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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

द्विचत्वारिंशोऽध्यायः

हिरण्याक्षवधः -
अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना -


नारद उवाच
शङ्‌खचूडवधं श्रुत्वा चरितं शशिमौलिनः ।
अयं तृप्तोऽस्मि नो त्वत्तोऽमृतं पीत्वा यथा जनः ॥ १ ॥
ब्रह्मन्यच्चरितं तस्य महेशस्य महात्मनः ।
मायामाश्रित्य सल्लीलां कुर्वतो भक्तमोददाम् ॥ २ ॥
नारदजी बोले-शंखचूडके वधसे सम्बद्ध महादेवजीके चरित्रको सुनकर मैं उसी प्रकार तृप्त नहीं हो रहा हूँ, जिस प्रकार कोई व्यक्ति अमृतका पानकर तृप्त नहीं होता । इसलिये हे ब्रह्मन् ! मायाका आश्रय लेकर भक्तोंको आनन्द प्रदान करनेवाली उत्तम लीला करनेवाले उन महात्मा महेशका जो चरित है, उसे आप मुझसे कहिये ॥ १-२ ॥

ब्रह्मोवाच
शंखचूडवधं श्रुत्वा व्यासः सत्यवतीसुतः ।
अप्राक्षीदिममेवार्थं ब्रह्मपुत्रं मुनीश्वरम् ॥ ३ ॥
सनत्कुमारः प्रोवाच व्यासं सत्यवतीसुतम् ।
सुप्रशंस्य महेशस्य चरितं मंगलायनम् ॥ ४ ॥
ब्रह्माजी बोले-शंखचूडका वध सुननेके पश्चात् सत्यवतीसुत व्यासजीने ब्रह्मपुत्र मुनीश्वर सनत्कुमारसे भी यही बात पूछी थी । व्यासकी प्रशंसा करके सनत्कुमारने मंगलदायक महेश्वरचरित्रको कहा था ॥ ३-४ ॥

सनत्कुमार उवाच
शृणु व्यास महेशस्य चरितं मंगलायनम् ।
यथान्धको गाणपत्यं प्राप शम्भोः परात्मनः ॥ ५ ॥
सनत्कुमार बोले-[हे व्यास !] आप शंकरजीके मंगलदायक उस चरित्रको सुनिये, जिसमें अन्धकने परमात्मा शंकरके गाणपत्यपदको प्राप्त किया ॥ ५ ॥

कृत्वा परमसङ्‌ग्रामं तेन पूर्वं मुनीश्वर ।
प्रसाद्य तं महेशानं सत्त्वभावात्पुनः पुनः ॥ ६ ॥
माहात्म्यमद्‌भुतं शम्भोः शरणागतरक्षिणः ।
सुभक्तवत्सलस्यैव नानालीलाविहारिणः ॥ ७ ॥
माहात्म्यमेतद्वृषभध्वजस्य
    श्रुत्वा मुनिर्गन्धवतीसुतो हि ।
वचो महार्थं प्रणिपत्य भक्त्या
    ह्युवाच तं ब्रह्मसुतं मुनीन्द्रम् ॥ ८ ॥
हे मुनीश्वर ! पहले तो उसने शंकरजीसे घोर युद्ध किया । उसके बाद अपने सात्त्विक भावसे बारंबार उन्हें प्रसन्न किया । शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले, परम भक्तवत्सल तथा नाना प्रकारकी लीला करनेवाले शंकरका माहात्म्य अद्‌भुत है । शंकरके इस प्रकारके माहात्म्यको सुनकर सत्यवतीसुत व्यासजीने मुनीश्वर सनत्कुमारजीको प्रणाम किया, फिर भक्तिभावसे विनम्र हो ब्रह्मपुत्र मुनीश्वरसे महान् अर्थपूर्ण वाणीमें कहा- ॥ ६-८ ॥

व्यास उवाच
को ह्यन्धको वै भगवन्मुनीश
    कस्यान्वये वीर्यवतः पृथिव्याम् ।
जातो महात्मा बलवान् प्रधानः
    किमात्मकः कस्य सुतोऽन्धकश्च ॥ ९ ॥
व्यासजी बोले-हे भगवन् ! हे मुनीश्वर ! यह अन्धक कौन था ? इस पृथ्वीपर उसने किसके वंशमें जन्म लिया ? वह किस कारणसे इतना बलवान् तथा महात्मा हुआ तथा वह किस नामवाला तथा किसका पुत्र था ? ॥ ९ ॥

एतत्समस्तं सरहस्यमद्य
    प्रब्रूहि मे ब्रह्मसुतप्रसादात् ।
स्कन्दान्मया वै विदितं हि सम्यक्
    महेशपुत्रादमितावबोधात् ॥ १० ॥
हे भगवन् ! ब्रह्मपुत्र ! अब आप इन सारे रहस्योंका वर्णन कीजिये । वैसे तो अनन्तज्ञानसम्पन्न महेशपुत्र स्कन्दके द्वारा मैं इन बातोंको जानता हूँ ॥ १० ॥

गाणपत्यं कथं प्राप शम्भोः परमतेजसः ।
सोन्धको धन्य एवाति यो बभूव गणेश्वरः ॥ ११ ॥
महातेजस्वी शंकरकी कृपासे उसने गाणपत्य पदको किस प्रकार प्राप्त किया । वस्तुत: वह अन्धक महाधन्य है, जो उसे गाणपत्यकी प्राप्ति हुई ॥ ११ ॥

ब्रह्मोवाच
व्यासस्य चैतद्वचनं निशम्य
    प्रोवाच स ब्रह्मसुतस्तदानीम् ।
महेश्वरोतीः परमाप्तलक्ष्मीः
    संश्रोतुकामं जनकं शुकस्य ॥ १२ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! व्यासजीके इस प्रकारके वचनको सुनकर ब्रह्मपुत्र सनत्कुमारने महामंगलदायक शिवजीके चरित्रको सुननेकी इच्छावाले शुकदेवजीके पिता [व्यास] से कहा ॥ १२ ॥

सनत्कुमार उवाच
पुराऽऽगतो भक्तकृपाकरोऽसौ
    कैलासतः शैलसुता गणाढ्यः ।
विहर्तुकामः किल काशिका वै
    स्वशैलतो निर्जरचक्रवर्ती ॥ १३ ॥
सनत्कुमार बोले-किसी समय देवसम्राट् भक्तवत्सल भगवान् शंकर अपने गणों तथा पार्वतीको साथ लेकर कैलाससे विहार करनेके लिये काशी आये ॥ १३ ॥

स राजधानीं च विधाय तस्यां
    चक्रे परोतीः सुखदा जनानाम् ।
तद्‌रक्षकं भैरवनामवीरं
    कृत्वा समं शैलजयाहि बह्वीः ॥ १४ ॥
उन्होंने काशीको अपनी राजधानी बनाया, भैरवको उसका रक्षक नियुक्त किया तथा पार्वतीके साथ मनुष्योंको आनन्द देनेवाली नाना प्रकारकी लीलाएँ करने लगे ॥ १४ ॥

स एकदा मन्दरनामधेयं
    गतो नगं तद्वरसुप्रभावात् ।
तत्रापि नानागणवीरमुख्यैः
    शिवासमेतो विजहार भूरि ॥ १५ ॥
पूर्वे दिशो मन्दर शैलसंस्था
    कपर्द्दिनश्चण्डपराकमस्य ।
चक्रे ततो नेत्रनिमीलनं तु
    सा पार्वती नर्मयुतं सलीलम् ॥ १६ ॥
किसी समय वरदानके कारण वे अपने गणोंके साथ मन्दराचलपर गये और वहाँपर पार्वतीके साथ विहार करनेमें प्रवृत्त हो गये । उसके बाद पार्वतीने नर्मक्रीडा [प्रेम-परिहास] करते हुए मन्दराचलपर पूर्व दिशाकी ओर मुखकर बैठे हुए चण्ड पराक्रमवाले सदाशिवके नेत्र लीलापूर्वक बन्द कर दिये ॥ १५-१६ ॥

प्रवालहेमाब्जधृतप्रभाभ्यां
    कराम्बुजाभ्यां निमिमील नेत्रे ।
हरस्य नेत्रेषु निमीलितेषु
    क्षणेन जातः सुमहान्धकारः ॥ १७ ॥
तत्स्पर्शयोगाच्च महेश्वरस्य
    करौ च तस्याः स्खलितं मदाम्भः ।
शम्भोर्ललाटे क्षणवह्नितप्तो
    विनिर्गतो भूरिजलस्य बिन्दुः ॥ १८ ॥
मूंगे तथा स्वर्णकमलकी कान्तिसे युक्त अपनी दोनों भुजाओंसे जब पार्वतीने उनके नेत्र बन्द कर दिये, तब शिवजीके नेत्रोंके बन्द हो जानेपर क्षणभरमें घोर अन्धकार छा गया । तब सदाशिवके ललाटका स्पर्श करते ही उनके ललाटपर स्थित अग्निकी उष्णतासे पार्वतीके दोनों हाथोंसे स्वेदविन्दु टपकने लगे ॥ १७-१८ ॥

गर्भो बभूवाथ करालवक्त्रो
    भयङ्‌करः क्रोधपरः कृतघ्नः ।
अन्धो विरूपी जटिलश्च कृष्णो
    नरेतरो वैकृतिकःसुरोमा ॥ १९ ॥
तब उससे एक बालक उत्पन्न हुआ, जो भयंकर, विकराल मुखवाला, महाक्रोधी, कृतघ्न, अन्धा, जटाधारी, कृष्णवर्णवाला, कुरूप, मनुष्यसे भिन्न स्वरूपवाला, विकृत तथा बहुत रोमोंसे युक्त था ॥ १९ ॥

गायन्हसन्प्ररुदन्नृत्यमानो
    विलेलिहानो घरघोरघोषः ।
जातेन तेनाद्‌भुतदर्शनेन
    गौरीं भवोऽसौ स्मितपूर्वमाह ॥ २० ॥
उत्पन्न होते ही उसने गाना, हँसना, नाचना,रोना तथा जीभ चाटना प्रारम्भ किया और वह महाघोर शब्द करने लगा । विचित्र दर्शनवाले उस बालकके उत्पन्न होते ही शंकरजीने गौरीसे हंसते हुए कहा- ॥ २० ॥

श्रीमहेश उवाच
निमील्य नेत्राणि कृतं च कर्म
    बिभेषि साऽस्माद्दयिते कथं त्वम् ।
गौरी हरात्तद्वचनं निशम्य
    विहस्यमाना प्रमुमोच नेत्रे ॥ २१ ॥
जाते प्रकाशे सति घोररूपो
    जातोन्धकारादपि नेत्रहीनः ।
तादृग्विधं तं च निरीक्ष्य भूतं
    पप्रच्छ गौरी पुरुषं महेशम् ॥ २२ ॥
श्रीमहेश बोले-हे प्रिये ! तुमने मेरे नेत्रोंको बन्दकर जो कर्म किया है, अब उससे भयभीत क्यों हो रही हो ? महादेवजीके इस वचनको सुनकर हँसती हुई गौरीने उनके नेत्रोंको छोड़ दिया । तब प्रकाश हो जानेपर वह अन्धा पुरुष अन्धकारसे भी अधिक घोर रूपवाला हो गया । तब इस प्रकारके रूपवाले उस पुरुषको देखकर गौरीने महेश्वरसे पूछा- ॥ २१-२२ ॥

गौर्य्युवाच
कोयं विरूपो भगवन्हि जातो
    नावग्रतो घोरभयङ्‌करश्च ।
वदस्व सत्यं मम किं निमित्तं
    सृष्टोऽथ वा केन च कस्य पुत्रः ॥ २३ ॥
गौरी बोलीं-हे भगवन् ! हम दोनोंके सामने यह घोर, भयंकर तथा विकृताकार कौन उत्पन्न हो गया है ? आप मुझसे सत्य कहिये, किस कारणसे तथा किसने इसकी सृष्टि की है, यह किसका पुत्र है ? ॥ २३ ॥

सनत्कुमार उवाच
श्रुत्वा हरस्तद्वचनं प्रियाया
    लीलाकरः सृष्टिकृतोंऽधरूपाम् ।
लीलाकरायास्त्रिजगज्जनन्या
    विहस्य किञ्चिद्‌भगवानुवाच २४ ॥
सनत्कुमार बोले-लीला करनेवाले एवं अन्धकको उत्पन्न करनेवाले भगवान् शंकरने लीला करनेवाली त्रिजगजननी प्रिया पार्वतीकी बात सुनकर हँसते हुए कहा- ॥ २४ ॥

महेश उवाच
शृण्वम्बिके ह्यद्‌भुतवृत्तकारे
    उत्पन्न एषोऽद्‌भुतचण्डवीर्यः ।
निमीलिते चक्षुषि मे भवत्या
    स स्वेदजो मेऽन्धकनामधेयः ॥ २५ ॥
महेश बोले-अद्‌भुत चरित्र करनेवाली हे अम्बिके ! तुम्हारे द्वारा मेरे नेत्रोंके बन्द कर दिये जानेपर तुम्हारे हाथोंके स्वेदकणसे उत्पन्न यह अद्‌भुत महापराक्रमशाली अन्धक नामवाला असुर प्रकट हुआ है ॥ २५ ॥

त्वं चास्य कर्तास्ययथानुरूपं
    त्वया स सख्या दयया गणेभ्यः ।
स रक्षितव्यस्त्वयि तं हि वैकं
    विचार्य बुद्ध्या करणीयमार्ये ॥ २६ ॥
तुम्हीं इसकी जन्मदात्री हो, अतः हे आयें ! तुम्हीं दयापूर्वक अपनी सखियोंके साथ गणोंसे इसकी रक्षा करो और बुद्धिसे विचारकर इसके विषयमें जो करना चाहती हो, उसे करो ॥ २६ ॥

सनत्कुमार उवाच
गौरी ततो भृत्यवचो निशम्य
    कारुण्यभावात्सहिता सखीभिः ।
नानाप्रकारैर्बहुभिर्ह्युपायै-
    श्चकार रक्षां स्वसुतस्य यद्वत् ॥ २७ ॥
सनत्कुमार बोले-तदनन्तर अपने पतिके इस वचनको सुनकर गौरी [अपनी] सखियोंके साथ दयाभावसे अनेक प्रकारके उपायोंसे अपने पुत्रकी रक्षा करने लगीं ॥ २७ ॥

कालेऽथ तस्मिन् शिशिरे प्रयातो
    हिरण्यनेत्रस्त्वथ पुत्रकामः ।
स्वज्येष्ठबन्धोस्तनयप्रतानं
    संवीक्ष्य चासीत्प्रियया नियुक्तः ॥ २८ ॥
एक बार शिशिरकाल उपस्थित होनेपर अपने बड़े भाईकी सन्ततिवृद्धिको देखकर अपनी स्त्रीसे प्रेरित होकर पुत्रकी कामनावाला हिरण्याक्ष [तपस्या करनेके लिये] वहाँ पहुँचा ॥ २८ ॥

अरण्यमाश्रित्य तपश्चकारा-
    सुरस्तदा कश्यपजःसुतार्थम् ।
काष्ठोपमोऽसौ जितरोषदोषः
    सन्दर्शनार्थं तु महेश्वरस्य ॥ २९ ॥
वह कश्यपपुत्र असुर वनका आश्रय लेकर क्रोधादि दोर्षोंको जीतकर पुत्रप्राप्तिके निमित्त काष्ठके समान स्थिर होकर शंकरजीके दर्शनहेतु तप करने लगा ॥ २९ ॥

तुष्टः पिनाकी तपसास्य सम्यग्
    वरप्रदानाय ययौ द्विजेन्द्र ।
तत्स्थानमासाद्य वृषध्वजोऽसौ
    जगाद दैत्यप्रवरं महेशः ॥ ३० ॥
हे द्विजेन्द्र ! तब उसकी तपस्यासे पूर्ण रूपसे प्रसन्न होकर शंकरजी वर देनेके लिये गये । उस स्थानपर आकर वे वृषध्वज महेश उस दैत्य श्रेष्ठसे बोले- ॥ ३० ॥

महेश उवाच
हे दैत्यनाथ कुरु नेन्द्रियसङ्‌घपातं
    किमर्थमेतद्व्रतमाश्रितं ते ।
प्रब्रूहि कामं वरदो भवोऽहं
    यदिच्छसि त्वं सकलं ददामि ॥ ३१ ॥
महेश बोले-हे दैत्यराज ! तुम अपनी इन्द्रियोंको कष्ट मत दो, तुम किस निमित्त यह व्रत कर रहे हो । तुम अपना मनोरथ कहो, मैं शंकर तुम्हें वर दूँगा । तुम जो चाहते हो, वह सब मैं दूंगा ॥ ३१ ॥

सनत्कुमार उवाच
सरस्यमाकर्ण्य महेशवाक्यं
    ह्यतिप्रसन्नः कनकाक्षदैत्यः ।
कृताञ्जलिर्नम्रशिरा उवाच
    स्तुत्या च नत्वा विविधं गिरीशम् ॥ ३२ ॥
सनत्कुमार बोले-शिवजीका यह सरस वचन सुनकर वह दैत्य हिरण्याक्ष अत्यन्त प्रसन्न हो गया और हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर एवं नमस्कार करके विविध स्तुतिपूर्वक शंकरजीसे कहने लगा- ॥ ३२ ॥

हिरण्याक्ष उवाच
पुत्रस्तु मे चन्द्रललाट नास्ति
    सुवीर्यवान्दैत्यकुलानुरूपी ॥
तदर्थमेतद् व्रतमास्थितोऽहं
    तं देहि देवेश सुवीर्यवन्तम् ॥ ३३ ॥
यस्माच्च मद्‌भ्रातुरनन्तवीर्याः
    प्रह्लादपूर्वा अपि पञ्चपुत्राः ।
ममेह नास्तीति गतान्वयोऽहं
    को मामकं राज्यमिदं बुभूषेत् ॥ ३४ ॥
राज्यं परस्य स्वबलेन हृत्वा
    भुङ्‌क्तेऽथवा स्वं पितुरेव दृष्टम् ।
च प्रोच्यते पुत्र इह त्वमुत्र
    पुत्री स तेनापिभवेत्पितासौ ॥ ३५ ॥
हिरण्याक्ष बोला-हे चन्द्रमौले ! मुझे दैत्यवंशके योग्य एवं अति पराक्रमी कोई पुत्र नहीं है, उसीके लिये मैं इस तपस्या प्रवृत्त हुआ हूँ । अतः हे देवेश ! आप मुझे महाबलवान् पुत्र प्रदान कीजिये; क्योंकि मेरे भाईको प्रह्लाद आदि पाँच महाबलवान् पुत्र हैं, मुझे पुत्र नहीं है, मैं वंशहीन हो गया हूँ, अतः मेरे इस राज्यका भोग कौन करेगा ? जो अपने बाहुबलसे दूसरेके राज्यको अपने अधिकारमें करके उसका भोग करता है अथवा पिताके राज्यका उपभोग करता है, वही इस लोकमें तथा परलोकमें पुत्र कहा जाता है और उसी पुत्रसे पिता भी पुत्रवान् होता है ॥ ३३-३५ ॥

ऊर्ध्वं गतिः पुत्रवतां निरुक्ता
    मनीषिभिर्धर्मभृतां वरिष्ठैः ।
सर्वाणि भूतानि तदर्थमेव-
    मतः प्रवर्तेत पशून् स्वतेजसः ॥ ३६ ॥
निरन्वयस्याथ न सन्ति लोकाः
    तदर्थमिच्छन्ति जनाः सुरेभ्यः ।
सदा समाराध्य सुराङ्‌घ्रिपङ्‌कजं
    याचन्त इत्थं सुतमेकमेव ॥ ३७ ॥
वरिष्ठ धर्मज्ञ ऋषियोंने पुत्रवानोंकी ही ऊर्ध्वगति कही है, इसीलिये सभी प्राणी उसीके लिये कामना करते हैं, अन्यथा मरनेके पश्चात् वह तेज पशुओंमें चला जाता है अर्थात् व्यर्थ हो जाता है । पुत्रहीनको उत्तम लोक नहीं प्राप्त होता है, इसलिये लोग उसके लिये इच्छा रखते हैं और देवताओंके चरण कमलकी आराधनाकर उनसे एक पुत्रकी भी याचना करते हैं । ३६-३७ ॥

सनत्कुमार उवाच
एतद्‌भवस्तद्वचनं निशम्य
    कृपाकरो दैत्यनृपस्य तुष्टः ।
तमाह दैत्यातप नास्ति पुत्रः
    त्वद्वीर्यजः किन्तु ददामि पुत्रम् ॥ ३८ ॥
सनत्कुमार बोले-तब कृपालु शंकर दैत्यराजके उस वचनको सुनकर प्रसन्न हो गये और उससे बोले-हे दैत्यराज ! यद्यपि तुम्हारे वीर्यसे पुत्र उत्पन्न नहीं होगा, फिर भी मैं तुम्हें पुत्र प्रदान करता हूँ ॥ ३८ ॥

ममात्मजं त्वन्धकनामधेयं
    त्वत्तुल्यवीर्यं त्वपराजितं च ।
वृणीष्व पुत्रं सकलं विहाय दुःखं
    प्रतीच्छस्व सुतं त्वमेव ॥ ३९ ॥
तुम अन्धक नामक मेरे पुत्रका वरण कर लो, जो तुम्हारे ही समान बलवान् और अजेय है । तुम सब दुःखोंको त्यागकर उसीको अपना पुत्र मान लो ॥ ३९ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्येवमुक्त्वा प्रददौ स तस्मै
    हिरण्यनेत्राय सुतं प्रसन्नः ।
हरस्तु गौर्य्या सहितो महात्मा
    भूतादिनाथस्त्रिपुरारिरुग्रः ॥ ४० ॥
इस प्रकार कहकर प्रसन्न होकर पार्वतीसहित त्रिपुरारि उग्ररूप महात्मा शंकरने उस हिरण्याक्षको पुत्र प्रदान कर दिया ॥ ४० ॥

नतो हरात्प्राप्य सुतं स दैत्यः
    प्रदक्षिणीकृत्य यथाक्रमेण ।
स्तोत्रैरनेकैरभिपूज्य रुद्रं
    तुष्टःस्वराज्यं गतवान्महात्मा ॥ ४१
इसके बाद वह महात्मा दैत्य शंकरसे पुत्र प्राप्तकर यथाक्रम उनकी प्रदक्षिणाकर तथा अनेक स्तोत्रोंसे रुद्रकी स्तुतिकर प्रसन्न होकर अपने राज्यको चला गया ॥ ४१ ॥

ततस्तु पुत्रं गिरिशादवाप्य
    रसातलं चण्डपराक्रमस्तु ।
इमां धरित्रीमनयत्स्वदेशं
    दैत्यो विजित्वा त्रिदशानशेषान् ॥ ४२ ॥
तदनन्तर प्रचण्ड पराक्रमी वह दैत्य सदाशिवसे पुत्र प्राप्तकर सम्पूर्ण देवताओंको जीतकर इस पृथ्वीको अपने देश पातालमें लेकर चला गया ॥ ४२ ॥

ततस्तु देवेर्मुनिभिश्च सिद्धैः
    सर्वात्मकं यज्ञमयं करालम् ।
वाराहमाश्रित्य वपुः प्रधान-
    माराधितो विष्णुरनन्तवीर्यः ॥ ४३ ॥
उसके अनन्तर देवताओं, मुनियों एवं सिद्धोंने सर्वात्मक, यज्ञमय तथा महाविकराल प्रधान वाराहरूपका आश्रय लेकर अनन्त पराक्रमवाले विष्णुका आराधन किया ॥ ४३ ॥

घोणाप्रहारैर्विविधैर्धरित्रीं
    विदार्य पातालतलं प्रविश्य ।
तुण्डेन दैत्यान् शतशो विचूर्ण्य
    दंष्ट्राभिरग्र्याभि अखण्डिताभिः ॥ ४४ ॥
पादप्रहारैरशनिप्रकाशै-
    रुन्मथ्य सैन्यानि निशाचराणाम् ।
मार्तण्डकोटिप्रतिमेन पश्चात्
    सुदर्शनेनाद्‌भुतचण्डतेजाः ॥ ४५ ॥
हिरण्यनेत्रस्य शिरो ज्वलन्तं
    चिच्छेद दैत्यांश्च ददाह दुष्टान् ।
ततः प्रहृष्टो दितिजेन्द्रराजं
    स्वमन्धकं तत्र स चाभ्यषिञ्चत् ॥ ४६ ॥
तब अपनी नासिकाके विविध प्रहारोंसे पृथ्वीको विदीर्णकर पातालमें प्रविष्ट हो तुण्डके द्वारा तथा अखण्डित दादोंके अग्रभागसे सैकड़ों : दैत्योंको चूर्ण करके वज्रके समान कठोर पादप्रहारोंसे निशाचरोंकी सेनाओंको मथकर करोड़ों सूर्योके समान जाज्वल्यमान अपने सुदर्शनसे अद्‌भुत तथा प्रचण्ड तेजवाले विष्णुने हिरण्याक्षके तेजस्वी सिरको काट दिया और दैत्योंको जला भी दिया । हिरण्याक्षके मर जानेपर उन्होंने प्रसन्न होकर अन्धकको राज्यपदपर अभिषिक्त कर दिया ॥ ४४-४६ ॥

स्वस्थानमागत्य ततो धरित्रीं
    दृष्ट्‍वाङ्‌कुरेणोद्धरतः प्रहृष्टः ।
भूमिं च पातालतलान्महात्मा
    पुपोष भागं त्वथ पूर्वकं तु ॥ ४७ ॥
देवैःसमस्तैर्मुनिभिःप्रहृष्टै-
    रभिषुतः पद्मभुवा च तेन ।
ययौ स्वलोकं हरिरुग्रकायो
    वराहरूपस्तु सुकार्यकर्ता ॥ ४८ ॥
इस प्रकार महात्मा विष्णु पातालतलसे पृथ्वीका उद्धारकर अपनी दाड़ोंके अग्रभागसे पृथ्वीको पुनः अपने स्थानपर प्रतिष्ठितकर परम प्रसन्न हो गये और पूर्वकी भाँति उसकी रक्षा करने लगे । प्रसन्न हुए समस्त देवता, मुनि तथा ब्रह्माजीने उनकी स्तुति की । उसके बाद उग्र शरीरवाले तथा उत्तम कार्य करनेवाले वराहरूपधारी विष्णु अपने लोकको चले गये । ४७-४८ ॥

हिरण्यनेत्रेऽथ हतेऽसुरेशे
    वराहरूपेण सुरेण सद्यः ।
देवाःसमस्ता मुनयश्च सर्वे
    परे च जीवाःसुखिनो बभूवुः ॥ ४९ ॥
इस प्रकार वराहरूप विष्णुदेवके द्वारा दैत्यराज हिरण्याक्षके मारे जानेसे सभी देवता, मुनि तथा अन्य सभी जीव सुखी हो गये ॥ ४९ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे
युद्धखण्डे हिरण्याक्षवधो नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४२ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें हिरण्याक्षवधवर्णन नामक बयालीसवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४२ ॥

नारद उवाच
शङ्‌खचूडवधं श्रुत्वा चरितं शशिमौलिनः ।
अयं तृप्तोऽस्मि नो त्वत्तोऽमृतं पीत्वा यथा जनः ॥ १ ॥
ब्रह्मन्यच्चरितं तस्य महेशस्य महात्मनः ।
मायामाश्रित्य सल्लीलां कुर्वतो भक्तमोददाम् ॥ २ ॥
नारदजी बोले-शंखचूडके वधसे सम्बद्ध महादेवजीके चरित्रको सुनकर मैं उसी प्रकार तृप्त नहीं हो रहा हूँ, जिस प्रकार कोई व्यक्ति अमृतका पानकर तृप्त नहीं होता । इसलिये हे ब्रह्मन् ! मायाका आश्रय लेकर भक्तोंको आनन्द प्रदान करनेवाली उत्तम लीला करनेवाले उन महात्मा महेशका जो चरित है, उसे आप मुझसे कहिये ॥ १-२ ॥

ब्रह्मोवाच
शंखचूडवधं श्रुत्वा व्यासः सत्यवतीसुतः ।
अप्राक्षीदिममेवार्थं ब्रह्मपुत्रं मुनीश्वरम् ॥ ३ ॥
सनत्कुमारः प्रोवाच व्यासं सत्यवतीसुतम् ।
सुप्रशंस्य महेशस्य चरितं मंगलायनम् ॥ ४ ॥
ब्रह्माजी बोले-शंखचूडका वध सुननेके पश्चात् सत्यवतीसुत व्यासजीने ब्रह्मपुत्र मुनीश्वर सनत्कुमारसे भी यही बात पूछी थी । व्यासकी प्रशंसा करके सनत्कुमारने मंगलदायक महेश्वरचरित्रको कहा था ॥ ३-४ ॥

सनत्कुमार उवाच
शृणु व्यास महेशस्य चरितं मंगलायनम् ।
यथान्धको गाणपत्यं प्राप शम्भोः परात्मनः ॥ ५ ॥
सनत्कुमार बोले-[हे व्यास !] आप शंकरजीके मंगलदायक उस चरित्रको सुनिये, जिसमें अन्धकने परमात्मा शंकरके गाणपत्यपदको प्राप्त किया ॥ ५ ॥

कृत्वा परमसङ्‌ग्रामं तेन पूर्वं मुनीश्वर ।
प्रसाद्य तं महेशानं सत्त्वभावात्पुनः पुनः ॥ ६ ॥
माहात्म्यमद्‌भुतं शम्भोः शरणागतरक्षिणः ।
सुभक्तवत्सलस्यैव नानालीलाविहारिणः ॥ ७ ॥
माहात्म्यमेतद्वृषभध्वजस्य
    श्रुत्वा मुनिर्गन्धवतीसुतो हि ।
वचो महार्थं प्रणिपत्य भक्त्या
    ह्युवाच तं ब्रह्मसुतं मुनीन्द्रम् ॥ ८ ॥
हे मुनीश्वर ! पहले तो उसने शंकरजीसे घोर युद्ध किया । उसके बाद अपने सात्त्विक भावसे बारंबार उन्हें प्रसन्न किया । शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले, परम भक्तवत्सल तथा नाना प्रकारकी लीला करनेवाले शंकरका माहात्म्य अद्‌भुत है । शंकरके इस प्रकारके माहात्म्यको सुनकर सत्यवतीसुत व्यासजीने मुनीश्वर सनत्कुमारजीको प्रणाम किया, फिर भक्तिभावसे विनम्र हो ब्रह्मपुत्र मुनीश्वरसे महान् अर्थपूर्ण वाणीमें कहा- ॥ ६-८ ॥

व्यास उवाच
को ह्यन्धको वै भगवन्मुनीश
    कस्यान्वये वीर्यवतः पृथिव्याम् ।
जातो महात्मा बलवान् प्रधानः
    किमात्मकः कस्य सुतोऽन्धकश्च ॥ ९ ॥
व्यासजी बोले-हे भगवन् ! हे मुनीश्वर ! यह अन्धक कौन था ? इस पृथ्वीपर उसने किसके वंशमें जन्म लिया ? वह किस कारणसे इतना बलवान् तथा महात्मा हुआ तथा वह किस नामवाला तथा किसका पुत्र था ? ॥ ९ ॥

एतत्समस्तं सरहस्यमद्य
    प्रब्रूहि मे ब्रह्मसुतप्रसादात् ।
स्कन्दान्मया वै विदितं हि सम्यक्
    महेशपुत्रादमितावबोधात् ॥ १० ॥
हे भगवन् ! ब्रह्मपुत्र ! अब आप इन सारे रहस्योंका वर्णन कीजिये । वैसे तो अनन्तज्ञानसम्पन्न महेशपुत्र स्कन्दके द्वारा मैं इन बातोंको जानता हूँ ॥ १० ॥

गाणपत्यं कथं प्राप शम्भोः परमतेजसः ।
सोन्धको धन्य एवाति यो बभूव गणेश्वरः ॥ ११ ॥
महातेजस्वी शंकरकी कृपासे उसने गाणपत्य पदको किस प्रकार प्राप्त किया । वस्तुत: वह अन्धक महाधन्य है, जो उसे गाणपत्यकी प्राप्ति हुई ॥ ११ ॥

ब्रह्मोवाच
व्यासस्य चैतद्वचनं निशम्य
    प्रोवाच स ब्रह्मसुतस्तदानीम् ।
महेश्वरोतीः परमाप्तलक्ष्मीः
    संश्रोतुकामं जनकं शुकस्य ॥ १२ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! व्यासजीके इस प्रकारके वचनको सुनकर ब्रह्मपुत्र सनत्कुमारने महामंगलदायक शिवजीके चरित्रको सुननेकी इच्छावाले शुकदेवजीके पिता [व्यास] से कहा ॥ १२ ॥

सनत्कुमार उवाच
पुराऽऽगतो भक्तकृपाकरोऽसौ
    कैलासतः शैलसुता गणाढ्यः ।
विहर्तुकामः किल काशिका वै
    स्वशैलतो निर्जरचक्रवर्ती ॥ १३ ॥
सनत्कुमार बोले-किसी समय देवसम्राट् भक्तवत्सल भगवान् शंकर अपने गणों तथा पार्वतीको साथ लेकर कैलाससे विहार करनेके लिये काशी आये ॥ १३ ॥

स राजधानीं च विधाय तस्यां
    चक्रे परोतीः सुखदा जनानाम् ।
तद्‌रक्षकं भैरवनामवीरं
    कृत्वा समं शैलजयाहि बह्वीः ॥ १४ ॥
उन्होंने काशीको अपनी राजधानी बनाया, भैरवको उसका रक्षक नियुक्त किया तथा पार्वतीके साथ मनुष्योंको आनन्द देनेवाली नाना प्रकारकी लीलाएँ करने लगे ॥ १४ ॥

स एकदा मन्दरनामधेयं
    गतो नगं तद्वरसुप्रभावात् ।
तत्रापि नानागणवीरमुख्यैः
    शिवासमेतो विजहार भूरि ॥ १५ ॥
पूर्वे दिशो मन्दर शैलसंस्था
    कपर्द्दिनश्चण्डपराकमस्य ।
चक्रे ततो नेत्रनिमीलनं तु
    सा पार्वती नर्मयुतं सलीलम् ॥ १६ ॥
किसी समय वरदानके कारण वे अपने गणोंके साथ मन्दराचलपर गये और वहाँपर पार्वतीके साथ विहार करनेमें प्रवृत्त हो गये । उसके बाद पार्वतीने नर्मक्रीडा [प्रेम-परिहास] करते हुए मन्दराचलपर पूर्व दिशाकी ओर मुखकर बैठे हुए चण्ड पराक्रमवाले सदाशिवके नेत्र लीलापूर्वक बन्द कर दिये ॥ १५-१६ ॥

प्रवालहेमाब्जधृतप्रभाभ्यां
    कराम्बुजाभ्यां निमिमील नेत्रे ।
हरस्य नेत्रेषु निमीलितेषु
    क्षणेन जातः सुमहान्धकारः ॥ १७ ॥
तत्स्पर्शयोगाच्च महेश्वरस्य
    करौ च तस्याः स्खलितं मदाम्भः ।
शम्भोर्ललाटे क्षणवह्नितप्तो
    विनिर्गतो भूरिजलस्य बिन्दुः ॥ १८ ॥
मूंगे तथा स्वर्णकमलकी कान्तिसे युक्त अपनी दोनों भुजाओंसे जब पार्वतीने उनके नेत्र बन्द कर दिये, तब शिवजीके नेत्रोंके बन्द हो जानेपर क्षणभरमें घोर अन्धकार छा गया । तब सदाशिवके ललाटका स्पर्श करते ही उनके ललाटपर स्थित अग्निकी उष्णतासे पार्वतीके दोनों हाथोंसे स्वेदविन्दु टपकने लगे ॥ १७-१८ ॥

गर्भो बभूवाथ करालवक्त्रो
    भयङ्‌करः क्रोधपरः कृतघ्नः ।
अन्धो विरूपी जटिलश्च कृष्णो
    नरेतरो वैकृतिकःसुरोमा ॥ १९ ॥
तब उससे एक बालक उत्पन्न हुआ, जो भयंकर, विकराल मुखवाला, महाक्रोधी, कृतघ्न, अन्धा, जटाधारी, कृष्णवर्णवाला, कुरूप, मनुष्यसे भिन्न स्वरूपवाला, विकृत तथा बहुत रोमोंसे युक्त था ॥ १९ ॥

गायन्हसन्प्ररुदन्नृत्यमानो
    विलेलिहानो घरघोरघोषः ।
जातेन तेनाद्‌भुतदर्शनेन
    गौरीं भवोऽसौ स्मितपूर्वमाह ॥ २० ॥
उत्पन्न होते ही उसने गाना, हँसना, नाचना,रोना तथा जीभ चाटना प्रारम्भ किया और वह महाघोर शब्द करने लगा । विचित्र दर्शनवाले उस बालकके उत्पन्न होते ही शंकरजीने गौरीसे हंसते हुए कहा- ॥ २० ॥

श्रीमहेश उवाच
निमील्य नेत्राणि कृतं च कर्म
    बिभेषि साऽस्माद्दयिते कथं त्वम् ।
गौरी हरात्तद्वचनं निशम्य
    विहस्यमाना प्रमुमोच नेत्रे ॥ २१ ॥
जाते प्रकाशे सति घोररूपो
    जातोन्धकारादपि नेत्रहीनः ।
तादृग्विधं तं च निरीक्ष्य भूतं
    पप्रच्छ गौरी पुरुषं महेशम् ॥ २२ ॥
श्रीमहेश बोले-हे प्रिये ! तुमने मेरे नेत्रोंको बन्दकर जो कर्म किया है, अब उससे भयभीत क्यों हो रही हो ? महादेवजीके इस वचनको सुनकर हँसती हुई गौरीने उनके नेत्रोंको छोड़ दिया । तब प्रकाश हो जानेपर वह अन्धा पुरुष अन्धकारसे भी अधिक घोर रूपवाला हो गया । तब इस प्रकारके रूपवाले उस पुरुषको देखकर गौरीने महेश्वरसे पूछा- ॥ २१-२२ ॥

गौर्य्युवाच
कोयं विरूपो भगवन्हि जातो
    नावग्रतो घोरभयङ्‌करश्च ।
वदस्व सत्यं मम किं निमित्तं
    सृष्टोऽथ वा केन च कस्य पुत्रः ॥ २३ ॥
गौरी बोलीं-हे भगवन् ! हम दोनोंके सामने यह घोर, भयंकर तथा विकृताकार कौन उत्पन्न हो गया है ? आप मुझसे सत्य कहिये, किस कारणसे तथा किसने इसकी सृष्टि की है, यह किसका पुत्र है ? ॥ २३ ॥

सनत्कुमार उवाच
श्रुत्वा हरस्तद्वचनं प्रियाया
    लीलाकरः सृष्टिकृतोंऽधरूपाम् ।
लीलाकरायास्त्रिजगज्जनन्या
    विहस्य किञ्चिद्‌भगवानुवाच २४ ॥
सनत्कुमार बोले-लीला करनेवाले एवं अन्धकको उत्पन्न करनेवाले भगवान् शंकरने लीला करनेवाली त्रिजगजननी प्रिया पार्वतीकी बात सुनकर हँसते हुए कहा- ॥ २४ ॥

महेश उवाच
शृण्वम्बिके ह्यद्‌भुतवृत्तकारे
    उत्पन्न एषोऽद्‌भुतचण्डवीर्यः ।
निमीलिते चक्षुषि मे भवत्या
    स स्वेदजो मेऽन्धकनामधेयः ॥ २५ ॥
महेश बोले-अद्‌भुत चरित्र करनेवाली हे अम्बिके ! तुम्हारे द्वारा मेरे नेत्रोंके बन्द कर दिये जानेपर तुम्हारे हाथोंके स्वेदकणसे उत्पन्न यह अद्‌भुत महापराक्रमशाली अन्धक नामवाला असुर प्रकट हुआ है ॥ २५ ॥

त्वं चास्य कर्तास्ययथानुरूपं
    त्वया स सख्या दयया गणेभ्यः ।
स रक्षितव्यस्त्वयि तं हि वैकं
    विचार्य बुद्ध्या करणीयमार्ये ॥ २६ ॥
तुम्हीं इसकी जन्मदात्री हो, अतः हे आयें ! तुम्हीं दयापूर्वक अपनी सखियोंके साथ गणोंसे इसकी रक्षा करो और बुद्धिसे विचारकर इसके विषयमें जो करना चाहती हो, उसे करो ॥ २६ ॥

