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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

त्रयोविंशोऽध्यायः

जलन्धरवधोपाख्याने वृन्दापातिव्रतभङ्‌गदेहत्यागवर्णनम् -
विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना -


व्यास उवाच
सनत्कुमार सर्वज्ञ वद त्वं वदतां वर ।
किमकार्षीद्धरिस्तत्र धर्मं तत्याज सा कथम् ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे सनत्कुमार ! हे सर्वज्ञ ! हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! अब आप बताइये कि विष्णुने वहाँ जाकर क्या किया और उस [स्त्री] ने अपने धर्मको कैसे छोड़ा ? ॥ १ ॥

सनत्कुमार उवाच
विष्णुर्जालन्धरं गत्वा दैत्यस्य पुटभेदनम् ॥
पातिव्रत्यस्य भङ्‌गाय वृन्दायाश्चा करोन्मतिम् ॥ २ ॥
वृन्दां स दर्शयामास स्वप्नं मायाविनां वरः ।
स्वयं तन्नगरोद्यानमास्थितोऽद्‌भुतविग्रहः ॥ ३ ॥
अथ वृन्दा तदा देवी तत्पत्नी निशि सुव्रता ।
हरेर्मायाप्रभावात्तु दुःस्वप्नं सा ददर्श ह ॥ ४ ॥
सनत्कुमार बोले-दैत्य जलन्धरके नगरमें जाकर विष्णु वृन्दाके पातिव्रतधर्मको नष्ट करनेका विचार करने लगे । मायावियोंमें श्रेष्ठ उन्होंने वृन्दाको स्वप्न दिखाया और स्वयं अद्‌भुत रूप धारण करके उसके नगरके उद्यानमें स्थित हो गये । तब उसकी पतिव्रता पत्नी देवी वृन्दाने विष्णुकी मायाके प्रभावसे रात्रिमें दुःस्वप्न देखा ॥ २-४ ॥

स्वप्नमध्ये हि सा विष्णुमायया प्रददर्श ह ।
भर्त्तारं महिषारूढं तैलाभ्यक्तं दिगम्बरम् ॥ ५ ॥
कृष्णप्रसूनभूषाढ्यं क्रव्यादगणसेवितम् ।
दक्षिणाशां गतं मुण्डं तमसा च वृतं तदा ॥ ६ ॥
उसने विष्णुकी मायासे स्वप्नमें देखा कि उसका पति भैंसेपर आरूढ़ होकर शरीरमें तेल लगाये हुए नग्न होकर काले पुष्पोंसे विभूषित हो राक्षसोंके साथ दक्षिण दिशाकी ओर जा रहा है, उसका सिर मुंडा हुआ है और वह अन्धकारसे ढका हुआ है ॥ ५-६ ॥

स्वपुरं सागरे मग्नं सहसैवात्मना सह ।
इत्यादि बहुदुःस्वप्नान्निशान्ते सा ददर्श ह ॥ ७ ॥
इसी तरह उसने अपनेको और अपने नगरको समुद्र में डूबते हुए देखा । इस प्रकार उसने रात्रिके शेष भागमें बहुत प्रकारके दुःस्वप्नोंको देखा ॥ ७ ॥

ततः प्रबुध्य सा बाला तं स्वप्नं स्वं विचिन्वती ।
ददर्शोदितमादित्यं सच्छिद्रं निष्प्रभं मुहुः ॥ ८ ॥
इसके बाद वह बाला जगकर देखे गये अपने स्वप्नॉपर विचार कर ही रही थी कि उसने उदित होते हुए सूर्यको छिद्रयुक्त और निष्प्रभ देखा ॥ ८ ॥

तदनिष्टमिदं ज्ञात्वा रुदन्ती भयविह्वला ।
कुत्रचिन्नाप सा शर्म गोपुराट्टालभूमिषु ॥ ९ ॥
इन घटनाओंको अनिष्टकारी जानकर वह भयसे विह्वल हो गयी और रोने लगी, उसे द्वार, अट्टालिका आदि कहीं भी शान्ति नहीं मिली ॥ ९ ॥

ततःसखीद्वययुता नगरोद्यानमागमत् ।
तत्रापि सा गता बाला न प्राप कुत्रचित्सुखम् ॥ १० ॥
तदनन्तर वह अपनी दो सखियोंके साथ नगरके बगीचे में आयी, परंतु उस बालाको वहाँ भी कुछ शान्ति नहीं मिली ॥ १० ॥

ततो जलन्धरस्त्री सा निर्विण्णोद्विग्नमानसा ।
वनाद्वनान्तरं याता नैव वेदात्मना तदा ॥ ११ ॥
इसके बाद वह जलन्धरकी स्त्री दुःखित होकर घबराती हुई एक वनसे दूसरे वनमें गयी, किंतु वह अपने विषय में कुछ नहीं समझ पायो ॥ ११ ॥

भ्रमती सा ततो बाला ददर्शातीव भीषणौ ।
राक्षसौ सिंहवदनौ दृष्ट्‍वा दशनभासुरौ ॥ १२ ॥
घूमती हुई उस बालाने सिंहके समान मुखवाले, चमकते हुए दाढ़ और दाँतवाले भयंकर दो राक्षसोंको देखा ॥ १२ ॥

तौ दृष्ट्‍वा विह्वलातीव पलायनपरा तदा ।
ददर्श तापसं शान्तं सशिष्यं मौनमास्थितम् ॥ १३ ॥
उन दोनोंको देखकर भवसे विह्वल वह ज्यों ही भागने लगी, त्यों ही उसने शिष्यके साथ मौन बैठे हुए शान्त एक तपस्वीको देखा ॥ १३ ॥

ततस्तत्कण्ठमासाद्य निजां बाहुलतां भयात् ।
मुने मां रक्ष शरणमागतास्मीत्यभाषत ॥ १४ ॥
तदनन्तर भयभीत उसने उन तपस्वीके गलेमें भुजारूपी लताको डालकर कहा-हे मुने ! मेरी रक्षा कीजिये, मैं आपकी शरणमें आयी हूँ ॥ १४ ॥

मुनिस्तां विह्वलां दृष्ट्‍वा राक्षसानुगतां तदा ।
हुङ्‌कारेणैव तौ घोरौ चकार विमुखौ द्रुतम् ॥ १५ ॥
दो राक्षसोंद्वारा पीछा की जाती हुई तथा भयसे विह्वल उसको देखकर मुनिने 'हूँ' शब्दसे ही उन दोनों राक्षसोंको शीघ्र भगा दिया ॥ १५ ॥

तद् हुङ्‌कारभयत्रस्तौ दृष्ट्‍वा तौ विमुखौ गतौ ।
विस्मितातीव दैत्येन्द्रपत्नी साभून्मुने हृदि ॥ १६ ॥
हे मुने ! उनके हुंकारमात्रसे भयभीत होकर भागते हुए उन दोनों राक्षसोंको देखकर वह दैत्येन्द्रपत्नी वृन्दा अपने मनमें बहुत अधिक विस्मित हो गयी ॥ १६ ॥

ततःसा मुनिनाथं तं भयान्मुक्ता कृताञ्जलिः ।
प्रणम्य दण्डवद्‌भूमौ वृन्दा वचनमब्रवीत् ॥ १७ ॥
तदनन्तर भयमुक्त वृन्दाने उन मुनिनाथको हाथ जोड़कर दण्डवत् भूमिपर प्रणामकर यह वचन कहा- ॥ १७ ॥

वृन्दोवाच
मुनिनाथ दयासिन्धो परपीडानिवारक ।
रक्षिताहं त्वया घोराद्‌भयादस्मात्खलोद्‌भवात् ॥ १८ ॥
वृन्दा बोली-हे दयाके सागर ! हे मुनिनाथ ! हे दूसरोंकी पीड़ाको दूर करनेवाले ! इन दुष्टोंके घोर भयसे आपने मेरी रक्षा की है ॥ १८ ॥

समर्थः सर्वथा त्वं हि सर्वज्ञोऽपि कृपानिधे ।
किञ्चिद्विज्ञप्तुमिच्छामि कृपया तन्निशामय ॥ १९ ॥
हे कृपाके सागर ! यद्यपि आप सर्वज्ञ हैं, सर्वथा समर्थ हैं, तथापि मैं आपसे कुछ निवेदन करना चाहती हूँ, कृपया आप उसे सुनें ॥ १९ ॥

जलन्धरो हि मद्‌भर्ता रुद्रं योद्धुं गतः प्रभो ।
स तत्रास्ते कथं युद्धे तन्मे कथय सुव्रत ॥ २० ॥
हे प्रभो ! मेरे स्वामी जलन्धर रुद्रसे युद्ध करनेके लिये गये हैं । वे वहाँ युद्ध में कैसे हैं ? हे सुव्रत ! आप उसे मुझसे कहिये ॥ २० ॥

सनत्कुमार उवाच
मुनिस्तद्वाक्यमाकर्ण्य मौनकपटमास्थितः ।
कर्त्तुं स्वार्थं विधानज्ञः कृपयोर्ध्वमवैक्षत ॥ २१ ॥
सनत्कुमार बोले-उसके वाक्यको सुनकर कपट करके मौन बैठा हुआ तथा स्वार्थको सिद्ध करने में कुशल वह मुनि कृपा करके ऊपरकी ओर देखने लगा ॥ २१ ॥

तावत्कपीशावायातौ तं प्रणम्याग्रतः स्थितौ ।
ततस्तद्‌भ्रूलतासञ्ज्ञानियुक्तौ गगनं गतौ ॥ २२ ॥
उसी समय दो बन्दर आये और उसको प्रणामकर सामने खड़े हो गये । इसके बाद उनकी भौंहोंके इशारेसे नियुक्त होकर वे आकाशकी ओर चले गये ॥ २२ ॥

नीत्वा क्षणार्द्धमागत्य पुनस्तस्याग्रतः स्थितौ ।
तस्यैव कं कबन्धं च हस्तावास्तां मुनीश्वर ॥ २३ ॥
हे मुनीश्वर ! आधे क्षणमें ही लौटकर जलन्धरके मस्तक, धड़ और दोनों हाथोंको लेकर वे उसके सामने खड़े हो गये ॥ २३ ॥

शिरः कबन्धं हस्तौ तौ दृष्ट्‍वाब्धितनयस्य सा ।
पपात मूर्छिता भूमौ भर्तृव्यसनदुःखिता ॥ २४ ॥
वह वृन्दा सिन्धुनन्दन जलन्धरके सिर, धड़ और दोनों हाथोंको देखकर पतिके दुःखसे दुखित तथा मूच्छित होकर भूमिपर गिर पड़ी [और विलाप करने लगी] ॥ २४ ॥

वृन्दोवाच
यः पुरा सुखसंवादैर्विनोदयसि मां प्रभो ।
स कथं न वदस्यद्य वल्लभां मामनागसम् ॥ २५ ॥
वृन्दा बोली-हे प्रभो ! जो आप पहले सुखकी बात सुनाकर मुझे प्रसन्न किया करते थे, वही आज आप अपनी निरपराध पत्नीसे बोलते क्यों नहीं हैं ? ॥ २५ ॥

येन देवाःसगन्धर्वा निर्जिता विष्णुना सह ।
कथं स तापसेनाद्य त्रैलोक्यविजयी हत ॥ २५ ॥
अहो ! जिन्होंने पहले गन्धोंके साथ विष्णु और देवताओंको भी पराजित कर दिया था, वेही त्रैलोक्यविजयी आज एक तपस्वीसे कैसे मारे गये हैं ? ॥ २६ ॥

