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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

चतुर्विंशोऽध्यायः

युद्धखण्डे जलन्धरवर्णनम् -
दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर-वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार -


व्यास उवाच
विधेः श्रेष्ठसुत प्राज्ञः कथेयं श्राविताद्‌भुता ।
ततश्च किमभूदाजौ कथं दैत्यो हतो वद ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-ब्रह्माजीके श्रेष्ठ पुत्र परम बुद्धिमान् हे सनत्कुमारजी ! आपने इस परम अद्‌भुत कथाका श्रवण कराया । इसके बाद क्या हुआ, उस युद्धमें वह दैत्य जलन्धर किस प्रकार मारा गया, इसे कहिये ॥ १ ॥

सनत्कुमार उवाच
अदृश्य गिरिजां तत्र दैत्येन्द्रे रणमागते ।
गान्धर्वे च विलीने हि चैतन्योऽभूद्वृषध्वजः ॥ २ ॥
अन्तर्धानगतां मायां दृष्ट्‍वा बुद्धो हि शंकरः ।
चुक्रोधातीव संहारी लौकिकीं गतिमाश्रितः ॥ ३ ॥
सनत्कुमार बोले-जब वह दैत्यपति जलन्धर पार्वतीको न देखकर युद्धभूमिमें लौट आया और गान्धर्वी माया विलीन हो गयी, तब वृषभध्वज भगवान् शंकर चैतन्य हुए । मायाके अन्तर्धान हो जानेपर भगवान् शंकरको ज्ञान हुआ, तदनन्तर संहार करनेवाले शंकर लौकिक गतिका आश्रय लेकर अत्यधिक क्रुद्ध हुए ॥ २-३ ॥

ततः शिवो विस्मितमानसः पुन-
     र्जगाम युद्धाय जलन्धरं रुषा ।
स चापि दैत्यः पुनरागतं शिवं
     दृष्ट्‍वा शरोघैःसमवाकिरद्‍रणे ॥ ४ ॥
इसके बाद शिवजी विस्मितमन तथा क्रुद्ध होकर जलन्धरसे युद्ध करनेके लिये चल दिये । उस दैत्यने भी शिवजीको पुनः आता हुआ देखकर उनपर बाणोंकी वर्षा करना प्रारम्भ कर दिया ॥ ४ ॥

क्षिप्तं प्रभुस्तं शरजालमुग्रं
     जलन्धरेणातिबलीयसा हरः ।
द्रुतं प्रचिच्छेद शरैर्वरैर्निजै-
     र्नचित्रमत्र त्रिभवप्रहन्तुः ॥ ५ ॥
ततो जलन्धरो दृष्ट्‍वा रुद्रमद्‌भुतविक्रमम् ।
चकार मायया गौरीं त्र्यम्बकं मोहयन्निव ॥ ६ ॥
प्रभु शिवजीने बलशाली उस जलन्धरके द्वारा छोड़े गये उग्र बाणोंको अपने श्रेष्ठ बाणोंसे बड़ी शीघ्रतासे काटकर गिरा दिया । त्रिभुवन-संहारकर्ता शिवके लिये यह कोई अद्‌भुत बात नहीं हुई । तादनन्तर अद्‌भुत पराक्रमवाले शंकरजीको देखकर जलन्धरने उन्हें मोहित करनेके लिये मायाकी पार्वती बनायी ॥ ५-६ ॥

रथोपरि गतां बद्धां रुदन्तीं पार्वतीं शिवः ।
निशुम्भ शुम्भदैत्यैश्च बध्यमानां ददर्श सः ॥ ७ ॥
गौरीं तथाविधां दृष्ट्‍वा लौकिकीं दर्शयन् गतिम् ।
बभूव प्राकृत इव शिवोप्युद्विग्नमानसः ॥ ८ ॥
शिवजीने रथपर स्थित, बंधी हुई, विलाप करती हुई एवं शुम्भ तथा निशुम्भके द्वारा मारी जाती हुई पार्वतीको देखा । तब उस स्थितिवाली पार्वतीको देखकर लौकिक गति प्रदर्शित करते हुए शिवजी सामान्यजनोंकी तरह अत्यन्त व्याकुल हो उठे ॥ ७-८ ॥

अवाङ्मुखस्थितस्तूष्णीं नानालीलाविशारदः ।
शिथिलाङ्‌गो विषण्णात्मा विस्मृत्य स्वपराक्रमम् ॥ ९ ॥
उस समय अनेक प्रकारकी लीलाओंमें प्रवीण शंकरजीके अंग शिथिल हो गये और अपना पराक्रम भूलकर वे दुखी होकर मुख नीचे करके मौन हो गये ॥ ९ ॥

