![]() |
॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे
चत्वारिंशोऽध्यायः शङ्खचूडवधोपाख्यानम् -
शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास - सनत्कुमार उवाच स्वबलं निहतं दृष्ट्वा मुख्यं बहुतरं ततः । तथा वीरान् प्राणसमान् चुकोपातीव दानवः ॥ १ ॥ सनत्कुमार बोले-[हे व्यास !] इसके बाद अपनी मुख्य-मुख्य बहुत-सी सेनाओंको तथा प्राणके समान वीरोंको नष्ट होते देखकर दानव अत्यधिक क्रुद्ध हुआ ॥ १ ॥ उवाच वचनं शम्भुं तिष्ठाम्याजौ स्थिरो भव । किमेतैर्निहतैर्मेऽद्य संमुखे समरं कुरु ॥ २ ॥ इत्युक्त्वा दानवेन्द्रोऽसौ सन्नद्धः समरे मुने । अगच्छन्निश्चयं कृत्वाऽभिमुखं शंकरस्य च ॥ ३ ॥ उसने शंकरजीसे कहा-मैं युद्धभूमिमें खड़ा हूँ और आप भी स्थिर हो जाइये । इनको मारनेसे क्या लाभ, मेरे सामने [खड़े होकर] युद्ध कीजिये । हे मुने ! इस प्रकार कहकर वह दानव [युद्ध करनेका] निश्चयकर सन्नद्ध होकर युद्धभूमिमें शंकरजीके सम्मुख गया ॥ २-३ ॥ दिव्यान्यस्त्राणि चिक्षेप महारुद्राय दानवः । चकार शरवृष्टिं च तोयवृष्टिं यथा घनः ॥ ४ ॥ मायाश्चकार विविधा अदृश्या भयदर्शिताः । अप्रतर्क्याः सुरगणैर्निखिलैरपिः सत्तमैः ॥ ५ ॥ तां दृष्ट्वा शंकरस्तत्र चिक्षेपास्त्रं च लीलया । माहेश्वरं महादिव्यं सर्वमायाविनाशनम् ॥ ६ ॥ वह दानव शिवजीपर दिव्य अस्त्र छोड़ने लगा । जैसे मेघ जलवृष्टि करता है, उसी प्रकार वह बाणोंकी वर्षा करने लगा । उसने भय उत्पन्न करनेवाली अनेक प्रकारको माया भी प्रकट की । उस अप्रतयं मायाको समस्त देवता भी न देख सके । उस मायाको देखकर शिवजीने सभी प्रकारकी मायाको नष्ट करनेवाले महादिव्य माहेश्वर अस्त्रको लीलापूर्वक छोड़ा ॥ ४-६ ॥ तेजसा तस्य तन्माया नष्टाश्चासन् द्रुतं तदा । दिव्यान्यस्त्राणि तान्येव निस्तेजांस्यभवन्नपि ॥ ७ ॥ अथ युद्धे महेशानस्तद्वधाय महाबलः । शूलं जग्राह सहसा दुर्निवार्यं सुतेजसाम् ॥ ८ ॥ उसके तेजसे शीघ्र ही उस असुरकी सारी माया तत्काल नष्ट हो गयी और वे दिव्यास्त्र भी निस्तेज हो गये । उसके बाद महाबली महेश्वरने युद्ध में उसका वध करनेके लिये तेजस्वियोंके लिये भी दुर्निवार्य त्रिशूल सहसा धारण किया ॥ ७-८ ॥ तदैव तन्निषेद्धुं च वाग्बभूवाशरीरिणी । क्षिप शूलं न चेदानीं प्रार्थनां शृणु शंकर ॥ ९ ॥ सर्वथा त्वं समर्थो हि क्षणाद् ब्रह्माण्डनाशने । किमेकदानवस्येश शङ्खचूडस्य साम्प्रतम् ॥ १० ॥ तथापि वेदमर्यादा न नाश्या स्वामिना त्वया । तां शृणुष्व महादेव सफलं कुरु सत्यतः ॥ ११ ॥ यावदस्य करेऽत्युग्रं कवचं परमं हरेः । यावत्सतीत्वमस्त्येव सत्या अस्य हि योषितः ॥ १२ ॥ तावदस्य जरामृत्युः शङ्खचूडस्य शंकर । नास्तीत्यवितथं नाथ विधेहि ब्रह्मणो वचः ॥ १३ ॥ उसी समय उन्हें रोकनेके लिये आकाशवाणी हुई, हे शंकर ! इस समय आप त्रिशूल मत चलाइये, [मेरी] प्रार्थना सुनिये । हे ईश ! आप क्षणमात्रमें सारे ब्रह्माण्डको नष्ट करनेमें समर्थ हैं, तब इस समय एक शंखचूड दानवके वधकी क्या बात ! फिर भी आप स्वामीको वेद-मर्यादा नष्ट नहीं करनी चाहिये । हे महादेव ! उसे सुनिये और सत्यरूपसे सफल कीजिये । जबतक इसके हाथमें विष्णुका परम उग्र कवच है और जबतक इसकी पतिव्रता स्वीका सतीत्व है, तबतक हे शंकर ! इस शंखचूडकी जरा एवं मृत्यु नहीं हो सकती । हे नाथ ! ब्रह्माके इस वचनको आप सत्य कीजिये ॥ ९-१३ ॥ इत्याकर्ण्य नभोवाणीं तथेत्युक्ते हरे तदा । हरेच्छयागतो विष्णुस्तं दिदेश सतां गतिः ॥ १४ ॥ वृद्धब्राह्मणवेषेण विष्णुर्मायाविनां वरः । शङ्खचूडोपकण्ठं च गत्वोवाच स तं तदा ॥ १५ ॥ इस आकाशवाणीको सुनकर 'वैसा ही होगा'-इस प्रकार शंकरजीके कहनेपर उसी समय शिवजीकी इच्छासे सज्जनोंके रक्षक विष्णु वहाँ आये और शंकरजीने उन्हें आज्ञा दी । तब मायावियोंमें श्रेष्ठ विष्णु वृद्ध ब्राहाणका वेष धारणकर शंखचूडके पास जाकर उससे कहने लगे- ॥ १४-१५ ॥ वृद्धब्राह्मण उवाच देहि भिक्षां दानवेन्द्र मह्यं प्राप्ताय साम्प्रतम् ॥ १६ ॥ नेदानीं कथयिष्यामि प्रकटं दीनवत्सलम् । पश्चात्त्वां कथयिष्यामि पुनः सत्यं करिष्यसि ॥ १७ ॥ वृद्ध ब्राह्मण बोले-हे दानवेन्द्र ! इस समय आपके पास आये हुए मुझ ब्राह्मणको भिक्षा प्रदान कीजिये । मैं इस समय आप दीनवत्सलसे स्पष्ट नहीं कहूँगा, [प्रतिज्ञाके] बादमें आपसे कहूँगा, तब आप [उसे देकर] अपनी प्रतिज्ञा सत्य करेंगे ॥ १६-१७ ॥ ओमित्युवाच राजेन्द्रः प्रसन्नवदनेक्षणः । कवचार्थी जनश्चाहमित्युवाचेति सच्छलात् ॥ १८ ॥ तब राजाने प्रसन्नमुख होकर 'हाँ'-ऐसा कह दिया । इसके बाद उन्होंने छलसे कहा कि मैं आपका कवच चाहता हूँ ॥ १८ ॥ तच्छ्रुत्वा दानवेन्द्रोसौ ब्रह्मण्यः सत्यवाग्विभुः । तद् ददौ कवचं दिव्यं विप्राय प्राणसंमतम् ॥ १९ ॥ इसे सुनकर ब्राह्मणभक्त तथा सत्यभाषी दानवराजने अपने प्राणोंके समान दिव्य कवच ब्राह्मणको दे दिया ॥ १९ ॥ मायायेत्थं तु कवचं तस्माज्जग्राह वै हरिः । शङ्खचूडस्य रूपेण जगाम तुलसीं प्रति ॥ २० ॥ इस प्रकार विष्णुने मायासे उससे कवच ले लिया और शंखचूडका रूप धारणकर वे तुलसीके पास गये ॥ २० ॥ गत्वा तत्र हरिस्तस्या योनौ मायाविशारदः । वीर्याधानं चकाराशु देवकार्यार्थमीश्वरः ॥ २१ ॥ वहाँ जाकर मायाविशारद विष्णुने देवकार्यकी सिद्धिके निमित्त उसके साथ रमण किया ॥ २१ ॥ एतस्मिन्नन्तरे शम्भुमीरयन् स्ववचः प्रभुः । शङ्खचूडवधार्थाय शूलं जग्राह प्रज्वलत् ॥ २२ ॥ इसी बीच प्रभु विष्णुने शिवजीको अपने वचनके पालनके निमित्त प्रेरित किया, तब शंखचूडका वध करनेके लिये शंकरने अपना प्रज्वलित शूल धारण किया ॥ २२ ॥ तच्छूलं विजयं नाम शङ्करस्य परमात्मनः । सञ्चकाशे दिशः सर्वा रोदसी सम्प्रकाशयन् ॥ २३ ॥ कोटिमध्याह्नमार्तण्डप्रलयाग्निशिखोपमम् । दुर्निवार्यं च दुर्द्धर्षमव्यर्थं वैरिघातकम् ॥ २४ ॥ तेजसां चक्रमत्युग्रं सर्वशस्त्रास्त्रसायकम् । सुरासुराणां सर्वेषां दुःसहं च भयङ्करम् ॥ २५ ॥ परात्मा शिवजीका वह विजय नामक त्रिशूल सभी दिशाओं तथा भूमिको प्रकाशित करता हुआ करोड़ों मध्याहकालीन सूर्यों तथा प्रलयाग्निकी अग्निशिखाके समान, दुर्धर्ष, दुर्निवार्य, व्यर्थ न जानेवाला, शत्रुओंको नष्ट करनेवाला, तेजोंका समूह, अत्यन्त उग्र, सभी शस्त्रास्त्रोंका नायक, सभी देवताओं तथा राक्षसोंके लिये दुःसह तथा महाभयंकर था ॥ २३-२५ ॥ संहर्तुं सर्वब्रह्माडमवलम्ब्य च लीलया । संस्थितं परमं तत्र एकत्रीभूय विज्वलत् ॥ २६ ॥ धनुःसहस्रं दीर्घेण प्रस्थेन शतहस्तकम् । जीवब्रह्मस्वरूपं च नित्यरूपमनिर्मितम् ॥ २७ ॥ विभ्रमद् व्योम्नि तच्छूलं शङ्ख चूडोपरि क्षणात् । चकार भस्म तच्छीघ्रं निपत्य शिवशासनात् ॥ २८ ॥ लीलापूर्वक सारे ब्रह्माण्डको नष्ट करनेके लिये तत्पर होकर जलता हुआ वह त्रिशूल एकत्र होकर वहाँ स्थित था । शिवजीका वह त्रिशूल एक हजार धनुष लम्बा, सौ हाथ चौड़ा था । जीव एवं ब्रह्मके स्वरूप, नित्यरूप तथा किसीके द्वारा भी निर्मित न किये हुए उस त्रिशूलने आकाशमण्डलमें चक्कर काटते हुए शीघ्र ही शिवजीकी आज्ञासे शंखचूडके सिरपर गिरकर उसे क्षणमात्रमें भस्म कर दिया ॥ २६-२८ ॥ अथ शूलं महेशस्य द्रुतमावृत्य शंकरम । ययौ विहायसा विप्र मनोयायि स्वकार्यकृत् ॥ २९ ॥ हे विप्र ! इसके बाद वह त्रिशूल पुनः अपना कार्य समाप्तकर मनके वेग समान वेगसे आकाशमार्गसे शिवजीके पास चला आया ॥ २९ ॥ नेदुर्दुन्दुभयः स्वर्गे जगुर्गन्धर्वकिन्नराः । तुष्टुवुर्मुनयो देवा ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥ ३० ॥ बभूव पुष्पवृष्टिश्च शिवस्योपरि सन्ततम् । प्रशशंस हरिर्ब्रह्मा शक्राद्या मुनयस्तथा ॥ ३१ ॥ उस समय स्वर्गमें दुन्दुभियाँ बजने लगी, गन्धर्व तथा किन्नर गाने लगे, मुनि तथा देवता प्रसन्न हो उठे और अप्सराएँ नाचने लगीं । शिवजीके ऊपर निरन्तर फूलोंकी वर्षा होने लगी तथा विष्णु, ब्रह्मा एवं इन्द्रादि देवगण शिवजीकी प्रशंसा करने लगे ॥ ३०-३१ ॥ शङ्खचूडो दानवेन्द्रः शिवस्य कृपया तदा । शाप मुक्तो बभूवाथ पूर्वरूपमवाप ह ॥ ३२ ॥ इस प्रकार दानवेन्द्र शंखचूड शिवजीकी कृपासे शापमुक्त हो गया और अपने पूर्वरूपको प्राप्त हो गया ॥ ३२ ॥ अस्थिभिः शङ्खचूडस्य शङ्खजातिर्बभूव ह । प्रशस्तं शङ्खतोयं च सर्वेषां शंकरं विना ॥ ३३ ॥ विशेषेण हरेर्लक्ष्म्याः शङ्खतोयं महाप्रियम् । सम्बन्धिनां च तस्यापि न हरस्य महामुने ॥ ३४ ॥ शंखचूडकी अस्थियोंसे एक प्रकारकी शंखजाति प्रकट हुई । शंखका जल शंकरजीके अतिरिक्त अन्य सभी देवताओंके लिये प्रशस्त माना गया है । विशेषकर विष्णु एवं लक्ष्मीके लिये तथा उनके सम्बन्धियोंके लिये तो शंखका जल महाप्रिय है, किंतु हे महामुने ! वह शंकरजीको प्रिय नहीं है ॥ ३३-३४ ॥ तमित्थं शंकरो हत्वा शिवलोकं जगाम सः । सुप्रहृष्टो वृषारूढः सोमस्कन्दगणैर्वृतः ॥ ३५ ॥ इस प्रकार शिवजी शंखचूडका वधकर अति प्रसन्न होकर वृषभपर आरूढ़ हो उमा, स्कन्द एवं अपने गणोंके साथ शिवलोकको चले गये ॥ ३५ ॥ हरिर्जगाम वैकुण्ठं कृष्णःस्ववस्थो बभूव ह । सुराःस्वविषयं प्रापुः परमानन्दसंयुताः ॥ ३६ ॥ जगत्स्वास्थ्यमतीवाप सर्वनिर्विघ्नमापकम् । निर्मलं चाभवद्व्योम क्षितिः सर्वा सुमंगला ॥ ३७ ॥ विष्णु वैकुण्ठको चले गये, श्रीकृष्ण भी स्वस्थ हो गये और देवता अपना-अपना अधिकार पा गये तथा परम आनन्दसे युक्त हो गये । सारा संसार अत्यन्त शान्त हो गया । सम्पूर्ण जल विघ्नरहित हो गया, आकाश स्वच्छ हो गया तथा सम्पूर्ण पृथ्वी मंगलमयी हो गयी ॥ ३६-३७ ॥ इति प्रोक्तं महेशस्य चरितं प्रमुदावहम् । सर्वदुःखहरं श्रीदं सर्वकामप्रपूरकम् ॥ ३८ ॥ धन्यं यशस्यमायुष्यं सर्वविघ्ननिवारणम् । भुक्तिदं मुक्तिदं चैव सर्वकामफलप्रदम् ॥ ३९ ॥ [हे व्यास !] इस प्रकार मैंने शिवजीका चरित कह दिया, जो आनन्द प्रदान करनेवाला, सारे दुःखोंको दूर करनेवाला, लक्ष्मीकी वृद्धि करनेवाला, सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाला, धन्य, यश तथा आयुको बढ़ानेवाला, समस्त विघ्नोंको नष्ट करनेवाला, भुक्ति एवं मुक्तिको प्रदान करनेवाला एवं समस्त कामनाओंका फल देनेवाला है ॥ ३८-३९ ॥ य इदं शृणुयान्नित्यं चरितं शशिमौलिनः । श्रावयेद्वा पठेद्वापि पाठयेद्वा सुधीर्नरः ॥ ४० ॥ धनं धान्यं सुतं सौख्यं लभेतात्र न संशयः । सर्वान्कामानवाप्नोति शिवभक्तिं विशेषतः ॥ ४१ ॥ जो बुद्धिमान् मनुष्य शंकरके इस चरित्रको नित्य सुनता, सुनाता, पढ़ता अथवा पढ़ाता है, वह इस लोकमें धन-धान्य, सुत तथा सुख प्राप्त करता है और सभी कामनाओंको विशेषकर शिवभक्तिको प्राप्त करता है, इसमें सन्देह नहीं है । ४०-४१ ॥ इदमाख्यानमतुलं सर्वोपद्रवनाशनम् । परमज्ञानजननं शिवभक्तिविवर्द्धनम् ॥ ४२ ॥ ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चस्वी क्षत्रियो विजयी भवेत् । धनाढ्यो वैश्यजः शूद्रः शृण्वन् सत्तमतामियात् ॥ ४३ ॥ इस अतुलनीय, सभी उपद्रवोंका नाश करनेवाले, परम ज्ञान उत्पन्न करनेवाले तथा शिवके प्रति भक्तिकी वृद्धि करनेवाले आख्यानको सुननेवाला ब्राह्मण तेजसे युक्त, क्षत्रिय विजयी, वैश्य धनसे सम्पन्न एवं शूद्र श्रेष्ठताको प्राप्त करता है ॥ ४२-४३ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखडे शङ्खचूडवधोपाख्यानं नाम चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४० ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुगसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें शंखचूडवधवर्णन नामक चालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४० ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |