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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः

शङ्‌खचूडसैन्यवधवर्णनम् -
शिव और शंखचूडके महाभयंकर युद्धमें शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन -


व्यास उवाच
श्रुत्वा काल्युक्तमीशानो किं चकार किमुक्तवान् ।
तत्त्वं वद महाप्राज्ञ परं कौतूहलं मम ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे महाप्राज्ञ ! भद्रकालीके वचनको सुनकर शिवजीने क्या कहा और क्या किया ? उसे आप तत्त्वतः कहिये, मुझे सुननेकी बड़ी ही उत्सुकता है ॥ १ ॥

सनत्कुमार उवाच
काल्युक्तं वचनं श्रुत्वा शंकरः परमेश्वरः ।
महालीलाकरः शम्भुर्जहासाश्वासयञ्च ताम् ॥ २ ॥
सनत्कुमार बोले-कालीके द्वारा कहे गये वचनको सुनकर महान् लीला करनेवाले कल्याणकारी परमेश्वर शम्भु उन कालीको आश्वस्त करते हुए हँसने लगे ॥ २ ॥

व्योमवाणीं समाकर्ण्य तत्त्वज्ञानविशारदः ।
ययौ स्वयं च समरे स्वगणैःसह शंकरः ॥ ३ ॥
तत्त्वज्ञानविशारद शिवजी आकाशवाणीको सुनकर अपने गणोंको साथ लेकर स्वयं युद्धस्थलमें गये ॥ ३ ॥

महावृषभमारूढो वीरभद्रादिसंयुतः ।
भैरवैः क्षेत्रपालैश्च स्वसमानैः समन्वितः ॥ ४ ॥
रणं प्राप्तो महेशश्च वीररूपं विधाय च ।
विरराजाधिकं तत्र रुद्रो मूर्त इवान्तकः ॥ ५ ॥
वीरभद्रादि गणों एवं अपने समान भैरवों तथा क्षेत्रपालोंको साथ लिये हुए महावृषभपर आरूढ़ होकर महेश्वर वीररूप धारणकर युद्धभूमिमें पहुंचे । उस समय वे रुद्र मूर्तिमान् काल ही प्रतीत हो रहे थे ॥ ४-५ ॥

शङ्‌खचूडः शिवं दृष्ट्‍वा विमानादवरुह्य सः ।
ननाम परया भक्त्या शिरसा दण्डवद्‌भुवि ॥ ६ ॥
तं प्रणम्य तु योगेन विमानमारुरोह सः ।
तूर्णं चकार सन्नाहं धनुर्जग्राह सेषुकम् ॥ ७ ॥
शंखचूडने शिवजीको देखकर विमानसे उतरकर परमभक्तिपूर्वक भूमिमें गिरकर सिरसे उन्हें दण्डवत् - प्रणाम किया । उन्हें प्रणाम करके वह योगमार्गसे पुनः विमानपर जा चढ़ा और शीघ्र ही उसने कवच धारणकर धनुष-बाण उठा लिया ॥ ६-७ ॥

शिवदानवयोर्युद्धं शतमब्दं बभूव ह ।
बाणवर्षमिवोग्रं तद्वर्षतोर्मोघयोस्तदा ॥ ८ ॥
शङ्‌खचूडो महावीरः शरांश्चिक्षेप दारुणान् ।
चिच्छेद शंकरस्तान्वै लीलया स्वशरोत्करैः ॥ ९ ॥
उसके बाद शिव तथा उन दानवोंका सौ वर्षपर्यन्त घनघोर युद्ध होता रहा, जिसमें निरन्तर वर्षा करते हुए मेघोंके समान बाणोंकी वर्षा हो रही थी । महावीर शंखचूड शिवजीपर दारुण बाण छोड़ रहा था, किंतु शंकरजी अपने बाणोंसे उन्हें छिन्न-भिन्न कर देते थे ॥ ८-९ ॥

तदङ्‌गेषु च शस्त्रोघैस्ताडयामास कोपतः ।
महारुद्रो विरूपाक्षो दुष्टदण्डः सतां गति ॥ १० ॥
दानवो निशितं खड्गं चर्म चादाय वेगवान् ।
वृषं जघान शिरसि शिवस्य वरवाहनम् ॥ ११ ॥
दुष्टोंको दण्ड देनेवाले तथा सज्जनोंके रक्षक विरूपाक्ष महारुद्रने अत्यन्त क्रोधपूर्वक अपने शस्त्रसमूहोंसे उसके अंगोंपर प्रहार किया । उस दानवने भी वेगयुक्त होकर अपनी तीक्ष्ण तलवार एवं ढाल लेकर शिवजीके श्रेष्ठ वाहन वृषभके सिरपर प्रहार किया ॥ १०-११ ॥

ताडिते वाहने रुद्रस्तं क्षुरप्रेण लीलया ।
खड्गं चिच्छेद तस्याशु चर्म चापि महोज्ज्वलम् ॥ १२ ॥
वृषभपर प्रहार किये जानेपर शंकरजीने तीक्ष्ण धारवाले छुरेसे लीलापूर्वक शीघ्र ही उसके खड्ग एवं अति उज्ज्वल ढालको काट दिया ॥ १२ ॥

छिन्नेऽसौ चर्मणि तदा शक्तिं चिक्षेप सोऽसुरः ।
द्विधा चक्रे स्वबाणेन हरस्तां संमुखागताम् ॥ १३ ॥
तब ढालके कट जानेपर उस दानवने शक्ति चलायी, किंतु शिवजीने अपने बाणसे सामने आयी हुई उस शक्तिके दो टुकड़े कर दिये ॥ १३ ॥

कोपाध्मातः शङ्‌खचूडः चक्रं चिक्षेप दानवः ।
मुष्टिपातेन तच्चाप्यचूर्णयत्सहसा हरः ॥ १४ ॥
गदामाविध्य तरसा सञ्चिक्षेप हरं प्रति ।
शम्भुना सापि सहसा भिन्ना भस्मत्वमागता ॥ १५ ॥
तब क्रोधसे व्याकुल दानव शंखचूडने चक्रसे प्रहार किया, किंतु शिवजीने सहसा अपनी मुष्टिके प्रहारसे उसे भी चूर्ण कर दिया । इसके बाद उसने शिवजीपर बड़े वेगसे गदासे प्रहार किया, किंतु शिवजीने उसे भी छिन्न-भिन्न करके भस्म कर दिया ॥ १४-१५ ॥

ततः परशुमादाय हस्तेन दानवेश्वरः ।
धावति स्म हरं वेगाच्छङ्‌खचूडः क्रुधाकुलः ॥ १६ ॥
समाहृत्य स्वबाणौघैरपातयत शंकरः ।
द्रुतं परशुहस्तं तं भूतले लीलयासुरम् ॥ १७ ॥
तब क्रोधसे व्याकुल दानवेश्वर शंखचूड हाथमें परशु लेकर वेगसे शिवजीकी ओर दौड़ा । शंकरने बड़ी शीघ्रतासे लीलापूर्वक अपने बाणसमूहोंसे हाथमें परशु लिये हुए उस असुरको आहतकर पृथ्वीपर गिरा दिया ॥ १६-१७ ॥

ततः क्षणेन सम्प्राप्य सञ्ज्ञामारुह्य सद्‌रथम् ।
धृतदिव्यायुधशरो बभौ व्याप्याखिलं नभः ॥ १८ ॥
तत्पश्चात् थोड़ी ही देरमें वह सचेत हो रथपर आरूढ़ होकर दिव्य आयुध एवं बाण धारणकर समस्त आकाशमण्डलको व्याप्तकर शोभित होने लगा ॥ १८ ॥

आयान्तं तं निरीक्ष्यैव डमरुध्वनिमादरात् ।
चकार ज्यारवं चापि धनुषो दुःसहं हर ॥ १९ ॥
पूरयामास ककुभः शृङ्‌गनादेन च प्रभुः ।
स्वयं जगर्ज गिरिशस्त्रासयन्नसुरांस्तदा ॥ २० ॥
उसे अपनी ओर आता हुआ देखकर शिवजीने आदरपूर्वक डमरू बजाया और धनुषकी प्रत्यंचाकी दुःसह ध्वनि भी की । प्रभु गिरीशने शृंगनादके द्वारा सारी दिशाएँ पूरित कर दी और स्वयं असुरोंको भयभीत करते हुए गर्जना करने लगे । १९-२० ॥

त्याजितेभमहागर्वैर्महानादैर्वृषेश्वरः ।
पूरयामास सहसा खं गां वसुदिशस्तथा ॥ २१ ॥
महाकालः समुत्पत्य ताडयद्‌ गां तथा नभः ।
कराभ्यां तन्निनादेन क्षिप्ता आसन्पुरा रवाः ॥ २२ ॥
नन्दीश्वरने हाथीके महागर्वको छुड़ा देनेवाले महानान्दोंसे सहसा पृथ्वी, आकाश तथा आठों दिशाओंको पूर्ण कर दिया । महाकालने बड़ी तेजीसे दौड़कर अपने दोनों हाथोंको पृथ्वी एवं आकाशपर पटक दिया, जिससे पहलेके शब्द तिरोहित हो गये । २१-२२ ॥

अट्टाट्टहासमशिवं क्षेत्रपालश्चकार ह ।
भैरवोऽपि महानादं स चकार महाहवे ॥ २३ ॥
इसी प्रकार उस महायुद्धमें क्षेत्रपालने अशुभसूचक अट्टहास किया तथा भैरवने भी नाद किया ॥ २३ ॥