ततो जलन्धरो वेगात्त्रिभिर्विव्याध सायकैः ।
आपुङ्‌खमग्नैस्तं रुद्रं शिरस्युरसि चोदरे ॥ १० ॥
ततो रुद्रो महालीलो ज्ञाततत्त्वः क्षणात्प्रभुः ।
रौद्ररूपधरो जातो ज्वालामालातिभीषणः ॥ ११ ॥
तस्यातीव महारौद्ररूपं दृष्ट्‍वा महासुराः ।
न शेकुः प्रमुखे स्थातुं भेजिरे ते दिशो दश ॥ १२ ॥
उसके बाद जलन्धरने पुंखतक धंसनेवाले तीन बाणोंसे वेगपूर्वक शिवजीके सिर, हृदय तथा उदरप्रदेशपर प्रहार किया । तब महालीला करनेवाले तथा ज्ञानतत्त्ववाले भगवान् रुद्रने क्षणभरमें अग्निज्वालाके समूहसे युक्त अत्यन्त भयंकर रौद्ररूप धारण कर लिया । उनके इस अतिमहारौद्ररूपको देखकर महादैत्यगण सम्मुख खड़े रहनेमें असमर्थ हो गये और दसों दिशाओंमें भागने लगे ॥ १०-१२ ॥

निशुम्भशुम्भावपि यौ विख्यातौ वीरसत्तमौ ।
आपे तौ शेकतुर्नैव रणे स्थातुं मुनीश्वर ॥ १३ ॥
जलन्धरकृता मायान्तर्हिताभूच्च तत्क्षणम् ।
हाहाकारो महानासीत्सङ्‌ग्रामे सर्वतोमुखे ॥ १४ ॥
ततः शापं ददौ रुद्रस्तयोः शुम्भनिशुम्भयोः ।
पलायमानौ तौ दृष्ट्‍वा धिक्‌कृत्य क्रोधसंयुतः ॥ १५ ॥
हे मुनीश्वर ! उस समय वीरोंमें विख्यात महावीर जो शुम्भ एवं निशुम्भ थे, वे भी रणमें स्थित न रह सके । जलन्धरके द्वारा रची गयी माया क्षणभरमें विलुप्त हो गयी । उस संग्राममें चारों ओर महान् हाहाकार होने लगा । तब उन दोनोंको भागते हुए देखकर क्रुद्ध हुए रुद्रने धिक्कारकर उन शुम्भ निशुम्भको इस प्रकार शाप दिया- ॥ १३-१५ ॥

रुद्र उवाच
युवां दुष्टावतिखलावपराधकरौ मम ।
पार्वतीदण्डदातारौ रणादस्मात्पराङ्मुखौ ॥ १६ ॥
रुद्र बोले-तुम दोनों दैत्य महान् दुष्ट हो, तुम दोनों पार्वतीको दण्ड देनेवाले हो, मेरा महान् अपराध करनेवाले हो और इस संग्रामसे भाग रहे हो ॥ १६ ॥

पराङ्मुखो न हन्तव्य इति वध्यौ न मे युवाम् ।
मम युद्धादतिक्रान्तौ गौर्य्या वध्यौ भविष्यतः ॥ १७ ॥
एवं वदति गौरीशे सिन्धुपुत्रो जलन्धरः ।
चुक्रोधातीव रुद्राय ज्वलज्ज्वलनसन्निभः ॥ १८ ॥
युद्धसे भागनेवालेको नहीं मारना चाहिये, अत: मैं तुम दोनोंका वध नहीं करूँगा, किंतु गौरी मेरे युद्धसे भागे हुए तुम दोनोंका वध अवश्य करेंगी । अभी शंकरजी यह बात कह ही रहे थे कि जलती हुई अग्निके समान समुद्रपुत्र जलन्धर अत्यधिक क्रुद्ध हो उठा ॥ १७-१८ ॥

रुद्रे रणे महावेगाद्ववर्ष निशिताञ्छरान् ।
बाणान्धकारसञ्छन्नं तथा भूमितलं ह्यभूत् ॥ १९ ॥
उसने बड़े वेगके साथ शिवजीपर तीक्ष्ण बाणोंकी वर्षा करना प्रारम्भ कर दिया, जिससे पृथ्वीतल बाणोंके अन्धकारसे ढंक गया ॥ १९ ॥

