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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

दशमोऽध्यायः

त्रिपुरदाहवर्णनम् -
भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना


सनत्कुमार उवाच
अथ शम्भुर्महादेवो रथस्थः सर्वसंयुतः ।
त्रिपुरं सकलं दग्धुमुद्यतोऽभूत्सुरद्विषाम् ॥ १ ॥
शीर्षं स्थानकमास्थाय सन्धाय च शरोत्तमम् ।
सज्जं तत्कार्मुकं कृत्वा प्रत्यालीढं महाद्‌भुतम् ॥ २ ॥
निवेश्य दृढमुष्टौ च दृष्टिं दृष्टौ निवेश्य च ।
अतिष्ठन्निश्चलस्तत्र शतं वर्षसहस्रकम् ॥ ३ ॥
ततोङ्‌गुष्ठे गणाध्यक्षः स तु दैत्यनिशं स्थितः ।
न लक्ष्यं विविशुस्तानि पुराण्यस्य त्रिशूलिनः ॥ ४ ॥
सनत्कुमार बोले-[हे व्यासजी !] इसके बाद महादेव शम्भु सम्पूर्ण सामग्रियोंसे युक्त हो उस रथपर बैठकर दैत्योंके सम्पूर्ण त्रिपुरको दग्ध करनेके लिये उद्यत हुए । उस रथके शीर्ष स्थानपर स्थित हो वे धनुषको चढ़ाकर उसपर उत्तम बाण सन्धानकर अत्यन्त अद्‌भुत प्रत्यालीद्ध आसनमें स्थित होकर दृढमुष्टिमें धनुषको पकड़कर अपनी दृष्टिमें दृष्टि डालकर निश्चल हो सौ हजार वर्षपर्यन्त वहाँ स्थित रहे । उस समय वे गणेशजी उन शिवजीके अँगूठेपर स्थिर हो निरन्तर उन्हें पीड़ित करने लगे, जिससे उनके लक्ष्यमें त्रिपुर दिखायी न पड़े ॥ १-४ ॥

ततोन्तरिक्षादशृणोद्धनुर्बाणधरो हरः ।
मुञ्जकेशो विरूपाक्षो वाचं परमशोभनाम् ॥ ५ ॥
भो भो न यावद्‌भगवन्नर्चितोऽसौ विनायकः ।
पुराणि जगदीशेश साम्प्रतं न हनिष्यति ॥ ६ ॥
तब मुंजकेश, विरूपाक्ष तथा धनुष-बाणधारी शंकरने यह अत्यन्त मनोहर आकाशवाणी सुनी । हे जगदीश ! हे ईश ! हे भगवन् ! जबतक आप इन गणेशजीका पूजन नहीं करेंगे, तबतक आप त्रिपुरका नाश नहीं कर सकेंगे ॥ ५-६ ॥

एतच्छ्रुत्वा तु वचनं गजवक्त्रमपूजयत् ।
भद्रकालीं समाहूय ततोन्धकनिषूदनः ॥ ७ ॥
तदनन्तर यह वचन सुनकर अन्धकका वध करनेवाले सदाशिवने भद्रकालीको बुलाकर गणेशजीकी पूजा की ॥ ७ ॥

तस्मिन् सम्पूजिते हर्षात्परितुष्टे पुरःसरे ।
विनायके ततो व्योम्नि ददर्श भगवान्हरः ॥ ८ ॥
पुराणि त्रीणि दैत्यानां तारकाणां महात्मनाम् ।
यथातथं हि युक्तानि केचिदित्थं वदन्ति ह ॥ ९ ॥
परब्रह्मणि देवेश सर्वोपास्ये महेश्वरे ।
अन्यप्रसादतः कार्यं सिद्धिर्घटति नेति हि ॥ १० ॥
पूजासे उन गणेशके प्रसन्न हो जानेपर भगवान् शिवने आकाशमें स्वयं अपने आगे उन महात्मा दैत्य तारकपुत्रोंके तीनों पुरोंको देखा, जो यथायोग्य एकदूसरेसे युक्त थे । इस विषयमें कोई ऐसा कहते हैं कि-परब्रह्म देवेश परमेश्वर तो सबके पूजनीय हैं, फिर उनके कार्यकी सिद्धि दूसरोंकी प्रसन्नतासे हो, यह तो उनके लिये उचित नहीं प्रतीत होता ॥ ८-१० ॥

