Menus in CSS Css3Menu.com


॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

पञ्चदशोऽध्यायः

जलन्धरवधोपाख्याने देवजलन्धरयुद्धवर्णनम् -
राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा कुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना


सनत्कुमार उवाच
एकदा वारिधिसुतो वृन्दापति रुदारधीः ।
सभार्यःसंस्थितो वीरोऽसुरैः सर्वैः समन्वितः ॥ १ ॥
सनत्कुमार बोले-एक बार वृन्दाका पति वह वीर तथा उदार बुद्धिवाला समुद्रपुत्र जलन्धर अपनी पत्नी वृन्दा एवं समस्त असुरोंके साथ बैठा था ॥ १ ॥

तत्राजगाम सुप्रीतः सुवर्चास्त्वथ भार्गवः ।
तेजःपुञ्जो मूर्त इव भासयन्सकला दिशः ॥ २ ॥
तं दृष्ट्‍वा गुरुमायान्तमसुरास्तेऽखिला द्रुतम् ।
प्रणेमुः प्रीतमनसःसिन्धुपुत्रोऽपि सादरम् ॥ ३ ॥
उसी समय अत्यन्त प्रसन्न, महातेजस्वी, मूर्तस्वरूप तेजपुंजके समान भासित होते हुए शुक्राचार्य दसों दिशाओंको प्रकाशित करते हुए वहाँ आये । उन गुरुको आते हुए देखकर प्रसन्न मनवाले उन सभी असुरों तथा जलन्धरने भी शीघ्र आदरपूर्वक उन्हें प्रणाम किया ॥ २-३ ॥

दत्त्वाशीर्वचनं तेभ्यो भार्गवस्तेजसां निधिः ।
निषसादासने रम्ये सन्तस्थुस्तेऽपि पूर्ववत् ॥ ४ ॥
अथ सिन्ध्वात्मजो वीरो दृष्ट्‍वा प्रीत्या निजां सभाम् ।
जलन्धरः प्रसन्नोऽभूदनष्टवरशासनः ॥ ५ ॥
तत्स्थितं छिन्नशिरसं दृष्ट्‍वा राहुं स दैत्यराट् ।
पप्रच्छ भार्गवं शीघ्रमिदं सागरनन्दनः ॥ ६ ॥
तब तेजोनिधि भार्गव उन्हें आशीर्वाद देकर रम्य आसनपर बैठ गये और वे [असुरगण] भी पूर्ववत् बैठ गये । उसके बाद स्थिर तथा उत्तम शासनवाला वह वीर सिन्धुपुत्र जलन्धर प्रेमसे अपनी सभाको देखकर प्रसन्न हुआ । वहाँ बैठे हुए सिरकटे राहुको देखकर उस दैत्यराज समुद्रपुत्रने शीघ्रतापूर्वक शुक्राचार्यसे यह पूछा- ॥ ४-६ ॥

जलन्धर उवाच
केनेदं विहितं राहोः शिरच्छेदनकं प्रभो ।
तद्‌ब्रूहि निखिलं वृत्तं यथावत्तत्त्वतो गुरो ॥ ७ ॥
जलन्धर बोला-हे प्रभो ! हे गुरो ! राहुके सिरको किसने काटा है ? हे गुरो ! उस सम्पूर्ण वृत्तान्तको मुझे ठीक ठीक बताइये ॥ ७ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य सिन्धुपुत्रस्य भार्गवः ।
स्मृत्वा शिवपदाम्भोजं प्रत्युवाच यथार्थवत् ॥ ८ ॥
सनत्कुमार बोले-समुद्रपुत्र जलन्धरका यह वचन सुनकर भृगुपुत्र शुक्राचार्य शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करके यथार्थरूपमें कहने लगे- ॥ ८ ॥

शुक्र उवाच
जलन्धर महावीर सर्वासुरसहायक ।
शृणु वृत्तान्तमखिलं यथावत्कथयामि ते ॥ ९ ॥
पुराभवद्‌बलिर्वीरो विरोचनसुतो बली ।
हिरण्यकशिपोश्चैव प्रपौत्रो धर्मवित्तमः ॥ १० ॥
शुक्र बोले-हे जलन्धर ! हे महावीर ! हे असुरोंके सहायक ! तुम सुनो, मैं सारा वृत्तान्त तुमसे यथार्थ रूपसे कह रहा हूँ । पूर्व समयमें विरोचनका पुत्र तथा हिरण्यकशिपुका प्रपौत्र वीर, बलवान् और धर्मात्मा बलि [नामक दैत्य] हुआ था ॥ ९-१० ॥

