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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे
चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः अन्धकगाणपत्यलाभोपाख्याने दूतसंवादो -
अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर क्रुद्ध हो युद्धके लिये उद्योग करना - सनत्कुमार उवाच ततो हिरण्याक्षसुतः कदाचि- त्संश्रावितो नर्मयुतैर्मदान्धैः । तैर्भ्रातृभिःसम्प्रयुतो विहारे किमन्ध राज्येन तवाद्य कार्यम् ॥ १ ॥ सनत्कुमार बोले-किसी समय जब हिरण्याक्षपुत्र अन्धक भाइयोंके साथ खेल रहा था, तब क्रीड़ामें आसक्त तथा मदान्ध उसके भाइयोंने [उपहास करते हुए उससे कहा-हे अन्धक ! तुम्हें राज्यसे क्या प्रयोजन ? ॥ १ ॥ हिरण्यनेत्रस्तु बभूव मूढः कलिप्रियं नेत्रविहीनमेव । यो लब्धवांस्त्वां विकृतं विरूपं घोरैस्तपोभिर्गिरिशं प्रसाद्य ॥ २ ॥ स त्वं न भागी खलु राज्यकस्य किमन्यजातोऽपि लभेत राज्यम् । विचार्यतां तद्भवतैव नूनं वयं तु तद्भागिन एव सत्यम् ॥ ३ ॥ [तुम्हारा पिता] हिरण्याक्ष निश्चय ही बड़ा मूर्ख था, जिसने घोर तपस्याके द्वारा शिवजीको प्रसन्नकर तुम्हारे जैसा कलहप्रिय, अन्धा, विकृत एवं कुरूप पुत्र प्राप्त किया । तुम निश्चय ही राज्यके भागी नहीं हो । क्या दूसरेसे उत्पन्न हुआ व्यक्ति राज्यका अधिकारी बन सकता है ? तुम्ही विचार करों, उसके अधिकारी तो सचमुच हमलोग ही हैं ॥ २-३ ॥ सनत्कुमार उवाच तेषां तु वाक्यानि निशम्य तानि विचार्य बुद्ध्या स्वयमेव दीनः । तान् शान्तयित्वा विविधैर्वचोभिः गतस्त्वरण्यं निशि निर्जनं तु ॥ ४ ॥ वर्षायुतं तत्र तपश्चचार जजाप जाप्यं विधृतैकपादः । आहारहीनो नियमोर्ध्वबाहुः कर्त्तुं न शक्यं हि सुरासुरैर्यत् ॥ ५ ॥ प्रज्वाल्य वह्निं स्म जुहोति गात्र- मांसं सरक्तं खलु वर्षमात्रम् । तीक्ष्णेन शस्त्रेण निकृत्य देहात् समन्त्रकं प्रत्यहमेव हुत्वा ॥ ६ ॥ सनत्कुमार बोले-उनके उन वचनोंको वह बुद्धिसे स्वयं विचार करके दीन हो गया और उन्हें नाना प्रकारके वचनोंसे सान्त्वना देकर रातमें ही अकेले निर्जन वनको चला गया । वहाँ निराहार रहकर वह एक पैरपर खड़ा हो दोनों भुजाओंको उठाकर दस हजार वर्षपर्यन्त घोर तप एवं मन्त्रका जप करने लगा, जो देवता एवं राक्षसोंसे भी सम्भव नहीं था । वह अग्नि जलाकर तीक्ष्ण शस्वसे अपने शरीरसे मांस काटकर वर्षपर्यन्त प्रतिदिन मन्त्रपूर्वक रक्तयुक्त मांसका होम करने लगा ॥ ४-६ ॥ स्नाय्वस्थिशेषं कुणपं तदासौ क्षयं गतं शोणितमेव सर्वम् । यदास्य मांसानि न सन्ति देहं प्रक्षेप्तुकामस्तु हुताशनाय ॥ ७ ॥ ततः स दृष्टस्त्रिदशालयैर्जनैः सुविस्मितैर्भीतियुतैः समस्तैः । अथामरैः शीघ्रतरं प्रसादितो बभूव धाता नुतिभिर्नुतो हि ॥ ८ ॥ निवारयित्वाथ पितामहस्तं ह्युवाच तं चाद्यवरं वृणीष्व । यस्याप्तिकामस्तव सर्वलोके सुदुर्लभं दानव तं गृहाण ॥ ९ ॥ जब उसके शरीरमें मांस नहीं रह गया, केवल स्नायु एवं अस्थिमात्र शेष रह गया, समस्त रक्त नष्ट हो गया, तब उसने अपने शरीरको ही अग्निमें डाल देनेका विचार किया । उसके अनन्तर सभी देवता अत्यन्त विस्मित एवं भयभीत होकर उसकी ओर देखने लगे, तब उन देवताओंने ब्रह्माजीको नमस्कारकर अनेक स्तुतियोंसे शीघ्र ही उन्हें प्रसन्न किया । ब्रह्माने उसे तपस्यासे विरत करके कहा-हे दानव ! आज तुम वर माँगो, समस्त लोकमें जो दुर्लभ है एवं जिसकी प्राप्तिके लिये तुम इच्छुक हो, उस वरको मुझसे प्राप्त कर लो ॥ ७-९ ॥ स पद्मयोनेस्तु वचो निशम्य प्रोवाच दीनः प्रणतस्तु दैत्यः । यैर्निष्ठुरैर्मे प्रहृतं तु राज्यं प्रह्रादमुख्या मम सन्तु भृत्याः ॥ १० ॥ ब्रह्माके इस वचनको सुनकर दीन एवं विनम्र होकर उस दैत्यने कहा-है ब्रह्मन् ! प्रहाद आदि मेरे जिन निष्ठुर भाइयोंने मेरा राज्य छीन लिया है, वे मेरे सेवक हों ॥ १० ॥ अन्धस्य दिव्यं हि तथास्तु चक्षु- रिन्द्रादयो मे करदा भवन्तु । मृत्युस्तु माभून्मम देवदैत्य- गन्धर्वयक्षोरगमानुषेभ्यः ॥ ११ ॥ नारायणाद्वा दितिजेन्द्रशत्रोः सर्वाज्जनात्सर्वमयाच्च शर्वात् । श्रुत्वा वचस्तस्य सुदारुणं तत् सुशङ्कितः पद्मभवस्तमाह ॥ १२ ॥ मुझ अन्धेको दिव्य नेत्रकी प्राप्ति हो जाय एवं इन्द्रादि देवता मुझे कर प्रदान करें । मेरी मृत्यु देव, दैत्य, गन्धर्व, यक्ष, सर्प, राक्षस, मनुष्य, दैत्योंके शत्रु श्रीनारायण, आदि किसी प्राणी तथा सर्वमय शंकरसे भी न हो । उसके उस कठिन वचनको सुनकर ब्रह्माजी शंकित हो उससे कहने लगे- ॥ ११-१२ ॥ ब्रह्मोवाच दैत्येन्द्र सर्वं भविता तदेतद् विनाशहेतुं च गृहाण किञ्चित् । यस्मान्न जातो न जनिष्यते वा यो न प्रविष्टो मुखमन्तकस्य ॥ १३ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे दैत्येन्द्र ! यह सब पूर्ण होगा, किंतु अपनी मृत्युका कोई कारण अवश्य वरण करो; क्योंकि न तो ऐसा हुआ है और न होगा, जो कालके मुखमें प्रविष्ट न हुआ हो ॥ १३ ॥ अत्यन्तदीर्घं खलु जीवितं तु भवादृशाः सत्पुरुषाः त्यजन्तु । एतद्वचः सानुनयं निशम्य पितामहात्प्राह पुनः स दैत्यः ॥ १४ ॥ अत: आप-जैसे सत्पुरुष अत्यन्त दीर्घ जीवनकी इच्छाका त्याग कर दें । ब्रह्माके इस अनुनयपूर्ण वचनको सुनकर वह दैत्य पुनः कहने लगा- ॥ १४ ॥ अन्धक उवाच कालत्रये याश्च भवन्ति नार्यः श्रेष्ठाश्च मध्याश्च तथा कनिष्ठाः । तासां च मध्ये खलु रत्नभूता ममापि नित्यं जननीव काचित् ॥ १५ ॥ कायेन वाचा मनसाप्यगम्या नारी नृलोकस्य च दुर्लभा या । तां कामयानस्य ममास्तु नाशो दैत्येन्द्रभावाद्भगवान्स्वयम्भूः ॥ १६ ॥ अन्धक बोला-[हे ब्रह्मदेव !] तीनों कालोंमें जितनी भी श्रेष्ठ, मध्यम तथा कनिष्ठ स्त्रियाँ हैं, उन सभीमें जो रत्नस्वरूप सर्वश्रेष्ठ हो, वही मेरी माताके समान हो । हे भगवन् ! हे स्वयम्भू ! जो मनुष्यलोकके लिये दुर्लभ तथा मन, वाणी और शरीरसे सर्वथा अगम्य हो, जब मैं दैत्येन्द्रभावसे उसकी कामना करूँ, तब मेरा नाश हो जाय ॥ १५-१६ ॥ वाक्यं तदाकर्ण्य स पद्मयोनिः सुविस्मितः शंकरपादपद्ममम् । सस्मार सम्प्राप्य निर्देशमाशु शम्भोस्तु तं प्राह ततोन्धकं वै ॥ १७ ॥ उसका वचन सुनकर ब्रह्माजीने आश्चर्यचकित हो शिवके चरणकमलोंका स्मरण किया और शम्भुकी आज्ञा प्राप्त करके उस अन्धकसे शीघ्र कहा- ॥ १७ ॥ ब्रह्मोवाच यत्काङ्क्षसे दैत्यवरास्तु ते वै सर्वं भवत्येव वचःसकामम् । उत्तिष्ठः दैत्येन्द्र लभस्व कामं सदैव वीरैस्तु कुरुष्व युद्धम् ॥ १८ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे दैत्य ! तुम जो भी अभिलाषा करते हो, तुम्हारी वे सभी कामनाएँ पूर्ण होंगी । हे दैत्येन्द्र ! अपना अभीष्ट प्राप्त करो और वीरोंके साथ सदा युद्ध करो ॥ १८ ॥ श्रुत्वा तदेतद्वचनं मुनीश विधातुराशु प्रणिपत्य भक्त्या । लोकेश्वरं हाटकनेत्रपुत्रः स्नाय्वस्थिशेषस्तु तमाह देवम् ॥ १९ ॥ हे मुनीश्वर ! ब्रह्माजीके ऐसे वचन सुनकर स्नायु तथा अस्थिमात्रशेष वह हिरण्याक्षपुत्र अन्धक ब्रह्माजीको भक्तिपूर्वक प्रणामकर उन प्रभुसे कहने लगा- ॥ १९ ॥ अन्धक उवाच कथं विभो वैरिबलं प्रविश्य ह्यनेन देहेन करोमि युद्धम् । स्नाय्वस्थिशेषं कुरु मांसपुष्टं करेण पुण्ये न च मां स्पृशाद्य ॥ २० ॥ अन्धक बोला-हे विभो ! मैं इस विकृत शरीरसे शत्रुओंकी सेनामें प्रविष्ट होकर किस प्रकार युद्ध कर सकता हूँ ? अतः अपने पवित्र हाथसे मुझे स्पर्श कीजिये और स्नायु तथा अस्थिशेष इस शरीरको शीघ्र ही मांससे पुष्ट कर दीजिये ॥ २० ॥ सनत्कुमार उवाच श्रुत्वा वचस्तस्य स पद्मयोनिः करेण संस्पृश्य च तच्छरीरम् । गतःसुरेन्द्रैः सहितः स्वधाम सम्पूज्यमानो मुनिसिद्धसङ्घैः ॥ २१ ॥ सनत्कुमार बोले-उसका वचन सुनकर वे ब्रह्मा उसके शरीरका स्पर्श करके मुनियों तथा सिद्धोंसे पूजित होते हुए देवेश्वरोंके साथ अपने धामको चले गये ॥ २१ ॥ संस्पृष्टमात्रः स च दैत्यराजः सम्पूर्णदेहो बलवान् बभूव । सञ्जातनेत्रःसुभगो बभूव हृष्टःस्वमेव नगरं विवेश ॥ २२ ॥ ब्राके स्पर्शमात्रसे ही वह दैत्यराज सम्पूर्ण शरीरवाला तथा बलसम्पन्न हो गया । वह नेत्रयुक्त तथा सुन्दर हो गया और प्रसन्न होकर अपने नगरमें प्रविष्ट हुआ ॥ २२ ॥ उत्सृज्य राज्यं सकलं च तस्मै प्रह्लादमुख्यास्त्वथ दानवेन्द्राः । तमागतं लब्धवरं च मत्वा भृत्या बभूवुर्वश गास्तु तस्य ॥ २३ ॥ तदनन्तर प्रह्लाद आदि सभी दैत्येन्द्र उसे वर प्राप्तकर आया हुआ समझकर सम्पूर्ण राज्य उसके लिये छोड़कर उसके अधीन होकर उसके सेवक हो गये ॥ २३ ॥ ततोन्धकः स्वर्गमगाद्विजेतुं सेनाभियुक्तः सहभृत्यवर्गः । विजित्य लेखान्प्रधने समस्तान् करप्रदं वज्रधरं चकार ॥ २४ ॥ नागान्सुपर्णान्वरराक्षसांश्च गन्धर्वयक्षानपि मानुषांस्तु । गिरीन्द्रवृक्षान्समरेषु सर्वां- श्चतुष्पदः सिंहमुखान्विजिग्ये ॥ २५ ॥ तदनन्तर अन्धकने अपने भृत्यों एवं सेनाओंके साथ विजयकी इच्छासे स्वर्गकी ओर प्रस्थान किया और वहाँ युद्धमें समस्त देवताओंको जीतकर वज्रको धारण करनेवाले इन्द्रको भी करदाता बना दिया । उसने नागों, पक्षियों, बड़े-बड़े राक्षसों, गन्धर्वो, यक्षों, मनुष्यों, पर्वतों, वृक्षों एवं सिंहादि समस्त पशुओंको भी युद्धमें जीत लिया ॥ २४-२५ ॥ त्रैलोक्यमेतद्धि चराचरं वै वशं चकारात्मनि संनियोज्य । ततोऽकूलानि सुदर्शनानि नारीसहस्राणि बहूनि गत्वा ॥ २६ ॥ रसातले चैव तथा धरायां त्रिविष्टपे याः प्रमदाः सुरूपाः । ताभिर्युतोऽन्येषु सपर्वतेषु रराम रम्येषु नदीतटेषु ॥ २७ ॥ उसने इस चराचर त्रैलोक्यपर अधिकार करके उसे अपने वशमें कर लिया । इसके बाद अपने अनुकूल सुन्दर हजारों स्त्रियोंके साथ विहार करता हुआ पाताल, पृथ्वीलोक तथा स्वर्गमें जितनी रूपवती स्त्रियाँ थीं, उनके साथ पर्वतों तथा मनोहर नदीतटोंपर वह रमण करने लगा ॥ २६-२७ ॥ क्रीडायमानःस तु मध्यवर्ती तासां प्रहर्षादथ दानवेन्द्रः । तत्पीतशिष्टानि पिबन्प्रवृत्त्यै दिव्यानि पेयानि सुमानुषाणि ॥ २८ ॥ उनके मध्यमें क्रीड़ा करता हुआ वह दैत्येन्द्र काम-प्रवृत्तिके लिये स्त्रियोंके पीनेसे बचे हुए दिव्य एवं मानुष पेयोंको प्रसन्नताके साथ पीता था ॥ २८ ॥ अन्यानि दिव्यानि तु यद्रसानि फलानि पुष्पाणि सुगन्धवन्ति । सम्प्राप्य यानानि सुवाहनानि मयेन सृष्टानि गृहोत्तमानि ॥ २९ ॥ वह नाना प्रकारके दिव्य रस, फल, सुगन्धित पुष्प प्राप्त करके मय [दानव]-द्वारा निर्मित उत्तम गृहों तथा यानों एवं सुन्दर वाहनोंका सेवन करता था ॥ २९ ॥ पुष्पार्घधूपान्नविलेपनैश्च सुशोभितान्यद्भुतदर्शनैश्च । सङ्क्रीडमानस्य गतानि तस्य वर्षायुतानीह तथान्धकस्य ॥ ३० ॥ अद्भुत दर्शनवाले पुष्प, अर्घ्य, धूप, मिष्टान्न, अंगराग आदिसे युक्त हो क्रीड़ा करते हुए उस अन्धक दैत्यके उत्तम दस हजार वर्ष बीत गये ॥ ३० ॥ जानाति किञ्चिन्न शुभं परत्र यदात्मनःसौख्यकरं भवेद्धि । सदान्धको दैत्यवरःस मूढो मदान्धबुद्धिः कृतदुष्टसङ्गः ॥ ३१ ॥ इस प्रकार भोग करते हुए उसे परलोकमें अपने कल्याण करनेवाले पुण्यका ज्ञान न रहा और वह मूर्ख दैत्यराज मदान्धबुद्धि होकर दुष्टोंके साथ निवास करने लगा ॥ ३१ ॥ ततः प्रमत्तस्तु सुतान्प्रधानान् कुतर्कवादैरभिभूय सर्वान् । चचार दैत्यैःसहितो महात्मा विनाशयन्वैदिकसर्वधर्मान् ॥ ३२ ॥ इसके बाद वह महात्मा प्रमत्त होकर कुतर्कयुक्त बातचीतसे अपने प्रधान पुत्रोंको तिरस्कृतकर सभी वैदिक धर्मोका विनाश करता हुआ दैत्योंके साथ विचारण करने लगा ॥ ३२ ॥ वेदान्द्विजान् वित्तमदाभिभूतो न मन्यते स्माप्यमरान्गुरूंश्च । रेमे तथा दैवगतो हतायुः स्वस्यैरहोभिर्गमयन्वयश्च ॥ ३३ ॥ धनके अहंकारसे मदान्ध वह वेदों, ब्राह्मणों, देवताओं तथा गुरुओंका अपमान करने लगा और दैववश हतायु हो अपनी आयुको स्वेच्छाचारपूर्वक क्षीण करता हुआ रमण करने लगा ॥ ३३ ॥ ततः कदाचिद्गतवान्ससैन्यो बहुप्रयाता पृथिवीतलेऽस्मिन् । अनेकसङ्ख्या अपि वर्षकोट्यः प्रहर्षितो मन्दरपर्वतं तु ॥ ३४ ॥ स्वर्णोपमां तत्र निरीक्ष्य शोभां बभ्राम सैन्यैः सह मानमत्तः । क्रीडार्थमासाद्य च तं गिरीन्द्रं मतिं स वासाय चकार मोहात् ॥ ३५ ॥ इस प्रकार इस पृथ्वीतलपर करोड़ों वर्ष निवास करते हुए वह [अन्धक] किसी समय हर्षित होकर अपनी सेनाके साथ मन्दराचलपर गया और वहाँकी स्वर्णिम शोभा देखकर मानमत्त हो सैनिकोंके साथ घूमने लगा । वह क्रीडाके लिये उस पर्वतपर आकर मोहवश वहाँ निवास करनेका विचार करने लगा ॥ ३४-३५ ॥ शुभं दृढं तत्र पुरं स कृत्वा मुदास्थितो दैत्यपतिः प्रभावात् । निवेशयामास पुनः क्रमेण अत्यद्भुतं मन्दरशैलसानौ ॥ ३६ ॥ उसने अपने पराक्रमसे प्रसन्नतापूर्वक मनोहर एवं दृढ़ नगरका निर्माणकर स्वयं उसके शिखरपर अपने निवासहेतु महासुन्दर भवन बनवाया ॥ ३६ ॥ दुर्योधनो वैधसहस्तिसञ्ज्ञौ तन्मन्त्रिणौ दानवसत्तमस्य । ते वै कदाचिद्गिरिसुस्थले हि नारीं सुरूपां ददृशुस्त्रयोऽपि ॥ ३७ ॥ उस दैत्येन्द्रके दुर्योधन, वैधस तथा हस्ती नामक मन्त्री थे । किसी समय उन तीनों मन्त्रियोंने उस पर्वतशिखरपर एक रूपवती सुन्दर स्त्रीको देखा ॥ ३७ ॥ ते शीघ्रगा दैत्यवरास्तु हर्षाद् द्रुतं महादैत्यपतिं समेत्य । ऊचुर्यथादृष्टमतीव प्रीत्या तथान्धकं वीरवरं हि सर्वे ॥ ३८ ॥ शीघ्रगामी उन सभी दैत्योंने हर्षित होकर उस वीरवर दैत्येन्द्र अन्धकके समीप आकर जैसा देखा था, वैसा प्रेमपूर्वक कहा- ॥ ३८ ॥ मन्त्रिणः ऊचुः गुहान्तरे ध्याननिमीलिताक्षो दैत्येन्द्र कश्चिन्मुनिरत्र दृष्टः । रूदान्वितश्चन्द्रकलार्द्धचूडः कटिस्थले बद्धगजेन्द्रकृत्तिः ॥ ३९ ॥ मन्त्री बोले-हे दैत्येन्द्र ! मन्दराचलकी गुफामें ध्यानमें नेत्र बन्द किये हुए, रूपवान्, चन्द्रकी आधी कलाको मस्तकपर धारण किये तथा कटिप्रदेशमें व्याघ्रचर्म लपेटे हुए कोई मुनि दिखायी पड़े हैं ॥ ३९ ॥ नागेन्द्रभोगावृतसर्वगात्रः कपालमालाभरणो जटालः । स शूलहस्तः शरतूणधारी महाधनुष्मान्विवृताक्षसूत्रः ॥ ४० ॥ खड्गी त्रिशूली लकुटी कपर्दी चतुर्भुजो गौरतराकृतिर्हि । भस्मानुलिप्तो विलसत्सुतेजाः तपस्विवर्योऽद्भुतसर्ववेशः ॥ ४१ ॥ उनके सारे शरीरमें भुजंग लिपटे हुए हैं, वे सिरपर जटा तथा गलेमें कपालकी माला धारण किये हुए हैं, हाथमें त्रिशूल लिये हुए, बाण तथा तरकस धारण किये हुए हैं, महान् धनुष धारण किये हुए और अक्षसूत्र पहने हुए हैं, वे लकुट, त्रिशूल एवं खड्ग धारण किये हुए हैं, वे जटाजूटसे युक्त, चार भुजाओंवाले, गौर वर्णवाले तथा भस्मसे लिप्त हैं, वे महातेजस्वी प्रतीत हो रहे हैं, उनका सम्पूर्ण वेष अद्भत है ॥ ४०-४१ ॥ तस्याविदूरे पुरुषश्च दृष्टः स वानरो घोरमुखःकरालः । सर्वायुधो रूक्षकरश्च रक्षन् स्थितो जरद्गोवृषभश्च शुक्लः ॥ ४२ ॥ उनसे थोड़ी ही दूरपर एक पुरुष दिखायी पड़ा, वह वानरके समान महाभयंकर मुखवाला, विकराल, हाथोंमें सम्पूर्ण अस्त्र लिये उनकी रक्षा करता हुआ स्थित है । वहींपर शुक्लवर्णका एक श्वेत वृद्ध बैल भी है ॥ ४२ ॥ तस्योपविष्टस्य तपस्विनोपि सुचारुरूपा तरुणी मनोज्ञा । नारी शुभा पार्श्वगता हि तस्य दृष्टा च काचिद्भुवि रत्नभूता ॥ ४३ ॥ प्रवालमुक्तामणि हेमरत्न- वस्त्रावृता माल्यशुभोपगूढा । सा येन दृष्टा स च दृष्टिमान्स्याद् दृष्टेन चान्येन किमत्र कार्यम् ॥ ४४ ॥ मान्या महेशस्य च दिव्यनारी भार्या मुनेः पुण्यवतः प्रिया सा । योग्या हि द्रष्टुं भवतश्च सम्य- गानाय्य दैत्येन्द्र सुरत्नभोक्तः ॥ ४५ ॥ हमलोगोंने बैठे हुए उस तपस्वीके निकट पृथ्वीपर रत्नभूता एक सुन्दर रूपवाली मनोहर युवती भी देखी है । वह स्त्री प्रवाल, मुक्तामणि तथा रत्नोंसे निर्मित आभूषणों तथा वस्त्रोंको धारण की हुई है । वह मनोहर मालासे सुशोभित है । जिसने उस महासुन्दरीको देख लिया है, वास्तवमें वही दृष्टिवाला है, उसे देख लेनेपर अन्यको देखनेका कोई प्रयोजन नहीं है । वह दिव्य नारी उन महापुण्यवान् महर्षि महेश्वरकी प्रिया भार्या है । हे दैत्येन्द्र ! आप सुन्दर रत्नोंके भोक्ता हैं, अत: उसे अपने घर लाकर भलीभाँति देखनेमें समर्थ हैं । ४३-४५ ॥ सनत्कुमार उवाच श्रुत्वेति तेषां वचनानि तानि कामातुरो घूर्णितसर्वगात्रः । विसर्जयामास मुनेः सकाशं दुर्योधनादीन्सहसा स दैत्यः ॥ ४६ ॥ सनत्कुमार बोले-उन मन्त्रियोंकी इस बातको सुनकर वह दैत्य कामातुर हो उठा और उसका सारा शरीर घूमने लगा । उसने दुर्योधनादि मन्त्रियोंको उन मुनिके समीप शीघ्र ही भेजा ॥ ४६ ॥ आसाद्य ते तं मुनिमप्रमेयं बृहद्व्रतं मन्त्रिवरा हि तस्य । सुराजनीतिप्रवणा मुनीश प्रणम्य तं दैत्यनिदेशमाहुः ॥ ४७ ॥ हे मुनीश ! उत्तम राजनीतिमें परम प्रवीण उन श्रेष्ठ मन्त्रियोंने महाव्रती एवं अप्रमेय उन मुनिके पास जाकर प्रणाम करके उस दैत्यकी आज्ञा इस प्रकार कही- ॥ ४७ ॥ मन्त्रिण ऊचुः हिरण्यनेत्रस्य सुतो महात्मा दैत्याधिराजोऽन्धकनामधेयः । त्रैलोक्यनाथो भवकृन्निदेशा- दिहोपविष्टोऽद्य विहारशाली ॥ ४८ ॥ मन्त्री बोले-हिरण्याक्षके पुत्र दैत्याधिराज त्रैलोक्य-स्वामी महामना, जिनका नाम अन्धक है; वे ब्रह्माजीकी आज्ञासे विहार करते हुए इस मन्दराचलपर विराजमान हैं ॥ ४८ ॥ तन्मन्त्रिणो वै वयमङ्गवीरा- स्तवोपकण्ठं च समागताः स्मः । तत्प्रेषितास्त्वां यदुवाच तद्वै शृणुष्व सन्दत्तमनास्तपस्विन् ॥ ४९ ॥ हे तपस्विन् ! हम उनके अंगरक्षक तथा मन्त्री हैं, उनके द्वारा भेजे गये हमलोग आपके समीप आये हैं और उन्होंने जो सन्देश दिया है, उसे ध्यान देकर आप सुनें ॥ ४९ ॥ त्वं कस्य पुत्रोऽसि किमर्थमत्र सुखोपविष्टो मुनिवर्य धीमन् । कस्येयमीदृक्तरुणी सुरूपा देया शुभा दैत्यपतेर्मुनीन्द्र ॥ ५० ॥ हे बुद्धिमान् मुनिवर ! आप किसके पुत्र हैं और किस कारण यहाँ सुखपूर्वक बैठे हुए हैं, ऐसी महासुन्दरी यह तरुणी किसकी भार्या है ? हे मुनीन्द्र ! आप इसे शीघ्र ही दैत्यराजको समर्पित कर दें ॥ ५० ॥ क्वेदं शरीरं तव भस्मदिग्धं कपालमालाभरणं विरूपम् । तूणीरसत्कार्मुकबाणखड्ग- भुशुण्डिशूलाशनितोमराणि ॥ ५१ ॥ क्व जाह्नवी पुण्यतमा जटाग्रे क्वायं शशी वा कुणपास्थिखण्डम् । विषानलो दीर्घमुखः क्व सर्पः क्व सङ्गमः पीनपयोधरायाः ॥ ५२ ॥ कहाँ तो भस्मसे लिप्त, कपालमालायुक्त, महाकुरूप तुम्हारा यह शरीर और कहाँ तरकसधनुष-बाण, खड्ग, भुशुण्डी, त्रिशूल, बाण एवं तोमर आदि दिव्यास्त्र । कहाँ जटाके अग्रभागमें परम पवित्र गंगा तथा सिरपर मनोहर चन्द्रमा और कहाँ दुर्गन्धयुक्त अस्थिखण्ड । कहाँ विषवमन करनेवाले दीर्घमुख सर्प और कहाँ सुपुष्ट स्तनवाली स्त्रीका संगम ? ॥ ५१-५२ ॥ जरद्गवारोहणमप्रशस्तं क्षमावतस्तस्य न दर्शनं च । सन्ध्याप्रणामः क्वचिदेष धर्मः क्व भोजनं लोकविरुद्धमेतत् ॥ ५३ ॥ बूढ़े बैलकी सवारी करना प्रशस्त नहीं है, क्षमावान् तपस्वीका ऐसा व्यवहार नहीं देखा जाता और सन्ध्या-वन्दन आदि ही तपस्वियोंका धर्म है, लोकविरुद्ध भोजन उनके लिये निषिद्ध है ॥ ५३ ॥ प्रयच्छ नारीं सम सान्त्वपूर्वं स्त्रिया तपः किं कुरुषे विमूढ । अयुक्तमेतत्त्वयि नानुरूपं यस्मादहं रत्नपतिस्त्रिलोके ॥ ५४ ॥ विमुञ्च शस्त्राणि मयाद्य चोक्तः कुरुष्व पश्चात्तप एव शुद्धम् । उल्लङ्घ्य मच्छासनमप्रधृष्यं विमोक्ष्यसे सर्वमिदं शरीरम् ॥ ५५ ॥ अरे मूर्ख ! तुम इस स्त्रीको शान्तिपूर्वक मुझे समर्पित करो, स्त्रीके साथ तपस्या क्यों कर रहे हो ? यह तुम्हारे लिये अनुचित है और तुम्हारे अनुकूल नहीं है क्योंकि मैं तीनों लोकोंका रत्नपति हूँ । अतः तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि पहले शस्त्रोंका त्याग करो, इसके बाद शुद्ध तप करो । मेरी अलंघनीय आज्ञाका उल्लंघन करनेपर तुम्हें अपने शरीरको छोड़ना पड़ेगा ॥ ५४-५५ ॥ मत्वान्धकं दुष्टमतिप्रधानो महेश्वरो लौकिकभावशीलः । प्रोवाच दैत्यं स्मितपूर्वमेव- माकर्ण्य सर्वं त्वथ दूतवाक्यम् ॥ ५६ ॥ तब लौकिक भावका आश्रयकर जगत्प्रधान शिवजीने उस दूतके सम्पूर्ण वचनको सुनकर अन्धकको दुष्टबुद्धि जानकर हँसते हुए उससे कहा- ॥ ५६ ॥ शिव उवाच यद्यस्मि रुद्रस्तव किं मया स्यात् किमर्थमेवं वदसीति मिथ्या । शृणु प्रभावं मम दैत्यनाथ न्याय्यं न वक्तुं वचनं त्वयैवम् ॥ ५७ ॥ शिवजी बोले-हे दैत्यनाथ ! यदि मैं रुद्र हूँ, तो तुम्हारा मुझसे क्या तात्पर्य है, तुम इस प्रकार मिथ्या क्यों बोलते हो ? तुम्हें ऐसा कहना उचित नहीं, तुम मेरे प्रभावको सुनो ॥ ५७ ॥ नाहं क्वचित्स्वं पितरं स्मरामि गुहान्तरे घोरमनन्यचीर्णम् । एतद् व्रतं पशुपातं चरामि न मातरं त्वज्ञतमो विरूपः ॥ ५८ ॥ मुझे अपने माता-पिताका स्मरण नहीं, इस गुफामें महामूर्ख तथा विकृत रूपवाला मैं अन्योंके लिये दुर्लभ इस घोर पाशुपतव्रतका आचरण करता हूँ ॥ ५८ ॥ अमूलमेतन्मयि तु प्रसिद्धं सुदुस्त्यजं सर्वमिदं ममास्ति । भार्या ममेयं तरुणी सुरूपा सर्वंसहा सर्वगतस्य सिद्धिः ॥ ५९ ॥ मेरे विषयमें ऐसी प्रसिद्धि है कि मूलरहित तथा दुस्त्यज यह सारा जगत् मुझसे ही उत्पन्न हुआ है और सुन्दर रूपवाली, सब कुछ सहनेवाली तथा मुझ सर्वव्यापककी सिद्धिरूपा यह तरुणी मेरी भार्या है ॥ ५९ ॥ एतर्हि यद्यद्रुचितं तवास्ति गृहाण तद्वै खलु राक्षस त्वम् । एतावदुक्त्वा विरराम शम्भुः तपस्विवेषः पुरतस्तु तेषाम् ॥ ६० ॥ हे राक्षस ! इस समय तुम्हें जो-जो अच्छा लगे, उसे तुम ग्रहण करो । उनके सामने ऐसा कहकर तपस्वीवेशधारी सदाशिवने मौन धारण कर लिया । ६० ॥ सनत्कुमार उवाच गम्भीरमेतद्वचनं निशम्य ते दानवास्तं प्रणिपत्य मूर्ध्ना । जग्मुस्ततो दैत्यवरस्य सूनुं त्रैलोक्यनाशाय कृतप्रतिज्ञम् ॥ ६१ ॥ बभाषिरे दैत्यपतिं प्रमत्तं प्रणम्य राजानमदीनसत्त्वाः । ते तत्र सर्वे जयशब्दपूर्वं रुद्रेण यत्तत्स्मितपूर्वमुक्तम् ॥ ६२ ॥ सनत्कुमार बोले-यह गम्भीर वचन सुनकर उन दानवोंने उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया, तदनन्तर त्रैलोक्य-विनाशके लिये प्रतिज्ञा करनेवाले हिरण्याक्षपुत्र अन्धक दैत्यके पास गये । उन सभी पराक्रमी दैत्योंने उस मदोन्मत्त दैत्यपतिको प्रणामकर जयशब्दका उच्चारण करते हुए हँसकर शिवजीने जो बात कही थी, उसे सुनाया ॥ ६१-६२ ॥ मन्त्रिण उचुः निशाचरश्चञ्चलशौर्यधैर्यः क्व दानवः कृपणः सत्त्वहीनः । क्रूरः कृतघ्नश्च सदैव पापी क्व दानवः सूर्यसुताद्बिभेति ॥ ६३ ॥ राजस्त्वमुक्तोऽखिलदैत्यनाथ- स्तपस्विना तन्मुनिना विहस्य । मत्वा स्वबुद्ध्या तृणवत्त्रिलोकं महौजसा वीरवरेण नूनम् ॥ ६४ ॥ क्वाहं च शस्त्राणि च दारुणानि मृत्योश्च सन्त्रासकरं क्व युद्धम् । क्व वीरको वानरवक्त्रतुल्यो निशाचरो जरसा जर्जराङ्गः ॥ ६५ ॥ क्वायं स्वरूपः क्व च मन्दभाग्यो बलं त्वदीयं क्व च वीरुधो वा । शक्तोऽपि चेत्त्वं प्रयतस्व युद्धं कर्तुं तदा ह्येहि कुरुष्व किञ्चित् ॥ ६६ ॥ वज्राशनेस्तुल्यमिहास्ति शस्त्रं भवादृशां नाशकरं च घोरम् । क्व ते शरीरं मृदुपद्मतुल्यं विचार्य चैवं कुरु रोचते यत् ॥ ६७ ॥ मन्त्री [अन्धकासुरसे ] बोले-[हे राजन् ! तपस्वी शिवने आपके विषयमें कहा है कि] निशाचर, अस्थिर वीरता-धीरतावाला, सामर्थ्यरहित, क्रूरकर्मा, कृतघ्न, कृपण तथा सर्वदा पाप करनेवाला वह दानव क्या सूर्यपुत्र यमराजसे नहीं डरता [जो मुझसे युद्धकी इच्छा कर रहा है ?] सभी दैत्योंके स्वामी हे राजन् । अपनी बुद्धिसे त्रैलोक्यको तुणवत् समझनेवाले महान तेजस्वी, तपोनिष्ठ तथा परमवीर उस मुनिने हँसते हुए आपके विषयमें पुन: कहा है-कहाँ तो वृद्धावस्थाके कारण जर्जर अंगोंवाला मैं और कहाँ ये [तुम्हारे] दारुण शस्त्र और मृत्युको भी आतंकित करनेवाला युद्ध ! कहाँ वह वानरके जैसा मुखवाला मेरा गण वीरक और कहाँ [परम समर्थ] वह राक्षस ! कहाँ तो [राक्षसका दुर्धर्ष] वह स्वरूप और कहाँ मन्दभाग्य मैं ! कहाँ तुम्हारा [अतुलनीय] सैन्यबल और कहाँ [ मेरे आश्रयभूत] ये वृक्ष-लता आदि ! इसपर भी यदि तुम अपनेको सामर्थ्य-सम्पन्न मानते हो तो प्रयल करो, युद्ध करनेके लिये यहाँ आओ और कुछ [सामर्थ्य प्रदर्शन] करो । [कहाँ तो] मेरे पास तुमजैसे लोगोंको नष्ट कर देनेवाला महाभयंकर अस्त्र और कहाँ कोमल कमलके समान तुम्हारा शरीर, अतः विचार करके तुम वैसा ही करो, जैसा तुम्हें अच्छा लगता हो ॥ ६३-६७ ॥ इत्येवमादीनि वचांसि भद्रं तपस्विनोक्तानि च दानवेश । युक्तं न ते तेन सहात्र युद्धं त्वामाह राजन्स्मयमान एव ॥ ६८ ॥ हे दैत्यपते ! इस प्रकारके अनेक वचन उस तपस्वीने हंसते हुए आपसे कहे हैं । हे राजन् ! आपके लिये उसके साथ युद्ध करना उचित नहीं है । ६८ ॥ विवस्तुशून्यैर्बहुभिः प्रलापै- रस्माभिरुक्तैर्यदि बुध्यसे त्वम् । तपोभियुक्तेन तपस्विना वै स्मर्तासि पश्चान्मुनिवाक्यमेतत् ॥ ६९ ॥ यदि आप हमलोगोंके द्वारा कहे गये अनुचित तथ्यहीन अनेक कथनोंसे तथा तपमें निरत उस तपस्वीके द्वारा कहे वचनोंसे समझ जाते हैं, तब तो ठीक है, अन्यथा मुनिके इस वचनको आप बादमें याद करेंगे ॥ ६९ ॥ सनत्कुमार उवाच ततः स तेषां वचनं निशम्य जज्वाल रोषेण स मन्दबुद्धिः । आज्यावसिक्तस्त्विव कृष्णवर्त्मा सत्यं हितं तत्कुटिलं सुतीक्ष्णम् ॥ ७० ॥ सनत्कुमार बोले-इसके बाद उनका सत्य, हितकर, कुटिल तथा तीक्ष्ण वचन सुनकर वह मन्दबुद्धि क्रोधसे उसी प्रकार आगबबूला हो गया, जिस प्रकार घी डालनेसे आग प्रज्वलित हो जाती है ॥ ७० ॥ गृहीतखड्गो वरदानमत्तः प्रचण्डवातानुकृतिं च कुर्वन् । गन्तुं च तत्र स्मरबाणविद्धः समुद्यतोऽभूद्विपरीतदेवः ॥ ७१ ॥ तदनन्तर प्रतिकूल भाग्यवाला, वरदानसे प्रमत्त तथा कामबाणसे बिंधा हुआ वह दैत्य खड्ग लेकर पवनके समान वेगसे वहाँ जानेको उद्यत हो गया । ७१ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे अन्धकगाणपत्यलाभोपाख्याने दूतसंवादो नाम चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४४ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुजसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें अन्धकगाणपत्यपदलाभोपाख्यानमें दूतसंवादवर्णन नामक बौवालीसवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४४ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |