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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे
पञ्चविंशोऽध्यायः जलन्धरवधोपाख्याने देवस्तुतिवर्णनम् -
जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति - सनत्कुमार उवाच अथ ब्रह्मादयो देवा मुनयश्चाखिलास्तथा । तुष्टुवुर्देवदेवेशं वाग्भिरिष्टाभिरानताः ॥ १ ॥ सनत्कुमार बोले-[हे व्यास !] इसके बाद ब्रह्मा आदि सभी देवता एवं मुनिगण सिर झुकाकर प्रिय वाणीसे देवदेवेशकी स्तुति करने लगे- ॥ १ ॥ देवा ऊचुः देवदेव महादेव शरणागतवत्सल । साधुसौख्यप्रदस्त्वं हि सर्वदा भक्तदुःखहा ॥ २ ॥ देवता बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे शरणागतवत्सल ! आप सदा सज्जनोंको सुख देनेवाले तथा भक्तोंका दुःख दूर करनेवाले हैं ॥ २ ॥ त्वं महाद्भुतसल्लीलो भक्तिगम्यो दुरासदः । दुराराध्योऽसतां नाथ प्रसन्नःसर्वदा भव ॥ ३ ॥ आप अद्भुत उत्तम लीला करनेवाले, [एकमात्र] भक्तिसे प्राप्त होनेवाले, दुर्लभ तथा दुष्टजनोंके द्वारा दुराराध्य हैं । हे नाथ ! आप सर्वदा प्रसन्न रहें ॥ ३ ॥ वेदोऽपि महिमानं ते न जानाति हि तत्त्वतः । यथामति महात्मानःसर्वे गायन्ति सद्यशः ॥ ४ ॥ माहात्म्यमतिगूढं ते सहस्रवदनादयः । सदा गायन्ति सुप्रीत्या पुनन्ति स्वगिरं हि ते ॥ ५ ॥ हे प्रभो ! वेद भी यथार्थ रूपसे आपकी महिमाको नहीं जानते, महात्मालोग अपनी बुद्धिके अनुसार आपके उत्तम यशका गान करते हैं । हजार मुखोंवाले शेषनाग आदि प्रेमपूर्वक सदा आपकी अत्यन्त गूढ महिमाका गान करते हैं एवं वे अपनी वाणीको पवित्र करते हैं ॥ ४-५ ॥ कृपया तव देवेश ब्रह्मज्ञानी भवेज्जडः । भक्तिगम्यः सदा त्वं वा इति वेदा ब्रुवन्ति हि ॥ ६ ॥ हे देवेश ! आपकी कृपासे जड़ भी ब्रह्मज्ञानी हो जाता है और आप सदा भक्तिसे ही प्राप्य हैं-ऐसा वेद कहते हैं ॥ ६ ॥ त्वं वै दीनदयालुश्च सर्वत्र व्यापकःसदा । आविर्भवसि सद्भक्त्या निर्विकारःसतां गतिः ॥ ७ ॥ भक्त्यैव ते महेशान बहवः सिद्धिमागताः । इह सर्वसुखं भुक्त्वा दुःखिता निर्विकारतः ॥ ८ ॥ हे प्रभो ! आप दीनदयाल तथा सदा सर्वत्र व्यापक, निर्विकार तथा सज्जनोंके रक्षक हैं, आप सद्भक्तिसे आविर्भूत होते हैं । हे महेशान ! आपकी भक्तिसे बहुत लोग इस लोकमें सभी प्रकारके सुखका उपभोग करके सिद्धिको प्राप्त हुए हैं और निराकार उपासनासे दुखित हुए हैं ॥ ७-८ ॥ पुरा यदुपतिर्भक्तो दाशार्हः सिद्धिमागतः । कलावती च तत्पत्नी भक्त्यैव परमां प्रभो ॥ ९ ॥ तथा मित्रसहो राजा मदयन्ती च तत्प्रिया । भक्त्यैव तव देवेश कैवल्यं परमं ययौ ॥ १० ॥ सौमिनी नाम तनया कैकेयाग्रभुवस्तथा । तव भक्त्या सुखं प्राप परं सद्योगिदुर्लभम् ॥ ११ ॥ हे प्रभो ! पूर्व समयमें यदुवंशी भक्त दाशार्ह तथा उनकी पत्नी कलावतीने आपकी भक्तिसे ही परम सिद्धि प्राप्त कर ली थी । हे देवेश ! इसी प्रकार राजा मित्रसह तथा उनकी पत्नी मदयन्तीने भी आपकी भक्तिसे ही परम कैवल्यपदको प्राप्त किया था । केकयनरेशकी सौमिनी नामक कन्याने आपकी भक्तिसे महायोगियोंके लिये भी दुर्लभ परम सुख प्राप्त किया था ॥ ९-११ ॥ विमर्षणो नृपवरः सप्तजन्मावधि प्रभो । भुक्त्वा भोगांश्च विविधांस्त्वद्भक्त्या प्राप सद्गतिम् ॥ १२ ॥ चन्द्रसेनो नृपवरः त्वद्भक्त्या सर्वभोगभुक् । दुःखमुक्तः सुखं प्राप परमत्र परत्र च ॥ १३ ॥ हे प्रभो ! राजाओंमें श्रेष्ठ विमर्षणने आपकी भक्तिसे सात जन्मपर्यन्त अनेक प्रकारके सुखोंका उपभोग करके सद्गति प्राप्त की थी । नृपश्रेष्ठ चन्द्रसेनने आपकी भक्तिद्वारा दुःखसे छुटकारा पाया तथा इस लोकमें एवं परलोकमें नाना प्रकारके भोग प्राप्त करते हुए वे आनन्द करते रहे ॥ १२-१३ ॥ गोपीपुत्रः श्रीकरस्ते भक्त्या भुक्त्वेह सद्गतिम् । परं सुखं महावीरशिष्यः प्राप परत्र वै । १४ ॥ महावीरके शिष्य गोपीपुत्र श्रीकरने भी आपकी भक्तिसे इस लोकमें परम सुख भोगकर परलोकमें सद्गति प्राप्त की ॥ १४ ॥ त्वं सत्यरथभूजानेर्दुःखहर्ता गतिप्रदः । धर्मगुप्तं राजपुत्रमतार्षीःसुखिनं त्विह ॥ १५ ॥ आपने [प्रसन्न होकर] सत्यरथ नामक भूपतिका दुःख हरण किया तथा उन्हें सद्गति प्रदान की । आपने राजपुत्र धर्मगुप्तको सुखी बनाया तथा उन्हें तार दिया ॥ १५ ॥ तथा शुचिव्रतं विप्रमदरिद्रं महाप्रभो । त्वद्भक्तिवर्तिनं मात्रा ज्ञानिनं कृपयाऽकरोः ॥ १६ ॥ हे महाप्रभो ! आपने माताके उपदेशसे आपकी भक्ति करनेवाले शुचिव्रत नामक ब्राह्मणको कृपापूर्वक धनवान् तथा ज्ञानी बना दिया ॥ १६ ॥ चित्रवर्मा नृपवरस्त्वद्भक्त्या प्राप सद्गतिम् । इह लोके सदा भुक्त्वा भोगानमरदुर्लभान् ॥ १७ ॥ नृपश्रेष्ठ चित्रवर्माने आपकी भक्तिसे इस लोकमें देवदुर्लभ सुखोंको भोगकर अन्तमें सद्गति प्राप्त की ॥ १७ ॥ चन्द्राङ्गदो राजपुत्रः सीमन्तिन्या स्त्रिया सह । विहाय सकलं दुःखं सुखी प्राप महागतिम् ॥ १८ ॥ द्विजो मन्दरनामापि वेश्यागामी खलोऽधमः । त्वद्भक्तः शिव सम्पूज्य तया सह गतिं गतः ॥ १९ ॥ चन्द्रांगद नामक राजपुत्रने अपनी स्त्री सीमन्तिनीसहित आपकी भक्तिसे सारे दु:खोंको त्यागकर सुखसम्पन्न हो महागतिको प्राप्त किया । हे शिव ! मन्दर नामवाला ब्राह्मण, जो वेश्यागामी, अधम तथा महाखल था, वह भी आपकी भक्तिसे युक्त होकर आपका पूजनकर उस वेश्याके साथ सद्गतिको प्राप्त हुआ ॥ १८-१९ ॥ भद्रायुस्ते नृपसुतः सुखमाप गतव्यथः । त्वद्भक्तकृपया मात्रा गतिं च परमां प्रभो ॥ २० ॥ हे प्रभो ! भद्रायु नामक राजपुत्रने भी आपकी भक्तिद्वारा कृपा प्राप्तकर दुःखोंसे मुक्त हो सुख प्राप्त किया और माताके साथ परम गति प्राप्त की ॥ २० ॥ सर्वस्त्रीभोगनिरतो दुर्जनस्तव सेवया । विमुक्तोऽभूदपि सदाऽभक्ष्यभोजी महेश्वर ॥ २१ ॥ शम्बरः शंकरे भक्तश्चिताभस्मधरःसदा । नियमाद्भस्मनः शम्भो स्वस्त्रिया ते पुरं गतः ॥ २२ ॥ हे महेश्वर ! सदा अभक्ष्यभक्षण करनेवाला तथा सभी स्त्रियोंमें सम्भोगरत दुर्जन भी आपकी सेवासे मुक्त हो गया । हे शम्भो ! चिताकी भस्म धारण करनेवाला शम्बर, जो शिवका महाभक्त था, वह नियमपूर्वक सदा चिताका भस्म धारण करनेसे शंकररूप होकर अपनी स्त्रीके साथ आपके लोकको गया ॥ २१-२२ ॥ भद्रसेनस्य तनयस्तथा मन्त्रिसुतः प्रभो । सुधर्मशुभकर्माणौ सदा रुद्राक्षधारिणौ ॥ २३ ॥ त्वत्कृपातश्च तौ मुक्तावास्तां भुक्तेह सत्सुखम् । पूर्वजन्मनि यौ कीशकुक्कुटौ रुद्रभूषणौ ॥ २४ ॥ हे प्रभो ! [इसी प्रकार] भद्रसेनका पुत्र तथा उसके मन्त्रीका पुत्र, जो उत्तम धर्म तथा शुभ कर्म करते थे और सदा रुद्राक्ष धारण करते थे, वे दोनों ही आपकी कृपासे इस लोकमें उत्तम सुख भोगकर मुक्त हो गये । ये दोनों ही पूर्वजन्ममें कपि तथा कुक्कुट थे और रुद्राक्ष धारण करते थे ॥ २३-२४ ॥ पिङ्गला च महानन्दा वेश्ये द्वे तव भक्तितः । सद्गतिं प्रापतुर्नाथ भक्तोद्धारपरायण ॥ २५ ॥ शारदा विप्रतनया बालवैधव्यमागता । तव भक्तेः प्रभावात्तु पुत्रसौभाग्यवत्यभूत् ॥ २६ ॥ भक्तोंका उद्धार करने में तत्पर रहनेवाले हे नाथ ! पिंगला तथा महानन्दा नामक दो वेश्याएँ भी आपकी भक्तिसे सद्गतिको प्राप्त हुई । किसी ब्राह्मणकी शारदा नामक कन्या बालविधवा हो गयी थी, वह आपकी भक्तिके प्रभावसे पुत्रवती तथा सौभाग्यवती हो गयी ॥ २५-२६ ॥ बिन्दुगो द्विजमात्रो हि वेश्याभोगी च तत्प्रिया । वञ्चुका त्वद्यशः श्रुत्वा परमां गतिमाययौ ॥ २७ ॥ इत्यादि बहवः सिद्धिं गता जीवास्तव प्रभो । भक्तिभावान्महेशान दीनबन्धो कृपालय ॥ २८ ॥ त्वं परः प्रकृतेर्ब्रह्म पुरुषात्परमेश्वर । निर्गुणस्त्रिगुणाधारो ब्रह्मविष्णुहरात्मकः ॥ २९ ॥ नाममात्रका ब्राह्मण, वेश्यागामी बिन्दुग एवं उसकी पत्नी चंचुला दोनों ही आपका यश श्रवणकर परम गतिको प्राप्त हुए । हे प्रभो ! हे महेशान ! हे दीनबन्धो ! हे कपालय ! इस प्रकार आपकी भक्तिसे अनेक जीवोंको सिद्धि प्राप्त हुई है । हे परमेश्वर ! आप प्रकृति तथा पुरुषसे परे ब्रह्म हैं, आप निर्गुण तथा त्रिगुणके आधार हैं और ब्रह्मा-विष्णु-हरात्मक भी आप ही हैं ॥ २७-२९ ॥ नानाकर्मकरो नित्यं निर्विकारोऽखिलेश्वरः । वयं ब्रह्मादयः सर्वे तव दासा महेश्वर ॥ ३० ॥ आप निर्विकार तथा अखिलेश्वर होकर भी नाना प्रकारके कर्म करते हैं । हे महेश्वर शंकर ! हम ब्रह्मा आदि सभी देवता आपके दास हैं ॥ ३० ॥ प्रसन्नो भव देवेश रक्षास्मान्सर्वदा शिव । त्वत्प्रजाश्च वयं नाथ सदा त्वच्छरणं गताः ॥ ३१ ॥ हे नाथ ! हे देवेश ! हे शिव ! हम सभी आपकी प्रजा हैं और सदा आपके शरणागत हैं, अतः आप प्रसन्न होइये और सदा हमलोगोंकी रक्षा कीजिये ॥ ३१ ॥ सनत्कुमार उवाच इति स्तुत्वा च ते देवा ब्रह्माद्याः समुनीश्वराः । तूष्णीं बभूवुर्हि तदा शिवाङ्घ्रिद्वन्द्वचेतसः ॥ ३२ ॥ अथ शम्भुर्महेशानः श्रुत्वा देवस्तुतिं शुभाम् । दत्त्वा वरान् वरान् सद्यः तत्रैवान्तर्दधे प्रभुः ॥ ३३ ॥ सनत्कुमार बोले-इस प्रकार ब्रह्मादि देवता तथा सभी मुनीश्वर स्तुति करके शिवजीके चरणयुगलका ध्यान करते हुए मौन हो गये । इसके बाद महेश्वर प्रभु शंकरजी देवगणोंकी शुभ स्तुति सुनकर उन्हें श्रेष्ठ वर देकर शीघ्र अन्तर्धान हो गये ॥ ३२-३३ ॥ देवाःसर्वेऽपि मुदिता ब्रह्माद्या हतशत्रवः । स्वं स्वं धाम ययुः प्रीता गायन्तः शिवसद्यशः ॥ ३४ ॥ इदं परममाख्यानं जलन्धरविमर्दनम् । महेशचरितं पुण्यं महाघौघविनाशनम् ॥ ३५ ॥ शत्रुओंके मारे जानेसे ब्रह्मादि सभी देवता प्रसन्न हो गये और शिवजीके उत्तम यशका गान करते हुए अपने अपने धामको चले गये । जलन्धरवधसे सम्बन्धित भगवान् शिवका यह श्रेष्ठ आख्यान पुण्यको देनेवाला एवं पापोंको नष्ट करनेवाला है । ३४-३५ ॥ देवस्तुतिरियं पुण्या सर्वपापप्रणाशिनी । सर्वसौख्यप्रदा नित्यं महेशानन्ददायिनी ॥ ३६ ॥ यः पठेत्पाठयेद्वापि समाख्यानमिदं द्वयम् । स भुक्त्वेह परं सौख्यं गाणपत्यमवाप्नुयात् ॥ ३७ ॥ देवताओंके द्वारा की गयी वह स्तुति पुण्य देनेवाली, समस्त पापोंको नष्ट करनेवाली, सब प्रकारके सुखोंको देनेवाली तथा सर्वदा महेशको आनन्द प्रदान करनेवाली है । जो इन दोनों आख्यानोंको पढ़ता है अथवा पढ़ाता है, वह इस लोकमें महान् सुख भोगकर [अन्तमें] गणपतित्वको प्राप्त करता है ॥ ३६-३७ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे जलन्धरवधोपाख्याने देवस्तुतिवर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें जलन्धरवधोपाख्यानके अन्तर्गत देवस्तुतिवर्णन नामक पच्चीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २५ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |