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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे
द्वाविंशोऽध्यायः जलन्धरवधोपाख्याने जलन्धरयुद्धवर्णनम् -
श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना - सनत्कुमार उवाच अथ वीरगणै रुद्रो रौद्ररूपो महाप्रभुः । अभ्यगाद् वृषभारूढः सङ्ग्रामं प्रहसन्निव ॥ १ ॥ रुद्रमायान्तमालोक्य सिंहनादैर्गणाः पुनः । निवृत्ताः सङ्गरे रौद्रा ये हि पूर्वं पराजिताः ॥ २ ॥ वीर शब्दं च कुर्वन्तस्तेऽप्यन्ये शाङ्करा गणाः । सोत्सवाःसायुधा दैत्यान्निजघ्नुः शरवृष्टिभिः ॥ ३ ॥ सनत्कुमार बोले-इसके बाद रौद्ररूपवाले महाप्रभु शंकर बैलपर सवार हो वीरगणोंके साथ हँसते हुए संग्रामभूमिमें गये । जो रुद्रगण पहले पराजित होकर भाग गये थे, वे शिवजीको आते हुए देखकर सिंहनाद करते हुए युद्धभूमिमें पुनः लौट आये । वे और शंकरके अन्य गण भी शब्द करते हुए आयुधोंसे युक्त हो बड़े उत्साहके साथ बाणोंकी वर्षासे दैत्योंको मारने लगे ॥ १-३ ॥ दैत्या हि भीषणं रुद्रं सर्वे दृष्ट्वा विदुद्रुवुः । शाङ्करं पुरुषं दृष्ट्वा पातकानीव तद्भयात् ॥ ४ ॥ अथो जलन्धरो दैत्यान्निवृत्तान्प्रेक्ष्य सङ्गरे । अभ्यधावत्स चण्डीशं मुञ्चन्बाणान्सहस्रशः ॥ ५ ॥ निशुम्भशुम्भप्रमुखा दैत्येन्द्राश्च सहस्रशः । अभिजग्मुः शिवं वेगाद्रोषात्सन्दष्टदच्छदाः ॥ ६ ॥ उस समय सभी दैत्य भयंकर रुद्रको देखकर इस प्रकार भागने लगे, जिस प्रकार शिवभक्तको देखकर उसके भयसे पाप भाग जाते हैं । तदनन्तर युद्धमें असुरोंको पराङ्मुख देखकर वह जलन्धर हजारों बाणोंको छोड़ता हुआ शंकरजीकी ओर दौड़ा । शुम्भ-निशुम्भ आदि हजारों दैत्यराज भी क्रोधसे ओठोंको चबाते हुए बड़े वेगसे शंकरजीकी ओर जाने लगे ॥ ४-६ ॥ कालनेमिस्तथा वीरः खड्गरोमा बलाहकः । घस्मरश्च प्रचण्डश्चापरे चापि शिवं ययुः ॥ ७ ॥ वीर कालनेमि, खड्गरोमा, बलाहक, घस्मर, प्रचण्ड तथा अन्य दैत्य भी शिवजीकी ओर दौड़ पड़े ॥ ७ ॥ बाणैःसञ्छादयामासुर्द्रुतं रुद्रगणांश्च ते । अङ्गानि चिच्छिदुर्वीराः शुम्भाद्या निखिला मुने ॥ ८ ॥ हे मुने ! शुम्भ आदि सभी वीरों [दैत्यगणों] ने शीघ्र ही बाणोंके द्वारा रुद्रगणोंको ढंक दिया और उनके अंगोंको छिन्न-भिन्न कर दिया ॥ ८ ॥ बाणान्धकारसञ्छन्नं दृष्ट्वा गणबलं हरः । तद्बाणजालमाच्छिद्य बाणैराववृते नभः ॥ ९ ॥ तब शंकरने अपने गणोंको बाणोंके अन्धकारसे आवृत देखकर शीघ्रतापूर्वक दैत्योंके बाणसमूहोंको काटकर अपने बाणोंसे आकाशको भर दिया ॥ ९ ॥ दैत्यांश्च बाणवात्याभिः पीडितानकरोत्तदा । प्रचण्डबाणजालोघैरपातयत भूतले ॥ १० ॥ खड्गरोमशिरः कायात्तथा परशुनाच्छिनत् । बलाहकस्य च शिरः खट्वाङ्गेनाकरोद्द्विधा ॥ ११ ॥ स बद्ध्वा घस्मरं दैत्यं पाशेनाभ्यहनद्भुवि । महावीर प्रचण्डं च चकर्त्त विशिखेन ह ॥ १२ ॥ उन्होंने बाणोंकी आँधीसे दैत्योंको पीड़ित कर दिया और बाणसमूहोंसे दैत्योंको पृथ्वीतलपर गिरा दिया । उन्होंने अपने परशुसे खड्गरोमाका सिर धड़से अलग कर दिया और खट्वांगसे बलाहकके सिरके दो टुकड़े कर दिये । घस्मर नामक दैत्यको पाशमें बाँधकर उसे भूमिपर पटक दिया और अपने त्रिशूलसे महावीर प्रचण्डको काट डाला ॥ १०-१२ ॥ वृषभेण हताः केचित्केचिद्बाणैर्निपातिता । न शेकुरसुराः स्थातुं गजा सिंहार्दिता इव ॥ १३ ॥ शिवजीके वृषभने कुछको मार डाला, कुछ बाणोंके द्वारा मार दिये गये और कुछ दैत्य सिंहसे पीड़ित हाथियोंकी भाँति स्थित रहने में असमर्थ हो गये ॥ १३ ॥ ततः क्रोधपरीतात्मा दैत्यान् धिक् कृतवान् रणे । शुम्भादिकान्महादैत्यः प्रहसन्प्राह धैर्यवान् ॥ १४ ॥ तब क्रोधाविष्ट मनवाला वह महादैत्य जलन्धर शुम्भादि दैत्योंको धिक्कारने लगा और धैर्ययुक्त होकर हँसता हुआ कहने लगा- ॥ १४ ॥ जलन्धर उवाच किं व उच्चरितैर्मातुर्धावद्भिः पृष्ठतो हतैः । न हि भीतवधः श्लाघ्यः स्वर्गदः शूरमानिनाम् ॥ १५ ॥ यदि वः प्रधने श्रदा सारो वा क्षुल्लका हृदि । अग्रे तिष्ठत मात्रं मे न चेद्ग्राम्यसुखे स्पृहा ॥ १६ ॥ जलन्धर बोला-[पहले शंकरजीसे बोला-] भागकर पीठ दिखाते हुए माताके मलके समान इन दैत्योंको मारनेसे क्या लाभ; क्योंकि भयभीत लोगोंको मारना श्लाघ्य तथा वीरोंके लिये स्वर्गप्रद नहीं होता । यदि युद्ध करनेमें तुम्हारी श्रद्धा है, हृदयमें थोड़ा भी साहस है तथा यदि ग्राम्यसुखमें थोड़ी भी स्पृहा नहीं है, तो मेरे सामने खड़े रहो ॥ १५-१६ ॥ रणे मृत्युर्वरश्चास्ति सर्वकामफलप्रदः । यशःप्रदो विशेषेण मोक्षदोऽपि प्रकीर्त्तितः ॥ १७ ॥ सूर्यस्य मण्डलं भित्त्वा यायाद्वै परमं पदम् । परिव्राट् परमज्ञानी रणे यत्संमुखे हतः ॥ १८ ॥ मृत्योर्भयं न कर्तव्यं कदाचित्कुत्रचिद्बुधैः । अनिर्वार्यो यतो ह्येष उपायैर्निखिलैरपि ॥ १९ ॥ [पुनः अपने वीरोंसे बोला-] युद्धभूमिमें मर जाना अच्छा है, वह सभी कामनाओंका फल देनेवाला, यशकी प्राप्ति करानेवाला तथा विशेषकर मोक्ष देनेवाला भी कहा गया है । जो रणभूमिमें युद्ध करते हुए मारा जाता है, वह संन्यासी एवं परमज्ञानी होता है और सूर्यमण्डलको भेदकर परमपदको प्राप्त करता है । बुद्धिमानोंको कभी भी कहीं भी मृत्युसे भयभीत नहीं होना चाहिये । क्योंकि समस्त उपायोंसे भी इसे रोका नहीं जा सकता है । १७-१९ ॥ मृत्युर्जन्मवतां वीरा देहेन सह जायते । अद्य वाब्दशतांते वा मृत्युर्वै प्राणिनां ध्रुवः ॥ २० ॥ हे वीरो ! यह मृत्यु तो जन्म लेनेवालोंके शरीरके साथ ही पैदा होती है, वह आज हो अथवा सौ वर्ष बाद हो, प्राणियोंकी मृत्यु तो निश्चित है ॥ २० ॥ तन्मृत्युभयमुत्सार्य युध्यध्वं समरे मुदा । सर्वथा परमानन्द इहामुत्राप्यसंशयः ॥ २१ ॥ इसलिये मृत्युका भय त्यागकर संग्राममें प्रसन्नतापूर्वक युद्ध करो, ऐसा करनेसे इस लोकमें तथा परलोकमें भी निःसन्देह परम आनन्दकी प्राप्ति होती है ॥ २१ ॥ सनत्कुमार उवाच इत्युक्त्वा बोधयामास स्ववीरान्बहुशः स हि । धैर्यं दधुर्न ते भीत्या पलायन्त रणाद् रुतम् ॥ २२ ॥ सनत्कुमार बोले-[हे व्यास !] ऐसा कहकर उसने अपने वीरोंको अनेक प्रकारसे समझाया, किंतु वे भयके कारण धैर्य धारण न कर सके और रणसे भागने लगे ॥ २२ ॥ अथ दृष्ट्वा स्वसैन्यं तत्पलायनपरायणम् । चुक्रोधाति महावीरः सिन्धुपुत्रो जलन्धरः ॥ २३ ॥ तब अपनी सेनाको भागती हुई देखकर महाबली सिन्धुपुत्र जलन्धरको बड़ा क्रोध उत्पन्न हो गया ॥ २३ ॥ ततः क्रोधपरीतात्मा क्रोधाद्रुद्रं जलन्धरः । आह्वापयामास रणे तीव्राशनिसमस्वनः ॥ २४ ॥ इसके बाद क्रोधसे आविष्ट मनवाला वह जलन्धर क्रोधसे वज्रकी ध्वनिके समान कठोर शब्द करके युद्धभूमिमें रुद्रको ललकारने लगा ॥ २४ ॥ जलन्धर उवाच युद्ध्यस्वाद्य मया सार्द्धं किमेभिर्निहतैस्तव । यच्च किञ्चिद्बलं तेऽस्ति तद्दर्शय जटाधर ॥ २५ ॥ जलन्धर बोला-हे जटाधर ! तुम आज मेरे साथ युद्ध करो, इन्हें मारनेसे क्या लाभ ! यदि तुम्हारे पास कुछ बल है, तो उसे दिखाओ ॥ २५ ॥ सनत्कुमार उवाच इत्युक्त्वा बाण सप्तत्या जघान वृषभध्वजम् । जलन्धरो महादैत्यः शम्भुमक्लिष्टकारिणम् ॥ २६ ॥ तानप्राप्तान्महादेवो जलन्धरशरान्द्रुतम् । निजैर्हि निशितैर्बाणैश्चिच्छेद प्रहसन्निव ॥ २७ ॥ ततो हयान्ध्वजं छत्रं धनुश्चिच्छेद सप्तभिः । जलन्धरस्य दैत्यस्य न तच्चित्रं हरे मुने ॥ २८ ॥ सनत्कुमार बोले-ऐसा कहकर उस महादैत्य जलन्धरने सत्तर बाणोंसे अक्लिष्टकर्मा वृषभध्वज शिवजीपर प्रहार किया । महादेवजीने अपनेतक न पहुँचे हुए जलन्धरके उन बाणोंको अपने तीक्ष्ण बाणोंसे शीघ्र ही हँसते-हँसते काट दिया और सात बाणोंसे उस जलन्धर दैत्यके घोड़े, पताका, छत्र और धनुषको काट गिराया । हे मुने ! शंकरके लिये यह अद्भुत बात नहीं थी ॥ २६-२८ ॥ स च्छिन्नधन्वा विरथः पाथोधितनयोऽसुरः । अभ्यधावच्छिवं क्रुद्धो गदामुद्यम्य वेगवान् ॥ २९ ॥ तब कटे हुए धनुषवाला तथा रविहीन वह सिन्धुपुत्र दैत्य जलन्धर गदा लेकर क्रोधके साथ वेगशील होकर शिवजीकी ओर दौड़ा ॥ २९ ॥ प्रभुर्गदां च तत्क्षिप्तां सहसैव महेश्वरः । पाराशर्यं महालीलो द्रुतं बाणैर्द्विधाकरोत् ॥ ३० ॥ तथापि मुष्टिमुद्यम्य महाक्रुद्धो महासुरः । अभ्युद्ययौ महावेगाद्रुद्रं तं तज्जिघांसया ॥ ३१ ॥ हे पराशरपुत्र ! तब महान् लीला करनेवाले प्रभु महेश्वरने उसके द्वारा चलायी गयी गदाको शीघ्र ही सहसा दो टुकड़ों में कर दिया । फिर भी वह महादैत्य क्रोधमें भरकर अपनी मुष्टिका तानकर उन महादेवको मारनेकी इच्छासे बड़े वेगसे उनपर झपटा । ३०-३१ ॥ तावदेवेश्वरेणाशु बाणोघैः स जलन्धरः । अक्लिष्टकर्मकारेण क्रोशमात्रमपाकृतः ॥ ३२ ॥ ततो जलन्धरो दैत्यो रुद्रं मत्वा बलाधिकम् । ससर्ज मायां गान्धर्वीमद्भुतां रुद्रमोहिनीम् ॥ ३३ ॥ तस्य मायाप्रभावात्तु गन्धर्वाप्सरसां गणाः । आविर्भूता अनेके च रुद्रमोहनहेतवे ॥ ३४ ॥ इतनेमें अक्लिष्ट कर्म करनेवाले ईश्वरने अपने बाणसमूहोंसे शीघ्र ही उस जलन्धरको एक कोस पीछे ढकेल दिया । तत्पश्चात् दैत्य जलन्धरने रुद्रको अपनेसे अधिक बलवान् जानकर उनको मोहित करनेवाली अद्भुत गान्धर्वी मायाका निर्माण किया । उस समय उसकी मायाके प्रभावसे शंकरजीको मोहित करनेके लिये अप्सराओं एवं गन्धर्वोके अनेक गण प्रकट हो गये । ३२-३४ ॥ ततो जगुश्च ननृतुर्गन्धर्वाप्सरसां गणाः । तालवेणुमृदङ्गांश्च वादयन्ति स्म चापरे ॥ ३५ ॥ उसके बाद गन्धर्व तथा अप्सराओंके वे गण नाचने-गाने लगे तथा दूसरे ताल, वेणु और मृदंग बजाने लगे ॥ ३५ ॥ तद्दृष्ट्वा महदाश्चर्यं गणै रुद्रो विमोहितः । पतितान्यपि शस्त्राणि करेभ्यो न विवेद सः ॥ ३६ ॥ उस महान् आश्चर्यको देखकर रुद्र अपने गणों के साथ [उस रणभूमिमें] मोहित हो गये । उन्हें अपने हाथसे अस्त्रोंके गिरनेका भी ध्यान न रहा ॥ ३६ ॥ एकाग्रीभूतमालोक्य रुद्रं दैत्यो जलन्धरः । कामतः स जगामाशु यत्र गौरी स्थिताऽभवत् ॥ ३७ ॥ युद्धे शुम्भनिशुम्भाख्यौ स्थापयित्वा महाबलौ । दशदोर्दण्डपञ्चास्यस्त्रिनेत्रश्च जटाधरः ॥ ३८ ॥ महावृषभमारूढः सर्वथा रुद्रसंनिभः । आसुर्य्या मायया व्यास स बभूव जलन्धरः ॥ ३९ ॥ इस प्रकार रुद्रको एकाग्रचित्त देखकर कामके वशीभूत वह दैत्य जलन्धर बड़ी शीघ्रतासे वहाँ पहुंचा, जहाँ गौरी विराजमान थी । हे व्यास ! युद्धभूमिमें महाबली शुम्भ तथा निशुम्भको नियुक्तकर तथा स्वयं दस भुजा, पाँच मुख, तीन नेत्र तथा जटा धारणकर, महावृषभपर आरूढ़ हो वह जलन्धर अपनी आसुरी मायाके प्रभावसे सर्वथा शंकरके समान सुशोभित होने लगा ॥ ३७-३९ ॥ अथ रुद्रं समायातमालोक्य भववल्लभा । अभ्याययौ सखीमध्यात्तद्दर्शनपथेऽभवत् ॥ ४० ॥ शिवप्रिया पार्वती रुद्रको आते हुए देखकर सखियोंके मध्यसे उसके सामने आकर उपस्थित हो गयीं ॥ ४० ॥ यावद्ददर्श चार्वङ्गी पार्वतीं दनुजेश्वरः । तावत्स वीर्यं मुमुचे जडाङ्गश्चाभवत्तदा ॥ ४१ ॥ उस दैत्यराजने ज्यों ही पार्वतीको देखा, उसी समय संयमरहित हो गया और उसके अंग जड़ हो गये । ४१ ॥ अथ ज्ञात्वा तदा गौरी दानवं भयविह्वला । जगामान्तर्हितावेगात्सा तदोत्तरमानसम् ॥ ४२ ॥ तदनन्तर वे गौरी उस दानवको पहचानकर भयसे व्याकुल हो वेगपूर्वक अन्तर्धान होकर उत्तरमानसकी ओर चली गयीं ॥ ४२ ॥ तामदृश्य ततो दैत्यः क्षणाद्विद्युल्लतामिव । जवेनागात्पुनर्योद्धुं यत्र देवो महेश्वरः ॥ ४३ ॥ तत्पश्चात् क्षणमात्रमें ही बिजलीकी लताके समान पार्वतीको न देखकर वह दैत्य पुनः युद्ध करनेके लिये बड़े वेगसे वहाँ पहुँच गया, जहाँ शिवजी थे ॥ ४३ ॥ पार्वत्यपि महाविष्णुं सस्मार मनसा तदा । तावद्ददर्श तं देवं सोपविष्टं समीपगम् ॥ ४४ ॥ तं दृष्ट्वा पार्वती विष्णुं जगन्माता शिवप्रिया । प्रसन्नमनसोवाच प्रणमन्तं कृताञ्जलिम् ॥ ४५ ॥ तब पार्वतीने भी मनसे महाविष्णुका स्मरण किया और उन्होंने तत्क्षण अपने समीप उन विष्णुको बैठा हुआ देखा । तदनन्तर जगज्जननी शिवप्रिया पार्वती हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए उन विष्णको देखकर प्रसन्नचित्त हो उनसे कहने लगी- ॥ ४४-४५ ॥ पार्वत्युवाच विष्णो जलन्धरो दैत्यः कृतवान्परमाद्भुतम् । तत्किं न विदितं तेऽस्ति चेष्टितं तस्य दुर्मतेः ॥ ४६ ॥ तच्छ्रुत्वा जगदम्बाया वचनं गरुडध्वजः । प्रत्युवाच शिवां नत्वा साञ्जलिर्नम्रकन्धरः ॥ ४७ ॥ पार्वतीजी बोलीं-हे विष्णो ! जलन्धर दैत्यने परम आश्चर्यजनक कार्य किया है, क्या आपको उस दुर्बुद्धिकी चेष्टा विदित नहीं है ? । तब [भगवान्] गरुड़ध्वजने जगदम्बाका वह वचन सुनकर हाथ जोड़कर सिर झुकाकर शिवाको प्रणामकर कहा- ॥ ४६-४७ ॥ श्रीभगवानुवाच भवत्याः कृपया देवि तद्वृत्तं विदितं मया । यदाज्ञापय मां मातस्तत्कुर्य्यां त्वदनुज्ञया ॥ ४८ ॥ श्रीभगवान् बोले-हे देवि ! आपकी कृपासे मुझे वह वृत्तान्त ज्ञात है । हे माता ! आप मुझे जो आज्ञा दें, उसे मैं आपके आदेशसे करनेके लिये तत्पर हूँ ॥ ४८ ॥ सनत्कुमार उचाच तच्छ्रुत्वा विष्णुवचनं पुनरप्याह पार्वती ॥ हृषीकेशं जगन्माता धर्मनीतिं सुशिक्षयन् । ४९ ॥ सनत्कुमार बोले-विष्णुके इस वचनको सुनकर जगन्माता पार्वती धर्मनीतिकी शिक्षा देती हुई हषीकेशसे कहने लगीं- ॥ ४९ ॥ पार्वत्युवाच तेनैव दर्शितः पन्था बुध्यस्व त्वं तथैव हि । तत्स्त्रीपातिव्रतं धर्मं भ्रष्टं कुरु मदाज्ञया ॥ ५० ॥ नान्यथा स महादैत्यो भवेद्वध्यो रमेश्वर । पातिव्रतसमो नान्यो धर्मोऽस्ति पृथिवीतले ॥ ५१ ॥ पार्वतीजी बोलीं-उस दैत्यने ही ऐसा मार्ग प्रदर्शित किया है, अब उसीका अनुसरण आप भी कीजिये । मेरी आज्ञासे आप उसकी स्त्रीका पातिव्रत्य भंग कीजिये । हे लक्ष्मीपते ! उसके बिना वह महादैत्य नहीं मारा जा सकता है; क्योंकि पातिव्रतधर्मके समान अन्य कोई भी धर्म पृथ्वीतलपर नहीं है ॥ ५०-५१ ॥ सनत्कुमार उवाच इत्यनुज्ञां समाकर्ण्य शिरसाधाय तां हरिः । छल कर्त्तुं जगामाशु पुनर्जालन्धरं पुरम् ॥ ५२ ॥ सनत्कुमार बोले-पार्वतीकी यह आज्ञा सुनकर विष्णुजी उसे शिरोधार्य करके छल करनेके लिये शीघ्र ही पुन: जलन्धरकी नगरीकी ओर चले ॥ ५२ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायाम्पञ्चमे युद्धखण्डे जलन्धरवधोपाख्याने जलन्धरयुद्धवर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय कब्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें जलन्धरवधोपाख्यानके अन्तर्गत जलन्धरयुद्धवर्णन नामक बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २२ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |