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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः

युद्धप्रारम्भदूतसम्वादवर्णनम् -
अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध -


सनत्कुमार उवाच
गतस्ततो मत्तगजेन्द्रगामी
    पीत्वा सुरां घूर्णितलोचनश्च ।
महानुभावो बहुसैन्ययुक्तः
    प्रचण्डवीरो वरवीरयायी ॥ १ ॥
सनत्कुमार बोले-[हे व्यास !] तदनन्तर मदिरा पानकर नेत्रोंको घुमाता हुआ मदमत्त गजके समान गतिवाला तथा श्रेष्ठ वीरोंके साथ चलनेवाला वह प्रचण्ड वीर बहुत-सी सेनासे युक्त हो वहाँ गया ॥ १ ॥

ददर्श दैत्यः स्मरबाणविद्धो
    गुहां ततो वीरकरुद्धमार्गाम् ।
स्निग्धं यथा वीक्ष्य पतङ्‌गसंज्ञः
    दशाप्रदीपं च कृमिर्ह्युपेत्य ॥ २ ॥
कामके बाणसे बिधे हुए उस दैत्यने वीरकके द्वारा अवरुद्ध मार्गवाली उस गुफाको उसी प्रकार देखा, जैसे तैलपूर्ण जलते हुए दीपकको प्रेमपूर्वक देखकर उसे प्राप्तकर पतंग विनष्ट हो जाता है ॥ २ ॥

तथा प्रदर्श्याशु पुनः पुनश्च
    सम्पीड्यमानोपि स वीरकेण ।
बभूव कामाग्निसुदग्धदेहोऽ
    न्धको महादैत्यपतिः स मूढः ॥ ३ ॥
पाषाणवृक्षाशनितोयवह्नि-
    भुजङ्‌गशस्त्रास्त्रविभीषिकाभिः ।
सम्पीडितोऽसौ न पुनः प्रपीड्यः
    पृष्टश्च कस्त्वं समुपागतोसि ॥ ४ ॥
निशम्य तद्‌ गां स्वमतं स तस्मै
    चकार युद्धं स तु वीरकेण ।
मुहूर्तमाश्चर्यवदप्रमेयं
    सङ्‌ख्ये जितो वीरतरेण दैत्यः ॥ ५ ॥
ततस्तु सङ्‌ग्रामशिरो विहाय
    क्षुत्क्षामकण्ठस्तृषितो गतोऽभूत् ।
चूर्णीकृते खड्गवरे च खिन्ने
    पलायमानो गतविस्मयः सः ॥ ६ ॥
उसी प्रकार बार-बार देखकर वीरकके द्वारा पीड़ित किये जानेपर भी वह मूर्ख महादैत्यपति अन्धक कामाग्निसे दग्ध शरीरवाला हो गया । वीरकने पाषाण, वृक्ष, वड, जल, अग्नि, सर्प एवं अस्त्रशस्त्रोंसे उसे पीड़ा पहुँचायी और पुनः पीड़ित करके पूछा कि तुम कौन हो और कहाँसे आये हो ? उसका वचन सुनकर अन्धकने अपना अभिप्राय प्रकट किया और उस वीरकके साथ युद्ध करने लगा । आश्चर्य है कि उस अप्रमेय महावीर वीरकने अन्धकको एक मुहूर्तमें युद्धमें जीत लिया । महान् खड्गके चूर-चूर हो जानेपर दुखी तथा विस्मयरहित वह अन्धक युद्धभूमि छोड़कर भूख-प्याससे व्याकुल हो भाग खड़ा हुआ ॥ ३-६ ॥

चक्रुस्तदाजिं सह वीरकेण
    प्रह्लादमुख्या दितिजप्रधानाः ।
लज्जाङ्‌कुशाकृष्टधियो बभूवुः
    सुदारुणाः शस्त्रशतैरनेकैः ॥ ७ ॥
तत्पश्चात् प्रह्लाद आदि प्रधान दैत्य उसके साथ युद्ध करने लगे, किंतु अत्यन्त भयंकर वे दैत्य अनेक शस्त्रास्त्रोंसे लड़ते हुए पराजित होनेके कारण लजित हो गये ॥ ७ ॥

