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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

एकादशोऽध्यायः

देवस्तुतिवर्णनम् -
त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओंद्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना


व्यास उवाच
ब्रह्मपुत्र महाप्राज्ञ धन्यस्त्वं शैवसत्तम ।
किमकार्षुस्ततो देवा दग्धे च त्रिपुरेऽखिलाः ॥ १ ॥
मयः कुत्र गतो दग्धो पतयः कुत्र ते गताः ।
तत्सर्वं मे समाचक्ष्व यदि शम्भुकथाश्रयम् ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-हे ब्रह्मपुत्र ! हे महाप्राज्ञ ! आप धन्य हैं । हे शैव श्रेष्ठ ! त्रिपुरके जल जानेपर सभी देवताओंने क्या किया, दाहसे रहित मय कहाँ गया, वे यतिगण कहाँ गये, यदि शिवजीकी कथासे सम्बन्धित अन्य कुछ हो, तो वह सब मुझे बताइये ॥ १-२ ॥

सूत उवाच
इत्याकर्ण्य व्यासवाक्यं भगवान्भवकृत्सुतः ।
सनत्कुमारः प्रोवाच शिवपादयुगं स्मरन् ॥ ३ ॥
सूतजी बोले-व्यासजीके इस वचनको सुनकर ब्रह्माजीके पुत्र भगवान् सनत्कुमार शिवके चरणयुगलका स्मरण करते हुए कहने लगे- ॥ ३ ॥

सनत्कुमार उवाच
शृणु व्यास महाबुद्धे पाराशर्यं महेशितुः ।
चरितं सर्वपापघ्नं लोकलीलानुसारिणः ॥ ४ ॥
महेश्वरेण सर्वस्मिंस्त्रिपुरे दैत्यसङ्‌कुले ।
दग्धे विशेषतस्तत्र विस्मितास्तेऽभवन्सुराः ॥ ५ ॥
न किञ्चिदब्रुवन्देवाः सेन्द्रोपेन्द्रादयस्तदा ।
महातेजस्विनं रुद्रं सर्वे वीक्ष्य ससम्भ्रमाः ॥ ६ ॥
सनत्कुमार बोले-हे महाबुद्धे ! हे पराशरपुत्र व्यास ! अब आप लोकलीलाका अनुसरण करनेवाले महेश्वरके सर्वपापनाशक चरित्रको सुनिये । महेश्वरके द्वारा दैत्योंसे परिपूर्ण समस्त त्रिपुरके दग्ध कर दिये जानेपर वे देवता विशेष रूपसे आश्चर्यचकित हुए । उस समय इन्द्र, विष्णुसहित सभी देवता महातेजस्वी रुद्रको देखकर आश्चर्यमें पड़ गये और कुछ भी नहीं बोले ॥ ४-६ ॥

महाभयङ्‌करं रौद्रं प्रज्वलन्तं दिशो दश ।
कोटिसूर्यप्रतीकाशं प्रलयानलसन्निभम् ॥ ७ ॥
भयाद्देवं निरीक्ष्यैव देवीं च हिमवत्सुताम् ।
बिभ्यिरे निखिला देवप्रमुखास्तस्थुरानताः ॥ ८ ॥
अत्यन्त भयंकर, रौद्र रूपवाले, दसों दिशाओंको प्रज्वलित करते हुए, करोड़ों सूर्योके समान तथा प्रलयाग्नि-सदृश महादेवको तथा देवी पार्वतीको देखकर सभी देवगण भयभीत हो गये और सिर झुकाकर खड़े हो गये ॥ ७-८ ॥

दृष्ट्‍वानीकं तदा भीतं देवानामृषिपुङ्‌गवाः ।
न किञ्चिदूचुः सन्तस्थुः प्रणेमुस्ते समन्ततः ॥ ९ ॥
तब श्रेष्ठ ऋषिगण देवसेनाको इस प्रकार भयभीत देखकर कुछ भी नहीं बोले और वे [शिवको] प्रणामकर चारों ओर खड़े रहे ॥ ९ ॥

अथ ब्रह्मापि सम्भीतो दृष्ट्‍वा रूपं च शाङ्‌करम् ।
तुष्टाव तुष्टहृदयो देवैः सह समाहितः ॥ १० ॥
विष्णुना च सभीतेन देवदेवं भवं हरम् ।
त्रिपुरारिं सगिरिजं भक्ताधीनं महेश्वरम् ॥ ११ ॥
तव शंकरजीके रूपको देखकर डरे हुए ब्रह्मा भी प्रसन्नचित्त होकर सावधान हो देवताओं तथा भयभीत विष्णुके साथ पार्वतीसहित भक्ताधीन देवदेव, भव, हर, त्रिपुरारि महेश्वरकी स्तुति करने लगे ॥ १०-११ ॥

ब्रह्मोवाच
देवदेव महादेव भक्तानुग्रहकारक ।
प्रसीद परमेशान सर्व देवहितप्रद ॥ १२ ॥
प्रसीद जगतां नाथ प्रसीदानन्ददायक ।
प्रसीद शंकर स्वामिन् प्रसीद परमेश्वर ॥ १३ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे देव ! हे महादेव ! हे भक्तानुग्रहकारक ! हे सर्वदेवहितकारी परमेश्वर ! आप प्रसन्न होइये । हे जगत्पते ! प्रसन्न होइये, हे आनन्ददायक ! प्रसन्न होइये । हे शंकर ! हे स्वामिन् ! प्रसन्न होइये । हे परमेश्वर ! प्रसन्न होइये ॥ १२-१३ ॥

ॐकाराय नमस्तुभ्यमाकारपरतारक ।
प्रसीद सर्वदेवेश त्रिपुरघ्न महेश्वर ॥ १४ ॥
नानावाच्याय देवाय प्रणतप्रिय शंकर ।
अगुणाय नमस्तुभ्यं प्रकृतेः पुरुषात्पर ॥ १५ ॥
जीवोंके उद्धारकर्ता आप ओंकारको नमस्कार है । हे सर्वदेवेश ! त्रिपुरका विनाश करनेवाले हे महेश्वर ! आप प्रसन्न होइये । हे प्रणतप्रिय ! हे शंकर ! अनेक नामोंसे वाच्य आप देवको नमस्कार है, हे प्रकृति एवं पुरुषसे पर ! आप निर्गुणको नमस्कार है ॥ १४-१५ ॥

निर्विकाराय नित्याय नित्यतृप्ताय भास्वते ।
निरञ्जनाय दिव्याय त्रिगु णाय नमोऽस्तु ते ॥ १६ ॥
निर्विकार, नित्य, नित्यतृप्त, प्रकाशमान, निरंजन, दिव्य तथा त्रिगुणरूप आपको प्रणाम है ॥ १६ ॥

सगुणाय नमस्तुभ्यं स्वर्गेशाय नमोस्तु ते ।
सदाशिवाय शान्ताय महेशाय पिनाकिने ॥ १७ ॥
सगुणरूपधारी आपको नमस्कार है । स्वर्गेश, सदाशिव, शान्त, पिनाकधारी तथा महेश्वर आपको नमस्कार है ॥ १७ ॥

सर्वज्ञाय शरण्याय सद्योजाताय ते नमः ।
वामदेवाय रुद्राय तदाप्यपुरुषाय च ॥ १८ ॥
सर्वज्ञ, शरण देनेवाले, सद्योजात, वामदेव, रुद्र एवं आप्यपुरुष आपको नमस्कार है ॥ १८ ॥

अघोराय सुसेव्याय भक्ताधीनाय ते नमः ।
ईशानाय वरेण्याय भक्तानन्दप्रदायिने ॥ १९ ॥
अघोर, सुसेव्य, भक्ताधीन, ईशान, वरेण्य (श्रेष्ठ) एवं भक्तोंको आनन्द देनेवाले आपको नमस्कार है ॥ १९ ॥

रक्षरक्ष महादेव भीतान्नः सकलामरान् ।
दग्ध्वा च त्रिपुरं सर्वे कृतार्था अमराः कृताः ॥ २० ॥
स्तुत्वैवं देवताःसर्वे नमस्कारं पृथक्पृथक् ।
चक्रुस्ते परमप्रीता ब्रह्माद्यास्तु सदाशिवम् ॥ २१ ॥
हे महादेव ! आपने त्रिपुरको जलाकर सभी देवताओंको कृतार्थ कर दिया, अब आप भयभीत समस्त देवताओंकी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये । इस प्रकार ब्रह्मादि सभी देवता अति प्रसन्न होकर भगवान् सदाशिवकी स्तुतिकर उन्हें पृथक्-पृथक् प्रणाम करने लगे ॥ २०-२१ ॥

अथ ब्रह्मा स्वयं देवं त्रिपुरारिं महेश्वरम् ।
तुष्टाव प्रणतो भूत्वा नतस्कन्धः कृताञ्जलिः ॥ २२ ॥
इसके बाद स्वयं ब्रह्माजी सिर झुकाकर तथा हाथ जोड़कर त्रिपुरारि महेश्वरदेवकी स्तुति करने लगे ॥ २२ ॥

ब्रह्मोवाच
भगवन्देवदेवेश त्रिपुरान्तक शंकर ।
त्वयि भक्तिः परा मेऽस्तु महादेवानपायिनी ॥ २३ ॥
सर्वदा मेऽस्तु सारथ्यं तव देवेश शंकर ।
अनुकूलो भव विभो सदा त्वं परमेश्वर ॥ २४ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे भगवन् ! हे देवदेवेश ! हे त्रिपुरान्तक ! हे शंकर ! हे महादेव ! मेरी अनपायिनी श्रेष्ठ भक्ति आपमें सदैव बनी रहे । हे देवेश ! हे शंकर ! मैं सदा आपका सारथी बना रहूँ । हे विभो ! हे परमेश्वर ! आप सदा मेरे अनुकूल रहें ॥ २३-२४ ॥

सनत्कुमार उवाच
इति स्तुत्वा विधिः शम्भुं भक्तवत्सलमानतः ।
विरराम नतस्कन्धः कृताञ्जलिरुदारधीः ॥ २५ ॥
सनत्कुमार बोले-इस प्रकार उदार बुद्धिवाले ब्रह्मा कन्धा झुकाये हुए हाथ जोड़कर विनम्र हो भक्तवत्सल भगवान् शिवजीकी स्तुतिकर चुप हो गये ॥ २५ ॥

जनार्दनोऽपि भगवान् नमस्कृत्य महेश्वरम् ।
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा तुष्टाव च महेश्वरम् ॥ २६ ॥
इसके बाद भगवान् विष्णुने भी हाथ जोड़कर महेश्वरको प्रणाम करके उनकी स्तुति की ॥ २६ ॥

विष्णुरुवाच
देवाधीश महेशान दीनबन्धो कृपाकर ।
प्रसीद परमेशान कृपां कुरु नतप्रिय ॥ २७ ॥
विष्णुजी बोले-हे देवाधीश ! हे महेश्वर ! हे दीनबन्धो ! हे कृपाकर ! हे परमेश्वर ! हे प्रणतप्रिय ! आप प्रसन्न होइये और कृपा कीजिये ॥ २७ ॥

निर्गुणाय नमस्तुभ्यं पुनश्च सगुणाय च ।
पुनः प्रकृतिरूपाय पुनश्च पुरुषाय च ॥ २८ ॥
निर्गुण होते हुए भी सगुण और प्रकृतिरूप होते हुए भी पुरुषरूप आपको नमस्कार है ॥ २८ ॥

पश्चाद्‌गुणस्वरूपाय नतो विश्वात्मने नमः ।
भक्तिप्रियाय शान्ताय शिवाय परमात्मने ॥ २९ ॥
उसके बाद गुणरूप धारण करनेवाले विश्वात्मा आपको नमस्कार है । विश्वात्मा, भक्तप्रिय, शान्तस्वरूप तथा परमात्मा शिवको नमस्कार है ॥ २९ ॥

सदाशिवाय रुद्राय जगतां पतये नमः ।
त्वयि भक्तिर्दृढा मेऽद्य वर्द्धमाना भवत्विति ॥ ३० ॥
सदाशिव, रुद्र एवं जगत्पतिको नमस्कार है । आपमें आजसे मेरी भक्ति दृढ़ होकर निरन्तर बढ़ती रहे ॥ ३० ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्युक्त्वा विररामासौ शैवप्रवरसत्तमः ।
सर्वे देवाः प्रणम्योचुस्ततस्तं परमेश्वरम् ॥ ३१ ॥
सनत्कुमार बोले-ऐसा कहकर महाशिवभक्त विष्णु मौन हो गये । इसके बाद सभी देवता प्रणाम करके उन परमेश्वरसे कहने लगे- ॥ ३१ ॥

देवा ऊचुः
देवनाथ महादेव करुणाकर शंकर ।
प्रसीद जगतां नाथ प्रसीद परमेश्वर ॥ ३२ ॥
देवता बोले-हे देवनाथ ! हे महादेव ! हे करुणाकर ! हे शंकर ! हे जगत्पते ! हे परमेश्वर ! प्रसन्न होइये, प्रसन्न होइये ॥ ३२ ॥

