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें शिवयात्रावर्णन नामक नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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