यावद्‌रुद्रः प्रचिच्छेद तस्य बाणगणान् द्रुतम् ।
तावत्सपरिघेणाशु जघान वृषभं बली ॥ २० ॥
अभी रुद्र उसके बाणोंको काटनेमें लगे ही थे कि इतानेमें उस बलशालीने परिघसे वृषभपर प्रहार किया ॥ २० ॥

वृषस्तेन प्रहारेण परवृत्तो रणाङ्‌गणात् ।
रुद्रेण कृश्यमाणोऽपि न तस्थौ रणभूमिषु ॥ २१ ॥
अथ लोके महारुद्रः स्वीयं तेजोऽतिदुःसहम् ।
दर्शयामास सर्वस्मै सत्यमेतन्मुनीश्वर ॥ २२ ॥
ततः परमसङ्‌क्रुद्धो रुद्रो रौद्रवपुर्धरः ।
प्रलयानलवद् घोरो बभूव सहसा प्रभुः ॥ २३ ॥
उस प्रहारसे आहत हुआ वृषभ रणभूमिसे पीछेकी ओर हटने लगा । शंकरजीके द्वारा खींचे जानेपर भी वह युद्धभूमिमें स्थित न रह सका । हे मुनीश्वर ! उस समय महारुद्रने सभीके लिये अति दुःसह अपना तेज लोकमें दिखाया-यह सत्य है । उन प्रभु रुद्रने अत्यधिक क्रुद्ध होकर रौद्ररूप धारण कर लिया और वे सहसा प्रलयकालकी अग्निके समान अत्यन्त भयंकर हो गये ॥ २१-२३ ॥

दृष्ट्‍वा पुरः स्थितं दैत्यं मेघकूटमिव स्थितम् ।
अवध्यत्वमपि श्रुत्वाप्यन्यैरभ्युद्यतोऽभवत् ॥ २४ ॥
मेरुशृंगके समान अचल उस दैत्यको अपने आगे स्थित देखकर तथा उसे दूसरेसे अवध्य जानकर वे स्वयं उस दैत्यको मारनेके लिये उद्यत हो गये ॥ २४ ॥

ब्रह्मणो वचनं रक्षन्रक्षको जगतां प्रभुः ।
हृदानुग्रहमातन्वंस्तद्वधाय मनो दधत् ॥ २५ ॥
जगत्की रक्षा करनेवाले उन महाप्रभुने ब्रह्माके वचनकी रक्षा करते हुए और हृदयमें दयाका भाव रखते हुए उस दैत्यके वधके लिये मनमें निश्चय किया ॥ २५ ॥

कोपं कृत्वा परं शूली पादाङ्‌गुष्ठेन लीलया ।
महाम्भसि चकाराशु रथाङ्‌गं रौद्रमद्‌भुतम् ॥ २६ ॥
उस समय क्रोध करके अपनी लीलासे त्रिशूलधारी भगवान् शंकरने महासमुद्र में अपने पैरके अंगूठेसे शीघ्र ही भयानक तथा अद्‌भुत रथ चक्रका निर्माण किया ॥ २६ ॥

कृत्वार्णवाम्भसि शितं भगवान्रथाङ्‌गं
     स्मृत्वा जगत्त्रयमनेन हतं पुरारिः ।
दक्षान्धकान्तकपुरत्रययज्ञहन्ता
     लोकत्रयान्तककरः प्रहसन्नुवाच २७ ॥
उन्होंने उस महासमुद्र में अत्यन्त जाज्वल्यमान रथचक्रका निर्माण करके तथा यह स्मरणकर कि निश्चय ही इससे तीनों लोकोंका वध किया जा सकता है, वे दक्ष, अन्धक, त्रिपुर तथा यज्ञका विनाश करनेवाले भगवान् शंकर हंसते हुए बोले- ॥ २७ ॥

महारुद्र उवाच
पादेन निर्मितं चक्रं जलन्धर महाम्भसि ।
बलवान्यदि चोद्धर्त्तुं तिष्ठ योद्धुं न चान्यथा ॥ २८ ॥
महारुद्र बोले-हे जलन्धर ! मैंने महासमुद्रमें अपने पैरके अंगूठेसे इस चक्रका निर्माण किया है, यदि तुम बलवान् हो तो इस चक्रको पानीके बाहर करके मुझसे युद्ध करनेके लिये ठहरो, अन्यथा भाग जाओ ॥ २८ ॥