नाङ्‌गीकृतं हि मे वाक्यं रुद्रतत्त्वमजानता ।
परं ब्रह्म शिवश्चेति वदन्त्या दैत्यसत्तम ॥ २७ ॥
हे दैत्यश्रेष्ठ ! मैंने आपसे पूर्वमें कहा था कि शिव परब्रह्म हैं, परंतु आपने रुद्रके तत्त्वको न जानकर मेरे उस वाक्यको स्वीकार नहीं किया ॥ २७ ॥

ततस्त्वं हि मया ज्ञातस्तव सेवाप्रभावतः ।
गर्वितेन त्वया नैव कुसङ्‌गवशगेन हि ॥ २८ ॥
आपकी सेवाके प्रभावसे मैंने जान लिया था कि आप कुसंगके वशीभूत होकर गर्वके कारण मेरी बात नहीं मान रहे हैं ॥ २८ ॥

इत्थं प्रभाष्य बहुधा स्वधर्मस्था च तत्प्रिया ।
विललाप विचित्रं सा हृदयेन विदूयता ॥ २९ ॥
अपने धर्ममें परायण जलन्धरकी पत्नी इस प्रकार कह-कहकर दुखित हदयसे अनेक प्रकारसे विलाप करने लगी ॥ २९ ॥

ततःसा धैर्यमालम्ब्य दुःखोच्छ्‍वासान्विमुञ्चती ।
उवाच मुनिवर्यं तं सुप्रणम्य कृताञ्जलिः ॥ ३० ॥
तदनन्तर दुःखसे उच्छास छोड़ती हुई तथा धैर्य धारणकर वह वन्दा उन मुनिश्रेष्ठको प्रणामकर हाथ जोड़कर बोली- ॥ ३० ॥

कृपानिधे मुनिश्रेष्ठ परोपकरणादर ।
मयि कृत्वा कृपां साधो जीवयैनं मम प्रभुम् ॥ ३१ ॥
हे कृपानिधे ! हे मुनिश्रेष्ठ ! दूसरेका उपकार करनेमें ही आपका आदर है । इसलिये मुझपर कृपा करके हे साधो ! मेरे इस स्वामीको आप जीवित कर दें ॥ ३१ ॥

यत्त्वमस्य पुनः शक्तो जीवनाय मतो मम ।
अतः सञ्जीवयैनं मे प्राणनाथं मुनीश्वर ॥ ३२ ॥
हे मुनीश्वर ! मैं समझती हूँ कि आप पुनः इनको जीवित करनेमें समर्थ हैं, इसलिये मेरे प्राणनाथको आप जीवित कर दें ॥ ३२ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्युक्त्वा दैत्यपत्नी सा पतिव्रत्यपरायणाः ।
पादयोः पतिता तस्य दुःखश्वासान् विमुञ्चती ॥ ३३ ॥
सनत्कुमार बोले-इस प्रकार कहकर पातिव्रतधर्ममें तत्पर वह दैत्यपत्नी दुःखसे श्वास छोड़ती हुई उनके पैरोंपर गिर पड़ी ॥ ३३ ॥

मुनिरुवाच
नायं जीवयितुं शक्तो रुद्रेण निहतो युधि ।
रुद्रेण निहता युद्धे न जीवन्ति कदाचन ॥ ३४ ॥
मुनि बोले-यह युद्धमें रुद्रके द्वारा मारा गया है, इसलिये इसको जिलानेमें मैं समर्थ नहीं है, क्योंकि रुद्रके द्वारा युद्धमें मारा गया व्यक्ति कभी जीवित नहीं होता ॥ ३४ ॥