पराजिताः सुरास्तेन रमेशं शरणं ययुः ।
सवासवाः स्ववृत्तान्तमाचख्युः स्वार्थसाधकाः ॥ ११ ॥
उससे पराजित हुए इन्द्रसहित सभी देवता, जो स्वार्थसाधनमें अत्यन्त निपुण थे, विष्णुको शरणमें गये और उन्होंने अपना सम्पूर्ण वृत्तान्त उनसे कहा ॥ ११ ॥

तदाज्ञयाऽसुरैः सार्द्धं चक्रुःसन्धिमथो सुराः ।
स्वकार्यसिद्धये तात छलकर्मविचक्षणाः ॥ १२ ॥
अथामृतार्थे सिन्धोश्च मंथनं चक्रुरादरात् ।
विष्णोः सहायिनस्ते हि सुराः सर्वेऽसुरैः सह ॥ १३ ॥
ततो रत्नोपहरणमकार्षुर्दैत्यशत्रवः ।
जगृहुर्यत्नतो देवाः पपुरप्यमृतं छलात् ॥ १४ ॥
ततः पराभवं चक्रुरसुराणां सहायतः ।
विष्णोः सुराः सशक्रास्तेऽमृतापानाद्‌बलान्विताः ॥ १५ ॥
हे तात ! तब छलकर्ममें निपुण उन देवताओंने उन विष्णुकी आज्ञासे अपने कार्यकी सिद्धिहेतु असुरोंके साथ सन्धि कर ली । इसके बाद विष्णुके सहायक उन सभी देवताओंने अमृतके लिये असुरोंके साथ आदरपूर्वक समुद्रमन्थन किया । तत्पश्चात् दैत्यशत्रु देवताओंने [समुद्रमन्थनसे उत्पन्न हुए] रत्न स्वयं हरण कर लिये और यत्नपूर्वक छलसे अमृत ग्रहण कर लिया तथा उसका पान भी कर लिया । तदनन्तर अमृतपानसे बलशाली हुए इन्द्रसहित उन देवताओंने विष्णुकी सहायतासे असुरोंको पराजित कर दिया ॥ १२-१५ ॥

शिरश्छेदं चकारासौ पिबतश्चामृतं हरिः ।
राहोर्देवसभां हि पक्षपाती हरेः सदा ॥ १६ ॥
इन्द्रके सर्वदा पक्षपाती उन विष्णुने देवताओंकी सभामें अमृत पीते हुए राहुका शिरश्छेदन कर दिया ॥ १६ ॥

सनत्कुमार उवाच
एवं कविस्तस्य शिरश्छेदं राहोः शशंस च ।
अमृतार्थे समुद्रस्य मंथनं देवकारितम् ॥ १७ ॥
रत्नोपहरणं चैव दैत्यानां च पराभवम् ।
देवैरमृतपानं च कृतं सर्वं च विस्तरात् ॥ १८ ॥
सनत्कुमार बोले-इस प्रकार शुक्राचार्यने अमृतके लिये देवताओंद्वारा कराये गये समुद्रमन्थन, राहुके शिरश्छेदन, रत्नोंके अपहरण, दैत्योंके पराभव और देवोंद्वारा किये गये अमृतपान-इन सबका विस्तारपूर्वक वर्णन किया ॥ १७-१८ ॥

तदाकर्ण्य महावीरोम्बुधिबालः प्रतापवान् ।
चुक्रोध क्रोधरक्ताक्षःस्वपितुर्मंथनं तदा ॥ १९ ॥
अथ दूतं समाहूय घस्मराभिधमुत्तमम् ।
सर्वं शशंस चरितं यदाह गुरुरात्मवान् ॥ २० ॥
अथ तं प्रेषयामास स्वदूतं शक्रसन्निधौ ।
संमान्य बहुशः प्रीत्याऽभयं दत्त्वा विशारदम् ॥ २१ ॥
तब अपने पिता [समुद्र] का मन्थन सुनकर क्रोधके कारण रक्त नेत्रोंवाला वह महावीर तथा महाप्रतापी समुद्रपुत्र जलन्धर कुपित हो उठा । इसके बाद उसने शीघ्र ही घस्मर नामक [अपने] उत्तम दूतको बुलाकर उससे सारा वृत्तान्त कहा, जिसे आत्मवान् गुरु शुक्राचार्यने बताया था । तत्पश्चात् बहुत प्रकारसे सम्मानित करके तथा अभय देकर - अपने उस कुशल दूतको उसने प्रेमपूर्वक इन्द्रके समीप भेजा ॥ १९-२१ ॥

दूतस्त्रिविष्टपं तस्य जगामारमलं सुधीः ।
घस्मरोंऽबुधिबालस्य सर्वदेवसमन्वितम् ॥ २२ ॥
उस समुद्रपुत्र जलन्धरका वह बुद्धिमान् दूत घस्मर बड़ी शीघ्रतासे सभी देवगणोंसे युक्त स्वर्गलोकको गया ॥ २२ ॥

तत्र गत्वा स दूतस्तु सुधर्मां प्राप्य सत्वरम् ।
गर्वादखर्वमौलिर्हि देवेन्द्रं वाक्यमब्रवीत् ॥ २३ ॥
वहाँ जाकर वह दूत शीघ्र ही सुधर्मा सभामें पहुँचकर बड़े अहंकारके साथ देवराज इन्द्रसे यह वचन कहने लगा- ॥ २३ ॥

घस्मर उवाच
जलन्धरोऽब्धितनयः सर्वदैत्यजनेश्वरः ।
सुप्रतापी महावीरः स्वयं कविसहायवान् ॥ २४ ॥
दूतोऽहं तस्य वीरस्य घस्मराख्यो न घस्मरः ।
प्रेषितस्तेन वीरेण त्वत्सकाशमिहागतः ॥ २५ ॥
अव्याहताज्ञः सर्वत्र जलन्धर उदग्रधीः ।
निर्जिताखिलदैत्यारिः स यदाह शृणुष्व तत् ॥ २६ ॥
घस्मर बोला-समुद्रपुत्र जलन्धर सभी दैत्योंका अधिपति, महाप्रतापी एवं महावीर है तथा शुक्राचार्य उसके सहायक हैं । मैं उसी वीरका घस्मर नामक दूत हूँ और वस्तुतः घस्मर (भक्षक) नहीं हैं, उसी वीरके द्वारा भेजे जानेपर मैं आपके पास आया हूँ । सर्वत्र अप्रतिहत आज्ञावाले महान् बुद्धिमान् तथा सम्पूर्ण देवताओंको जीतनेवाले उस जलन्धरने जो कहा है, उसे आप सुनिये ॥ २४-२६ ॥

जलन्धर उवाच
कस्मात्त्वया मम पिता मथितः सागरोऽद्रिणा ।
नीतानि सर्वरत्नानि पितुर्मे देवताधम ॥ २७ ॥
उचितं न कृतं तेऽद्य तानि शीघ्रं प्रयच्छ मे ।
ममायाहि विचार्येत्थं शरणं दैवतैः सह ॥ २८ ॥
अन्यथा ते भयं भूरि भविष्यति सुराधम ।
राज्यविध्वंसनं चैव सत्यमेतद्‌ब्रवीम्यहम् ॥ २९ ॥
जलन्धर बोला-हे देवाधम ! तुमने किस कारणसे पर्वतके द्वारा मेरे पिता समुद्रका मन्थन किया ? और मेरे पिताके सारे रत्नोंका अपहरण किया ? तुमने यह उचित नहीं किया, उन रत्नोंको अभी शीघ्र लौटा दो और विचार करके देवताओंसहित मेरी शरणमें आ जाओ । अन्यथा हे सुराधम ! तुम्हारे समक्ष बहुत बड़ा भय उपस्थित होगा तथा तुम्हारा राज्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायगा । मैं यह सत्य कह रहा हूँ । २७-२९ ॥