महाकोलाहलो जातो रणमध्ये भयङ्‌करः ।
वीरशब्दो बभूवाथ गणमध्ये समन्ततः ॥ २४ ॥
युद्धस्थलमें महान् कोलाहल होने लगा और गणोंके मध्यमें चारों ओर सिंहगर्जना होने लगी ॥ २४ ॥

सन्त्रेसुर्दानवाःसर्वे तैः शब्दैर्भयदैः खरैः ।
चुकोपातीव तच्छ्रुत्वा दानवेन्द्रो महाबलः ॥ २५ ॥
तिष्ठतिष्ठेति दुष्टात्मन् व्याजहार यदा हरः ।
देवैर्गणैश्च तैः शीघ्रमुक्तं जय जयेति च ॥ २६ ॥
अथागत्य स दम्भस्य तनयःसुप्रतापवान् ।
शक्तिं चिक्षेप रुद्राय ज्वालामालातिभीषणाम् ॥ २७ ॥
उन भयदायक एवं कर्कश शब्दोंसे सभी दानव व्याकुल हो उठे । महाबलवान् दानवेन्द्र उसे सुनकर अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा । जब शिवजीने कहा-रे दुष्ट खड़ा रह, खड़ा रह, उसी समय देवताओं एवं गणोंने भी शीघ्र जय-जयकार की । इसके बाद महाप्रतापी दम्भपुत्रने आकर ज्वाला मालाके समान अत्यन्त भीषण शक्ति शिवजीपर चलायी ॥ २५-२७ ॥

वह्निकूटप्रभा यान्ती क्षेत्रपालेन सत्वरम् ।
निरस्तागत्य साजौ वै मुखोत्पन्नमहोल्कया ॥ २८ ॥
पुनः प्रववृते युद्धं शिवदानवयोर्महत् ।
चकम्पे धरणी द्यौश्च सनगाब्धिजलाशया ॥ २९ ॥
दाम्भिमुक्तान् सरान् शम्भुः शरांस्तत्प्रहितान्स च ।
सहस्रशः शरैरुग्रैश्चिच्छेद शतशस्तदा ॥ ३० ॥
क्षेत्रपालने अग्निज्वालाके समान आती हुई उस शक्तिको बड़ी शीघ्रतासे युद्धमें आगे बढ़कर अपने मुखसे उत्पन्न उल्कासे नष्ट कर दिया । उसके अनन्तर पुनः शिवजी एवं उस दानवका महाभयंकर युद्ध होने लगा, जिससे पर्वत, समुद्र एवं जलाशयोंके सहित पृच्ची एवं धुलोक कम्पित हो उठे । दम्भपुत्र शंखचूडके द्वारा छोड़े गये सैकड़ों-हजारों बाणोंको शिवजी अपने उग्र बाणोंसे छिन्न-भिन्न कर रहे थे तथा शिवजीके द्वारा छोड़े गये सैकड़ों-हजारों बाणोंको वह भी अपने उग्र बाणोंसे छिन्न-भिन्न कर देता था ॥ २८-३० ॥

ततः शम्भुस्त्रिशूलेन सङ्‌क्रुद्धस्तं जघान ह ।
तत्प्रहारमसह्याशु कौ पपात स मूर्च्छितः ॥ ३१ ॥
तब शिवजीने अत्यधिक क्रोधित हो अपने त्रिशूलसे दानवपर प्रहार किया, उसके प्रहारको सहने में असमर्थ वह मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ ३१ ॥

ततः क्षणेन सम्प्राप सञ्ज्ञां स च तदासुरः ।
आजघान शरै रुद्रं तान्सर्वानात्तकार्मुकः ॥ ३२ ॥
इसके बाद क्षणमात्रमें ही चेतना प्राप्तकर वह असुर धनुष लेकर बाणोंसे शिवजीपर प्रहार करने लगा॥३२॥

बाहूनागयुतं कृत्वा छादयामास शंकरम् ।
चक्रायुतेन सहसा शङ्‌खचूडः प्रतापवान् ॥ ३३ ॥
ततो दुर्गापतिः क्रुद्धो रुद्रो दुर्गार्तिनाशनः ।
तानि चक्राणि चिच्छेद स्वशरैरुत्तमै द्रुतम् ॥ ३४ ॥
ततो वेगेन सहसा गदामादाय दानवः ।
अभ्यधावत वै हन्तुं बहुसेनावृतो हरम् ॥ ३५ ॥
उस प्रतापी दानवराज शंखचूडने दस हजार भुजाओंका निर्माणकर दस हजार चक्रोंसे शंकरजीको ढक दिया। तदनन्तर कठिन दुर्गतिके नाशकर्ता दुर्गापति शंकरजीने कुपित होकर अपने श्रेष्ठ बाणोंसे शीघ्र ही उन चक्रोंको काट दिया। तब बहुत-सारी सेनासे घिरा हुआ वह दानव बड़े वेगसे सहसा गदा उठाकर शंकरजीको मारनेके लिये दौड़ा॥ ३३-३५॥