सनत्कुमार उवाच
गौरी ततो भृत्यवचो निशम्य
    कारुण्यभावात्सहिता सखीभिः ।
नानाप्रकारैर्बहुभिर्ह्युपायै-
    श्चकार रक्षां स्वसुतस्य यद्वत् ॥ २७ ॥
सनत्कुमार बोले-तदनन्तर अपने पतिके इस वचनको सुनकर गौरी [अपनी] सखियोंके साथ दयाभावसे अनेक प्रकारके उपायोंसे अपने पुत्रकी रक्षा करने लगीं ॥ २७ ॥

कालेऽथ तस्मिन् शिशिरे प्रयातो
    हिरण्यनेत्रस्त्वथ पुत्रकामः ।
स्वज्येष्ठबन्धोस्तनयप्रतानं
    संवीक्ष्य चासीत्प्रियया नियुक्तः ॥ २८ ॥
एक बार शिशिरकाल उपस्थित होनेपर अपने बड़े भाईकी सन्ततिवृद्धिको देखकर अपनी स्त्रीसे प्रेरित होकर पुत्रकी कामनावाला हिरण्याक्ष [तपस्या करनेके लिये] वहाँ पहुँचा ॥ २८ ॥

अरण्यमाश्रित्य तपश्चकारा-
    सुरस्तदा कश्यपजःसुतार्थम् ।
काष्ठोपमोऽसौ जितरोषदोषः
    सन्दर्शनार्थं तु महेश्वरस्य ॥ २९ ॥
वह कश्यपपुत्र असुर वनका आश्रय लेकर क्रोधादि दोर्षोंको जीतकर पुत्रप्राप्तिके निमित्त काष्ठके समान स्थिर होकर शंकरजीके दर्शनहेतु तप करने लगा ॥ २९ ॥

तुष्टः पिनाकी तपसास्य सम्यग्
    वरप्रदानाय ययौ द्विजेन्द्र ।
तत्स्थानमासाद्य वृषध्वजोऽसौ
    जगाद दैत्यप्रवरं महेशः ॥ ३० ॥
हे द्विजेन्द्र ! तब उसकी तपस्यासे पूर्ण रूपसे प्रसन्न होकर शंकरजी वर देनेके लिये गये । उस स्थानपर आकर वे वृषध्वज महेश उस दैत्य श्रेष्ठसे बोले- ॥ ३० ॥

महेश उवाच
हे दैत्यनाथ कुरु नेन्द्रियसङ्‌घपातं
    किमर्थमेतद्व्रतमाश्रितं ते ।
प्रब्रूहि कामं वरदो भवोऽहं
    यदिच्छसि त्वं सकलं ददामि ॥ ३१ ॥
महेश बोले-हे दैत्यराज ! तुम अपनी इन्द्रियोंको कष्ट मत दो, तुम किस निमित्त यह व्रत कर रहे हो । तुम अपना मनोरथ कहो, मैं शंकर तुम्हें वर दूँगा । तुम जो चाहते हो, वह सब मैं दूंगा ॥ ३१ ॥

सनत्कुमार उवाच
सरस्यमाकर्ण्य महेशवाक्यं
    ह्यतिप्रसन्नः कनकाक्षदैत्यः ।
कृताञ्जलिर्नम्रशिरा उवाच
    स्तुत्या च नत्वा विविधं गिरीशम् ॥ ३२ ॥
सनत्कुमार बोले-शिवजीका यह सरस वचन सुनकर वह दैत्य हिरण्याक्ष अत्यन्त प्रसन्न हो गया और हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर एवं नमस्कार करके विविध स्तुतिपूर्वक शंकरजीसे कहने लगा- ॥ ३२ ॥

हिरण्याक्ष उवाच
पुत्रस्तु मे चन्द्रललाट नास्ति
    सुवीर्यवान्दैत्यकुलानुरूपी ॥
तदर्थमेतद् व्रतमास्थितोऽहं
    तं देहि देवेश सुवीर्यवन्तम् ॥ ३३ ॥
यस्माच्च मद्‌भ्रातुरनन्तवीर्याः
    प्रह्लादपूर्वा अपि पञ्चपुत्राः ।
ममेह नास्तीति गतान्वयोऽहं
    को मामकं राज्यमिदं बुभूषेत् ॥ ३४ ॥
राज्यं परस्य स्वबलेन हृत्वा
    भुङ्‌क्तेऽथवा स्वं पितुरेव दृष्टम् ।
च प्रोच्यते पुत्र इह त्वमुत्र
    पुत्री स तेनापिभवेत्पितासौ ॥ ३५ ॥
हिरण्याक्ष बोला-हे चन्द्रमौले ! मुझे दैत्यवंशके योग्य एवं अति पराक्रमी कोई पुत्र नहीं है, उसीके लिये मैं इस तपस्या प्रवृत्त हुआ हूँ । अतः हे देवेश ! आप मुझे महाबलवान् पुत्र प्रदान कीजिये; क्योंकि मेरे भाईको प्रह्लाद आदि पाँच महाबलवान् पुत्र हैं, मुझे पुत्र नहीं है, मैं वंशहीन हो गया हूँ, अतः मेरे इस राज्यका भोग कौन करेगा ? जो अपने बाहुबलसे दूसरेके राज्यको अपने अधिकारमें करके उसका भोग करता है अथवा पिताके राज्यका उपभोग करता है, वही इस लोकमें तथा परलोकमें पुत्र कहा जाता है और उसी पुत्रसे पिता भी पुत्रवान् होता है ॥ ३३-३५ ॥

ऊर्ध्वं गतिः पुत्रवतां निरुक्ता
    मनीषिभिर्धर्मभृतां वरिष्ठैः ।
सर्वाणि भूतानि तदर्थमेव-
    मतः प्रवर्तेत पशून् स्वतेजसः ॥ ३६ ॥
निरन्वयस्याथ न सन्ति लोकाः
    तदर्थमिच्छन्ति जनाः सुरेभ्यः ।
सदा समाराध्य सुराङ्‌घ्रिपङ्‌कजं
    याचन्त इत्थं सुतमेकमेव ॥ ३७ ॥
वरिष्ठ धर्मज्ञ ऋषियोंने पुत्रवानोंकी ही ऊर्ध्वगति कही है, इसीलिये सभी प्राणी उसीके लिये कामना करते हैं, अन्यथा मरनेके पश्चात् वह तेज पशुओंमें चला जाता है अर्थात् व्यर्थ हो जाता है । पुत्रहीनको उत्तम लोक नहीं प्राप्त होता है, इसलिये लोग उसके लिये इच्छा रखते हैं और देवताओंके चरण कमलकी आराधनाकर उनसे एक पुत्रकी भी याचना करते हैं । ३६-३७ ॥

सनत्कुमार उवाच
एतद्‌भवस्तद्वचनं निशम्य
    कृपाकरो दैत्यनृपस्य तुष्टः ।
तमाह दैत्यातप नास्ति पुत्रः
    त्वद्वीर्यजः किन्तु ददामि पुत्रम् ॥ ३८ ॥
सनत्कुमार बोले-तब कृपालु शंकर दैत्यराजके उस वचनको सुनकर प्रसन्न हो गये और उससे बोले-हे दैत्यराज ! यद्यपि तुम्हारे वीर्यसे पुत्र उत्पन्न नहीं होगा, फिर भी मैं तुम्हें पुत्र प्रदान करता हूँ ॥ ३८ ॥

ममात्मजं त्वन्धकनामधेयं
    त्वत्तुल्यवीर्यं त्वपराजितं च ।
वृणीष्व पुत्रं सकलं विहाय दुःखं
    प्रतीच्छस्व सुतं त्वमेव ॥ ३९ ॥
तुम अन्धक नामक मेरे पुत्रका वरण कर लो, जो तुम्हारे ही समान बलवान् और अजेय है । तुम सब दुःखोंको त्यागकर उसीको अपना पुत्र मान लो ॥ ३९ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्येवमुक्त्वा प्रददौ स तस्मै
    हिरण्यनेत्राय सुतं प्रसन्नः ।
हरस्तु गौर्य्या सहितो महात्मा
    भूतादिनाथस्त्रिपुरारिरुग्रः ॥ ४० ॥
इस प्रकार कहकर प्रसन्न होकर पार्वतीसहित त्रिपुरारि उग्ररूप महात्मा शंकरने उस हिरण्याक्षको पुत्र प्रदान कर दिया ॥ ४० ॥

नतो हरात्प्राप्य सुतं स दैत्यः
    प्रदक्षिणीकृत्य यथाक्रमेण ।
स्तोत्रैरनेकैरभिपूज्य रुद्रं
    तुष्टःस्वराज्यं गतवान्महात्मा ॥ ४१
इसके बाद वह महात्मा दैत्य शंकरसे पुत्र प्राप्तकर यथाक्रम उनकी प्रदक्षिणाकर तथा अनेक स्तोत्रोंसे रुद्रकी स्तुतिकर प्रसन्न होकर अपने राज्यको चला गया ॥ ४१ ॥

ततस्तु पुत्रं गिरिशादवाप्य
    रसातलं चण्डपराक्रमस्तु ।
इमां धरित्रीमनयत्स्वदेशं
    दैत्यो विजित्वा त्रिदशानशेषान् ॥ ४२ ॥
तदनन्तर प्रचण्ड पराक्रमी वह दैत्य सदाशिवसे पुत्र प्राप्तकर सम्पूर्ण देवताओंको जीतकर इस पृथ्वीको अपने देश पातालमें लेकर चला गया ॥ ४२ ॥

ततस्तु देवेर्मुनिभिश्च सिद्धैः
    सर्वात्मकं यज्ञमयं करालम् ।
वाराहमाश्रित्य वपुः प्रधान-
    माराधितो विष्णुरनन्तवीर्यः ॥ ४३ ॥
उसके अनन्तर देवताओं, मुनियों एवं सिद्धोंने सर्वात्मक, यज्ञमय तथा महाविकराल प्रधान वाराहरूपका आश्रय लेकर अनन्त पराक्रमवाले विष्णुका आराधन किया ॥ ४३ ॥

घोणाप्रहारैर्विविधैर्धरित्रीं
    विदार्य पातालतलं प्रविश्य ।
तुण्डेन दैत्यान् शतशो विचूर्ण्य
    दंष्ट्राभिरग्र्याभि अखण्डिताभिः ॥ ४४ ॥
पादप्रहारैरशनिप्रकाशै-
    रुन्मथ्य सैन्यानि निशाचराणाम् ।
मार्तण्डकोटिप्रतिमेन पश्चात्
    सुदर्शनेनाद्‌भुतचण्डतेजाः ॥ ४५ ॥
हिरण्यनेत्रस्य शिरो ज्वलन्तं
    चिच्छेद दैत्यांश्च ददाह दुष्टान् ।
ततः प्रहृष्टो दितिजेन्द्रराजं
    स्वमन्धकं तत्र स चाभ्यषिञ्चत् ॥ ४६ ॥
तब अपनी नासिकाके विविध प्रहारोंसे पृथ्वीको विदीर्णकर पातालमें प्रविष्ट हो तुण्डके द्वारा तथा अखण्डित दादोंके अग्रभागसे सैकड़ों : दैत्योंको चूर्ण करके वज्रके समान कठोर पादप्रहारोंसे निशाचरोंकी सेनाओंको मथकर करोड़ों सूर्योके समान जाज्वल्यमान अपने सुदर्शनसे अद्‌भुत तथा प्रचण्ड तेजवाले विष्णुने हिरण्याक्षके तेजस्वी सिरको काट दिया और दैत्योंको जला भी दिया । हिरण्याक्षके मर जानेपर उन्होंने प्रसन्न होकर अन्धकको राज्यपदपर अभिषिक्त कर दिया ॥ ४४-४६ ॥

स्वस्थानमागत्य ततो धरित्रीं
    दृष्ट्‍वाङ्‌कुरेणोद्धरतः प्रहृष्टः ।
भूमिं च पातालतलान्महात्मा
    पुपोष भागं त्वथ पूर्वकं तु ॥ ४७ ॥
देवैःसमस्तैर्मुनिभिःप्रहृष्टै-
    रभिषुतः पद्मभुवा च तेन ।
ययौ स्वलोकं हरिरुग्रकायो
    वराहरूपस्तु सुकार्यकर्ता ॥ ४८ ॥
इस प्रकार महात्मा विष्णु पातालतलसे पृथ्वीका उद्धारकर अपनी दाड़ोंके अग्रभागसे पृथ्वीको पुनः अपने स्थानपर प्रतिष्ठितकर परम प्रसन्न हो गये और पूर्वकी भाँति उसकी रक्षा करने लगे । प्रसन्न हुए समस्त देवता, मुनि तथा ब्रह्माजीने उनकी स्तुति की । उसके बाद उग्र शरीरवाले तथा उत्तम कार्य करनेवाले वराहरूपधारी विष्णु अपने लोकको चले गये । ४७-४८ ॥

हिरण्यनेत्रेऽथ हतेऽसुरेशे
    वराहरूपेण सुरेण सद्यः ।
देवाःसमस्ता मुनयश्च सर्वे
    परे च जीवाःसुखिनो बभूवुः ॥ ४९ ॥
इस प्रकार वराहरूप विष्णुदेवके द्वारा दैत्यराज हिरण्याक्षके मारे जानेसे सभी देवता, मुनि तथा अन्य सभी जीव सुखी हो गये ॥ ४९ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे
युद्धखण्डे हिरण्याक्षवधो नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४२ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें हिरण्याक्षवधवर्णन नामक बयालीसवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४२ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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