सनत्कुमार उवाच
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा क्रोधेनादीप्तलोचनः ।
प्रदहन्निव चक्षुर्भ्यां प्राहालोक्य स शंकरम् ॥ २९ ॥
सनत्कुमार बोले-उनके उस वचनको सुनकर जलन्धरकी आँखें क्रोधसे जलने लगी और वह अपने क्रोधभरे नेत्रोंसे शंकरजीको जलाता हुआ-सा उनकी ओर देखकर कहने लगा- ॥ २९ ॥

जलन्धर उवाच
रेखामुद्धृत्य हत्वा च सगणं त्वां हि शंकर ।
हत्वा लोकान्सुरैः सार्द्धं स्वभागं गरुडो यथा ॥ ३० ॥
हन्तुं चराचरं सर्वं समर्थोऽहं सवासवम् ।
को महेश्वर मद्‌बाणैरभेद्यो भुवनत्रये ॥ ३१ ॥
जलन्धर बोला-हे शंकर ! मैं रेखाके समान इस चक्र सुदर्शनको उठाकर गणोंसहित तुम्हारा एवं देवताओंके साथ समस्त लोकोंका वधकर गरुड़के समान अपना भाग ग्रहण करूंगा । हे महेश्वर ! मैं इन्द्रसहित चर-अचर सभीका नाश करनेमें समर्थ हूँ । इस त्रिलोकीमें ऐसा कौन है, जो मेरे बाणोंके द्वारा अभेद्य हो ? ॥ ३०-३१ ॥

बालभावेन भगवान्तपसैव विनिर्जितः ।
ब्रह्मा बलिष्ठः स्थाने मे मुनिभिः सुरपुङ्‌गवैः ॥ ३२ ॥
मैंने अपनी बाल्यावस्थामें ही तपस्याके प्रभावसे भगवान् ब्रह्माको भी जीत लिया था और वे बलवान् ब्रह्मा मुनियों एवं देवताओंके साथ मेरे घरमें हैं ॥ ३२ ॥

दग्धं क्षणेन सकलं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।
तपसा किं त्वया रुद्र निर्जितो भगवानपि ॥ ३३ ॥
हे रुद्र ! मैंने चराचरसहित सम्पूर्ण त्रिलोकीको क्षणमात्रमें जला दिया और अपनी तपस्यासे भगवान् विष्णुको भी जीत लिया है, फिर मैं तुम्हें क्या समझता हूँ ? ॥ ३३ ॥

इन्द्राग्नियमवित्तेशवायुवारीश्वरादयः ।
न सेहिरे यथा नागा गन्धं पक्षिपतेरिव ॥ ३४ ॥
इन्द्र, अग्नि, यम, कुबेर, वायु, वरुण आदि भी मेरे पराक्रमको उसी प्रकार नहीं सह सकते, जिस प्रकार सर्प गरुड़की गन्धको भी सहन नहीं कर सकते ॥ ३४ ॥

न लब्धं दिवि भूमौ च वाहनं मम शंकर ।
समस्तान्पर्वतान्प्राप्य धर्षिताश्च गणेश्वराः ॥ ३५ ॥
गिरीन्द्रो मन्दरः श्रीमान्नीलो मेरुः सुशोभनः ।
धर्षितो बाहुदण्डेन कण्ड्वा उत्सर्पणाय मे ॥ ३६ ॥
हे शंकर ! स्वर्ग तथा भूलोकमें मेरे लिये कोई वाहन नहीं मिला, मैंने समस्त पर्वतोंपर जाकर सभी गणेश्वरोंको परास्त किया है । मैंने अपनी खुजली मिटानेके लिये पर्वतराज हिमालय, मन्दर, शोभामय नीलपर्वत तथा सुन्दर मेरु पर्वतको अपने बाहुदण्डसे घिस डाला है ॥ ३५-३६ ॥

गङ्‌गा निरुद्धा बाहुभ्यां लीलार्थं हिमवद्‌गिरौ ।
अरीणां मम भृत्यैश्च जयो लब्धो दिवौकसाम् ॥ ३७ ॥
वडवाया मुखं बद्धं गृहीत्वा तां करेण तु ।
तत्क्षणादेव सकलमेकार्णवमभूत्तदा ॥ ३८ ॥
ऐरावतादयो नागाः क्षिप्ताः सिन्धुजलोपरि ।
सरथो भगवानिन्द्रः क्षिप्तश्च शतयोजनम् ॥ ३९ ॥
मैंने हिमालय पर्वतपर लीला करनेहेतु अपनी भुजाओंसे गंगाजीको रोक दिया था । मेरे भृत्योंने शत्रु देवताओंपर विजय प्राप्त की है । मैंने बड़वानलका मुख अपने हाथोंसे पकड़कर जब बन्द कर दिया, उसी क्षण सम्पूर्ण जगत् जलमय हो गया था । मैंने ऐरावत आदि हाथियोंको समुद्रके जलपर फेंक दिया तथा रथसहित भगवान् इन्द्रको सैकड़ों योजन दूर फेंक दिया ॥ ३७-३९ ॥

