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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे
पञ्चस्त्रिंशोऽध्यायः शङ्खचूडवधे शिवदूतसंवादः -
शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना - सनत्कुमार उवाच तत्र स्थित्वा दानवेन्द्रो महान्तं दानवेश्वरम् । दूतं कृत्वा महाविज्ञं प्रेषयामास शंकरम् ॥ १ ॥ सनत्कुमार बोले-[हे व्यास !] वहाँ स्थित होकर उस दानवेन्द्रने अत्यन्त बुद्धिमान् एक महान् दैत्येश्वरको दूत बनाकर शिवजीके समीप भेजा ॥ १ ॥ स तत्र गत्वा दूतश्च चन्द्रभालं ददर्श ह । वटमूले समासीनं सूर्यकोटिसमप्रभम् ॥ २ ॥ कृत्वा योगासनं दृष्ट्या मुद्रायुक्तं च सस्मितम् । शुद्धस्फटिकसङ्काशं ज्वलन्तं ब्रह्मतेजस ॥ ३ ॥ त्रिशूलपट्टिशधरं व्याघ्रचर्माम्बरावृतम् । भक्तमृत्युहरं शान्तं गौरीकान्तं त्रिलोचनम् ॥ ४ ॥ तपसां फलदातारं कर्त्तारं सर्वसम्पदाम् । आशुतोषं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम् ॥ ५ ॥ विश्वनाथं विश्वबीजं विश्वरूपं च विश्वजम् । विश्वम्भरं विश्वकरं विश्वसंहारकारणम् ॥ ६ ॥ कारणं कारणानां च नरकार्णवतारणम् । ज्ञानप्रदं ज्ञानबीजं ज्ञानानन्दं सनातनम् ॥ ७ ॥ उस दूतने वहाँ जाकर वटवृक्षके नीचे बैठे हुए, करोड़ों सूर्यके समान महातेजस्वी, योगासन लगाये हुए, ध्यानमुद्रायुक्त, मन्द-मन्द मुसकराते हुए, शुद्ध स्फटिकके समान परमोज्ज्वल, ब्रह्मतेजसे देदीप्यमान, त्रिशूल-पट्टिश धारण किये हुए. व्याघ्रचर्म ओढ़े हुए, भक्तोंकी मृत्यु दूर करनेवाले, शान्त, तपस्याका फल देनेवाले, सम्पूर्ण सम्पत्ति प्रदान करनेवाले, शीघ्र प्रसन्न होनेवाले, प्रसन्नमुख, भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले, विश्वबीज, विश्वरूप, विश्वको उत्पन्न करनेवाले, विश्वेश्वर, विश्वकर्ता, विश्वसंहारके कारण, कारणोंके भी कारण, नरकसमुद्रसे पार उतारनेवाले, ज्ञानदाता, ज्ञानबीज तथा ज्ञानमें ही आनन्दित रहनेवाले, तीन नेत्रवाले, सनातन उमापति विश्वनाथको देखा ॥ २-७ ॥ अवरुह्य रथाद् दूतस्तं दृष्ट्वा दानवेश्वरः । शंकरं सकुमारं च शिरसा प्रणनाम सः ॥ ८ ॥ वामतो भद्रकाली च स्कन्दं तत्पुरतः स्थितम् । लोकाशिषं ददौ तस्मै काली स्कन्दश्च शंकरः ॥ ९ ॥ उस दानवेश्वरके दूतने रथसे उतरकर कुमारसहित शंकरजीको देखकर सिर झुकाकर प्रणाम किया । उनके बायौं और विराजमान भद्रकाली तथा उनके आगे स्थित स्कन्दको भी प्रणाम किया । उसके बाद काली, शंकर एवं स्कन्दने लोकरीतिसे उसे आशीर्वाद दिया ॥ ८-९ ॥ अथासौ शङ्खचूडस्य दूतः परमशास्त्रवित् । उवाच शंकरं नत्वा करौ बद्ध्वा शुभं वचः ॥ १० ॥ इसके बाद सकल शास्त्रोंका ज्ञाता शंखचूडका वह दूत हाथ जोड़कर शिवको प्रणाम करके उत्तम वचन कहने लगा- ॥ १० ॥ दूत उवाच शङ्खचूडस्य दूतोऽहं त्वत्सकाशमिहागतः । वर्तते ते किमिच्छाद्य तत्त्वं ब्रूहि महेश्वर ॥ ११ ॥ दूत बोला-हे महेश्वर ! मैं शंखचूडका दूत यहाँ आपके पास आया हूँ, आपकी क्या इच्छा है ? उसे आप कहिये ॥ ११ ॥ सनत्कुमार उवाच इति श्रुत्वा च वचनं शङ्खचूडस्य शंकरः । प्रसन्नात्मा महादेवो भगवांस्तमुवाच ह ॥ १२ ॥ सनत्कुमार बोले-शंखचूडके दूतकी बात सुनकर प्रसन्नचित्त भगवान् महादेवने उससे कहा- ॥ १२ ॥ महादेव उवाच शृणु दूत महाप्राज्ञ वचो मम सुखावहम् । कथनीयमिदं तस्मै निर्विवादं विचार्य च ॥ १३ ॥ महादेवजी बोले-हे महाबुद्धिमान् दूत ! तुम मेरे सुखदायक वचनको सुनो और विचार करके मेरे वचनको निर्विवाद रूपसे उनसे कह देना ॥ १३ ॥ विधाता जगतां ब्रह्मा पिता धर्मस्य धर्मवित् । मरीचिस्तस्य पुत्रश्च कश्यपस्तत्सुतः स्मृतः ॥ १४ ॥ समस्त धर्मोके ज्ञाता तथा जगत्के निर्माता ब्रह्मा धर्मके भी पिता हैं, उनके पुत्र मरीचि तथा उनके पुत्र कश्यप कहे गये हैं ॥ १४ ॥ दक्षः प्रीत्या ददौ तस्मै निजकन्यास्त्रयोदश । तास्वेका च दनुः साध्वी तत्सौभाग्यविवर्द्धिनी ॥ १५ ॥ दक्षने उन कश्यपको अपनी तेरह कन्याएँ प्रसन्नताके साथ प्रदान की । उनमें एक दनु नामवाली थी । साधु स्वभाववाली वह उनके सौभाग्यको बढ़ानेवाली थी ॥ १५ ॥ चत्वारस्ते दनोः पुत्रा दानवास्तेजसोल्बणाः । तेष्वेको विप्रचित्तिस्तु महाबलपराक्रमः ॥ १६ ॥ उस दनुके परम तेजस्वी चार दानव पुत्र हुए । उनमें एक विप्रचित्ति था, जो महाबलवान्एवं पराक्रमी था ॥ १६ ॥ तत्पुत्रो धार्मिको दम्भो दानवेन्द्रो महामतिः । तस्य त्वं तनयः श्रेष्ठो धर्मात्मा दानवेश्वरः ॥ १७ ॥ उस विप्रचित्तिका धार्मिक तथा महाबुद्धिमान् दानवराज दम्भ नामक पुत्र हुआ । तुम उसीके श्रेष्ठ, धर्मात्मा पुत्र तथा दानवोंके राजा हो ॥ १७ ॥ पुरा त्वं पाषर्दो गोपो गोपेष्वेव च धार्मिकः । अधुना राधिकाशापाज्जातस्त्वं दानवेश्वरः ॥ १८ ॥ दानवीं योनिमायातस्तत्त्वतो न हि दानवः । निजवृतं पुरा ज्ञात्वा देववैरं त्यजाधुना ॥ १९ ॥ तुम पूर्वजन्ममें श्रीकृष्णके पार्षद, परम धार्मिक एवं सभी गोपोंमें मुख्य थे, किंतु इस समय तुम राधिकाके शापसे दानवेन्द्र हो गये हो । यद्यपि तुम दानवयोनिमें आ गये हो, किंतु वास्तवमें दानव नहीं हो । इस प्रकार अपने पुराने जन्मका वृत्तान्त जानकर देवताओंके साथ वैर त्याग दो ॥ १८-१९ ॥ द्रोहं न कुरु तैः सार्द्धं स्वपदं भुङ्क्ष्व सादरम् । नाधिकं सविकारं च कुरु राज्यं विचार्य च ॥ २० ॥ तुम अपने पदपर स्थित रहकर राज्यका आदरपूर्वक सुखोपभोग करो, देवगणोंसे अधिक द्वेष मत करो एवं विचारपूर्वक राज्य करो ॥ २० ॥ देहि राज्यं च देवानां मत्प्रीतिं रक्ष दानव । निजराज्ये सुखं तिष्ठ तिष्ठन्तु स्वपदे सुराः ॥ २१ ॥ हे दानव ! देवगणोंका राज्य लौटा दो और मेरी प्रीतिकी रक्षा करो । तुम अपने राज्यपर स्थित रहो और देवता भी अपने पदपर स्थित रहें ॥ २१ ॥ अलं भूतविरोधेन देवद्रोहेण किं पुनः । कुलीनाः शुद्धकर्माणः सर्वे कश्यपवंशजाः ॥ २२ ॥ सामान्य प्राणियोंके साथ भी विद्वेष करना बुरा होता है, फिर देवताओंसे विरोधका तो कहना ही क्या ? वे सब कुलीन, शुद्ध कर्म करनेवाले तथा कश्यपके वंशमें उत्पन्न हुए हैं ॥ २२ ॥ यानि कानि च पापानि ब्रह्महत्यादिकानि च । ज्ञातिद्रोहजपापस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ २३ ॥ ब्रह्महत्यादि जो कोई भी पाप हैं, वे जातिद्रोहजानित पापकी सोलहवीं कलाकी भी बराबरी नहीं कर सकते ॥ २३ ॥ सनत्कुमार उवाच इत्यादिबहुवार्त्तां च श्रुतिस्मृतिपरां शुभाम् । प्रोवाच शंकरः तस्मै बोधयन् ज्ञानमुत्तमम् ॥ २४ ॥ सनत्कुमार बोले-[हे व्यास !] इस प्रकार शंकरने उत्तम ज्ञानका बोध कराते हुए श्रुति एवं स्मृतिसे सम्बन्धित शुभ बातें उससे कहीं ॥ २४ ॥ शिक्षितः शङ्खचूडेन स दूतस्तर्कवित्तमः । उवाच वचनं नम्रो भवितव्यविमोहितः ॥ २५ ॥ तब शंखचूडके द्वारा शिक्षित तथा तर्कविद् वह दूत होनहारसे मोहित होकर विनम्रतापूर्वक इस प्रकार यह वचन कहने लगा- ॥ २५ ॥ दूत उवाच त्वया यत्कथितं देव नान्यथा तत्तथा वचः । तथ्यं किञ्चिद्यथार्थं च श्रूयतां मे निवेदनम् ॥ २६ ॥ दूत बोला-हे देव ! आपने जो वचन कहा है, वह अन्यथा नहीं है, किंतु मेरा कुछ तथ्यपूर्ण एवं यथार्थ निवेदन सुनिये ॥ २६ ॥ ज्ञातिद्रोहे महत्पापं त्वयोक्तमधुना च यत् । तत्किमीशासुराणां च न सुराणां वद प्रभो ॥ २७ ॥ आपने अभी जो कहा है कि जातिद्रोह महापाप है । हे ईश ! क्या यह असुरोंके लिये ही है, देवोंके लिये नहीं ? हे प्रभो ! इसे बताइये ॥ २७ ॥ सर्वेषामिति चेत्तद्वै तदा वच्मि विचार्य च । निर्णयं ब्रूहि तत्राद्य कुरु सन्देहभञ्जनम् ॥ २८ ॥ मधुकैटभयोर्दैत्यवरयोः प्रलयार्णवे । शिरश्छेदं चकारासौ कस्माच्चक्री महेश्वर ॥ २९ ॥ त्रिपुरैःसह संयुद्धं भस्मत्वकरणं कुतः । भवाञ्चकार गिरिश सुरपक्षीति विश्रुतम् ॥ ३० ॥ यदि यह सबके लिये है, तो मैं विचारकर आपसे कुछ कह रहा हूँ, आप ही उसका निर्णय कीजिये और मेरा सन्देह दूर कीजिये । हे महेश्वर ! चक्रधारी विष्णुने प्रलयके समय समुद्र में दैत्यश्रेष्ठ मधु एवं कैटभका शिरश्छेद क्यों किया ? हे गिरिश ! यह तो प्रसिद्ध है कि देवताओंके पक्षधर आपने युद्धमें त्रिपुरको भस्म किया, तो ऐसा आपने क्यों किया ? ॥ २८-३० ॥ गृहीत्वा तस्य सर्वस्वं कुतः प्रस्थापितो बलिः । सुतलादि समुद्धर्तुं तद्द्वारे च गदाधरः ॥ ३१ ॥ विष्णुने बलिका सर्वस्व लेकर उसे पाताल लोकमें क्यों भेज दिया ? सुतल आदि लोकका उद्धार करनेके लिये उसके द्वारपर गदा धारणकर क्यों स्थित हैं ? ॥ ३१ ॥ सभ्रातृको हिरण्याक्षः कथं देवैश्च हिंसितः । शुम्भादयोऽसुराश्चैव कथं देवैर्निपातिताः ॥ ३२ ॥ इन देवताओंने भाईसहित हिरण्याक्षको क्यों मारा और इन्हीं देवताओंने शुम्भादि असुरोंको क्यों मारा ? ॥ ३२ ॥ पुरा समुद्रमथने पीयूषं भक्षितं सुरैः । क्लेशभाजो वयं तत्र ते सर्वे फलभोगिनः ॥ ३३ ॥ पूर्वकालमें समुद्रमन्थन किये जानेपर देवगणोंने ही अमृतका पान किया । हम सभीको क्लेश प्राप्त हुआ, किंतु इसका [अमृतपानरूप] फल देवताओंने भोगा ॥ ३३ ॥ क्रीडाभाण्डमिदं विश्वं कालस्य परमात्मनः । स ददाति यदा यस्मै तस्यैश्वर्यं भवेत्तदा ॥ ३४ ॥ देवदानवयोर्वैरं शश्वनैमित्तिकं सदा । पराजयो जयस्तेषां कालाधीनः क्रमेण च ॥ ३५ ॥ यह जगत् भगवान् कालका क्रीडापात्र है, वे जिस समय जिसे ऐश्वर्य प्रदान करते हैं, उस समय वह ऐश्वर्यवान् हो जाता है । देवताओं एवं दैत्योंका वैर सदा किसी-न-किसी निमित्त होता आया है । क्रमश: जीत और हार कालके अधीन है ॥ ३४-३५ ॥ तवानयोर्विरोधे च गमनं निष्फलं भवेत् । समसम्बन्धिनां तद्वै रोचते नेश्वरस्य ते ॥ ३६ ॥ इन दोनोंके बिरोधमें आपका आ जाना निष्फल प्रतीत हो रहा है । यह विरोध तो समान सम्बन्धियोंका ही अच्छा लगता है, आप सदृश ईश्वरका नहीं ॥ ३६ ॥ सुरासुराणां सर्वेषामीश्वरस्य महात्मनः । इयं ते रहिता लज्जा स्पर्द्धास्माभिःसहाधुना ॥ ३७ ॥ यतोऽधिका चैव कीर्तिर्हानिश्चैव पराजये । तवैतद्विपरीतं च मनसा संविचार्य ताम् ॥ ३८ ॥ आप तो देवता तथा असुर सभीके स्वामी हैं, अतः इस समय आप महात्माकी केवल हमलोगोंसे यह स्पर्धा निर्लज्जताकी बात है । विजय होनेपर अधिक कीर्ति तथा पराजय होनेपर हानि-ये दोनों ही आपके लिये सर्वथा विपरीत हैं, इसे मनसे विचार कीजिये ॥ ३७-३८ ॥ सनत्कुमार उवाच इत्येतद्वचनं श्रुत्वा सम्प्रहस्य त्रिलोचनः । यथोचितं च मधुरमुवाच दानवेश्वरम् ॥ ३९ ॥ सनत्कुमार बोले-यह वचन सुनकर शिवजी हँसकर दानवराजसे यथोचित मधुर वचन कहने लगे- ॥ ३९ ॥ महेश उवाच वयं भक्तपराधीना न स्वतन्त्राः कदापि हि । तदिच्छया तत्कर्माणो न कस्यापि च पक्षिणः ॥ ४० ॥ महेश बोले-हम अपने भक्तोंके अधीन हैं, स्वतन्त्र कभी नहीं हैं, हम उनकी इच्छासे ही कर्म करते हैं और किसीके भी पक्षपाती नहीं हैं ॥ ४० ॥ पुरा विधिप्रार्थनया युद्धमादौ हरेरपि । मधुकैटभयोर्देत्यवरयोः प्रलयार्णवे ॥ ४१ ॥ पूर्वकालमें ब्रह्माकी प्रार्थनासे ही प्रलयार्णवमें विष्णु तथा दैत्य श्रेष्ठ मधु कैटभका युद्ध हुआ था ॥ ४१ ॥ देवप्रार्थनया तेन हिरण्यकशिपोः पुरा । प्रह्रादार्थं वधोऽकारि भक्तानां हितकारिणा ॥ ४२ ॥ भक्तोंका कल्याण करनेवाले उन्हीं विष्णुने पूर्वकालमें देवताओंकी प्रार्थनासे प्रह्लादकी रक्षाके निमित्त हिरण्यकशिपुका वध किया था ॥ ४२ ॥ त्रिपुरैःसह संयुद्धं भस्मत्वकरणं ततः । देवप्रार्थनयाकारि मयापि च पुरा श्रुतम् ॥ ४३ ॥ सर्वेश्वर्याः सर्वमातुर्देवप्रार्थनया पुरा । आसीच्छुम्भादिभिर्युद्धं वधस्तेषां तया कृतः ॥ ४४ ॥ देवगणोंकी प्रार्थनासे मैंने भी त्रिपुरोंके साथ युद्ध किया तथा उन्हें भस्म किया-यह बात सब लोग जानते हैं । पूर्वकालमें देवताओंकी प्रार्थनासे सबकी स्वामिनी तथा सबकी माताने शुम्भादिके साथ युद्ध किया और उन्होंने उनका वध भी किया ॥ ४३-४४ ॥ अद्यापि त्रिदशाः सर्वे ब्रह्माणं शरणं ययुः । स सदेवो हरिर्मां च देवः शरणमागतः ॥ ४५ ॥ हरिब्रह्मादिकानां च प्रार्थनावशतोऽप्यहम् । सुराणामीश्वरो दूत युद्धार्थमगमं खलु ॥ ४६ ॥ आज भी सभी देवता ब्रह्माकी शरणमें गये और देवताओंसहित विष्णु-ब्रह्मा मेरी शरणमें आये । हे दूत ! देवताओंका स्वामी मैं भी ब्रह्मा तथा विष्णुकी प्रार्थनाके कारण युद्धके लिये आया हूँ ॥ ४५-४६ ॥ पार्षदप्रवरस्त्वं हि कृष्णस्य च महात्मनः । ये ये हताश्च दैतेया नहि केपि त्वया समाः ॥ ४७ ॥ [हे दूत ! शंखचूडसे कहना कि तुम महात्मा श्रीकृष्णके श्रेष्ठ पार्षद हो । पहले जो-जो दैत्य मारे गये, उनमें कोई भी तुम्हारे समान नहीं था ॥ ४७ ॥ का लज्जा महती राजन् मम युद्धे त्वया सह । देवकार्यार्थमीशोऽहं विनयेन च प्रेषितः ॥ ४८ ॥ हे राजन् ! देवताओंका कार्य करनेके लिये तुम्हारे साथ युद्ध करनेमें मुझे कौन-सी बड़ी लजा है । देवताओंके कार्यके लिये मैं ईश्वर विनयपूर्वक भेजा गया हूँ ॥ ४८ ॥ गच्छ त्वं शङ्खचूडं वै कथनीयं च मे वचः । स च युक्तं करोत्वत्र सुरकार्यं करोम्यहम् ॥ ४९ ॥ [अतः हे दूत !] तुम जाओ और शंखचूडसे मेरा वचन कह देना कि मैं तो देवकार्य अवश्य करूँगा, उसे जो उचित हो, वैसा करे ॥ ४९ ॥ इत्युक्त्वा शंकरस्तत्र विरराम महेश्वरः । उत्तस्थौ शङ्खचूडस्य दूतोऽगच्छत्तदन्तिकम् ॥ ५० ॥ ऐसा कहकर महेश्वर चुप हो गये और शंखचूडका दूत उठा और उसके पास चला गया ॥ ५० ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे शङ्खचूडवधे शिवदूतसंवादो नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें शंखचूडवधके अन्तर्गत शिवदूतसंवादवर्णन नामक पैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३५ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |