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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे
एकविंशोऽध्यायः जलन्धरोपाख्याने विशेषयुद्धवर्णनम् -
नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भके साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना - सनत्कुमार उवाच ते गणाधिपतीन्दृष्ट्वा नन्दीभमुखषण्मुखान् । अमर्षादभ्यधावन्त द्वन्द्वयुद्धाय दानवाः ॥ १ ॥ सनत्कुमार बोले-तब नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि गणाधिपतियोंको देखकर वे दानव द्वन्द्वयुद्ध करनेके लिये क्रोधपूर्वक दौड़े ॥ १ ॥ नन्दिनं कालनेमिश्च शुम्भो लम्बोदरं तथा । निशुम्भः षण्मुखं देवमभ्यधावत शङ्कितः ॥ २ ॥ कालनेमि नन्दीकी ओर, शुम्भ गणेशकी ओर और निशुम्भ कार्तिकेयकी ओर शंकित होकर दौड़ा ॥ २ ॥ निशुम्भः कार्तिकेयस्य मयूरं पञ्चभिः शरैः । हृदि विव्याध वेगेन मूर्छितः स पपात ह ॥ ३ ॥ ततः शक्तिधरः क्रुद्धो बाणैः पञ्चभिरेव च । विव्याध स्यन्दने तस्य हयान्यन्तारमेव च ॥ ४ ॥ निशुम्भने कार्तिकेयके मयूरके हृदयमें पाँच बाणोंसे वेगपूर्वक प्रहार किया, जिससे वह मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा । तब कुमारने क्रोधित हो पाँच बाणोंसे उसके रथ, घोड़ों और सारथीपर प्रहार किया ॥ ३-४ ॥ शरेणान्येन तीक्ष्णेन निशुम्भं देववैरिणम् । जघान तरसा वीरो जगर्ज रणदुर्मदः ॥ ५ ॥ इसके बाद रणदुर्मद उन वीर कार्तिकेयने अपने दूसरे तीक्ष्ण बाणसे देवशत्रु निशुम्भपर बड़े वेगसे प्रहार किया और घोर गर्जना की ॥ ५ ॥ असुरोऽपि निशुम्भाख्यो महावीरोऽतिवीर्यवान् । जघान कार्तिकेयं तं गर्जन्तं स्वेषुणा रणे ॥ ६ ॥ महाबली निशुम्भ नामक असुरने भी युद्धमें गर्जना करते हुए उन कार्तिकेयपर अपने बाणसे प्रहार किया ॥ ६ ॥ ततः शक्तिं कार्तिकेयो यावज्जग्राह रोषतः । तावन्निशुम्भो वेगेन स्वशक्त्या तमपातयत् ॥ ७ ॥ तब कार्तिकेयने जबतक क्रोधसे अपना शक्ति नामक आयुध लिया, इतनेमें निशुम्भने वेगपूर्वक अपनी शक्तिसे उन्हें गिरा दिया ॥ ७ ॥ एवं बभूव तत्रैव कार्तिकेयनिशुम्भयोः । आहवो हि महान्व्यास वीरशब्दं प्रगर्जतोः ॥ ८ ॥ हे व्यास ! इस प्रकार वीरध्वनि करके गरजते हुए कार्तिकेय एवं निशुम्भका वहींपर घोर युद्ध होने लगा ॥ ८ ॥ ततो नन्दीश्वरो बाणैः कालनेमिमविध्यत । सप्तभिश्च हयान्केतुं रथं सारथिमाच्छिनत् ॥ ९ ॥ नान्दीश्वरने भी अपने बाणोंसे कालनेमिको बेध दिया । उन्होंने अपने सात बाणोंसे कालनेमिके घोड़े, सारथी, रथ तथा ध्वजाका छेदन कर दिया ॥ ९ ॥ कालनेमिश्च सङ्कुद्धो धनुश्चिच्छेद नन्दिनः । स्वशरासननिर्मुक्तैर्महातीक्ष्णैः शिलीमुखैः ॥ १० ॥ तब कालनेमिने क्रुद्ध होकर अपने धनुषसे छूटे हुए अत्यन्त तीखे बाणोंसे नन्दीका धनुष काट दिया ॥ १० ॥ अथ नन्दीश्वरो वीरः कालनेमिं महासुरम् । तमपास्य च शूलेन वक्षस्यभ्यहनद्दृढम् ॥ ११ ॥ स शूलभिन्नहृदयो हताश्वो हतसारथिः । अद्रेः शिखरमुत्पाट्य नन्दिनं समताडयत् ॥ १२ ॥ उसके बाद नन्दीश्वरने उस धनुषको त्यागकर शूलसे महादैत्य कालनेमिके वक्षःस्थलपर जोरसे प्रहार किया । इस प्रकार घोड़े और सारथिके नष्ट हो जानेपर एवं त्रिशूलसे वक्षःस्थलके फट जानेपर उसने पर्वतका शिखर उखाड़कर नन्दीश्वरपर प्रहार किया ॥ ११-१२ ॥ अथ शुम्भो गणेशश्च रथमूषक वाहनौ । युध्यमानौ शरव्रातैः परस्परमविध्यताम् ॥ १३ ॥ गणेशस्तु तदा शुम्भं हृदि विव्याध पत्रिणा । सारथिं च त्रिभिर्बाणैः पातयामास भूतले ॥ १४ ॥ ततोऽतिक्रुद्धः शुम्भोऽपि बाणदृष्ट्या गणाधिपम् । मूषकं च त्रिभिर्विध्वा ननाद जलदस्वनः ॥ १५ ॥ उस समय रथपर सवार शुम्भ एवं मूषकपर सवार श्रीगणेशजी युद्ध करते हुए एक-दूसरेको बाणसमूहोंसे बेधने लगे । उसके बाद गणेशजीने शुम्भके हृदयमें बाणसे प्रहार किया और तीन बाणोंसे सारथिपर प्रहार करके उसे पृथ्वीपर गिरा दिया । तय अत्यन्त कुपित शुम्भ भी बाणवृष्टिसे गणेशजीको तथा तीन बाणोंसे मूषकको बेधकर मेघके समान गर्जन करने लगा ॥ १३-१५ ॥ मूषकः शरभिन्नाङ्गश्चचाल दृढवेदनः । लम्बोदरश्च पतितः पदातिरभवत्स हि ॥ १६ ॥ ततो लम्बोदरः शुम्भं हत्वा परशुना हृदि । अपातयत्तदा भूमौ मूषकं चारुरोह सः ॥ १७ ॥ बाणोंसे छिन्न अंगवाला मूषक अत्यन्त पीड़ित होकर भाग चला, जिसके कारण गणेशजी गिर पड़े और वे पैदल ही युद्ध करने लगे । फिर तो उन लम्बोदरने परशुसे शुम्भके वक्षःस्थलपर प्रहार करके उसे पृथ्वीपर गिरा दिया तदनन्तर वे पुनः मूषकपर सवार हो गये । १६-१७ ॥ समरायोद्यतश्चाभूत्पुनर्गजमुखो विभुः । प्रहस्य जघ्नतुः क्रोधात्तोत्रेणैव महाद्विपम् ॥ १८ ॥ गणेशजी समरके लिये पुनः उद्यत हो गये और उन्होंने हँसकर क्रोधसे शुम्भपर इस प्रकार प्रहार किया, जैसे अंकुशसे हाथीपर प्रहार होता हो ॥ १८ ॥ कालनेमिर्निशुम्भश्च ह्युभौ लम्बोदरं शरैः । युगपच्चख्नतुः क्रोधादाशीविषसमैर्द्रुतम् ॥ १९ ॥ तं पीड्यमानमालोक्य वीरभद्रो महाबलः । अभ्यधावत वेगेन कोटिभूतयुतस्तथा ॥ २० ॥ तब कालनेमि एवं निशुम्भ दोनों ही क्रोधपूर्वक एक साथ सर्पके समान [तीक्ष्ण] बाणोंसे शीघ्रतासे गणेशपर प्रहार करने लगे । तब महाबली वीरभद्र उन्हें इस प्रकार पीड़ित किया जाता हुआ देखकर बड़े वेगसे करोड़ों भूतोंको साथ लेकर दौड़े ॥ १९-२० ॥ कूष्माण्डा भैरवाश्चापि वेताला योगिनीगणाः । पिशाचा डाकिनीसङ्घा गणाश्चापि समं ययुः ॥ २१ ॥ उनके साथ कूष्माण्ड, भैरव, वेताल, योगिनियाँ, पिशाच, ढाकिनियाँ एवं गण भी चले ॥ २१ ॥ ततः किलकिला शब्दैः सिंहनादैः सघर्घरैः । विनादिता डमरुकैः पृथिवी समकम्पत ॥ २२ ॥ ततो भूताः प्रधावन्तो भक्षयन्ति स्म दानवान् । उत्पत्य पातयन्ति स्म ननृतुश्च रणाङ्गणे ॥ २३ ॥ उस समय उन लोगोंके किलकिला शब्द, सिंहनाद, घर्घर एवं डमरूके शब्दसे पृथ्वी निनादित होकर काँप उठी । उस समय समरभूमिमें भूतगण दौड़-दौड़कर दानवोंका भक्षण करने लगे और उनके ऊपर चढ़कर उन्हें गिराने लगे और नाचने लगे ॥ २२-२३ ॥ एतस्मिन्नन्तरे व्यासाभूतां नन्दीगुहश्च तौ । उत्थितावाप्तसञ्ज्ञौ हि जगर्जतुरलं रणे ॥ २४ ॥ हे व्यास ! इसी बीच नन्दी और कार्तिकेयको चेतना आ गयी और वे उठ गये तथा रणभूमिमें गरजने लगे ॥ २४ ॥ स नन्दी कार्तिकेयश्च समायातौ त्वरान्वितौ । जघ्नतुश्च रणे दैत्यान्निरन्तरशरव्रजैः ॥ २५ ॥ वे नन्दीश्वर एवं कार्तिकेय शीघ्र रणभूमिमें आ गये और अपने बाणोंद्वारा दैत्योंपर निरन्तर प्रहार करने लगे ॥ २५ ॥ छिन्नैर्भिन्नैर्हतैर्दैत्यैः पतितैर्भक्षितैस्तथा । व्याकुला साभवत्सेना विषण्णवदना तदा ॥ २६ ॥ तब छिन्न भिन्न हुए दैत्यगण पृथ्वीपर गिरने लगे और उन गिरे हुए दैत्योंको भूतगण खाने लगे, इससे दैत्योंकी सेना विषादग्रस्त तथा व्याकुल हो गयी ॥ २६ ॥ एवं नन्दी कार्तिकेयो विकटश्च प्रतापवान् । वीरभद्रो गणाश्चान्ये जगर्जुःसमरेऽधिकम् ॥ २७ ॥ इस प्रकार प्रतापी नन्दी, कार्तिकेय, गणेशजी, वीरभद्र तथा अन्य गण युद्धभूमिमें जोर-जोरसे गरजने लगे ॥ २७ ॥ निशुम्भशुम्भौ सेनान्यौ सिन्धुपुत्रस्य तौ तथा । कालनेमिर्महादैत्योऽसुराश्चान्ये पराजिताः ॥ २८ ॥ जलन्धरके वे दोनों सेनापति शुम्भ-निशुम्भ, महादैत्य कालनेमि एवं अन्य असुर पराजित हो गये ॥ २८ ॥ प्रविध्वस्तां ततःसेनां दृष्ट्वा सागरनन्दनः । रथेनातिपताकेन गणानभिययौ बली ॥ २९ ॥ तब अपनी सेनाको विध्वस्त हुआ देखकर बलवान् जलन्धर ऊँची पताकावाले रथपर सवार हो गणोंके समक्ष आ गया ॥ २९ ॥ ततः पराजिता दैत्या अप्यभूवन्महोत्सवाः । जगर्जुरधिकं व्यास समरायोद्यतास्तदा ॥ ३० ॥ हे व्यासजी ! तब पराजित हुए दैत्य भी महान् उत्साहसे भर गये और युद्धके लिये तैयार होकर गरजने लगे ॥ ३० ॥ सर्वे रुद्रगणाश्चापि जगर्जुर्जयशालिनः । नन्दिकार्तिकदन्त्यास्यवीरभद्रादिका मुने ॥ ३१ ॥ हे मुने ! विजयशील शिवके गण नन्दी, कार्तिकेय, गजानन, वीरभद्र आदि भी गर्जना करने लगे ॥ ३१ ॥ हस्त्यश्वरथसंह्रादः शङ्खभेरीरवस्तथा । अभवत्सिंहनादश्च सेनयोरुभयोस्तथा ॥ ३२ ॥ उस समय दोनों सेनाओंमें हाथियों, घोड़ों तथा रथोंके शब्द, शंख एवं भेरियोंकी ध्वनि एवं सिंहनाद होने लगे ॥ ३२ ॥ जलन्धरशरव्रातैर्नीहारपटलैरिव । द्यावापृथिव्योराच्छन्नमन्तरं समपद्यत ॥ ३३ ॥ शैलादिं पञ्चभिर्विद्ध्वा गणेशं पञ्चभिः शरैः । वीरभद्रं च विंशत्या ननाद जलदस्वनः ॥ ३४ ॥ कार्तिकेयस्ततो दैत्यं शक्त्या विव्याध सत्वरम् । जलन्धरं महावीरो रुद्रपुत्रो ननाद च ॥ ३५ ॥ जलन्धरके बाणसमूहोंसे धुलोक तथा भूलोकके बीचका स्थान उसी प्रकार आच्छादित हुआ, जैसे कुहरेसे आकाश आच्छन्न हो जाता है । वह नन्दीपर पाँच, गणेशपर पाँच और वीरभद्रपर बीस बाणोंसे प्रहार करके मेघके समान गर्जन करने लगा । तब रुद्रपुत्र महावीर कार्तिकेयने बड़ी शीघ्रतासे अपनी शक्तिद्वारा उस दैत्य जलन्धरपर प्रहार किया और वे गर्जन करने लगे ॥ ३३-३५ ॥ स पूर्णनयनो दैत्यः शक्तिनिर्भिन्नदेहकः । पपात भूमौ त्वरितमुदतिष्ठन्महाबलः ॥ ३६ ॥ ततः क्रोधपरीतात्मा कार्तिकेयं जलन्धरः । गदया ताडयामास हृदये दैत्यपुङ्गवः ॥ ३७ ॥ शक्तिसे विदीर्ण देहवाला वह महाबली दैत्य आँखोंको घुमाता हुआ पृथ्वीपर गिर पड़ा, किंतु बड़ी शीघ्रतासे उठ गया । इसके बाद उस दैत्यश्रेष्ठ जलन्धरने बड़े क्रोधसे कार्तिकेयके हृदयमें गदासे प्रहार किया । ३६-३७ ॥ गदाप्रभावं सफलं दर्शयन् शंकरात्मजः । विधिदत्तवराद् व्यास स तूर्णं भूतलेऽपतत् ॥ ३८ ॥ हे व्यासजी ! तब वे शंकरपुत्र कार्तिकेय ब्रह्माके द्वारा दिये गये वरदानके कारण उस गदाके प्रहारको सफल प्रदर्शित करते हुए शीघ्र पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ ३८ ॥ तथैव नन्दी ह्यपतद्भूतले गदया हतः । महावीरोऽपि रिपुहा किञ्चिद्व्याकुलमानसः ॥ ३९ ॥ ततो गणेश्वरः क्रुद्धः स्मृत्वा शिवपदाम्बुजम् । सम्प्राप्यातिबलो दैत्य गदां परशुनाच्छिनत् ॥ ४० ॥ इसी प्रकार शत्रुहन्ता एवं महावीर नन्दी भी गदाके प्रहारसे घायल होकर कुछ व्याकुलमन हो पृथ्वीपर गिर पड़े । उसके बाद महाबली गणेशजीने अत्यन्त कुद्ध हो शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करके बड़े वेगसे दौड़कर अपने परशुसे दैत्यकी गदाको काट दिया ॥ ३९-४० ॥ वीरभद्रस्त्रिभिर्बाणैर्हृदि विव्याध दानवम् । सप्तभिश्च हयान्केतुं धनुश्छत्रं च चिच्छिदे ॥ ४१ ॥ वीरभद्रने तीन बाणोंसे उस दानवके वक्षःस्थलपर प्रहार किया तथा सात बाणोंसे उसके घोड़ों, ध्वजा, धनुष एवं छत्रको काट डाला ॥ ४१ ॥ ततोऽतिक्रुद्धो दैत्येन्द्रः शक्तिमुद्यम्य दारुणाम् । गणेशं पातयामास रथमन्यं समारुहत् ॥ ४२ ॥ तब दैत्येन्द्रने अत्यधिक कुपित होकर अपनी दारुण शक्तिको उठाकर उसके प्रहारसे गणेशको [पृथ्वीपर गिरा दिया और स्वयं दूसरे रथपर सवार हो गया ॥ ४२ ॥ अभ्यगादथ वेगेन स दैत्येन्द्रो महाबलः । विगणय्य हृदा तं वै वीरभद्रं रुषान्वितः ॥ ४३ ॥ वीरभद्रं जघानाशु तीक्ष्णेनाशीविषेण तम् । ननाद च महावीरो दैत्यराजो जलन्धरः ॥ ४४ ॥ इसके बाद वह दैत्येन्द्र क्रोधित होकर अपने मनमें उन वीरभद्रको कुछ न समझकर वेगपूर्वक उनकी ओर दौड़ा । दैत्यराज महावीर जलन्धरने तीखे बाणसे शीघ्रतापूर्वक उन वीरभद्रपर प्रहार किया और गर्जना की ॥ ४३-४४ ॥ वीरभद्रोऽपि सङ्कुद्धःसितधारेण चेषुणा । चिच्छेद तच्छरं चैव तं विव्याध महेषुणा ॥ ४५ ॥ ततस्तौ सूर्यसङ्काशौ युयुधाते परस्परम् । नानाशस्त्रैस्तथास्त्रैश्च चिरं वीरवरोत्तमौ ॥ ४६ ॥ वीरभद्रस्ततस्तस्य हयान्बाणैरपातयत् । धनुश्चिच्छेद रथिनः पताकां चापि वेगतः ॥ ४७ ॥ तब वीरभद्रने भी अति क्रुद्ध होकर तीक्ष्ण धारवाले बाणसे उसके बाणको काट दिया और अपने महान् बाणसे उसपर प्रहार किया । इस प्रकार सूर्यके समान अत्यन्त तेजस्वी तथा वीरवरोंमें श्रेष्ठ वे दोनों अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे बहुत समयतक परस्पर युद्ध करते रहे । वीरभद्रने अपने बाणोंसे उस रथी दैत्यके घोडौंको अनेक बाणोंसे मार गिराया और उसके धनुष तथा ध्वजको भी वेगपूर्वक काट दिया ॥ ४५-४७ ॥ अथो स दैत्यराजो हि पुप्लुवे परिघायुधः । वीरभद्रोपकण्ठं स द्रुतमाप महाबलः ॥ ४८ ॥ इसके बाद वह महाबली दैत्यराज परिघ-अस्त्र लेकर दौड़ा और वीरभद्रके पास शीघ्र जा पहुँचा ॥ ४८ ॥ परिघेनातिमहता वीरभद्रं जघान ह । सबलोऽब्धितनयो मूर्ध्नि वीरो जगर्ज च ॥ ४९ ॥ उस महाबली वीर समुद्रपुत्र जलन्धरने उस विशाल परिघसे वीरभद्रके सिरपर प्रहार किया और गर्जना की ॥ ४९ ॥ परिघेनातिमहता भिन्नमूर्द्धा गणाधिपः । वीरभद्रः पपातोर्व्यां मुमोच रुधिरं बहु ॥ ५० ॥ उस महान् परिघसे गणेश्वर वीरभद्रका सिर फट गया और वे पृथ्वीपर गिर पड़े, [उनके सिरसे] बहुत रक्त बहने लगा ॥ ५० ॥ पतितं वीरभद्रं तु दृष्ट्वा रुद्रगणा भयात् । अपागच्छन् रणं हित्वा क्रोशमाना महेश्वरम् ॥ ५१ ॥ वीरभद्रको पृथ्वीपर गिरा हुआ देखकर रुद्रगण भयसे शंकरजीको पुकारते हुए रणभूमि छोड़कर भागने लगे ॥ ५१ ॥ अथ कोलाहलं श्रुत्वा गणानां चन्द्रशेखरः । निजपार्श्वस्थितान् वीरानपृच्छद् गणसत्तमान् ॥ ५२ ॥ तब शिवजीने गणोंका कोलाहल सुनकर अपने समीपमें स्थित महाबली गणोंसे पूछा ॥ ५२ ॥ शंकर उवाच किमर्थं मद्गणानां हि महाकोलाहलोऽभवत् । विचार्यतां महावीराः शान्तिः कार्या मया ध्रुवम् ॥ ५३ ॥ शिवजी बोले-हे महावीरो ! मेरे गणोंका यह महान् कोलाहल क्यों हो रहा है, तुमलोग पता लगाओ । मैं इसे शीघ्र ही शान्त करूँगा ॥ ५३ ॥ यावत्स देवेशो गणान्पप्रच्छ सादरम् । तावद्गणवरास्ते हि समायाताः प्रभुं प्रति ॥ ५४ ॥ वे देवेश अभी गणोंसे आदरपूर्वक पूछ ही रहे थे, तभी वे श्रेष्ठ गण प्रभु शिवके पास पहुंच गये ॥ ५४ ॥ तान्दृष्ट्वा विकलान् रुद्रः पप्रच्छ कुशलं प्रभुः । यथावत्ते गणा वृत्तं समाचख्युश्च विस्तरात् ॥ ५५ ॥ तच्छ्रुत्वा भगवान् रुद्रो महालीलाकरः प्रभुः । अभयं दत्तवांस्तेभ्यो महोत्साहं प्रवर्द्धयन् ॥ ५६ ॥ उन्हें विकल देखकर प्रभु शंकरजी उनका कुशल पूछने लगे, तब उन गणोंने विस्तारपूर्वक सारा वृत्तान्त यथावत् कह दिया । तब महान् लीला करनेवाले प्रभु भगवान् रुद्रने उसे सुनकर महान् उत्साह बढ़ाते हुए उन्हें अभय प्रदान किया ॥ ५५-५६ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे जलन्धरोपाख्याने विशेषयुद्धवर्णनं नामैकविंशतितमोऽध्यायः ॥ २१ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें जलधरवधोपाख्यानमें विशेष युद्धवर्णन नामक इक्कीसौं अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २१ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |