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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे
त्रयोदशोऽध्यायः जलन्धरवधोपाख्याने शक्रजीवनम् -
बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शनके लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्र में फेंकना व्यास उवाच भो ब्रह्मन्भगवन्पूर्वं श्रुतं मे ब्रह्मपुत्रक । जलन्धरं महादैत्यमवधीच्छङ्करः प्रभुः ॥ १ ॥ तत्त्वं वद महाप्राज्ञ चरितं शशिमौलिनः । विस्तारपूर्वकं शृण्वन्कस्तृप्येत्तद्यशोऽमलम् ॥ २ ॥ व्यासजी बोले-हे ब्रह्मन् ! हे भगवन् ! हे ब्रह्मपुत्र ! मैंने सुना है कि पूर्वकालमें प्रभु शंकरजीने महादैत्य जलन्धरका वध किया था । हे महाप्राज्ञ ! आप शंकरजीके उस चरित्रको विस्तारपूर्वक कहिये, उनके पावन चरित्रको सुनता हुआ कौन तृप्त हो सकता है ॥ १-२ ॥ सूत उवाच इत्येवं व्याससम्पृष्टो ब्रह्मपुत्रो महामुनिः । उवाचार्थवदव्यग्रं वाक्यं वाक्यविशारदः ॥ ३ ॥ सूतजी बोले-महामुनि व्यासजीके द्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर बोलनेमें प्रवीण महामुनि सनत्कुमारजी शान्तिपूर्वक अर्थमय वचन कहने लगे- ॥ ३ ॥ सनत्कुमार उवाच एकदा जीवशक्रौ च भक्त्या परमया मुने । दर्शनं कर्तुमीशस्य कैलासं जग्मतुर्भृशम् ॥ ४ ॥ सनत्कुमार बोले-हे मुने ! एक बार बृहस्पति एवं इन्द्र परम भक्तिसे युक्त हो शंकरजीका दर्शन करनेके लिये कैलासको गये थे ॥ ४ ॥ अथ गुर्विन्द्रयोर्ज्ञात्वागमनं शंकरः प्रभुः । परीक्षितुं तयोर्ज्ञानं स्वदर्शनरतात्मनोः ॥ ५ ॥ दिगम्बरोऽथ तन्मार्गमारुद्ध्य सद्गतिः सताम् । जटाबद्धेन शिरशातिष्ठत्संशोभिताननः ॥ ६ ॥ तब बृहस्पति तथा इन्द्रके आगमनको जानकर अपने दर्शनके लिये तत्पर मनवाले उन दोनोंके ज्ञानकी परीक्षा लेनेके लिये सिरपर जटाजूट बाँधकर प्रसन्नमुख तथा दिगम्बर होकर सज्जनोंको सद्गति देनेवाले प्रभु शंकर उनका मार्ग रोककर खड़े हो गये ॥ ५-६ ॥ अथ तौ गुरुशक्रौ च कुर्वन्तौ गमनं मुदा । आलोक्य पुरुषं भीमं मार्गमध्येऽद्भुताकृतिम् ॥ ७ ॥ महातेजस्विनं शान्तं जटासम्बद्धमस्तकम् । महाबाहुं महोरस्कं गौरं नयनभीषणम् ॥ ८ ॥ उसके बाद आनन्दपूर्वक जाते हुए इन्द्र एवं बृहस्पतिने मार्गमें स्थित, भयंकर, अद्भुत आकारवाले, महातेजस्वी, सिरपर जटाजूट बाँधे हुए, शान्त, विशाल भुजाओंवाले, चौड़े वक्षःस्थलवाले, गौरवर्णवाले तथा भयावह नेत्रवाले पुरुषको देखा ॥ ७-८ ॥ अथो पुरन्दरोऽपृच्छत्स्वाधिकारेण दुर्मदः । पुरुषं तं स्वमार्गान्तः स्थितमज्ञाय शंकरम् ॥ ९ ॥ तब अपने अधिकारसे मदमत्त इन्द्रने मार्गमें स्थित उस शंकररूप पुरुषको न पहचानकर पूछा- ॥ ९ ॥ पुरन्दर उवाच कस्त्वं भोः कुत आयातः किं नाम वद तत्त्वतः । स्वस्थानेसंस्थितः शम्भु किं वान्यत्र गतः प्रभुः ॥ १० ॥ इन्द्र बोले-तुम कौन हो, कहाँसे आये हो और तुम्हारा नाम क्या है ? प्रभु शिवजी अपने स्थानपर स्थित हैं अथवा कहीं अन्यत्र गये हुए हैं, ठीक-ठीक बताओ ॥ १० ॥ सनत्कुमार उवाच शक्रेणेत्थं स पृष्टस्तु किञ्चिन्नोवाच तापसः । शक्रः पुनरपृच्छद्वै नोवाच स दिगम्बरः ॥ ११ ॥ सनत्कुमार बोले-इन्द्रके द्वारा इस प्रकार पूछे गये उस तपस्वीने कुछ नहीं कहा । तब इन्द्रने पुनः पूछा, किंतु वह दिगम्बर कुछ नहीं बोला ॥ ११ ॥ पुनः पुरन्दरोऽपृच्छल्लोकानामधिपेश्वरः । तूष्णीमास महायोगी लीलारूपधरः प्रभुः ॥ १२ ॥ इत्थं पुनः पुनः पृष्टः शक्रेण स दिगम्बरः । नोवाच किञ्चिद्भगवान् शक्रज्ञानपरीक्षया ॥ १३ ॥ तब लोकाधीश्वर इन्द्रने पुनः पूछा, किंतु लीलारूपधारी महायोगी प्रभु शंकरजी मौन ही रहे । इस प्रकार इन्द्रके द्वारा बार-बार पूछे गये वे दिगम्बर भगवान् शिव इन्द्रके ज्ञानकी परीक्षा लेनेके लिये कुछ नहीं बोले ॥ १२-१३ ॥ अथ चुक्रोध देवेशस्त्रैलोक्यैश्वर्यगर्वितः । उवाच वचनं चैव तं निर्भर्त्स्य जटाधरम् ॥ १४ ॥ तत्पश्चात् तीनों लोकोंके ऐश्वर्यसे गर्वित इन्द्रको महान् क्रोध उत्पन्न हुआ और उन जटाधारी दिगम्बरकी भर्त्सना करते हुए उन्होंने यह वचन कहा- ॥ १४ ॥ इन्द्र उवाच रे मया पृच्छ्यमानोऽपि नोत्तरं दत्तवानसि । अतस्त्वां हन्मि वज्रेण कस्ते त्रातास्ति दुर्मते ॥ १५ ॥ इन्द्र बोले-हे दुर्मत ! मेरे द्वारा पूछे जानेपर भी तुमने उत्तर नहीं दिया । अतः मैं इस बज्रसे तुम्हारा वध करता हूँ, देखता हूँ कि कौन तुम्हारी रक्षा करता है ॥ १५ ॥ सनत्कुमार उवाच इत्युदीर्य ततो वज्री संनिरीक्ष्य क्रुधा हि तम् । हन्तुं दिगम्बरं वज्रमुद्यतं स चकार ह ॥ १६ ॥ सनत्कुमार बोले-ऐसा कहकर उन इन्द्रने क्रोधसे उस दिगम्बरकी ओर देखकर उसे मारनेके लिये [हाथमें] वज्र उठा लिया ॥ १६ ॥ पुरन्दरं वज्रहस्तं दृष्ट्वा देवः सदाशिवः । चकार स्तम्भनं तस्य वज्रपातस्य शंकरः ॥ १७ ॥ तब सदाशिव प्रभु शंकरने इन्द्रको हाथमें वज़ लिये हुए देखकर उस वज्रपातको स्तम्भित कर दिया ॥ १७ ॥ ततो रुद्रः क्रुधाविष्टः करालाक्षो भयङ्करः । द्रुतमेव प्रजज्वाल तेजसा प्रदहन्निव ॥ १८ ॥ तत्पश्चात् अत्यन्त भयंकर तथा विकराल नेत्रवाले रुद्र क्रुद्ध हो अपने तेजसे शीघ्र ही प्रज्वलित हो उठे, मानो जला डालेंगे ॥ १८ ॥ बाहुप्रतिष्टम्भभुवा मन्युनान्तः शचीपतिः । समदह्यत भोगीव मन्त्ररुद्धपराक्रमः ॥ १९ ॥ भुजाके स्तम्भित हो जानेसे इन्द्र मन-ही-मन इस प्रकार प्रज्वलित हो गये, जैसे मन्त्र एवं औषधिसे अपने पराक्रमको रुद्ध देखकर सर्प प्रज्वलित होता है ॥ १९ ॥ दृष्ट्वा बृहस्पतिस्तूर्णं प्रज्वलन्तं स्वतेजसा । पुरुषं तं धिया ज्ञात्वा प्रणनाम हरं प्रभुम् ॥ २० ॥ कृताञ्जलिपुटो भूत्वा ततो गुरुरुदारधीः । नत्वा च दण्डवद्भूमौ प्रभुं स्तोतुं प्रचक्रमे ॥ २१ ॥ तब अपने तेजसे प्रचलित होते हुए उस पुरुषको देखकर और बुद्धिसे उन्हें प्रभु शंकर जानकर बृहस्पतिने प्रणाम किया । उसके बाद उदारबुद्धिवाले बृहस्पति हाथ जोड़कर पृथ्वीपर दण्डवत् प्रणाम करके प्रभुकी स्तुति करने लगे- ॥ २०-२१ ॥ गुरुरुवाच नमो देवाधिदेवाय महादेवाय चात्मने । महेश्वराय प्रभवे त्र्यम्बकाय कपर्दिने ॥ २२ ॥ दीननाथाय विभवे नमोऽन्धकनिषूदिने । त्रिपुरघ्नाय शर्वाय ब्रह्मणे परमेष्ठिने ॥ २३ ॥ गुरु बोले-देवाधिदेव, महादेव, परमात्मस्वरूप, सर्वसमर्थ, तीन नेत्रवाले तथा जटाजूटधारी महेश्वर आपको प्रणाम है । दीनोंके नाथ, सर्वव्यापक, अन्धकासुरका वध करनेवाले, त्रिपुरका वध करनेवाले, शर्व, परमेष्ठी तथा ब्रह्मस्वरूप आप [शिव]-को नमस्कार है ॥ २२-२३ ॥ विरूपाक्षाय रुद्राय बहुरूपाय शम्भवे । विरूपायातिरूपाय रूपातीताय ते नमः ॥ २४ ॥ विरूपाक्ष, रुद्र, बहुरूप, विरूप, अतिरूप तथा रूपसे अतीत आप शम्भुको नमस्कार है ॥ २४ ॥ यज्ञविध्वंसकर्त्रे च यज्ञानां फलदायिने । नमस्ते मखरूपाय परकर्मप्रवर्तिने ॥ २५ ॥ कालान्तकाय कालाय कालभोगिधराय च । नमस्ते परमेशाय सर्वत्र व्यापिने नमः ॥ २६ ॥ दक्षयज्ञका विध्वंस करनेवाले, यज्ञोंका फल देनेवाले, यज्ञस्वरूप तथा श्रेष्ठ कर्ममें प्रवृत्त करनेवाले आप [शिव] को नमस्कार है । कालान्तक, कालस्वरूप, कालरूप सर्पको धारण करनेवाले, परमेश्वर तथा सर्वत्र व्यापक आप [शिव] को नमस्कार है ॥ २५-२६ ॥ नमो ब्रह्मशिरोहन्त्रे ब्रह्मचन्द्र स्तुताय च । ब्रह्मण्याय नमस्तेऽस्तु नमस्ते परमात्मने ॥ २७ ॥ ब्रह्माके सिरको काटनेवाले, ब्रह्मा तथा चन्द्रमासे स्तुत आपको नमस्कार है । ब्राह्मणोंका हित करनेवाले आपको नमस्कार है, आप परमात्माको नमस्कार है ॥ २७ ॥ त्वमग्निरनिलो व्योम त्वमेवापो वसुन्धरा । त्वं सूर्यश्चन्द्रमा भानि ज्योतिश्चक्रं त्वमेव हि ॥ २८ ॥ त्वमेव विष्णुस्त्वं ब्रह्मा तत्स्तुतस्त्वं परेश्वरः । मुनयः सनकाद्यास्त्वं नारदस्त्वं तपोधनः ॥ २९ ॥ त्वमेव सर्व लोकेशस्त्वमेव जगदात्मकः । सर्वान्वयः सर्वभिन्नस्त्वमेव प्रकृतेः परः ॥ ३० ॥ आप ही अग्नि, वायु तथा आकाश हैं । आप ही जल तथा पृथ्वी हैं । आप ही सूर्य, चन्द्रमा तथा नक्षत्र हैं । आप ही समस्त तारागण हैं । आप ही विष्णु हैं तथा आप ही उनसे स्तुत परमेश्वर हैं । आप ही सनकादि मुनि हैं, आप ही ब्रह्मा हैं तथा आप ही तपोधन नारद हैं । आप ही सारे जगत्के ईश्वर हैं तथा आप ही जगत्स्वरूप हैं । आप ही सबसे अन्वित, सबसे भिन्न एवं प्रकृतिसे परे हैं ॥ २८-३० ॥ त्वं वै सृजसि लोकांश्च रजसा विधिनामभाक् । सत्त्वेन हरिरूपस्त्वं सकलं यासि वै जगत् ॥ ३१ ॥ आप ही ब्रह्मा नाम धारणकर रजोगुणसे युक्त होकर सभी लोकोंकी सृष्टि करते हैं । आप ही विष्णुरूप होकर सत्त्वगुणयुक्त हो सम्पूर्ण जगत्का पालन करते हैं ॥ ३१ ॥ त्वमेवासि महादेव तमसा हररूपधृक् । लीलया भुवनं सर्वं निखिलं पाञ्चभौतिकम् ॥ ३२ ॥ हे महादेव ! आप ही हरका रूप धारण करके तमोगुणसे युक्त होकर सम्पूर्ण पांचभौतिक जगत्का लीलापूर्वक संहार करते हैं ॥ ३२ ॥ त्वद्ध्यानबलतःसूर्यस्तपते विश्वभावन । अमृतं च्यवते लोके शशी वाति समरिणः ॥ ३३ ॥ हे विश्वभावन ! आपके ही ध्यानबलसे सूर्य तपता है, चन्द्रमा लोकमें अमृत बरसाता है और पवन बहता है ॥ ३३ ॥ त्वद्ध्यानबलतो मेघाश्चाम्बु वर्षन्ति शंकर । त्वद्ध्यानबलतः शक्रस्त्रिलोकीं पाति पुत्रवत् ॥ ३४ ॥ त्वद्ध्यानबलतो मेघाः सर्वे देवा मुनीश्वराः । स्वाधिकारं च कुर्वन्ति चकिता भवतो भयात् ॥ ३५ ॥ हे शंकर ! आपके ही ध्यानबलसे मेघ जलकी वृष्टि करते हैं और आपके ही बलसे इन्द्र पुत्रके समान त्रिलोकीकी रक्षा करते हैं । मेघ, सभी देवता एवं मुनीश्वर आपके ध्यानबलसे तथा आपके भयसे चकित होकर अपने-अपने कर्तव्यका पालन करते हैं ॥ ३४-३५ ॥ त्वत्पादकमलस्यैव सेवनाद्भुवि मानवाः । नाद्रियन्ते सुरान् रुद लोकैश्वर्यं च भुञ्जते ॥ ३६ ॥ त्वत्पादकमलस्यैव सेवनादगमन्पराम् । गतिं योगधना नामप्यगम्यां सर्वदुर्लभाम् ॥ ३७ ॥ हे रुद्र ! आपके चरणकमलके सेवनके प्रभावसे ही मनुष्य इस पृथ्वीपर अन्य देवताओंकी उपासना नहीं करते हैं और इस त्रिलोकके ऐश्वर्यका भोग करते हैं । इतना ही नहीं, वे आपके चरणकमलोंकी सेवासे ही योगियोंके लिये भी अगम्य तथा दुर्लभ गति प्राप्त करते हैं ॥ ३६-३७ ॥ सनत्कुमार उवाच बृहस्पतिरिति स्तुत्वा शंकरं लोकशंकरम् । पादयो पातयामास तस्येशस्य पुरन्दरम् ॥ ३८ ॥ सनत्कुमार बोले-[हे व्यासजी !] इस प्रकार बृहस्पतिने लोककल्याणकारी शिवजीकी स्तुति करके उन ईश्वरके चरणोंपर इन्द्रको गिराया ॥ ३८ ॥ पातयित्वा च देवेशमिन्द्रं नतशिरोधरम् । बृहस्पतिरुवाचेदं प्रश्रयावनतः शिवम् ॥ ३९ ॥ सिर नीचा किये हुए इन्द्रको शिवजीके चरणों में गिराकर विनयावनत बृहस्पतिने शिवजीसे यह कहा- ॥ ३९ ॥ बृहस्पतिरुवाच दीननाथ महादेव प्रणतं तव पादयोः । समुद्धर च शान्तं स्वं क्रोधं नयनजं कुरु ॥ ४० ॥ बृहस्पति बोले-हे दीनानाथ ! हे महादेव ! आपके चरणोंपर गिरे हुए इन्द्रका उद्धार कीजिये और अपने नेत्रज क्रोधको शान्त कीजिये ॥ ४० ॥ तुष्टो भव महादेव पाहीद्रं शरणागतम् । अग्निरेव शमं यातु भालनेत्रसमुद्भवः ॥ ४१ ॥ । हे महादेव ! आप प्रसन्न हो जाइये और शरणमें आये हुए इन्द्रकी रक्षा कीजिये, आपके ललाटस्थित नेत्रसे उत्पन्न हुई यह अग्नि शान्त हो ॥ ४१ ॥ सनत्कुमार उवाच इत्याकर्ण्य गुरोर्वाक्यं देवदेवो महेश्वरः । उवाच करुणासिन्धुर्मेघनिर्ह्रादया गिरा ॥ ४२ ॥ सनत्कुमार बोले-गुरु बृहस्पतिकी यह बात सुनकर करुणासिन्धु देवदेव महेश्वरने मेषके समान गम्भीर वाणीसे कहा- ॥ ४२ ॥ महेश्वर उवाच क्रोधं च निःसृतं नेत्राद्धारयामि बृहस्पतेः । कथं हि कञ्चुकीं सर्पःसन्धत्ते नोज्झितां पुनः ॥ ४३ ॥ महेश्वर बोले-हे बृहस्पते ! मैं अपने नेत्रसे उत्पन्न हुए क्रोधको किस प्रकार धारण करूँ, सर्प अपनी छोड़ी गयी केंचुलको पुनः धारण नहीं करता है ॥ ४३ ॥ सनत्कुमार उवाचु इति श्रुत्वा वचस्तस्य शंकरस्य बृहस्पतिः ॥ उवाच क्लिष्टरूपश्च भयव्याकुलमानसः । ४४ ॥ सनत्कुमार बोले-शिवका यह वचन सुनकर क्लेशयुक्त तथा भयसे व्याकुल चित्तवाले बृहस्पतिने कहा- ॥ ४४ ॥ बृहस्पतिरुवाच हे देव भगवन्भक्ता अनुकम्प्याः सदैव हि । भक्तवत्सलनामेति त्वं सत्यं कुरु शंकर ॥ ४५ ॥ क्षेप्तुमन्यत्र देवेश स्वतेजोऽत्युग्रमर्हसि । उद्धर्तःसर्वभक्तानां समुद्धर पुरन्दरम् ॥ ४६ ॥ बृहस्पति बोले-हे देव ! हे भगवन् ! आपको भक्तोंपर सर्वदा दया करनी चाहिये । हे शंकर ! आप अपने भक्तवत्सल नामको सत्य कीजिये । हे देवेश ! आप अपने इस अत्यन्त उग्र तेजको अन्यत्र छोड़ दीजिये । हे समस्त भक्तोंका उद्धार करनेवाले ! आप इन्द्रका उद्धार कीजिये ॥ ४५-४६ ॥ सनत्कुमार उवाच इत्युक्तो गुरुणा रुद्रो भक्तवत्सलनामभाक् । प्रत्युवाच प्रसन्नात्मा सुरेज्यं प्रणतार्त्तिहा ॥ ४७ ॥ सनत्कुमार बोले-बृहस्पतिके ऐसा कहनेपर भक्त-वत्सल नामवाले तथा भक्तोंका दुःख दूर करनेवाले रुद्र प्रसन्नचित्त होकर देवपूज्य बृहस्पतिसे कहने लगे- ॥ ४७ ॥ शिव उवाच प्रीतः स्तुत्यानया तात ददामि वरमुत्तमम् । इन्द्रस्य जीवदानेन जीवेति त्वं प्रथां व्रज ॥ ४८ ॥ समुद्भूतोऽनलो योऽयं भालनेत्रात्सुरेशहा । एनं त्यक्ष्याम्यहं दूरं यथेन्द्रं नैव पीडयेत् ॥ ४९ ॥ शिवजी बोले-हे तात ! मैं [तुम्हारी] इस स्तुतिसे प्रसन्न होकर उत्तम वर देता हूँ । इन्द्रको जीवनदान देनेके कारण तुम 'जीव'-इस नामसे विख्यात होओ । मेरे भालस्थित नेत्रसे इन्द्रको मारनेवाली जो यह अग्नि उत्पन्न हुई है, इसे मैं दूर फेंक देता हूँ, जिससे यह इन्द्रको पीड़ा न पहुँचाये ॥ ४८-४९ ॥ सनत्कुमार उवाच् । इत्युक्त्वा तं करे धृत्वा स्वतेजोऽनलमद्भुतम् ॥ भालनेत्रात्समुद्भूतं प्राक्षिपल्लवणाम्भसि । ५० ॥ ततश्चान्तर्दधे रुद्रो महालीलाकरः प्रभुः । गुरुशक्रौ भयान्मुक्तौ जग्मतुः सुखमुत्तमम् ॥ ५१ ॥ सनत्कुमार बोले-ऐसा कहकर शंकरजीने अपने तृतीय नेत्रसे उत्पन्न अपने तेजरूप अद्भुत अग्निको हाथमें लेकर क्षारसमुद्र में फेंक दिया । तत्पश्चात् महालीला करनेवाले भगवान् शंकर अन्तर्धान हो गये । इन्द्र एवं बृहस्पति भयसे मुक्त हो परम सुखी हुए । ५०-५१ ॥ यदर्थं गमनोद्युक्तौ दर्शनं प्राप्य तस्य वै । कृतार्थौ गुरुशक्रौ हि स्वस्थानं जग्मतुर्मुदा ॥ ५२ ॥ इस प्रकार जिनके दर्शनके लिये इन्द्र एवं बृहस्पति जा रहे थे, उनका दर्शन पाकर वे कृतार्थ हो गये और प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थानको लौट गये ॥ ५२ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे जलन्धरवधोपाख्याने शक्रजीवनं नाम त्रयोदशोऽ ध्यायः ॥ १३ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय कनसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें जलन्धरवधोपाख्यानके अन्तर्गत शक्रजीवनवर्णन नामक तेरहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १३ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |