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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः

गणाधिपत्यप्राप्त्यन्धकजन्म हिरण्यनेत्रहिरण्यकशिपुवधवर्णनम् -
हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रहादको राज्यप्राप्ति -


व्यास उवाच
सनत्कुमार सर्वज्ञ हते तस्मिन्सुरद्रुहि ।
किमकार्षीत्ततस्तस्य ज्येष्ठभ्राता महासुरः ॥ १ ॥
कुतूहलमिति श्रोतुं ममास्तीह मुनीश्वर ।
तच्छ्रावय कृपां कृत्वा ब्रह्मपुत्र नमोस्तु ते ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-हे सर्वज्ञ ! हे सनत्कुमार ! देवताओंसे द्रोह करनेवाले उस हिरण्याक्षके मार दिये जानेपर उसके ज्येष्ठ भ्राता महान् असुर [हिरण्यकशिपु] ने क्या किया ? हे मुनीश्वर ! मुझे इस वृत्तान्तको सुननेके लिये महान् कौतूहल हो रहा है । हे ब्रह्मपुत्र ! कृपा करके मुझे उसे सुनाइये, आपको नमस्कार है ॥ १-२ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य व्यासस्य स मुनीश्वरः ।
सनत्कुमारः प्रोवाच स्मृत्वा शिवपदाम्बुजम् ॥ ३ ॥
ब्रह्माजी बोले-व्यासजीके वचनको सुनकर सनत्कुमार शिवके चरणकमलोंका स्मरण करके कहने लगे- ॥ ३ ॥

सनत्कुमार उवाच
भ्रातर्येवं विनिहते हरिणा क्रोडमूर्तिना ।
हिरण्यकशिपुर्व्यास पर्यतप्यद्‌रुषा शुचा ॥ ४ ॥
ततः प्रजानां कदनं विधातुं कदनप्रियान् ।
निर्दिदेशाऽसुरान्वीरान्हरि वैरप्रियो हि सः ॥ ५ ॥
सनत्कुमार बोले-हे व्यास ! वराहरूप धारण करनेवाले [भगवान् विष्णुके द्वारा भाई हिरण्याक्षका वध कर दिये जानेपर हिरण्यकशिपु क्रोध एवं शोकसे सन्तप्त हो उठा । इसके बाद विष्णुसे वैरमें रुचि रखनेवाले उस हिरण्यकशिपुने प्रजाओंको कष्ट देनेके लिये निर्दयी वीर असुरोंको आज्ञा दी ॥ ४-५ ॥

अथ ते भर्तृसन्देशमादाय शिरसाऽसुराः ।
देवप्रजानां कदनं विदधुः कदनप्रियाः ॥ ६ ॥
तब वे निर्दयी असुर अपने स्वामीकी आज्ञा प्राप्तकर देवताओं तथा प्रजाओंको कष्ट देने लगे ॥ ६ ॥

ततो विप्रकृते लोकेऽसुरैस्तैर्दुष्टमानसैः ।
दिवं देवाः परित्यज्य भुवि चेरुरलक्षिताः ॥ ७ ॥
इस प्रकार जब दुष्ट बुद्धिवाले उन असुरोंने लोकका उत्पीड़न प्रारम्भ किया, तब देवतालोग स्वर्ग छोड़कर अलक्षित होकर पृथ्वीपर घूमने लगे ॥ ७ ॥

हिरण्यकशिपुर्भ्रातुः सम्परेतस्य दुःखितः ।
कृत्वा करोदकादीनि तत्कलत्राद्यसान्त्वयत् ॥ ८ ॥
हिरण्यकशिपुने भी भाईके मर जानेसे दुःखित होकर उसे तिलांजलि आदि प्रदानकर उसकी स्त्री आदिको सान्त्वना प्रदान की ॥ ८ ॥

ततःस दैत्यराजेन्द्रो ह्यजेयमजरामरम् ।
आत्मानमप्रतिद्वन्द्वमेकराज्यं व्यधित्सत ॥ ९ ॥
इसके बाद वह दैत्यराज अपनेको अजर, अमर, अजेय और प्रतिद्वन्द्वीरहित जानकर एकच्छत्र राज्य करने लगा ॥ ९ ॥

स तेपे मन्दरद्रोण्यां तपः परमदारुणम् ।
ऊर्ध्वबाहुर्नभोदृष्टिः षादाङ्‌गुष्ठाश्रितावनिः ॥ १० ॥
वह मन्दराचलकी गुफामें पैरके अंगूठमात्रको पृथ्वीपर टेककर दोनों भुजाओंको ऊपर उठाकर आकाशकी ओर देखते हुए अत्यन्त कठोर तप करने लगा ॥ १० ॥

तस्मिंस्तपस्तप्यमाने देवाःसर्वे बलान्विताः ।
दैत्यान्सर्वान्विनिर्जित्य स्वानि स्थानानि भेजिरे ॥ ११ ॥
इस प्रकार जब वह असुर तप कर रहा था, तब सभी बलवान् देवताओंने समस्त दैत्योंको जीतकर अपना-अपना पद पुनः प्राप्त कर लिया ॥ ११ ॥

तस्य मूर्ध्नः समुद्‌भूतः सधूमोग्निस्तपोमयः ।
तिर्यगूर्ध्वमधोलोकानतपद्विष्वगीरितः ॥ १२ ॥
तेन तप्ता दिवं त्यक्त्वा ब्रह्मलोकं ययुःसुराः ।
धात्रे विज्ञापयामासुस्तत्तपोविकृताननाः ॥ १३ ॥
[तपस्या करते हुए] उस हिरण्यकशिपुके सिरसे धूमसहित तपोमय अग्नि प्रकट हुई । वह तिरछे, ऊपर, नीचे तथा चारों ओरसे फैलकर सभी लोकोंको तपाने लगी । उससे तप्त होकर देवगण स्वर्गलोक छोड़कर ब्रह्मलोक चले गये । उसकी तपस्यासे विकृत मुखवाले उना देवताओंने ब्रह्माजीसे सारा वृत्तान्त कहा ॥ १२-१३ ॥

अथ विज्ञापितो देवैर्व्यास तैरात्मभूर्विधिः ।
परीतो भृगुदक्षाद्यैर्ययौ दैत्येश्वराश्रमम् ॥ १४ ॥
प्रताप्य लोकानखिलांस्ततोऽसौ
    समागतं पद्मभवं ददर्श ।
वरं हि दातुं तमुवाच धाता
    वरं वृणीष्वेति पितामहोपि ॥
निशम्य वाचं मधुरां विधातु-
    र्वचोऽब्रवीदेव ममूढबुद्धिः ॥ १५ ॥
हे व्यास ! उन देवताओंके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर स्वयम्भू ब्रह्माजी भृगु, दक्ष आदिको अपने साथ लेकर उस दैत्येन्द्रके आश्रमपर गये । उसके बाद अपनी तपस्यासे सारे लोकोंको सन्तप्तकर उस दैत्यराजने वर देनेके लिये आये हुए ब्रह्माजीको देखा । पितामह ब्रह्माने भी उससे कहा-वर माँग लो । तब विधाताका मधुर वचन सुनकर वह बुद्धिमान् यह वचन कहने लगा- ॥ १४-१५ ॥

हिरण्यकशिपुरुवाच
मृत्योर्भयं मे भगवन्प्रजेश
    पितामहाभून्न कदापि देव ।
शास्त्रास्त्रपाशाशनिशुष्कवृक्ष-
    गिरीन्द्रतोयाग्निरिपुप्रहारैः ॥ १६ ॥
देवैश्च दैत्यैर्मुनिभिश्च सिद्धैः
    त्वत्सृष्टजीवैर्बहुवाक्यतः किम् ।
स्वर्गे धरण्यां दिवसे निशायां
    नैवोर्ध्वतो नाप्यधतः प्रजेश ॥ १७ ॥
हिरण्यकशिपु बोला-हे भगवन् ! हे प्रजेश ! हे पितामह ! हे देव ! शस्त्र, अस्त्र, पाश, वज्र, सूखे वृक्ष, पहाड़, जल, अग्नि तथा शत्रुओंके प्रहारसे और देव, दैत्य, मुनि, सिद्ध तथा आपके द्वारा रचित सृष्टिके किसी भी जीवसे मुझे मृत्युका भय न हो, हे प्रजेश ! अधिक क्या कहूँ, स्वर्गमें, पृथ्वीपर, रात एवं दिनमें, ऊपर-नीचे कहीं भी मेरी मृत्यु न हो ॥ १६-१७ ॥

सनत्कुमार उवाच
तस्यैतदीदृग्वचनं निशम्य
    दैत्येन्द्र तुष्टोऽस्मि लभस्व सर्वम् ।
प्रणम्य विष्णुं मनसा तमाह
    दयान्वितोऽसाविति पद्मयोनिः ॥ १८ ॥
सनत्कुमार बोले-उस दैत्यके इस प्रकारके वचनको सुनकर मनमें विष्णुको प्रणाम करके दयासे युक्त होकर ब्रह्माजी उससे बोले-हे दैत्येन्द्र । मैं [तुमपर] प्रसन्न हूँ, तुम सब कुछ प्राप्त करो ॥ १८ ॥

अलं तपस्ते परिपूर्ण कामः
    समाः सहस्राणि च षण्णवत्य ।
उत्तिष्ठ राज्यं कुरु दानवानां
    श्रुत्वा गिरं तत्सुमुखो बभूव ॥ १९ ॥
राज्याभिषिक्तः प्रपितामहेन
    त्रैलोक्यनाशाय मतिं चकार ।
उत्साद्य धर्मान् सकलान्प्रमत्तो
    जित्वाहवे सोपि सुरान्समस्तान् ॥ २० ॥
हे दैत्येन्द्र !] अब तुम तपस्या करना छोड़ो; क्योंकि तुम्हारा मनोरथ परिपूर्ण हो गया । उठो, छियानबे हजार वर्षतक दानवोंका राज्य करो । यह वाणी सुनकर वह हर्षित हो गया । उसके अनन्तर ब्रह्माजीके द्वारा अभिषिक्त वह दैत्य प्रमत्त होकर सभी धर्मोको नष्ट करके और देवताओंको भी युद्धमें जीतकर तीनों लोकोंको नष्ट करनेका विचार करने लगा । १९-२० ॥

ततो भयादिन्द्रमुखाश्च देवाः
    पितामहाज्ञां समवाप्य सर्वे ।
उपद्रुता दैत्यवरेण जाताः
    क्षीरोदधिं यत्र हरिस्तु शेते ॥ २१ ॥
तब उस दैत्यराजसे पीड़ित हुए इन्द्रादि सभी देवता भयसे व्याकुल हो पितामहकी आज्ञा प्राप्त करके क्षीरसागरमें गये, जहाँ विष्णु शयन करते हैं ॥ २१ ॥

आराधयामासुरतीव विष्णुं
    स्तुत्वा वचोभिः सुखदं हि मत्वा ।
निवेदयामासुरथो प्रसन्नं
    दुःखं स्वकीयं सकलं हि ते ते ॥ २२ ॥
उन्होंने विष्णुको अपने लिये सुखदायक जानकर अनेक प्रकारके वचनोंसे उनकी स्तुति करके प्रसन्न हुए विष्णुसे अपना सारा दुःख निवेदित किया ॥ २२ ॥

श्रुत्वा तदीयं सकलं हि दुःखं
    तुष्टो रमेशः प्रददौ वरांस्तु ।
उत्थाय तस्माच्छयनादुपेन्द्रो
    निजानुरूपैर्विविधैर्वचोभिः ॥ २३ ॥
आश्वास्य देवानखिलान्मुनीन्वा
    उवाच वैश्वानरतुल्यतेजाः ।
दैत्यं हनिष्ये प्रसभं सुरेशाः
    प्रयात धामानि निजानि तुष्टाः ॥ २४ ॥
तब प्रसन्न विष्णुने उनका समस्त दुःख सुनकर उन्हें अनेक वरदान दिये और शय्यासे उठकर अग्निके समान तेजस्वी उन्होंने अपने अनुरूप नाना प्रकारकी वाणियोंसे आश्वासन देते हुए कहा कि हे देवताओ ! आपलोग प्रसन्न होकर अपने-अपने स्थानको जाय; मैं उस दैत्यका वध अवश्य करूंगा । २३-२४ ॥

