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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

चतुर्दशोऽध्यायः

जलन्धरवधोपाख्याने जलन्धरोत्पत्तिविवाहवर्णनम् -
क्षारसमुद्र में प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह


व्यास उवाच
सनत्कुमार सर्वज्ञ ब्रह्मपुत्र नमोस्तु ते ।
श्रुतेयमद्‌भुता मेऽद्य कथा शम्भोर्महात्मनः ॥ १ ॥
क्षिप्ते स्वतेजसि ब्रह्मन्भालनेत्रसमुद्‌भवे ।
लवणाम्भसि किं ताताभवत्तत्र वदाशु तत् ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-हे सनत्कुमार ! हे सर्वज्ञ ! हे ब्रह्मपुत्र ! आपको नमस्कार है, मैंने आज महात्मा शंकरकी यह अद्‌भुत कथा सुनी । हे ब्रह्मन् ! शिवजीके द्वारा भालनेत्रसे उत्पन्न हुए अपने तेजको क्षारसमुद्र में फेंक दिये जानेपर क्या हुआ ? हे तात ! उसे शीघ्र कहिये ॥ १-२ ॥

सनत्कुमार उवाच
शृणु तात महाप्राज्ञ शिवलीलां महाद्‌भुताम् ।
यच्छ्रुत्वा श्रद्धया भक्तो योगिनां गतिमाप्नुयात् ॥ ३ ॥
अथो शिवस्य तत्तेजो भालनेत्रसमुद्‌भवम् ।
क्षिप्तं च लवणाम्भोधौ सद्यो बालत्वमाप ह ॥ ४ ॥
सनत्कुमार बोले-हे तात ! हे महाप्राज्ञ ! अब आप शिवकी परम अद्‌भुत लीलाको सुनिये, जिसे श्रद्धासे सुनकर भक्त योगियोंकी गति प्राप्त करते हैं । शिवजीके तीसरे नेत्रसे उत्पन्न वह तेज, जो खारे समुद्र में फेंक दिया गया था, शीघ्र ही बालकरूप हो गया । ३-४ ॥

तत्र वै सिन्धुगङ्‌गायाः सागरस्य च सङ्‌गमे ।
रुरोदोच्चैः स वै बाल सर्वलोक भयङ्‌करः ॥ ५ ॥
सभी लोकोंको भय देनेवाला वह बालक वहाँ गंगा-सागरके संगमपर स्थित हो बड़े ऊँचे स्वरमें रोने लगा ॥ ५ ॥

रुदतस्तस्य शब्देन प्राकम्पद्धरणी मुहुः ।
स्वर्गश्च सत्यलोकश्च तत्स्वनाद्‌ बधिरीकृतः ॥ ६ ॥
बालस्य रोदनेनैव सर्वे लोकाश्च तत्रसुः ।
सर्वतो लोकपालाश्च विह्वलीकृतमानसाः ॥ ७ ॥
उस रोते हुए बालकके शब्दसे पृथ्वी बारंबार कम्पित हो उठी और स्वर्ग तथा सत्यलोक उसके स्वरसे बहरे हो गये । उस बालकके रुदनसे सभी लोक भयभीत हो उठे और समस्त लोकपाल व्याकुलचित्त हो गये ॥ ६-७ ॥

किं बहूक्तेन विप्रेन्द्र चचाल सचराचरम् ।
भुवनं निखिलं तात रोदनात्तच्छिशोर्विभो ॥ ८ ॥
हे विप्रेन्द्र ! हे तात ! हे विभो ! अधिक कहनेसे क्या प्रयोजन, उस शिशुके रुदनसे चराचरसहित सम्पूर्ण जगत् चलायमान हो उठा ॥ ८ ॥

अथ ते व्याकुलाः सर्वे देवाःसमुनयो द्रुतम् ।
पितामहं लोकगुरुं ब्रह्माणं शरणं ययुः ॥ ९ ॥
तत्र गत्वा च ते देवा सुनयश्च सवासवाः ।
प्रणम्य च सुसंस्तुत्य प्रोचुस्तं परमेष्ठिनम् ॥ १० ॥
उसके बाद मुनियोंके सहित व्याकुल समस्त देवता लोकगुरु पितामह ब्रह्माकी शरणमें गये । वहाँ जाकर इन्द्रसहित सभी देवताओं तथा मुनियोंने ब्रह्माको प्रणामकर तथा उनकी स्तुतिकर उनसे कहा- ॥ ९-१० ॥

देवा ऊचुः
लोकाधीश सुराधीश भयन्नःसमुपस्थितम् ।
तन्नाशय महायोगिन् जातोऽयं ह्यद्‌भुतो रवः ॥ ११ ॥
देवता बोले-हे लोकाधीश ! हे सुराधीश ! हमलोगोंके समक्ष भय उपस्थित हो गया है । हे महायोगिन् ! उसका विनाश कीजिये, यह अद्‌भुत ध्वनि उत्पन्न हुई है ॥ ११ ॥

सनत्कुमार उवाच ।
इत्याकर्ण्य वचस्तेषां ब्रह्मा लोकपितामहः ॥
गन्तुमैच्छत्ततस्तत्र किमेतदिति विस्मितः । १२ ॥
सनत्कुमार बोले-तब उनका यह वचन सुनकर लोकपितामह ब्रह्माजी आश्चर्यचकित हो उठे कि यह क्या है' और वहाँ जानेकी इच्छा करने लगे ॥ १२ ॥

ततो ब्रह्मा सुरैस्तातावतरत्सत्यलोकतः ।
रसां तज्ज्ञातुमिच्छन्स समुद्रमगमत्तदा ॥ १३ ॥
यावत्तत्रागतो ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः ।
तावत्समुद्रस्योत्सङ्‌गे तं बालं स ददर्श ह ॥ १४ ॥
आगतं विधिमालोक्य देवरूप्यथ सागरः ।
प्रणम्य शिरसा बालं तस्योत्सङ्‌गे न्यवेशयत् ॥ १५ ॥
ततो ब्रह्माब्रवीद्वाक्यं सागरं विस्मयान्वितः ।
जलराशे द्रुतं ब्रूहि कस्यायं शिशुरद्‌भुतः ॥ १६ ॥
हे तात ! तब ब्रह्माजी देवताओं के साथ सत्यलोकसे पृथ्वीपर उतरे और उसका पता लगाते हुए समुद्रके किनारे गये । सभी लोकोंके पितामह ब्रह्मा ज्यों ही वहाँ आये, त्यों ही उन्होंने समुद्रकी गोदमें उस बालकको देखा । ब्रह्माको आया हुआ देखकर देवरूप धारणकर सागरने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम करके उस बालकको उनकी गोदमें डाल दिया । तदनन्तर विस्मयमें पड़े हुए ब्रह्माजीने समुद्रसे यह वचन कहा-हे जलराशे ! शीघ्र बताओ कि यह अद्‌भुत बालक किसका पुत्र है ? ॥ १३-१६ ॥

सनत्कुमार उवाच
ब्रह्मणो वाक्यमाकर्ण्य मुदितः सागरस्तदा ।
प्रत्युवाच प्रजेशं स नत्वा स्तुत्वा कृताञ्जलिः ॥ १७ ॥
सनत्कुमार बोले-तब ब्रह्माजीका वचन सुनकर समुद्र बड़ा प्रसन्न हुआ और वह हाथ जोड़कर नमस्कारकर स्तुति करनेके उपरान्त ब्रह्माजीसे कहने लगा- ॥ १७ ॥

समुद्र उवाच
भो भो ब्रह्मन्मया प्राप्तो बालकोऽयमजानता ।
प्रभवं सिन्धुगङ्‌गायामकस्मात्सर्वलोकप ॥ १८ ॥
समुद्र बोला-हे ब्रह्मन् ! हे सर्वलोकस्वामिन् ! मुझे गंगासागरके संगमपर यह बालक अकस्मात् प्राप्त हुआ है और मैं नहीं जानता कि यह किसका बालक है ॥ १८ ॥

जातकर्मादिसंस्कारान्कुरुष्वास्य जगद्‌गुरो ।
जातकोक्तफलं सर्वं विधातर्वक्तुमर्हसि ॥ १९ ॥
हे जगद्‌गुरो ! आप इसका जातकर्मादि संस्कार कीजिये और हे विधाता ! इसके जातकसम्बन्धी समस्त फलोंको बताइये ॥ १९ ॥

सनत्कुमार उवाच
एवं वदति पाथोधौ स बालः सागरात्मजः ।
ब्रह्माणमग्रहीत्कण्ठे विधुन्वन्तं मुहुर्मुहुः ॥ २० ॥
विधूननं च तस्यैवं सर्वलोककृतो विधेः ।
पीडितस्य च कालेय नेत्राभ्यामगमज्जलम् ॥ २१ ॥
सनत्कुमार बोले-जब समुद्र ब्रह्माजीसे इस बातको कह रहा था, तभी उस बालकने ब्रह्माका कण्ठ पकड़ लिया, यद्यपि वे अपना गला बारंबार उससे छुड़ा रहे थे । हे व्यासजी ! ब्रह्माजी गला छुड़ानेका बहुत प्रयत्न कर रहे थे, किंतु उस बालकने इतने जोरसे उनका कण्ठ दबाया कि पीड़ित ब्रह्माके नेत्रोंसे जल टपकने लगा ॥ २०-२१ ॥

कराभ्यामब्धिजातस्य तत्सुतस्य महौजसः ।
कथञ्चिन्मुक्तकण्ठस्तु ब्रह्मा प्रोवाच सादरम् ॥ २२ ॥
तब ब्रह्माजीने किसी प्रकार उस महातेजस्वी समुद्रपुत्रके दोनों हाथोंसे अपना गला छुड़ाया और वे आदरपूर्वक समुद्रसे कहने लगे- ॥ २२ ॥

ब्रह्मोवाच
शृणु सागर वक्ष्यामि तवास्य तनयस्य हि ।
जातकोक्तफलं सर्वं समाधानरतः खलु ॥ २३ ॥
। ब्रह्माजी बोले-हे सागर ! सुनो, मैं तुम्हारे इस पुत्रका समस्त जातकोक्त फल विचारकर कहता हूँ ॥ २३ ॥

नेत्राभ्यां विधृतं यस्मादनेनैव जलं मम ।
तस्माज्जलन्धरेतीह ख्यातो नाम्ना भवत्वसौ ॥ २४ ॥
इसने मेरे नेत्रोंसे निकले हुए जलको धारण किया है, इसलिये यह जलन्धर-इस नामसे प्रसिद्ध होगा ॥ २४ ॥

अधुनैवैष तरुणः सर्वशास्त्रार्थपारगः ।
महापराक्रमो धीरो योद्धा च रणदुर्मदः ॥ २५ ॥
भविष्यति च गम्भीरः त्वं यथा समरे गुहः ।
सर्वजेता च सङ्‌ग्रामे सर्वसम्पद्विराजितः ॥ २६ ॥
यह इसी समय तरुण, सर्वशास्त्रार्थवेत्ता, महापराक्रमी, धैर्यवान् तथा रणदुर्मद योद्धा है । तुम्हारे तथा कार्तिकेयके समान यह युद्धमें गम्भीर होगा, यह संग्राममें सबको जीत लेगा तथा समस्त ऐश्वर्यसे परिपूर्ण होगा ॥ २५-२६ ॥

दैत्यानामधिपो बालः सर्वेषां च भविष्यति ।
विष्णोरपि भवेज्जेता न कुतश्चित्पराभवः ॥ २७ ॥
अवध्यःसर्वभूतानां विना रुद्रं भविष्यति ।
यत एष समुद्‌भूतस्तत्रेदानीं गमिष्यति ॥ २८ ॥
पतिव्रतास्य भविता पत्नी सौभाग्यवर्द्धिनी ।
सर्वाङ्‌गसुन्दरी रम्या प्रियवाक्छीलसागरा ॥ २९ ॥
यह बालक समस्त दैत्योंका अधिपति होगा तथा विष्णुको भी जीतनेवाला होगा, इसका पराभव कभी नहीं होगा । रुद्रको छोड़कर यह सभी प्राणियोंसे अवध्य होगा । जहाँसे इसकी उत्पत्ति हुई है, अन्तमें यह वहीं जायगा । इसकी पत्नी महापतिव्रता, सौभाग्यको बढ़ानेवाली, सर्वांगसुन्दरी, मनोहर, प्रिय वचन बोलनेवाली तथा शीलका सागर होगी ॥ २७-२९ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्युक्त्वा शुक्रमाहूय राज्ये तं चाभ्यषेचयत् ।
आमन्त्र्य सरितां नाथं ब्रह्मान्तर्द्धानमन्वगात् ॥ ३० ॥
अथ तद्दर्शनोत्फुल्लनयनः सागरस्तदा ।
तमात्मजं समादाय स्वगेहमगमन्मुदा ॥ ३१ ॥
अपोषयन्महोपायैः स्वबालं मुदितात्मकः ।
सर्वाङ्‌गसुन्दरं रम्यं महाद्‌भुतसुतेजसम् ॥ ३२ ॥
सनत्कुमार बोले-ऐसा कहकर [दैत्यगुरु] शुक्रको बुलाकर ब्रह्माजीने उस बालकको राज्यपर अभिषिक्त करवाया और समुद्रसे आज्ञा लेकर वे अन्तर्धान हो गये । तदनन्तर उसके दर्शनसे प्रफुल्लित नेत्रवाला समुद्र उस पुत्रको लेकर प्रसन्नतासे अपने घर चला गया और प्रसन्नचित्त होकर अनेक उपायोंद्वारा सर्वांगसुन्दर, मनोहर, अत्यन्त अद्‌भुत एवं परम तेजस्वी अपने पुत्रका पालन-पोषण करने लगा ॥ ३०-३२ ॥

अथाम्बुधिः समाहूय कालनेमिं महासुरम् ।
वृन्दाभिधां सुतां तस्य तद्‌भार्यार्थमयाचत ॥ ३३ ॥
कालनेम्यसुरो वीरोऽसुराणां प्रवरः सुधीः ।
साधु येनेम्बुधेर्याञ्चां स्वकर्मनिपुणो मुने ॥ ३४ ॥
जलन्धराय वीराय सागरप्रभवाय च ।
ददौ ब्रह्मविधानेन स्वसुतां प्राणवल्लभाम् ॥ ३५ ॥
उसके बाद सागरने महान् असुर कालनेमिको बुलाकर उसकी वृन्दा नामक पुत्रीको उसकी भार्याके निमित्त माँगा । हे मुने ! वीर असुरोंमें श्रेष्ठ, बुद्धिमान् तथा अपने कार्य-साधनमें कुशल असुर कालनेमिने समुद्रकी याचना स्वीकार कर ली और ब्राह्मविवाहकी विधिसे समुद्रपुत्र वीर जलन्धरको अपनी प्राणप्रिय पुत्री प्रदान कर दी ॥ ३३-३५ ॥

तदोत्सवो महानासीद्विवाहे च तयोस्तदा ।
सुखं प्रापुर्नदा नद्योऽसुराश्चैवाखिला मुने ॥ ३६ ॥
समुद्रोऽति सुखं प्राप सुतं दृष्ट्‍वा हि सस्त्रियम् ।
दानं ददौ द्विजातिभ्योऽप्यन्येभ्यश्च यथाविधि ॥ ३७ ॥
ये देवैर्निर्जिताः पूर्वं दैत्याः पातालसंस्थिताः ।
ते हि भूमण्डलं याता निर्भयास्तमुपाश्रिताः ॥ ३८ ॥
उस समय उन दोनोंके विवाहमें महान् उत्सव हुआ । हे मुने ! समस्त नदों, नदियों एवं असुरोंको सुख प्राप्त हुआ । स्वीसहित पुत्रको देखकर समुद्रको भी अत्यधिक सुखकी प्राप्ति हुई और उसने ब्राह्मणों तथा अन्य लोगोंको यथाविधि दान दिया । तब पातालमें रहनेवाले दैत्य, जो देवताओंके द्वारा पहले जीत लिये गये थे, वे पृथ्वीपर चले गये और निडर होकर उसके आत्रयमें रहने लगे ॥ ३६-३८ ॥

ते कालनेमिप्रमुखास्ततोऽसुराः
    तस्मै सुतां सिन्धुसुताय दत्त्वा ।
बभूवुरत्यन्तमुदान्विता हि
    तमाश्रिता देव विनिर्जयाय ॥ ३९ ॥
[उस समय] कालनेमि आदि वे असुर उस समुद्रपुत्रको कन्या देकर परम प्रसन्न हुए और देवताओंको जीतनेके लिये उसके आश्रित हो गये ॥ ३९ ॥

स चापि वीरोम्बुधिबालकोऽसौ
    जलन्धराख्योऽसुरवीरवीरः ।
सम्प्राप्य भार्यामतिसुन्दरी वशीं
    चकार राज्यं हि कविप्रभावात् ॥ ४० ॥
असुरवीरोंमें मुख्य वीर वह समुद्रपुत्र जितेन्द्रिय जलन्धर अति सुन्दरी भार्याको प्राप्तकर शुक्राचार्यके प्रभावसे राज्य करने लगा ॥ ४० ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे
जलन्धरवधोपाख्याने जलन्धरोत्पत्तिविवाहवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम यद्धखण्ड में जलन्धरवधोपाख्यान के अन्तर्गत जलन्धरोत्पत्तिविवाहवर्णन नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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