तथापि कृपयाविष्ट एनं सञ्जीवयाम्यहम् ।
रक्ष्याः शरणगाश्चेति जानन्धर्मं सनातनम् ॥ ३५ ॥
तथापि शरणागतकी रक्षा करनी चाहिये, इस शाश्वत धर्मको जानता हुआ मैं कृपासे युक्त होकर इसे जीवित कर देता हूँ ॥ ३५ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्युक्त्वा स मुनिस्तस्या जीवयित्वा पतिं मुने ।
अन्तर्दधे ततो विष्णुः सर्वमायाविनां वरः ॥ ३६ ॥
सनत्कुमार बोले-हे मुने ! सभी मायावियोंमें श्रेष्ठ वे मुनिरूपी विष्णु ऐसा कहकर उसके पतिको जीवित करके वहाँसे अन्तर्धान हो गये ॥ ३६ ॥

द्रुतं स जीवितस्तेनोत्थितः सागरनन्दनः ।
वृन्दामालिङ्‌ग्य तद्वक्त्रं चुचुम्ब प्रीतमानसः ॥ ३७ ॥
उनके द्वारा जीवित समुद्रपुत्र जलन्धर भी शीघ्र उठकर प्रसन्नमनसे वृन्दाका आलिंगनकर उसके मुखका स्पर्श करने लगा ॥ ३७ ॥

अथ वृन्दापि भर्तारं दृष्ट्‍वा हर्षितमानसा ।
जहौ शोकं च निखिलं स्वप्नवद् हृद्यमन्यत ॥ ३८ ॥
पतिको देखकर वृन्दाने हर्षित मनसे सभी प्रकारके शोकका परित्याग कर दिया और इस घटनाको स्वप्नके समान समझा ॥ ३८ ॥

अथ प्रसन्नहृदया सा हि सञ्जातहृच्छया ।
रेमे तद्वनमध्यस्था तद्युक्ता बहुवासरान् ॥ ३९ ॥
वह प्रसन्नचित्तसे कामका उदय होनेपर उस वनके मध्यमें ही उसके साथ बहुत दिनोंतक विहार करती रही ॥ ३९ ॥

कदाचित्सुरतस्यान्ते दृष्ट्‍वा विष्णुं तमेव हि ।
निर्भर्त्स्य क्रोधसंयुक्ता वृन्दा वचनमब्रवीत् ॥ ४० ॥
। एक बार सहवासके अन्तमें उसको विष्णुके रूपमें जानकर क्रोधसे युक्त होकर फटकारती हुई वृन्दा यह वचन बोली- ॥ ४० ॥

वृन्दोवाच
धिक् तदेवं हरे शीलं परदाराभिगामिनः ।
ज्ञातोऽसि त्वं मया सम्यङ्‍मायी प्रत्यक्षतापसः ॥ ४१ ॥
वृन्दा बोली-अरे परस्त्रीगामी हरि ! तुम्हारे इस प्रकारके चरित्रको धिक्कार है । मैंने तुमको अच्छी प्रकारसे जान लिया है । तुमने ही मायाका आश्रय लेकर तपस्वीका वेष धारण किया था ॥ ४१ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्युक्त्वा क्रोधमापन्ना दर्शयन्ती स्वतेजसम् ।
शशाप केशवं व्यास पातिव्रत्यरता च सा ॥ ४२ ॥
सनत्कुमार बोले-हे व्यास ! पातिव्रतपरायण उस वृन्दाने ऐसा कहकर क्रोधयुक्त होकर अपने तेजको दिखाते हुए विष्णुको शाप दे दिया ॥ ४२ ॥

रे महाधम दैत्यारे परधर्मविदूषक ।
गृह्णीष्व शठ मद्दत्तं शापं सर्वविषोल्बणम् ॥ ४३ ॥
रे महाधम दैत्यशत्रु ! तुम दूसरेके धर्मको दूषित करनेवाले हो, इसलिये अरे शठ । सभी प्रकारके विषोंसे तीव्र मेरे द्वारा दिये गये शापको ग्रहण करो ॥ ४३ ॥

यौ त्वया मायया ख्यातौ स्वकीयौ दर्शितौ मम ।
तावेव राक्षसौ भूत्वा भार्यां तव हरिष्यतः ॥ ४४ ॥
तुमने अपनी मायासे जिन दो पुरुषोंको दिखाया था, वे ही दोनों राक्षस बनकर तुम्हारी पत्नीका हरण करेंगे ॥ ४४ ॥

त्वं चापि भार्यादुःखार्तो वने कपिसहायवान् ।
भ्रम सर्पेश्वरेणायं यस्ते शिष्यत्वमागतः४५ ॥
तुम भी पत्नीके दुःखसे दुखित होकर वानरोंकी सहायता लेकर वनमें भटकते हुए घूमो और यह जो सोका स्वामी (शेषनाग) तुम्हारा शिष्य बना था, यह भी तुम्हारे साथ भ्रमण करे ॥ ४५ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्युक्त्वा सा तदा वृन्दा प्रविशद्धव्यवाहनम् ।
विष्णुना वार्यमाणापि तत्स्थितासक्तचेतसा ॥ ४६ ॥
ऐसा कहकर वह वृन्दा उस समय विष्णुके द्वारा रोके जानेपर भी अपने पति जलन्धरका मनमें ध्यान करते हुए अग्निमें प्रवेश कर गयी । ४६ ॥

तस्मिन्नवसरे देवा ब्रह्माद्या निखिला मुने ।
आगता खे समं दारैः सद्‌गतिं वै दिदृक्षवः ॥ ४७ ॥
हे मुने ! उस समय उसकी उत्तम गतिको देखनेकी इच्छावाले ब्रह्मा आदि सभी देवता अपनी भार्याऑके साथ आकाशमण्डलमें स्थित हो गये । ४७ ॥

अथ दैत्येन्द्रपत्न्यास्तु तज्ज्योतिः परमं महत् ।
पश्यतां सर्वदेवानामलोकमगमद्द्रुतम् ॥ ४८ ॥
शिवातनौ विलीनं तद्वृन्दातेजो बभूव ह ।
आसीज्जयजयारावः खस्थितामर पङ्‌क्तिषु ॥ ४९ ॥
उस समय दैत्येन्द्रपत्नीकी वह परम ज्योति देवताओंके देखते-देखते ही शीघ्र अदृष्ट हो गयी और शिवा पार्वतीके शरीरमें उस वृन्दाका तेज विलीन हो गया । उस समय आकाशमें स्थित देवताओंने जय जयकी ध्वनि की ॥ ४८-४९ ॥

एवं वृन्दा महाराज्ञी कालनेमिसुतोत्तमा ।
पातिव्रत्यप्रभावाच्च मुक्तिं प्राप परां मुने ॥ ५० ॥
हे मुने ! इस प्रकार कालनेमिकी श्रेष्ठ पुत्री महारानी वन्दाने पातिव्रतके प्रभावसे परा मुक्तिको प्राप्त किया ॥ ५० ॥

ततो हरिस्तामनुसंस्मन्मुहु-
     र्वृन्दाचिताभस्मरजोवगुण्ठितः ।
तत्रैव तस्थौ सुरसिद्धसङ्‌घकैः
     प्रबोध्यमानोपि ययौ न शान्तिम् ॥ ५१ ॥
उस समय हरिने उसका स्मरणकर उसकी चिताकी भस्मधूलिको धारण कर लिया, देवता और सिद्धोंके ज्ञान देनेपर भी उनको कुछ शान्ति नहीं मिली और वे वहींपर स्थित हो गये ॥ ५१ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे
जलन्धरवधोपाख्याने वृन्दापातिव्रतभङ्‌गदेहत्यागवर्णनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें जलन्धरवधोपाख्यानक अन्तर्गत वृन्दापातिव्रतभंग और देहत्यागवर्णन नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २३ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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