श्रुत्वा रमेशस्य वचःसुरेशाः
    शक्रादिकास्ते निखिलाः सुतुष्टाः ।
ययुः स्वधामानि हिरण्यनेत्रा-
    नुजं च मत्वा निहतं मुनीश ॥ २५ ॥
हे मुनीश ! विष्णुका वचन सुनकर इन्द्र आदि सभी देवता अत्यन्त प्रसन्न हो गये और हिरण्याक्षके भाईको मरा हुआ मानकर अपने-अपने लोकको चले गये ॥ २५ ॥

आश्रित्य रूपं जटिलं करालं
    दंष्ट्रायुधं तीक्ष्णनखं सुनासम् ।
सैंहं च नारं सुविदारितास्यं
    मार्तण्डकोटिप्रतिमं सुघोरम् ॥ २६ ॥
युगान्तकालाग्निसमप्रभावं
    जगन्मयं किं बहुभिर्वचोभिः ।
अस्तं रवौसोऽपि हि गच्छतीशो
    गतोऽसुराणां नगरीं महात्मा ॥ २७ ॥
तदनन्तर महाजटायुक्त, विकराल, तीखे दाँतस्वरूप आयुधवाले, तीक्ष्ण नखोंवाले, सुन्दर नासिकावाले, पूर्णतः खुले हुए मुखवाले, करोड़ों सूर्यके समान जाज्वल्यमान, अत्यन्त भयंकर, अधिक क्या कहें प्रलयकालीन अग्निके समान प्रभाववाले' वे महात्मा विष्णु जगन्मय नृसिंहका रूप धारण करके सूर्यके अस्त होते समय असुरोंकी नगरीमें गये ॥ २६-२७ ॥

कृत्वा च युद्धं प्रबलैःस दैत्यै-
    र्हत्वाथ तान्दैत्यगणान्गृहीत्वा ।
बभ्राम तत्राद्‌भुतविक्रमश्च
    बभञ्ज तांस्तानसुरान्नृसिंहः ॥ २८ ॥
अद्‌भुत पराक्रमवाले नृसिंह प्रबल दैत्योंके साथ युद्ध करते हुए उन्हें मारकर शेष दैत्योंको पकड़कर घुमाने लगे और उन्होंने उन असुरोंको पटककर मार डाला ॥ २८ ॥

दृष्टःस दैत्यैरतुलप्रभाव-
    स्ते रेभिरे ते हि तथैव सर्वे ।
सिंहं च तं सर्वमयं निरीक्ष्य
    प्रह्लादनामा दितिजेन्द्रपुत्रः ।
उवाच राजानमयं मृगेन्द्रो
    जगन्मयः किं समुपागतश्च ॥ २९ ॥
दैत्योंने उन अतुल प्रभाववाले नृसिंहको देखा और उन्होंने पुनः युद्ध करना प्रारम्भ किया । हिरण्यकशिपुके प्रह्लाद नामक पुत्रने नृसिंहको देखकर राजासे कहा-यह मृगेन्द्र जगन्मय विष्णु तो नहीं हैं ? ॥ २९ ॥

प्रह्लाद उवाच
एष प्रविष्टो भगवाननन्तो
    नृसिंहमात्रो नगरं त्वदन्तः ।
निवृत्य युद्धाच्छ रणं प्रयाहि
    पश्यामि सिंहस्य करालमूर्त्तिम् ॥ ३० ॥
प्रह्लाद बोले-ये भगवान् अनन्त नृसिंहका रूप धारणकर आपके नगरमें प्रविष्ट हुए हैं, अत: आप युद्ध छोड़कर उनकी शरणमें जाइये, मैं इस सिंहकी विकराल मूर्तिको देख रहा हूँ ॥ ३० ॥

यस्मान्न योद्धा भुवनत्रयेऽपि
    कुरुष्व राज्यं विनमन्मृगेन्द्रम् ।
श्रुत्वा स्वपुत्रस्य वचो दुरात्मा
    तमाह भीतोऽसि किमत्र पुत्र ॥ ३१ ॥
[हे दैत्येन्द्र !] इनसे बढ़कर इस जगत्में और कोई योद्धा नहीं है, अतः इनकी प्रार्थनाकर आप राज्य करें । तब अपने पुत्रकी बात सुनकर दुरात्मा उससे बोला-हे पुत्र ! क्या तुम डर गये हो ? ॥ ३१ ॥

उक्त्वेति पुत्रं दितिजाधिनाथो
    दैत्यर्षभान्वीरवरान्स राजा ।
गृह्णन्तु वै सिंहममुं भवन्तो
    वीरा विरूपभ्रुकुटीक्षणं तु ॥ ३२ ॥
पुत्रसे इस प्रकार कहकर दैत्योंके स्वामी उस राजाने महावीर श्रेष्ठ दैत्योंको आज्ञा दी कि हे वीरो ! इस विकृत भृकुटी तथा नेत्रवाले नृसिंहको पकड़ लो ॥ ३२ ॥

तस्याज्ञया दैत्यवरास्ततस्ते
    ग्रहीतुकामा विविशुर्मृगेन्द्रम् ।
क्षणेन दग्धाः शलभा इवाग्निं
    रूपाभिलाषात्प्रविविक्षवो वै ॥ ३३ ॥
दैत्येषु दग्धेष्वपि दैत्यराज-
    श्चकार युद्धं स मृगाधिपेन ।
शस्त्रैःसमग्रैरखिलैस्तथास्त्रैः
    शक्त्यर्ष्टिपाशाङ्‌कुशपावकाद्यैः ॥ ३४ ॥
तब उसकी आज्ञासे पकड़नेकी इच्छावाले दैत्यश्रेष्ठ उस सिंहकी ओर जाने लगे, किंतु वे क्षणभरमें इस प्रकार दग्ध हो गये, जैसे रूपकी अभिलाषावाले पतिंगे अग्निके समीप जाते ही जल जाते हैं । उन दैत्योंके दग्ध हो जानेपर वह दैत्यराज स्वयं सभी अस्त्र, शस्त्र, शक्ति, पाश, अंकुश, अग्नि आदिके द्वारा नृसिंहसे संग्राम करने लगा ॥ ३३-३४ ॥

संयुध्यतोरेव तयोर्जगाम
    ब्राह्मं दिनं व्यास हि शस्त्रपाण्योः ।
प्रवीरयोर्वीररवेण गर्जतोः
    परस्परं क्रोधसुयुक्तचेतसोः ॥ ३५ ॥
हे व्यास ! इस प्रकार शस्त्र धारणकर गर्जनाकर क्रोधपूर्वक परस्पर युद्ध करते हुए उन दोनों महावीरोंका ब्रह्माके एक दिनके बराबर समय व्यतीत हो गया ॥ ३५ ॥

ततः स दैत्यःसहसा बहूंश्च
    कृत्वा भुजाञ्छस्त्रयुतान्निरीक्ष्य ।
नृसिंहरूपं प्रययौ मृगेन्द्र
    संयुध्यमानं सहसा समन्तात् ॥ ३६ ॥
उसके बाद अनेक भुजाओंको धारणकर चारों ओरसे युद्ध करते हुए उन नृसिंहको देखकर वह दैत्य पुन: उनसे सहसा भिड़ गया ॥ ३६ ॥

ततःसुयुद्धं त्वतिदुःसहं तु
    शस्त्रैःसमस्तैश्च तथाखिलास्त्रैः ।
कृत्वा महादैत्यवरो नृसिंहं
    क्षयं गतैः शूल धरोऽभ्युपायात् ॥ ३७ ॥
तब वह महादैत्य नाना प्रकारके शस्त्रास्त्रोंसे अत्यन्त दु:सह संग्राम करके उन शस्त्रास्त्रोंके क्षीण हो जानेपर शूल लेकर नृसिंहपर झपट पड़ा ॥ ३७ ॥

ततो गृहीतः स मृगाधिपेन
    भुजैरनेकैर्गिरिसारवद्‌भि ।
निधाय जानौ स भुजान्तरेषु
    नखाङ्‌कुरैर्दानवमर्मभिद्‌भिः ॥ ३८ ॥
नखास्त्रहृत्पद्ममसृग्विमिश्र-
    मुत्पाद्य जीवाद्विगतः क्षणेन ।
त्यक्तस्तदानीं स तु काष्ठभूतः
    पुनः पुनश्चूर्णितसर्वगात्रः ॥ ३९ ॥
इसके बाद नृसिंहने पर्वतके समान अपनी अनेक कठोर भुजाओंसे उसे पकड़ लिया और भुजाओंके मध्य दोनों जानुओंपर उस दानवको रखकर मर्मभेदी नखांकुरोंसे उसके हत्कमलको फाड़कर उसे लहूलुहान करके उसके सभी अंगोंको चूर्ण कर डाला । प्राणोंसे रहित हो जानेपर वह उस समय काष्ठके समान हो गया ॥ ३८-३९ ॥

तस्मिन्हते देवरिपौ प्रसन्नः
    प्रह्लादमामन्त्र्य कृतप्रणामम् ।
राज्येऽभिषिच्याद्‌भुतवीर्यविष्णु-
    स्ततः प्रयातो गतिमप्रतर्क्याम् ॥ ४० ॥
ततोऽतिहृष्टाःसकलाः सुरेशाः
    प्रणम्य विष्णुं दिशि विप्र तस्याम् ।
ययुः स्वधामानि पितामहाद्याः
    कृतस्वकार्यं भगवन्तमीड्यम् ॥ ४१ ॥
प्रवर्णितं त्वन्धकजन्म रुद्राद्‌
    हिरण्यनेत्रस्य मृतिर्वराहात् ।
नृसिंहतस्तत्सहजस्य नाशः
    प्रह्लादराज्याप्तिरिति प्रसङ्‌गात् ॥ ४२ ॥
उस देवशत्रुके मारे जानेपर अद्‌भुत पराक्रमवाले विष्णु प्रसन्न होकर प्रणाम किये हुए प्रह्लादको बुलाकर उसे राज्यपर अभिषिक्त करनेके अनन्तर अन्तर्धान हो गये । हे विप्र ! तब अत्यन्त हर्षित पितामहादि समस्त देवता अपना कार्य पूर्ण कर चुके स्तुत्य भगवान् विष्णुको एवं उस दिशाकी ओर प्रणामकर अपने-अपने धामको चले गये । [हे व्यास !] मैंने प्रसंगवश रुद्रसे अन्धकका जन्म, वराहसे हिरण्याक्षकी मृत्यु, नृसिंहसे उसके भाई हिरण्यकशिपुका वध एवं प्रह्लादकी राज्यप्राप्तिइन सबका वर्णन किया ॥ ४०-४२ ॥

शृणु त्विदानीं द्विजवर्य मत्तोऽ-
    न्धकप्रभावं भवकृत् प्रलब्धम् ।
हरेण युद्धं खलु तस्य पश्चाद्‌
    गणाधिपत्यं गिरिशस्य तस्य ॥ ४३ ॥
हे द्विजवर्य ! अब आप शिवजीसे प्राप्त अन्धकके पराक्रम, शिवसे उसके युद्ध तथा बादमें उसकी शिवजीसे गणाधिपत्यकी प्राप्तिको मुझसे सुनिये ॥ ४३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे
गणाधिपत्यप्राप्त्यन्धकजन्म हिरण्यनेत्रहिरण्यकशिपुवधवर्णनं नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें गणाधिपत्यप्राप्ति अन्धकजन्म-हिरण्यनेत्र हिरण्यकशिपुवधवर्णन नामक तैंतालीसवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४३ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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