गदां चिच्छेद तस्याश्वापततः सोऽसिना हरः ।
शितधारेण सङ्‌क्रुद्धो दुष्टगर्वापहारकः ॥ ३६ ॥
छिन्नायां स्वगदायां च चुकोपातीव दानवः ।
शूलं जग्राह तेजस्वी परेषां दुःसहं ज्वलत् ॥ ३७ ॥
सुदर्शनं शूलहस्तमायान्तं दानवेश्वरम् ।
स्वत्रिशूलेन विव्याध हृदि तं वेगतो हरः ॥ ३८ ॥
दुष्टोंके गर्वको नष्ट करनेवाले शिवजीने क्रुद्ध होकर तीक्ष्ण धारवाली तलवारसे शीघ्र ही उसकी गदा भी काट दी। तब अपनी गदाके छिन्न-भिन्न हो जानेपर उस दानवको बड़ा क्रोध उत्पन्न हुआ और उस तेजस्वीने शत्रुओंके लिये असह्य अपना प्रज्वलित त्रिशूल धारण किया। शिवजीने हाथमें त्रिशूल लेकर आते हुए उस सुदर्शन दनुजेश्वरके हृदय में बड़े वेगसे अपने त्रिशूलसे प्रहार किया ॥ ३६-३८॥

त्रिशूलभिन्नहृदयान्निष्क्रान्तः पुरुषः परः ।
तिष्ठतिष्ठेति चोवाच शङ्‌खचूडस्य वीर्यवान् ॥ ३९ ॥
तब त्रिशूलसे विदीर्ण शंखचूडके हदयसे एक पराक्रमी श्रेष्ठ पुरुष निकला और 'खड़े रहो, खड़े रहो'-इस प्रकार कहने लगा ॥ ३९ ॥

निष्क्रामतो हि तस्याशु प्रहस्य स्वनवत्ततः ।
चिच्छेद च शिरो भीममसिना सोऽपतद्‌भुवि ॥ ४० ॥
ततः कालीं चखादोग्रं दंष्ट्राक्षुण्णशिरोधरान् ।
असुरांस्तान् बहून् क्रोधात् प्रसार्य स्वमुखं तदा ॥ ४१ ॥
उसके निकलते ही शिवजीने हँसकर शीघ्र अपने खड्गसे उसके शब्द करनेवाले भयंकर सिरको काट दिया, जिससे वह पृथ्वीपर गिर पड़ा। इधर कालीने अपना उग्र मुख फैलाकर बड़े क्रोधसे अपने दाँतोंसे उन असुरोंके सिरोंको पीस-पीसकर चबाना प्रारम्भ कर दिया ॥ ४०-४१ ॥

क्षेत्रपालश्चखादान्यान्बहून्दैत्यान्क्रुधाकुलः ।
केचिन्नेशुर्भैरवास्त्रच्छिन्ना भिन्नास्तथापरे ॥ ४२ ॥
इसी प्रकार क्षेत्रपाल भी क्रोधमें भरकर अनेक असुरोंको खाने लगे और जो अन्य शेष बचे, वे भैरवके अस्त्रसे छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो गये॥ ४२ ॥

वीरभद्रोऽपरान् वीरान् बहून् क्रोधादनाशयत् ।
नन्दीश्वरो जघानान्यान् बहूनमरमर्दकान् ॥ ४३ ॥
एवं बहुगणा वीरास्तदा संनह्य कोपतः ।
व्यनाशयन्बहून्दैत्यानसुरान् देव मर्दकान् ॥ ४४ ॥
वीरभद्रने क्रोधपूर्वक दूसरे बहुत-से वीरोंको नष्ट कर दिया एवं नन्दीश्वरने अन्य बहुत-से देवशत्रु असुरोंको मार डाला। इसी प्रकार उस समय शिवजीके बहुत-से गणोंने देवताओंको कष्ट देनेवाले अनेक दैत्यों तथा असुरोंको नष्ट कर दिया ॥ ४३-४४॥

इत्थं बहुतरं तत्र तस्य सैन्यं ननाश तत् ।
विद्रुताश्चापरे वीरा बहवो भयकातराः ॥ ४५ ॥
इस प्रकार उसकी बहुत-सी सेना नष्ट हो गयी और भयसे व्याकुल हुए अनेक दूसरे वीर भाग गये ॥ ४५ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे
युद्धखण्डे शङ्‌खचूडसैन्यवधवर्णनं नाम नवत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३९ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय कसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें शंखचूडसैन्यवधवर्णन नामक उनतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३९ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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