सनत्कुमार उवाच
इति दूतवचः श्रुत्वा विस्मितस्त्रिदशाधिपः ।
उवाच तं स्मरन्निन्द्रो भयरोषसमन्वितः ॥ ३० ॥
सनत्कुमार बोले-दूतकी यह बात सुनकर देवराज इन्द्र विस्मित हो गये और वे भय तथा रोषसे युक्त हो उसे (पूर्ववृत्तान्तको) याद करते हुए कहने लगे- ॥ ३० ॥

अद्रयो मद्‌भयात् त्रस्ताः स्वकुक्षिस्था यतः कृताः ।
अन्येऽपि मद् द्विषस्तेन रक्षिता दितिजाः पुरा ॥ ३१ ॥
तस्मात्तद्रत्नजातं तु मया सर्वं हृतं किल ।
न तिष्ठति मम द्रोही सुखं सत्यं ब्रवीम्यहम् ॥ ३२ ॥
[हे दूत !] मेरे भयसे भागे हुए पर्वतोंको तथा अन्य मेरे दानवशत्रुओंको पूर्वकालमें उस समुद्रने शरण दी थी, इसीलिये मैंने उसके सारे रत्नोंका अपहरण कर लिया है । मेरा द्रोही सुखसे नहीं रह सकता है, मैं यह सत्य कह रहा हूँ ॥ ३१-३२ ॥

शङ्‌खोऽप्येवं पुरा दैत्यो मां द्विषन्सागरात्मजः ।
अभवन्मूढचित्तस्तु साधुसङ्‌गात्समुज्झित ॥ ३३ ॥
ममानुजेन हरिणा निहत स हि पापधीः ।
हिंसकः साधुसंघस्य पापिष्ठःसागरोदरे ॥ ३४ ॥
पहले भी इसी सागरके शंख नामक मूर्ख पुत्रने मुझसे विरोध किया था, इसलिये साधुओंने उसे अपने साथ नहीं रखा । वह साधुओंका हिंसक और बड़ा पापी था, वह समुद्रमें छिपा रहता था, अतः मेरे छोटे भाई विष्णुने उसका संहार कर दिया ॥ ३३-३४ ॥

तद्‌ गच्छ दूत शीघ्रं त्वं कथयस्वास्य तत्त्वतः ।
अब्धिपुत्रस्य सर्वं हि सिन्धोर्मंथनकारणम् ॥ ३५ ॥
अतः हे दूत ! तुम शीघ्र जाओ और उस समुद्रपुत्रसे सागरमन्थनका समस्त कारण ठीक ठीक कह दो ॥ ३५ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्थं विसर्जितो दूतो घस्मराख्यः सुबुद्धिमान् ।
तदेन्द्रेणागमत्तूर्णं यत्र वीरो जलन्धरः ॥ ३६ ॥
तदिदं वचनं दैत्यराजो हि तेन धीमता ।
कथितो निखिलं शक्रप्रोक्तं दूतेन वै तदा ॥ ३७ ॥
सनत्कुमार बोले-इस प्रकार इन्द्रके द्वारा विसर्जित किया गया वह महाबुद्धिमान् दूत शीघ्र ही वहाँ पहुँचा, जहाँ वीर जलन्धर था । उस बुद्धिमान् दूतने इन्द्रद्वारा कही गयी सभी बातोंको दैत्यराज जलन्धरसे कह दिया ॥ ३६-३७ ॥

तन्निशम्य ततो दैत्यो रोषात्प्रस्फुरिताधरः ।
उद्योगमकरोत्तूर्णं सर्वदेवजिगीषया ॥ ३८ ॥
तदोद्योगेऽसुरेन्द्रस्य दिग्भ्यः पातालतस्तथा ।
दितिजाः प्रत्यपद्यन्त कोटिशः कोटिशस्तथा ॥ ३९ ॥
इन्द्रके वचनको सुनकर दैत्यके ओष्ठ क्रोधसे फड़कने लगे और वह शीघ्र ही सभी देवताओंको जीतनेकी इच्छासे उद्योग करने लगा । उस दैत्येन्द्र के उद्योग करते ही सभी दिशाओंसे तथा पातालसे करोड़ों-करोड़ दैत्य आकर उपस्थित हो गये ॥ ३८-३९ ॥

अथ शुम्भनिशुम्भाद्यैर्बलाधिपतिकोटिभिः ।
निर्जगाम महावीरः सिन्धुपुत्रः प्रतापवान् ॥ ४० ॥
तत्पश्चात् वह महावीर तथा प्रतापशाली समुद्रपुत्र जलन्धर शुम्भ-निशुम्भ आदि करोड़ों सेनापतियोंके साथ [देवताओंपर विजय करनेके लिये] निकल पड़ा ॥ ४० ॥

प्राप त्रिविष्टपं सद्यः सर्वसैन्यसमावृतः ।
दध्मौ शङ्‌खं जलधिजो नेदुर्वीराश्च सर्वतः ॥ ४१ ॥
इस प्रकार अपनी सम्पूर्ण सेनाओंको साथ लेकर वह जलन्धर शीघ्र ही स्वर्गमें पहुँच गया । उसने शंख बजाया तथा सभी वीर चारों ओरसे गरजने लगे ॥ ४१ ॥

गत्वा त्रिविष्टपं दैत्यो नन्दनाधिष्ठितोऽभवत् ।
सर्व सैन्यं समावृत्य कुर्वाणः सिंहवद्रवम् ॥ ४२ ॥
इन्द्रलोक पहुँचकर उस दैत्यने सम्पूर्ण सेनाके साथ सिंहनाद करते हुए नन्दनवनमें डेरा डाल दिया ॥ ४२ ॥

पुरमावृत्य तिष्ठत्तद् दृष्ट्‍वा सैन्यबलं महत् ।
निर्ययुस्त्वमरावत्या देवा युद्धाय दंशिताः ॥ ४३ ॥
नगरको चारों ओरसे घेरकर स्थित उसकी बड़ी सेनाको देखकर देवता कवच धारणकर युद्धके लिये अमरावतीपुरीसे निकल पड़े ॥ ४३ ॥

ततःसमभवद्युद्धं देवदानवसेनयोः ।
मुसलैः परिघैर्बाणैर्गदापरशुशक्तिभिः ॥ ४४ ॥
इसके बाद देवों और दैत्योंकी सेनाओंके बीच मूसल, परिघ, बाण, गदा, परशु एवं शक्तियोंसे युद्ध होने लगा ॥ ४४ ॥

तेऽन्योन्यं समधावेतां जघ्नतुश्च परस्परम् ।
क्षणेनाभवतां सेने रुधिरौघपरिप्लुते ॥ ४५ ॥
पतितैः पात्यमानैश्च गजाश्वरथपत्तिभिः ।
व्यराजत रणे भूमिः सन्ध्याभ्रपटलैरिव ॥ ४६ ॥
। वे एक-दूसरेकी ओर दौड़ने लगे और एक दूसरेपर प्रहार करने लगे, थोड़ी ही देरमें दोनों सेनाएँ रुधिरसे लथपथ हो गयीं । हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदल सेनाओंके गिरने तथा गिरानेसे सारी रणभूमि सन्ध्याकालीन बादलोंके समान प्रतीत होने लगी ॥ ४५-४६ ॥

तत्र युद्धे मृतान्दैत्यान्भार्गवस्तानजीवयत् ।
विद्ययामृतजीविन्या मन्त्रितैस्तोयबिन्दुभिः ॥ ४७ ॥
शुक्राचार्य अमृतसंजीवनी विद्याके द्वारा अभिमन्त्रित जलबिन्दुओंसे युद्ध में मरे हुए दैत्योंको जिलाने लगे ॥ ४७ ॥

देवानपि तथा युद्धे तत्राजीवयदङ्‌गिराः ।
दिव्यौषधैः समानीय द्रोणाद्रेः स पुनःपुनः ॥ ४८ ॥
अंगिरा (बृहस्पति) भी द्रोणपर्वतसे बारंबार दिव्य औषधियोंको लाकर उनके द्वारा युद्धमें देवताओंको जिलाने लगे ॥ ४८ ॥

दृष्टवान्स तथा युद्धे पुनरेव समुत्थितान् ।
जलन्धरः क्रोधवशो भार्गवं वाक्यमब्रवीत् ॥ ४९ ॥
तब जलन्धरने देवताओंको पुनर्जीवित होते देखकर क्रोधमें भरकर शुक्राचार्यसे यह वचन कहा- ॥ ४९ ॥

जलन्धर उवाच
मया देवा हता युद्धे उत्तिष्ठन्ति कथं पुनः ।
ततः सञ्जीविनी विद्या नैवान्यत्रेति वै श्रुता ॥ ५० ॥
जलन्धर बोला-[हे गुरो !] मेरे द्वारा युद्धमें मारे गये देवता कैसे जीवित होते जा रहे हैं ? मैंने तो सुन रखा है कि संजीवनीविद्या आपके अतिरिक्त और किसीके पास है ही नहीं ॥ ५० ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य सिन्धुपुत्रस्य भार्गवः ।
प्रत्युवाच प्रसन्नात्मा गुरुः शुक्रो जलन्धरम् ॥ ५१ ॥
सनत्कुमार बोले-सिन्धुपुत्रकी यह बात सुनकर गुरु शुक्राचार्यने प्रसन्नचित्त होकर जलन्धरसे कहा- ॥ ५१ ॥

शुक्र उवाच
दिव्यौषधीःसमानीय द्रोणाद्रेरङ्‌गिराः सुरान् ।
जीवयत्येष वै तात सत्यं जानीहि मे वचः ॥ ५२ ॥
जयमिच्छसि चेत्तात शृणु मे वचनं शुभम् ।
ततः सोऽरं भुजाभ्यां त्वं द्रोणमब्धावुपाहर ॥ ५३ ॥
शुक्र बोले-हे तात ! ये अंगिरा (बृहस्पति) द्रोणपर्वतसे औषधियोंको लाकर देवताओंको जीवित कर रहे हैं, मेरी बात सत्य मानो । हे तात ! यदि तुम विजय चाहते हो, तो मेरी हितकारी बात सुनो, तुम शीघ्र ही उस द्रोणपर्वतको अपनी भुजाओंसे उखाड़कर समुद्र में डाल दो ॥ ५२-५३ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्युक्तः स तु दैत्येन्द्रो गुरुणा भार्गवेण ह ।
द्रुतं जगाम यत्रासावास्ते चैवाद्रिराट् च सः ॥ ५४ ॥
सनत्कुमार बोले-गुरु शुक्राचार्यके द्वारा इस प्रकार कहा गया वह दैत्येन्द्र शीघ्र ही वहाँ पहुँचा, जहाँ वह पर्वतराज [द्रोण] था ॥ ५४ ॥

भुजाभ्यां तरसा दैत्यो नीत्वा द्रोणं च तं तदा ।
प्राक्षिपत्सागरे तूर्णं चित्रं न हरतेजसि ॥ ५५ ॥
उसने वेगपूर्वक अपनी भुजाओंसे उस द्रोण पर्वतको लेकर शीघ्र ही समुद्र में डाल दिया । शिवजीके तेजके सम्बन्धमें यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं थी ॥ ५५ ॥

पुनरायान्महावीरः सिन्धुपुत्रो महाहवम् ।
जघानास्त्रैश्च विविधैः सुरान्कृत्वा बलं महत् ॥ ५६ ॥
इसके बाद वह महावीर जलन्धर विशाल सेना लेकर पुनः युद्धस्थलमें लौट आया और अनेक प्रकारके शस्त्रोंसे देवगणोंका संहार करने लगा ॥ ५६ ॥

अथ देवान्हतान्दृष्ट्‍वा द्रोणाद्रिमगमद्‌ गुरुः ।
तावत्तत्र गिरीद्रं तं न ददर्श सुरार्चितः ॥ ५७ ॥
ज्ञात्वा दैत्यहृतं द्रोणं धिषणो भयविह्वलः ।
आगत्य देवान्प्रोवाच जीवो व्याकुलमानसः ॥ ५८ ॥
तब देवताओंको मरा हुआ देखकर देवपूजित देवगुरु द्रोणपर्वतपर गये, परंतु उन्होंने उस पर्वतराजको वहाँ नहीं देखा । दैत्यके द्वारा पर्वतको अपहृत जानकर देवगुरु भयसे विहल हो उठे और आकरके व्याकुलचित्त होकर देवताओंसे वे कहने लगे- ॥ ५७-५८ ॥