प्रसीद सर्वकर्ता त्वं नमामस्त्वां वयं मुदा ।
भक्तिर्दृढास्माकं नित्यं स्यादनपायिनी ॥ ३३ ॥
आप सर्वकर्ता हैं । आप प्रसन्न होइये । हमलोग प्रसन्नताके साथ आपको नमस्कार करते हैं । आपमें हमारी अविनाशी दृढ़ भक्ति सदा बनी रहे ॥ ३३ ॥

सनत्कुमार उवाच
इति स्तुतश्च देवेशो ब्रह्मणा हरिणामरैः ।
प्रत्युवाच प्रसन्नात्मा शंकरो लोकशंकरः ॥ ३४ ॥
सनत्कुमार बोले-इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा देवताओंके द्वारा स्तुति किये जानेपर लोककल्याणकर्ता शंकरजीने प्रसन्नचित्त होकर कहा- ॥ ३४ ॥

शंकर उवाच
हे विधे हे हरे देवाः प्रसन्नोऽस्मि विशेषतः ।
मनोऽभिलषितं ब्रूत वरं सर्वे विचा रतः ॥ ३५ ॥
शंकर बोले-हे विधे ! हे विष्णो ! हे देवताओ ! मैं विशेषरूपसे प्रसन्न हूँ । आपलोग अच्छी तरह विचारकर अपने मनोवांछित वरको बतलायें ॥ ३५ ॥

सनत्कुमारः उवाच
इत्युक्तं वचनं श्रुत्वा हरेण मुनिसत्तम ।
प्रत्यूचुः सर्वदेवाश्च प्रसन्नेनान्तरात्मना ॥ ३६ ॥
सनत्कुमार बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! शिवजीके द्वारा कहे गये वचनको सुनकर सभी देवता प्रसन्नमनसे कहने लगे- ॥ ३६ ॥

सर्वे देवा ऊचुः
यदि प्रसन्नो भगवन्यदि देयो वरस्त्वया ।
देवदेवेश चास्मभ्यं ज्ञात्वा दासान्हि नःसुरान् ॥ ३७ ॥
यदा दुःखं तु देवानां सम्भवेद्देवसत्तम ।
तदा त्वं प्रकटो भूत्वा दुःखं नाशय सर्वदा ॥ ३८ ॥
सभी देवता बोले-हे भगवन् ! हे देवदेवेश ! यदि आप प्रसन्न हैं और यदि आपको हमें वर देना ही है, तो हम देवताओंको अपना दास समझकर यह वर दीजिये कि हे देवश्रेष्ठ ! जब-जब देवताओंपर विपत्ति पड़े, तब-तब आप प्रकट होकर सदा दुःखका निवारण करें ॥ ३७-३८ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्युक्तो भगवान् रुद्रो ब्रह्मणा हरिणामरैः ।
युगपत्प्राह तुष्टात्मा तथेत्यस्तु निरन्तरम् ॥ ३९ ॥
स्तवैरेतैश्च तुष्टोऽस्मि दास्यामि सर्वदा ध्रुवम् ।
यदभीष्टतमं लोके पठतां शृण्वतां सुराः ॥ ४० ॥
सनत्कुमार बोले-जब ब्रह्मा, विष्णु तथा देवताओंने भगवान् शंकरसे इस प्रकार कहा, तब उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर एक ही बार सभी देवताओंसे कहा-ऐसा ही होगा । हे देवगणो ! मैं इन स्तोत्रोंसे प्रसन्न हूँ । इनका पाठ करनेवालों तथा सुननेवालोंको मैं निश्चित रूपसे सर्वदा लोकमें परम अभीष्ट वर देता रहूँगा ॥ ३९-४० ॥

इत्युक्त्वा शंकरः प्रीतो देवदुःखहरःसदा ।
सर्वदेवप्रियं यद्वै तत्सर्वं च प्रदत्तवान् ॥ ४१ ॥
इस प्रकार कहकर देवताओंके दुःखका सदा निवारण करनेवाले शंकरजीने प्रसन्न होकर जो भी समस्त देवताओंको प्रिय था, वह सब उन्हें प्रदान किया ॥ ४१ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे
युद्धखण्डे देवस्तुतिवर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुजसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें देवस्तुतिवर्णन नामक ग्यारहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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