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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

द्वादशोऽध्यायः

सनत्कुमारपाराशर्य्यसंवादे त्रिपुरवधानन्तरदेवस्तुतिमयस्तुतिमुण्डिनिवेशनदेवस्वस्थानगमनवर्णनं -
त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना


सनत्कुमार उवाच
एतस्मिन्नन्तरे शम्भुं प्रसन्नं वीक्ष्य दानवः ।
तत्राजगाम सुप्रीतो मयोऽदग्धः कृपाबलात् ॥ १ ॥
प्रणनाम हरं प्रीत्या सुरानन्यानपि ध्रुवम् ।
कृताञ्जलिर्नतस्कन्धः प्रणनाम पुनः शिवम् ॥ २ ॥
अथोत्थाय शिवं दृष्ट्‍वा प्रेम्णा गद्‌गदसुस्वरः ।
तुष्टाव भक्तिपूर्णात्मा स दानववरो मयः ॥ ३ ॥
सनत्कुमार बोले-शिवजीको प्रसन्न देखकर उनकी कृपाके प्रभावसे भस्म होनेसे बचा हुआ मयदानव अति प्रसन्न होकर वहाँ आया । उसने सदाशिव एवं अन्य देवताओंको भी प्रेमपूर्वक हाथ जोड़कर सिर झुकाकर प्रणाम किया और उसके बाद शिवजीको पुनः प्रणाम किया । तदनन्तर उठकर शिवजीकी ओर देखकर भक्तिसे पूर्ण मनवाला वह श्रेष्ठ दानव मय प्रेमपूर्वक गद्‌गद वाणीसे उनकी स्तुति करने लगा- ॥ १-३ ॥

मय उवाच
देवदेव महादेव भक्तवत्सल शंकरः ।
कल्पवृक्षस्वरूपोऽसि सर्वपक्षविवर्जितः ॥ ४ ॥
मय बोला-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे भक्तवत्सल ! हे शंकर ! आप कल्पवृक्षस्वरूप हैं तथा सभी पक्षोंसे रहित हैं ॥ ४ ॥

ज्योतीरूपो नमस्तेऽस्तु विश्वरूप नमोऽस्तु ते ।
नमः पूतात्मने तुभ्यं पावनाय नमो नमः ॥ ५ ॥
हे प्रकाशरूप ! आपको नमस्कार है । हे विश्वरूप ! आपको नमस्कार है, आप पवित्रात्माको बार-बार नमस्कार है । आप पवित्र करनेवालेको बार-बार नमस्कार है ॥ ५ ॥

चित्ररूपाय नित्याय रूपातीताय ते नमः ।
दिव्यरूपाय दिव्याय सुदिव्याकृतये नमः ॥ ६ ॥
नमः प्रणतसर्वार्तिनाशकाय शिवात्मने ।
कर्त्रे भर्त्रे च संहर्त्रे त्रिलोकानां नमो नमः ॥ ७ ॥
भक्तिगम्याय भक्तानां नमस्तुभ्यं कृपालवे ।
तपःसत्फलदात्रे ते शिवाकान्त शिवेश्वर ॥ ८ ॥
विचित्र रूपवाले, नित्य तथा रूपसे अतीत आपको नमस्कार है । दिव्यरूप, दिव्य एवं अत्यन्त दिव्य आकृतिवाले आपको नमस्कार है । प्रणतजनोंकी सभी प्रकारको विपत्तियोंको दूर करनेवाले तथा सबका कल्याण चाहनेवाले आपको नमस्कार है । त्रिलोकीके कर्ता, भर्ता तथा हर्ता आपको बार बार नमस्कार है । हे शिवाकान्त ! हे शिवेश्वर ! भक्तोंको भक्तिसे प्राप्त होनेवाले, कृपा करनेवाले तथा तपस्याका उत्तम फल देनेवाले आपको प्रणाम है ॥ ६-८ ॥

न जानामि स्तुतिं कर्तुं स्तुतिप्रिय परेश्वर ।
प्रसन्नो भव सर्वेश पाहि मां शरणागतम् ॥ ९ ॥
हे स्तुतिप्रिय ! हे परमेश्वर ! मैं स्तुति करना नहीं जानता हूँ । हे सर्वेश ! आप प्रसन्न हो जाइये और मुझ शरणागतकी रक्षा कीजिये ॥ ९ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्याकर्ण्य मयोक्तां हि संस्तुतिं परमेश्वरः ।
प्रसन्नोऽभूद्‌ द्विजश्रेष्ठ मयं प्रोवाच चादरात् ॥ १ ० ॥
सनत्कुमार बोले-हे द्विज श्रेष्ठ ! मयद्वारा की गयी स्तुतिको सुनकर शंकरजी प्रसन्न हुए और आदरपूर्वक मयसे कहने लगे- ॥ १० ॥

शिव उवाच
वरं ब्रूहि प्रसन्नोऽहं मय दानवसत्तम ।
मनोऽभिलषितं यत्ते तद्दास्यामि न संशयः ॥ ११ ॥
शिवजी बोले-हे दानवश्रेष्ठ मय ! मैं [तुमपर] प्रसन्न हूँ, वर माँगो, मैं तुम्हारा जो भी मनोवांछित वर होगा, उसे प्रदान करूँगा, इसमें संशय नहीं है ॥ ११ ॥

सनत्कुमार उवाच
श्रुत्वा शिवं वचः शम्भोः स मयो दानवर्षभः ।
प्रत्युवाच प्रभुं नत्वा नतस्कन्धः कृताञ्जलिः ॥ १२ ॥
सनत्कुमार बोले-शिवका कल्याणकारी वचन सुनकर दानवश्रेष्ठ मय हाथ जोड़कर सिर झुकाकर शिवको नमस्कारकर कहने लगा- ॥ १२ ॥

मय उवाच
देवदेव महादेव प्रसन्नो यदि मे भवान् ।
वरयोग्योऽस्म्यहं चेद्धि स्वभक्तिं देहि शाश्वतीम् ॥ १३ ॥
मय बोला-हे देवदेव ! हे महादेव ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और यदि मैं वर पानेके योग्य हैं, तो मुझे अपनी शाश्वती भक्ति प्रदान कीजिये ॥ १३ ॥

स्वभक्तेषु सदा सख्यं दीनेषु च दयां सदा ।
उपेक्षामन्यजीवेषु खलेषु परमेश्वर ॥ १४ ॥
कदापि नासुरो भावो भवेन्मम महेश्वर ।
निर्भयः स्यां सदा नाथ मग्नस्त्वद्‌भजने शुभे ॥ १५ ॥
हे परमेश्वर ! आप अपने भक्तोंके प्रति सर्वदा सख्यभाव तथा दीनोंके प्रति सदा दयाभाव रखिये और अन्य खल जीवोंकी उपेक्षा कीजिये । हे महेश्वर ! मुझमें कभी भी असुरभाव न रहे । हे नाथ ! मैं सदा निर्भय एवं आपके शुभ भजनमें मग्न रहूँ ॥ १४-१५ ॥

सनत्कुमार उवाच
इति सम्प्रार्थ्यमानस्तु शंकरः परमेश्वरः ।
प्रत्युवाच मये नाथः प्रसन्नो भक्तवत्सलः ॥ १६ ॥
सनत्कुमार बोले-इस प्रकार मयदानवके प्रार्थना करनेपर भक्तवत्सल परमेश्वर भगवान् शंकर प्रसन्न होकर मयसे कहने लगे- ॥ १६ ॥

महेश्वर उवाच
दानवर्षभ धन्यस्त्वं मद्‌भक्तो निर्विकारवान् ।
प्रदत्तास्ते वराः सर्वेऽभीप्सिता ये तवाधुना ॥ १७ ॥
गच्छ त्वं वितलं लोकं रमणीयं दिवोऽपि हि ।
समेतः परिवारेण निजेन मम शासनात् ॥ १८ ॥
निर्भयस्तत्र सन्तिष्ठ संहृष्टो भक्तिमान् सदा ।
कदापि नासुरो भावो भविष्यति मदाज्ञया ॥ १९ ॥
महेश्वर बोले-हे दानवश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो, तुम मेरे विकाररहित भक्त हो, इस समय जो भी तुम्हारे अभीष्ट वर हैं, उन सबको मैंने तुम्हें दे दिया । तुम मेरी आज्ञासे अपने परिवारसहित स्वर्गलोकसे भी मनोहर वितललोकको जाओ और भक्तियुक्त तथा निर्भय होकर वहाँ रहो । मेरी आज्ञासे तुम्हारे चित्तमें कभी भी असुरभाव उत्पन्न नहीं होगा ॥ १७-१९ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्याज्ञां शिरसाधाय शंकरस्य महात्मनः ।
तं प्रणम्य सुरांश्चापि वितलं प्रजगाम सः ॥ २० ॥
एतस्मिन्नन्तरे ते वै मुण्डिनश्च समागताः ।
प्रणम्योचुश्च तान्सर्वान्विष्णुब्रह्मादिकान् सुरान् ॥ २१ ॥
कुत्र याम वयं देवाः कर्म किं करवामहे ।
आज्ञापयत नः शीघ्रं भवदादेशकारकान् ॥ २२ ॥
सनत्कुमार बोले-[हे व्यास !] उसके बाद शिवजीकी आज्ञा शिरोधार्यकर उनको तथा देवताओंको भी प्रणामकर वह वितललोकको चला गया । इसी बीच वे मुण्डी भी वहाँ आ गये और ब्रह्मा, विष्णु आदि उन सभी देवताओंको प्रणामकर कहने लगे-हे देवताओ ! हमलोग कहाँ जार्य तथा क्या करें, आपकी आजा माननेवाले हम सभीको शीघ्रतासे आज्ञा दीजिये ॥ २०-२२ ॥

कृतं दुष्कर्म चास्माभिर्हे हरे हे विधे सुराः ।
दैत्यानां शिवभक्तानां शिवभक्तिर्विनाशिता ॥ २३ ॥
कोटिकल्पानि नरके नो वासस्तु भविष्यति ।
नोद्धारो भविता नूनं शिवभक्तविरोधिनाम् ॥ २४ ॥
परन्तु भवदिच्छात इदं दुष्कर्म नः कृतम् ।
तच्छान्तिं कृपया ब्रूत वयं वः शरणागताः ॥ २५ ॥
हे हरे ! हे विधे ! हे देवो ! हमलोगोंने दुष्कर्म किया है, जो कि शिवजीमें भक्ति रखनेवाले दानवोंकी शिवभक्तिको विनष्ट किया । [इस पापके फलस्वरूप] करोड़ों कल्पॉतक नरकमें हमलोगोंका वास होगा । शिवभक्तोंका विरोध करनेवाले हमलोगोंका उद्धार निश्चितरूपसे नहीं होगा, किंतु हमलोगोंने आपलोगोंकी इच्छासे ही यह दुष्कर्म किया है । अतः कृपापूर्वक आपलोग उसकी शान्तिका मार्ग बतायें, हम आपलोगोंक शरणागत हैं ॥ २३-२५ ॥

सनत्कुमार उवाच
तेषां तद्वचनं श्रुत्वा विष्णुब्रह्मादयःसुराः ।
अब्रुवन्मुण्डिनस्तांस्ते स्थितानग्रे कृताञ्जलीन् ॥ २६ ॥
सनत्कुमार बोले-उनका वह वचन सुनकर विष्णु, ब्रह्मादि देवता अपने आगे हाथ जोड़कर खड़े उन मुण्डियोंसे कहने लगे- ॥ २६ ॥

विष्ण्वादय ऊचुः
न भेतव्यं भवद्‌भिस्तु मुण्डिनो वै कदाचन ।
शिवाज्ञयेदं सकलं जातं चरितमुत्तमम् ॥ २७ ॥
युष्माकं भविता नैव कुगतिर्दुःखदायिनी ।
शिववासा यतो यूयं देवर्षिहितकारकाः ॥ २८ ॥
विष्णु आदि [ देवता] बोले-हे मुण्डियो ! तुमलोग किसी प्रकारका भय मत करो, यह सारा उत्तम चरित्र शिवजीकी आज्ञासे हुआ है । तुमलोगोंको दुःख देनेवाली दुर्गति कदापि न होगी; क्योंकि तुमलोग शिवजीके दास हो और देवताओं एवं ऋषियोंके हितकारी हो । २७-२८ ॥

सुरर्षिहितकृच्छम्भुःसुरर्षिहितकृत्प्रियः ।
सुरर्षिहितकृन्नॄणां कदापि कुगतिर्न हि ॥ २९ ॥
अद्यतो मतमेतं हि प्रविष्टानां नृणां कलौ ।
कुगतिर्भविता ब्रूमः सत्यं नैवात्र संशयः ॥ ३० ॥
शंकरजी देवगणों एवं ऋषियोंके हितकर्ता हैं और देवताओं तथा ऋषियोंका हित करनेवाले लोग उन्हें प्रिय हैं, अतः देवताओं तथा ऋषियोंका हित करनेवाले मनुष्योंकी कदापि दुर्गति नहीं होती । इसके विपरीत मतको स्वीकार करनेवाले मनुष्योंकी कलियुगमें दुर्गति होगी, हम यह सत्य कहते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २९-३० ॥

भवद्‌भिर्मुण्डिनो धीरा गुप्तभावान्ममाज्ञया ।
तावन्मरुस्थली सेव्या कलिर्यावात्समाव्रजेत् ॥ ३१ ॥
आगते च कलौ यूयं स्वमतं स्थापयिष्यथ ।
कलौ तु मोहिता मूढाःसङ्‌ग्रहीष्यन्ति वो मतम् ॥ ३२ ॥
हे मुण्डियो ! तुमलोग मेरी आज्ञासे धैर्य धारणकर गुप्तरूपसे कलियुगके आनेतक मरुस्थलमें निवास करो । कलियुगके आनेपर तुमलोग अपना मत स्थापित करना; क्योंकि कलियुगमें लोग मोहमें पड़कर तुमलोगोंका मत स्वीकार कर लेंगे ॥ ३१-३२ ॥

इत्याज्ञप्ताः सुरेशैश्च मुण्डिनस्ते मुनीश्वर ।
नमस्कृत्य गतास्तत्र यथोद्दिष्टं स्वमाश्रमम् ॥ ३३ ॥
ततः स भगवान् रुद्रो दग्ध्वा त्रिपुरवासिनः ।
कृतकृत्यो महायोगी ब्रह्माद्यैरभिपूजितः ॥ ३४ ॥
हे मुनीश्वर ! उन सुरेश्वरोंके द्वारा इस प्रकारकी आज्ञा प्राप्तकर वे मुण्डी उन्हें प्रणामकर यथानिर्दिष्ट अपने आश्रमको चले गये । इसके अनन्तर [हे व्यास !] त्रिपुरवासियोंको भस्म करनेके बाद कृतकृत्य हुए वे महायोगी भगवान् रुद्र ब्रा आदिके = द्वारा पूजित हुए । ३३-३४ ॥

स्वगणैर्निखिलैर्देव्या शिवया सहितः प्रभुः ।
कृत्वामरमहत्कार्यं ससुतोन्तरधादथ ॥ ३५ ॥
ततश्चान्तर्हिते देवे परिवारान्विते शिवे ।
धनुः शररथाद्यैश्च प्राकारोऽन्तर्द्धिमागमत् ॥ ३६ ॥
इस प्रकार देवताओंका महान् कार्य सम्पन्नकर वे प्रभु अपने गणों, देवी पार्वती तथा पुत्रोंसहित अन्तर्धान हो गये । तदनन्तर परिवारसहित महादेव शंकरके अन्तर्धान हो जानेपर धनुष-बाण, रथ आदिसहित समस्त सामग्री विलुप्त हो गयी ॥ ३५-३६ ॥

ततो ब्रह्मा हरिर्देवा मुनिगन्धर्वकिन्नराः ।
नागाः सर्पाश्चाप्सरसः संहृष्टाश्चाथ मानुषाः ॥ ३७ ॥
स्वंस्वं स्थानं मुदा जग्मुः शंसन्तः शाङ्‌करं यशः ।
स्वंस्वं स्थानमनुप्राप्य निवृतिं परमां ययुः ॥ ३८ ॥
इसके बाद ब्रह्मा, विष्णु, सभी देवता, मुनि, गन्धर्व, किन्नर, नाग, सर्प, अप्सराएँ तथा मनुष्य प्रसन्न हो गये और प्रसन्नतापूर्वक शिवजीका यशोगान करते हुए अपने-अपने स्थानोंको चले गये एवं अपने अपने स्थानोंपर पहुँचकर परम शान्तिको प्राप्त हुए ॥ ३७-३८ ॥

एतत्ते कथितं सर्वं चरितं शशिमौलिनः ।
त्रिपुरक्षयसंसूचि परलीलान्वितं महत् ॥ ३९ ॥
धन्यं यशस्यमायुष्यं धनधान्यप्रवर्द्धकम् ।
स्वर्गदं मोक्षदं चापि किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ४० ॥
[हे वेदव्यास !] इस प्रकार मैंने आपसे त्रिपुरके वधको सूचित करनेवाले, महालीलासे परिपूर्ण तथा उत्कृष्ट सम्पूर्ण शिव-चरित्रका वर्णन कर दिया, जो धन्य, यशको फैलानेवाला, आयुकी वृद्धि करनेवाला, धन-धान्यको बढ़ानेवाला, स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ॥ ३९-४० ॥

इदं हि परमाख्यानं यः पठेच्छ्रणुयात्सदा ।
इह भुक्त्वाखिलान्कामान् अन्ते मुक्तिमवाप्नुयात् ॥ ४१ ॥
जो इस उत्तम वृत्तान्तको सदा पढ़ता है तथा सुनता है, वह इस लोकमें सम्पूर्ण सुखोंको भोगकर अन्तमें मुक्ति प्राप्त करता है ॥ ४१ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे
सनत्कुमारपाराशर्य्यसंवादे त्रिपुरवधानन्तरदेवस्तुतिमय-
स्तुतिमुण्डिनिवेशनदेवस्वस्थानगमनवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें सनत्कुमारव्याससंवादके अन्तर्गत त्रिपुरवधके पश्चात् देवस्तुति- मयस्तुति- मुण्डिनिवेशन तथा देवताओंका स्वस्थानगमनवर्णन नामक बारहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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