गरुडोऽपि मया बद्धो नागपाशेन विष्णुना ।
उर्वश्याद्या मयानीता नार्यः कारागृहान्तरम् ॥ ४० ॥
मां न जानासि रुद्र त्वं त्रैलोक्यजयकारिणाम् ।
जलन्धरं महादैत्यं सिन्धुपुत्रं महाबलम् ॥ ४१ ॥
मैंने विष्णुजीके सहित गरुडको भी नागपाशमें बाँध लिया तथा उर्वशी आदि अप्सराओंको अपने कारागारमें बन्दी बना लिया । हे रुद्र ! त्रिलोकीपर विजय प्राप्त करनेवाले मुझ सिन्धुपुत्र महाबलवान् महादैत्य जलन्धरको तुम नहीं जानते ॥ ४०-४१ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्युक्त्वाथ महादेवं तदा वारिधिनन्दनः ।
न चचाल न सस्मार निहतान्दानवान्युधि ॥ ४२ ॥
दुर्मदेनाविनीतेन दोर्भ्यामास्फोट्य दोर्बलात् ।
तिरस्कृतो महादेवो वचनैः कटुकाक्षरैः ॥ ४३ ॥
सनत्कुमार बोले-उस समय महादेवसे ऐसा कहकर उस समुद्रपुत्र [जलन्धर] ने युद्धमें मारे गये दानवोंका स्मरण नहीं किया और न तो वह [इधरउधर] हिला-डुला ही । उस दुविनीत एवं मदान्ध. दैत्यने दोनों बाहुओंको ठोककर अपने बाहुबलसे तथा कटु वचनोंसे रुद्रका अपमान किया ॥ ४२-४३ ॥

तच्छ्रुत्वा दैत्यवचनममंगलमतीरितम् ।
विजहास महादेवाः परमं क्रोधमादधे ॥ ४४ ॥
उस दुष्टके द्वारा कहे गये अमंगल वचनको सुनकर महादेव हँसे तथा बहुत क्रोधित हो गये ॥ ४४ ॥

सुदर्शनाख्यं यच्चक्रं पदाङ्‌गुष्ठविनिर्मितम् ।
जग्राह तत्करे रुद्रस्तेन हन्तुं समुद्यतः ॥ ४५ ॥
उन्होंने अपने पैरके अँगूठेसे जिस सुदर्शन नामक चक्रका निर्माण किया था, उसको अपने हाथमें ले लिया और उससे उसको मारनेके लिये रुद्र उद्यत हो गये ॥ ४५ ॥

सुदर्शनाख्यं तच्चक्रं चिक्षेप भगवान्हरः ।
कोटिसूर्यप्रतीकाशं प्रलयानलसन्निभम् ॥ ४६ ॥
प्रदहद्‍रोदसी वेगात्तदासाद्य जलन्धरम् ।
जहार तच्छिरो वेगान्महदायतलोचनम् ॥ ४७ ॥
भगवान् शिवने प्रलयकालकी अग्निके सदृश एवं करोड़ों सूर्योंके समान देदीप्यमान उस सुदर्शनचक्रको उसपर फेंका । आकाश तथा भूमिको प्रज्वलित करते हुए उस चक्रने वेगसे जलन्धरके पास आकर बड़े-बड़े नेत्रोंवाले उसके सिरको वेगपूर्वक काट दिया ॥ ४६-४७ ॥

रथात्कायः पपातोर्व्यां नादयन्वसुधातलम् ।
शिरश्चाप्यब्धिपुत्रस्य हाहाकारो महानभूत् ॥ ४८ ॥
उस सिन्धुपुत्र दैत्यका शरीर एवं सिर भूतलको नादित करता हुआ रथसे पृथ्वीपर गिर पड़ा और चारों ओर महान् हाहाकार होने लगा ॥ ४८ ॥

द्विधा पपात तद्देहो ह्यञ्जनाद्रिरिवाचलः ।
कुलिशेन यथा वारांनिधौ गिरिवरो द्विधा ॥ ४९ ॥
काले पहाड़के समान उसका शरीर दो टुकड़े होकर उसी प्रकार गिर पड़ा, जैसे वज्रके प्रहारसे अति विशाल पर्वत दो टुकड़े होकर समुद्रमें गिर पड़ता है ॥ ४९ ॥

तस्य रौद्रेण रक्तेन सम्पूर्णमभवज्जगत् ।
ततःसमस्ता पृथिवी विकृताभून्मुनीश्वर ॥ ५० ॥
तद्‍रक्तमखिलं रुद्रनियोगान्मांसमेव च ।
महारौरवमासाद्य रक्तकुण्डमभूदिह ॥ ५१ ॥
हे मुनीश्वर ! उसके भयंकर रक्तसे सारा जगत् व्याप्त हो गया और उससे पृथ्वी [लाल हो जानेसे] विकृत हो गयी । शिवजीकी आज्ञासे उसका सम्पूर्ण रक्त एवं मांस महारौरव [नरक] में जाकर रक्तका कुण्ड बन गया । ५०-५१ ॥

तत्तेजो निर्गतं देहाद् रुद्रे च लयमागमत् ।
वृन्दादेहोद्‌भवं यद्वद्‌गौर्य्यां हि विलयं गतम् ॥ ५२ ॥
जलन्धरं हतं दृष्ट्‍वा देवगन्धर्वपन्नगाः ।
अभवन्सुप्रसन्नाश्च साधु देवेति चाब्रुवन् ॥ ५३ ॥
उसके शरीरसे निकला हुआ तेज शंकरमें उसी प्रकार समा गया, जिस प्रकार वृन्दाके शरीरसे उत्पन्न तेज गौरीमें प्रविष्ट हो गया था । जलन्धरको मरा हुआ देखकर उस समय देव, गन्धर्व तथा नागगण अत्यन्त प्रसन्न हो उठे और शंकरजीको साधुवाद देने लगे ॥ ५२-५३ ॥

सर्वे प्रसन्नतां याता देवसिद्धमुनीश्वराः ।
पुष्पवृष्टिं प्रकुर्वाणास्तद्यशो जगुरुच्चकैः ॥ ५४ ॥
देवाङ्‌गना महामोदान्ननृतुः प्रेमविह्वलाः ।
कलस्वराः कलपदं किन्नरैःसह सञ्जगुः ॥ ५५ ॥
सभी देव, सिद्ध एवं मुनीश्वर भी प्रसन्न हो गये और पुष्पवृष्टि करते हुए उच्च स्वरमें उनका वशोगान करने लगे । देवांगनाएँ प्रेमसे विह्वल होकर अति आनन्दपूर्वक नृत्य करने लगी और मनोहर रागयुक्त शब्दोंसे किन्नरोंके साथ सुन्दर पदोंको गाने लगीं ॥ ५४-५५ ॥

दिशः प्रसेदुःसर्वाश्च हते वृन्दापतौ मुने ।
ववुः पुण्याः सुखस्पर्शा वायवस्त्रिविधा अपि ॥ ५६ ॥
चन्द्रमाः शीततां यातो रविस्तेपे सुतेजसा ।
अग्नयो जज्वलुः शान्ता बभूवाविकृतं नभः ॥ ५७ ॥
एवं त्रैलोक्यमखिलं स्वास्थ्यमापाधिकं मुने ।
हतेऽब्धितनये तस्मिन्हरेणानतमूर्तिना ॥ ५८ ॥
हे मुने ! उस समय वृन्दापति जलन्धरके मर जानेपर सभी ओर पवित्र तथा सुखद स्पर्शवाली दिशाएँ प्रसन्न हो गयीं, [शीतल, मन्द, सुगन्ध] तीनों प्रकारकी वायु चलने लगी । चन्द्रमा शीतलतासे युक्त हो गया, सूर्य परम तेजसे तपने लगा, शान्त अग्नि जलने लगी और आकाश निर्मल हो गया । इस प्रकार हे मुने ! अनन्तमूर्ति सदाशिवके द्वारा उस समुद्रपुत्र जलन्धरके मारे जानेपर सम्पूर्ण त्रैलोक्य अत्यधिक शान्तिमय हो गया ॥ ५६-५८ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे
युद्धखण्डे जलन्धरवर्णनं नाम चतुर्विशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें जलन्धरवधोपाख्यान के अन्तर्गत जलन्धरवधवर्णन नामक चौबीसवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २४ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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