स स्वतन्त्रः परं ब्रह्म सगुणो निर्गुणोऽपि ह ।
अलक्ष्यः सकलैः स्वामी परमात्मा निरञ्जनः ॥ ११ ॥
पञ्चदेवात्मकः पञ्चदेवोपास्यः परः प्रभुः ।
तस्योपास्यो न कोऽप्यस्ति स एवोपास्य आलयम् ॥ १२ ॥
अथ वा लीलया तस्य सर्वं सङ्‌घटते मुने ।
चरितं देवदेवस्य वरदातुर्महेशितुः ॥ १३ ॥
वे परब्रह्म, स्वतन्त्र, सगुण, निर्गुण, परमात्मा तथा मायासे रहित एवं सभीसे अलक्ष्य हैं । वे परम प्रभु पंचदेवात्मक तथा पंचदेवोंके उपास्य हैं । उनका कोई भी उपास्य नहीं है, वे ही सबके उपास्य हैं । अथवा हे मुने ! सबको वर देनेवाले उन देवाधिदेव महेश्वरकी लीलासे सभी चरित सम्भव हैं ॥ ११-१३ ॥

तस्मिस्थिते महादेवे पूजयित्वा गणाधिपम् ।
पुराणि तत्र कालेन जग्मुरेकत्वमाशु वै ॥ १४ ॥
जब महादेवजी गणेशका पूजनकर स्थित हो गये, उसी समय वे तीनों पुर शीघ्र ही एकमें मिल गये ॥ १४ ॥

एकीभावं मुने तत्र त्रिपुरे समुपागते ।
बभूव तुमुलो हर्षो देवादीनां महात्मनाम् ॥ १५ ॥
हे मुने ! इस प्रकार त्रिपुरके एक साथ मिल जानेपर देवताओं तथा महात्माओंको बड़ी प्रसन्नता हुई ॥ १५ ॥

ततो देवगणाः सर्वे सिद्धाश्च परमर्षयः ।
जयेति वाचो मुमुचुः स्तुवन्तश्चाष्टमूर्तिनम् ॥ १६ ॥
तत्पश्चात् समस्त देवगण, महर्षि एवं सिद्धगण महादेवजीकी स्तुति करते हुए उनकी जय-जयकार करने लगे ॥ १६ ॥

अथाहेति तदा ब्रह्मा विष्णुश्च जगतां पतिः ।
समयोऽपि समायातो दैत्यानां वधकर्मणः ॥ १७ ॥
तेषां तारकपुत्राणां त्रिपुराणां महेश्वर ।
देवकार्यं कुरु विभो एकत्वमपि चागतम् ॥ १८ ॥
यावन्न यान्ति देवेश विप्रयोगं पुराणि वै ।
तावद्‌बाणं विमुञ्चश्च त्रिपुरं भस्मसात्कुरु ॥ ।१९ ॥
इसके बाद जगत्पति ब्रह्मा तथा विष्णुने कहाहे महेश्वर ! अब इन दैत्य तारकपुत्रोंके वधकार्यका समय उपस्थित हो गया है । हे विभो ! आप देवकार्य सम्पन्न कीजिये; क्योंकि इनके तीनों पुर एक स्थानमें आ गये हैं । हे देवेश ! जबतक ये पुर एक दूसरेसे अलग नहीं होते, तबतक आप बाण छोड़िये और त्रिपुरको भस्म कर दीजिये ॥ १७-१९ ॥

अथ सज्यं धनुः कृत्वा शर्वः सन्धाय तं शरम् ।
पूज्य पाशुपतास्त्रं स त्रिपुरं समचिन्तयत् ॥ २० ॥
तब शंकरजीने धनुषकी डोरी चढ़ाकर उसपर बाण रखकर त्रिपुरसंहारके लिये अपने पूज्य पाशुपतास्त्रका ध्यान किया ॥ २० ॥

अथ देवो महादेवो वरलीलाविशारदः ।
केनापि कारणेनात्र सावज्ञं तदवैक्षत ॥ २१ ॥
उसके बाद श्रेष्ठ लीलाविशारद शिवजी किसी कारणसे उन पुरोंको निरादरकी दृष्टिसे देखने लगे ॥ २१ ॥

पुरत्रयं विरूपाक्षः कर्तुं तद्‌भस्मसात्क्षणात् ।
समर्थः परमेशानो जानातु च सतां गतिः ॥ २२ ॥
दग्धुं समर्थो देवेशो वीक्षणेन जगत्त्रयम् ।
अस्मद्यशो विवृद्ध्यर्थं शरं मोक्तुमिहार्हसि ॥ २३ ॥
आप विरूपाक्ष हैं और इन तीनों पुरोंको क्षणमात्रमें दग्ध करनेमें समर्थ हैं तथा सज्जनोंकी एकमात्र गति हैं । यद्यपि आप देवेश्वर अपनी दृष्टिमात्रसे तीनों लोकोंको भस्म करने में समर्थ हैं, किंतु हमलोगोंके यशको बढ़ानेके लिये आप इनपर अपना बाण छोड़िये ॥ २२-२३ ॥

इति स्तुतोऽमरैः सर्वैविष्ण्वादिविधिभिस्तदा ।
दग्धुं पुरत्रयं तद्वै बाणेनैच्छन्महेश्वरः ॥ २४ ॥
अभिलाख्यमुहूर्ते तु विकृष्य धनुरद्‌भुतम् ।
कृत्वा ज्यातलनिर्घोषं नादमत्यन्तदुःसहम् ॥ २५ ॥
आत्मनो नाम विश्राव्य समाभाष्य महासुरान् ।
मार्तण्डकोटिवपुषं काण्डमुग्रो मुमोच ह ॥ २६ ॥
इस प्रकार जब विष्णु, ब्रह्मा आदि समस्त देवताओंने महेश्वरकी स्तुति की, तब उन्होंने उसी वाणसे तीनों पुरोंको भस्म करनेकी इच्छा की । उन शिवजीने अभिजित् मुहूर्तमें उस अद्‌भुत धनुषको खींचकर उसकी प्रत्यंचाकी टंकारसे अत्यन्त दु:सह शब्द करके और उन असुरोंको अपना नाम सुनाकर तथा उन्हें ललकारते हुए करोड़ों सूर्योके समान देदीप्यमान बाण छोड़ा ॥ २४-२६ ॥

ददाह त्रिपुरस्थांस्तान्दैत्यांस्त्रीन्विमलापहः ।
स आशुगो विष्णुमयो वह्निशल्यो महाज्वलन् ॥ २७ ॥
पापनाशक, जाज्वल्यमान, अग्निफलकसे युक्त तथा तीव्रगामी उस विष्णुमय बाणने त्रिपुरमें रहनेवाले उन तीनों दैत्योंको दग्ध कर दिया ॥ २७ ॥

ततः पुराणि दग्धानि चतुर्जलधिमेखलाम् ।
गतानि युगपद्‌भूमिं त्रीणि दग्धानि भस्मशः ॥ २८ ॥
दैत्यास्तु शतशो दग्धास्तस्य बाणस्थवह्निना ।
हाहाकारं प्रकुर्वन्तः शिवपूजाव्यतिक्रमात् ॥ २९ ॥
इस प्रकार भस्म हुए वे तीनों पुर चार समुद्रोंकी मेखलावाली पृथ्वीपर एक साथ ही गिर पड़े और जले हुए वे पुर राखके रूपमें हो गये । शिवकी पूजामें व्यतिक्रमके कारण सैकड़ों दैत्य हाहाकार करते हुए उस बाणकी अग्निसे भस्म हो गये ॥ २८-२९ ॥

तारकाक्षस्तु निर्दग्धो भ्रातृभ्यां सहितोऽभवत् ।
सस्मार स्वप्रभुं देवं शंकरं भक्तवत्सलम् ॥ ३० ॥
भक्त्या परमया युक्तः प्रलपन् विविधा गिरः ।
महादेवं समुद्वीक्ष्य मनसा तमुवाच सः ॥ ३१ ॥
जब भाइयोंके सहित तारकाक्ष भस्म होने लगा, तब उसने अपने प्रभु भक्तवत्सल भगवान् सदाशिवका स्मरण किया । महादेवकी ओर देखकर परम भक्तिसे युक्त होकर वह नाना प्रकारके विलाप करता हुआ मन-ही-मन उनसे कहने लगा- ॥ ३०-३१ ॥

तारकाक्ष उवाच
भव ज्ञातोसि तुष्टोऽसि यद्यस्मान् सह बन्धुभिः ।
तेन सत्येन भूयोऽपि कदा त्वं प्रदहिष्यसि ॥ ३२ ॥
दुर्लभं लब्धमस्माभिर्यदप्राप्यं सुरासुरैः ।
त्वद्‌भावभाविता बुद्धिर्जातेजाते भवत्विति ॥ ३३ ॥
तारकाक्ष बोला-हे भव ! मैंने जान लिया है कि आप हमारे ऊपर प्रसन्न हैं, अपने इस सत्यके प्रभावसे आप पुनः भाइयोसहित हमें कब जलायेंगे ? हे भगवन् ! हमलोगोंने वह दुर्लभ वस्तु प्राप्त की है, जो देवताओं और असुरोंके लिये भी अप्राप्य है, हमारी बुद्धि जन्मजन्मान्तरमें आपकी भक्तिसे भावित रहे ॥ ३२-३३ ॥

इत्येवं विब्रुवन्तस्ते दानवास्तेन वह्निना ।
शिवाज्ञयाद्‌भुतं दग्धा भस्मसादभवन्मुने ॥ ३४ ॥
अन्येऽपि बाला वृद्धाश्च दानवास्तेन वह्निना ।
शिवाज्ञया द्रुतं व्यास निर्दग्धा भस्मसात्कृताः ॥ ३५ ॥
स्त्रियो वा पुरुषा वापि वाहनानि च तत्र ये ।
सर्वे तेनाग्निना दग्धाः कल्पान्ते तु जगद्यथा ॥ ३६ ॥
हे मुने ! ऐसा कहते हुए उन दैत्योंको शिवजीकी आज्ञासे अग्निने अद्‌भुत रीतिसे जलाकर राख कर दिया । हे व्यासजी ! उस अग्निने अन्य बालक तथा वृद्ध दानवोंको भी शिवजीकी आज्ञासे शीघ्र ही जलाकर राख कर दिया । जिस प्रकार कल्पान्तमें जगत् भस्म हो जाता है, उसी प्रकार उस अग्निने वहाँ जो भी स्त्री, पुरुष, वाहनादि थे, उन सभीको जला दिया ॥ ३४-३६ ॥

भर्तॄन्कण्ठगतान्हित्वा काश्चिद्दग्धा वरस्त्रियः ।
काश्चित्सुप्ताः प्रमत्ताश्च रतिश्रान्ताश्च योषितः ॥ ३७ ॥
बहुत सी श्रेष्ठ स्त्रियाँ गलेमें भुजाएँ डालनेवाले अपने पतियोंको छोड़कर भस्म हो गयौं, सोयी हुई, प्रमत्त और रतिश्रान्त स्त्रियाँ भी भस्म हो गयीं ॥ ३७ ॥

अर्द्धदग्धा विबुद्धाश्च बभ्रमुर्मोहमूर्च्छिताः ।
तेन नासीत्सुसूक्ष्मोऽपि घोरत्रिपुरवह्निना ॥ ३८ ॥
कोई आधी जलकर चेतनामें आ-आकर बारंवार मोहसे मूञ्छित हो जाती थी । कोई अति सूक्ष्म भी ऐसी वस्तु शेष न बची, जो त्रिपुरकी अग्निसे भस्म न हुई हो ॥ ३८ ॥

अविदग्धो विनिर्मुक्तः स्थावरो जङ्‌गमोपि वा ।
वर्जयित्वा मयं दैत्यं विश्वकर्माणमव्ययम् ॥ ३९ ॥
अविरुद्धं तु देवानां रक्षितं शम्भुतेजसा ।
विपत्कालेपि सद्‌भक्तं महेशशरणागतम् ॥ ४० ॥
केवल एक अविनाशी विश्वकर्मा मयदानवको छोड़कर स्थावर तथा जंगम कोई भी बिना जले न बचा, वह देवताओंका विरोधी नहीं था, विपत्तिकालमें भी महेशका शरणागत भक्त था और शिवजीके तेजसे रक्षित था ॥ ३९-४० ॥

सन्निपातो हि येषां नो विद्यते नाशकारकः ।
दैत्यानामन्यसत्त्वानां भावाभावे कृताकृते ॥ ४१ ॥
तस्माद्यत्‍नः सुसम्भाव्यः सद्‌भिः कर्तव्य एव हि ।
गर्हणात्क्षीयते लोको न तत्कर्म समाचरेत् ॥ ४२ ॥
चाहे दैत्य हों, चाहे अन्य प्राणी हों, भावाभावकी अवस्थामें तथा कृत-अकृत कालमें महेश्वरके शरणागत होनेपर उनका नाशकारक पतन नहीं होता है । इसलिये सत्पुरुषोंको ध्यानपूर्वक इस प्रकारका यत्न करना चाहिये, जिससे भक्ति बढ़े । निन्दासे लोकका क्षय होता है, अत: उस कर्मको कभी नही करना चाहिये ॥ ४१-४२ ॥

न संयोगो यथा तेषां भूयात् त्रिपुरवासिनाम् ।
मतमेतद्धि सर्वेषां दैवाद्यदि यतो भवेत् ॥ ४३ ॥
पुरुषको कभी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये, जिससे उन त्रिपुरों जैसा संयोग उपस्थित हो । क्या ही उत्तम बात होती कि प्रारब्धसे सभीका मन शिवजीमें लगता ॥ ४३ ॥

ये पूजयन्तस्तत्रापि दैत्या रुद्रं सबान्धवाः ।
गाणपत्यं ययुः सर्वे शिवपूजाविधेर्बलात् ॥ ४४ ॥
उस समय भी जो दैत्य बान्धवोंसहित शिवपूजनमें तत्पर थे, वे सब शिवपूजाके प्रभावसे गणोंके अधिपति हो गये ॥ ४४ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे
युद्धखण्डे त्रिपुरदाहवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुगसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें त्रिपुरदाहवर्णन नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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