गुरुरुवाच
पलायध्वं सुराःसर्वे द्रोणो नास्ति गिरिर्महान् ।
ध्रुवं ध्वस्तश्च दैत्येन पाथोधितनयेन हि ॥ ५९ ॥
गुरु बोले-हे देवताओ ! तुमलोग भाग जाओ, महापर्वत द्रोण अब नहीं है, निश्चय ही समुद्रपुत्र जलन्धरने उसे ध्वस्त कर दिया है ॥ ५९ ॥

जलन्धरो महादैत्यो नायं जेतुं क्षमो यतः ।
रुद्रांशसम्भवो ह्येष सर्वामरविमर्दनः ॥ ६० ॥
मया ज्ञातः प्रभावोऽस्य यथोत्पन्नः स्वयं सुराः ।
शिवापमानकृच्छक्रचेष्टितं स्मरताखिलम् ॥ ६१ ॥
सभी देवताओंका मर्दन करनेवाला यह महादैत्य जलन्धर जीता नहीं जा सकता है; क्योंकि यह रुद्रके अंशसे उत्पन्न है । हे देवताओ ! यह जिस प्रकार उत्पन्न हुआ है तथा जैसा इसका प्रभाव है, उसे मैं जानता हूँ । शिवजीका अपमान करनेवाले इन्द्रकी सम्पूर्ण चेष्टाको आपलोग स्मरण कीजिये ॥ ६०-६१ ॥

सनत्कुमार उवाच
श्रुत्वा तद्वचनं देवाःसुराचार्यप्रकीर्तितम् ।
जयाशां त्यक्तवन्तस्ते भयविह्वलितास्तथा ॥ ६२ ॥
दैत्यराजेन तेनाति हन्यमानाःसमन्ततः ।
धैर्यं त्यक्त्वाऽपलायन्त दिशो दश सवासवाः ॥ ६३ ॥
सनत्कुमार बोले-देवताओंके आचार्य बृहस्पतिके द्वारा कहे गये उस वचनको सुनकर भयसे व्याकुल हुए उन देवगणोंने विजयकी आशा त्याग दी और उस दैत्यराजके द्वारा चारों ओरसे मारे जाते हुए इन्द्रसहित सभी देवता धैर्य त्यागकर दसों दिशाओंमें भाग गये । ६२-६३ ॥

देवान्विद्रावितान्दृष्ट्‍वा दैत्यः सागरनन्दनः ।
शङ्‌खभेरीजयरवैः प्रविवेशामरावतीम् ॥ ६४ ॥
प्रविष्टे नगरीं दैत्ये देवाः शक्रपुरोगमाः ।
सुवर्णाद्रिगुहां प्राप्ता न्यवसन्दैत्यतापिताः ॥ ६५ ॥
तब देवगणोंको पलायित देखकर सागरपुत्र दैत्य जलन्धरने शंख, भेरी तथा जयध्वनिके साथ अमरावतीपुरीमें प्रवेश किया । तब उस दैत्यके नगरीमें प्रविष्ट होनेपर इन्द्र आदि देवता उस दैत्यसे पीड़ित होकर सुमेरु पर्वतकी गुफामें छिप गये ॥ ६४-६५ ॥

तदैव सर्वेष्वसुरोऽधिकारे-
    ष्विन्द्रादिकानां विनिवेश्य सम्यक् ।
शुम्भादिकान्दैत्यवरान् पृथक्पृथक्
    स्वयं सुवर्णादिगुहां व्यगान्मुने ॥ ६६ ॥
हे मुने ! तब वह असुर इन्द्रादिकोंके सभी अधिकारोंपर श्रेष्ठ शुम्भादि दैत्योंको भलीभाँति पृथक्पृथक् नियुक्तकर स्वयं [देवताओंको खोजते हुए] मेरु पर्वतकी गुफामें जा पहुँचा ॥ ६६ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे
जलन्धरवधोपाख्याने देवजलन्धरयुद्धवर्णनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुगसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें जलन्धरवधोपाख्यानमें देव जलन्धरयुद्धवर्णन नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


GO TOP