विरोचनस्तत्र चकार युद्धं
    बलिश्च बाणश्च सहस्रबाहुः ।
भजिः कुजम्भस्त्वथ शम्बरश्च
    वृत्रादयश्चाप्यथ वीर्यवन्तः ॥ ८ ॥
ते युद्ध्यमाना विजिताः समन्ताद्
    द्विधाकृता वै गणवीरकेण ।
शेषे हतानां बहुदानवाना-
    मुक्तं जयत्येव हि सिद्धसङ्‌घैः ॥ ९ ॥
तब विरोचन, बलि, हजारों भुजाओंवाला बाण, भजि, कुजम्भ, शम्बर एवं वृत्र आदि पराक्रमी दैत्य युद्ध करने लगे । चारों ओरसे घेरकर युद्ध करते हुए उन दैत्योंको शिवके गण वीरकने पराजित कर दिया । उनके दो टुकड़े कर दिये । बहुतसे दानवोंके मर जानेपर और कुछके शेष रहनेपर सिद्धसंघोंने जयजयकार किया । ८-९ ॥

भेरुण्डजानाभिनयप्रवृत्ते
    मेदोवसामांससुपूयमध्ये ।
क्रव्यादसङ्‌घातसमाकुले तु
    भयङ्‌करे शोणितकर्दमे तु ॥ १० ॥
भग्नैस्तु दैत्यैर्भगवान् पिनाकी
    व्रतं महापाशुपतं सुघोरम् ।
प्रियेः मया यत्कृतपूर्वमासी-
    द्दाक्षायणीं प्राह सुसान्त्वयित्वा ॥ ११ ॥
मेदा, मांस, पीवसे महाभयंकर उस युद्धके बीच गीदड़ आनन्दसे नाचने लगे एवं रुधिरके भयंकर कीचड़में [विचरण करते हुए] मांसाहारी जन्तुओंसे सारी रणभूमि भयंकर दिखायी पड़ने लगी । उस समय वीरकद्वारा दैत्योंके विनष्ट हो जानेपर भगवान् सदाशिवने दाक्षायणीको सान्त्वना देकर कहा-हे प्रिये ! मैंने पूर्वमें जिस कठिन महापाशुपत व्रतको किया था, उसे करने जा रहा हूँ ॥ १०-११ ॥

शिव उवाच
तस्माद्‌बलं यन्मम तत्प्रणष्टं
    मर्त्यैरमर्त्यस्य यतः प्रपातः ।
पुण्यक्षयाही ग्रह एव जातो
    दिवानिशं देवि तव प्रसङ्‌गात् ॥ १२ ॥
शिवजी बोले-हे देवि ! रात-दिन तुम्हारे साथ प्रसंगके कारण मेरी सेनाका क्षय हो गया, मरणधर्मा दैत्योंके द्वारा मेरी अमर्त्य सेनाका विनाश हुआ, यह किसी पुण्यनाशक ग्रहका ही प्रभाव है ॥ १२ ॥

उत्पाद्य दिव्यं परमाद्‌भुतं तु
    पुनर्वरं घोरतरं च गत्वा ।
तस्माद् व्रतं घोरतरं चरामि
    सुनिर्भयः सुन्दरि वै विशोका ॥ १३ ॥
हे सुन्दरि ! अब मैं वनमें जाकर परम दिव्य एवं अद्‌भुत वर प्राप्तकर अत्यन्त कठिन व्रत करूँगा, तुम पूर्णरूपसे भयरहित तथा शोकविहीन रहना ॥ १३ ॥

सनत्कुमार उवाच
एतावदुक्त्वा वचनं महात्मा
    उत्पाद्य घोषं शनकैश्चकार ।
स तत्र गत्वा व्रतमुग्रदीप्तो
    गतो वनं पुण्यतमं सुघोरम् ॥ १४ ॥
सनत्कुमार बोले-इतना वचन कहकर अत्यन्त तेजस्वी महात्मा शंकर [अपने शृंगीका] धीरेसे शब्द करके अत्यन्त घोर पुण्यतम वनमें जाकर पाशुपतव्रतका अनुष्ठान करने लगे ॥ १४ ॥

चर्तुं हि शक्यं तु सुरासुरैर्य-
    न्न तादृशं वर्षसहस्रमात्रम् ।
सा पार्वती मन्दरपर्वतस्था
    प्रतीक्ष्यमाणागमनं भवस्य ॥ १५ ॥
पतिव्रता शीलगुणोपपन्ना
    एकाकिनी नित्यमथो विभीता ।
गुहान्तरे दुःखपरा बभूव     संरक्षिता सा सुतवीरकेण ॥ १६ ॥
जिस व्रतको देवता एवं दानव भी करनेमें समर्थ नहीं हैं, उसे उन्होंने हजार वर्षपर्यन्त किया । उस समय पतिव्रता तथा शीलगुणसे सम्पन्न पार्वती मन्दर पर्वतपर स्थित हो सदाशिवके आगमनकी प्रतीक्षा करती हुई अकेले गुफाके अन्दर सदा भयभीत तथा दुखी रहा करती थीं, उस समय पुत्र वीरक ही उनकी रक्षा करता था ॥ १५-१६ ॥

ततःस दैत्यो वरदानमत्तः
    तैर्योधमुख्यैःसहितो गुहां ताम् ।
विभिन्नधैर्यः पुनराजगाम
    शिलीमुखैर्मारसमुद्‌भवैश्च ॥ १७ ॥
इसके बाद वरदानसे उन्मत्त तथा कामदेवके बाणोंसे धैर्यरहित वह दैत्य बड़ी शीघ्रतासे प्रह्लाद आदि दैत्योंके साथ उस गुफाके पास आ गया ॥ १७ ॥

अत्यद्‌भुतं तत्र चकार युद्धं
    हित्वा तदा भोजनपाननिद्राः ।
रात्रिं दिवं पञ्चशतानि पञ्च
    क्रुद्धः ससैन्यैः सह वीरकेण ॥ १८ ॥
खड्गैः सकुन्तैःसह भिन्दिपालैः
    गदाभुशुण्डीभिरथो प्रकाण्डैः ।
शिलीमुखैरर्द्धशशीभिरुग्रै-
    र्वितस्तिभिः कूर्ममुखैर्ज्वलद्‌भिः ॥ १९ ॥
नाराचमुख्यै निशितैश्च शूलैः
    परश्वधैस्तोमरमुद्‌गरैश्च ।
खड्गैर्गुडैः पर्वतपादपैश्च
    दिव्यैरथास्त्रैररपि दैत्यसङ्‌घैः ॥ २० ॥
उसने भोजन, पान एवं निद्राका परित्यागकर कुपित हो अपने सैनिकोंको साथ लेकर पाँच-सौपाँच रात-दिन वीरकके साथ अत्यन्त अद्‌भुत युद्ध किया । खड्ग, बरछी, भिन्दिपाल, गदा, भुशुण्डी, अर्ध चन्द्रमाके समान, वितस्तिमात्र तथा कछुएके समान मुखवाले प्रकाशमान बाणों, तीक्ष्ण त्रिशूलों, परशु, तोमर, मुद्‌गर, खड्ग, गोले, पर्वत, वृक्ष तथा दिव्यास्त्रोंसे उस वीरकने दैत्योंके साथ युद्ध किया ॥ १८-२० ॥

न दीधितिर्भिन्नतनुः पपात
    द्वारं गुहाया पिहितं समस्तम् ।
तैरायुधैर्दैत्यभुजप्रयुक्तै-
    र्गुहामुखे मूर्छित एव पश्चात् ॥ २१ ॥
दैत्योंद्वारा चलाये गये उन शस्त्रोंसे गुफाके द्वार बन्द हो गये, कहीं लेशमात्र भी प्रकाश नहीं रहा, वीरक भी शस्त्रोंकी चोटसे आहत होकर गुफाके द्वारपर मूञ्छित होकर गिर पड़ा ॥ २१ ॥

आच्छादितं वीरकमस्त्रजालै-
    र्दैत्यैश्च सर्वैस्तु मुहूर्तमात्रम् ।
अपावृतं कर्तुमशक्यमासी-
    न्निरीक्ष्य देवी दितिजान् सुघोरान् ॥ २२ ॥
भयेन सस्मार पितामहं तु
    देवी सखीभिः सहिता च विष्णुम् ।
सैन्यं च मद्वीरवरस्य सर्वं
    सस्मारयामास गुहान्तरस्था ॥ २३ ॥
सभी दैत्योंसे तथा उनके अस्त्रोंसे मुहूर्तमात्रके लिये वीरकको आच्छादित देखकर तथा यह देखकर कि यह भयंकर दैत्योंको हटा नहीं पा रहा है, गुफामें स्थित देवीने भयपूर्वक सखियोंके साथ ब्रह्मा, विष्णु तथा समस्त गणोंकी सेनाका स्मरण किया ॥ २२-२३ ॥

ब्रह्मा तया संस्मृतमात्र एव
    स्त्रीरूपधारी भगवांश्च विष्णुः ।
इन्द्रश्च सर्वेः सह सैन्यकैश्च
    स्त्रीरूपमास्थाय समागतास्ते ॥ २४ ॥
भूत्वा स्त्रियस्ते विविशुस्तदानीं
    मुनीन्द्रसङ्‌घाश्च महानुभावाः ।
सिद्धाश्च नागास्त्वथ गुह्यकाश्च
    गुहान्तरं पर्वतराजपुत्र्याः ॥ २५ ॥
उनके स्मरणमात्रसे ही ब्रह्मा, भगवान् विष्णु तथा इन्द्र सभी सैनिकोंके साथ स्त्रीरूप धारणकर वहाँ आ गये । स्त्री बनकर वे देवता, मुनि, महात्मा, सिद्ध, नाग तथा गुह्यक पर्वतराजकी पुत्रीको गुफाके भीतर प्रविष्ट हुए ॥ २४-२५ ॥

यस्मात्सुराज्य सनसंस्थिताना-
    मन्तः पुरे सङ्‌गमनं विरुद्धम् ।
ततःसहस्राणि नितम्बिनीना-
    मनन्तसङ्‌ख्यान्यपि दर्शयन्त्यः ॥ २६ ॥
रूपाणि दिव्यानि महाद्‌भुतानि
    गौर्ये गुहायां तु सवीरकार्यैः ।
स्त्रियः प्रहृष्टा गिरिराजकन्या
    गुहान्तरं पर्वतराजपुत्र्या ॥ २७ ॥
उनके स्त्रीरूप धारण करनेका कारण यह था कि उत्तम राजाके आसनस्थ होनेपर उसके अन्तःपुरमें पुरुषवेशमें जाना निषिद्ध है, इसलिये वे स्त्रीसमूहके रूपमें एकत्रित हो गये । वीरकार्य करनेवाली ये अद्‌भुत रूपवाल्ली स्त्रियाँ जब पार्वतीकी गुफामें प्रविष्ट हुईं, तो उन स्त्रियोंको देखकर पार्वती अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं ॥ २६-२७ ॥

स्त्रीभिःसहस्रैश्च शतैरनेकै-
    र्नेदुश्च कल्पान्तरमेघघोषाः ।
भेर्यश्च सङ्‌ग्रामजयप्रदास्तु
    ध्माताःसुशङ्‌खाः सुनितम्बिनीभिः ॥ २८ ॥
उस समय सैकड़ों हजारों नितम्बिनी स्त्रियोंके द्वारा प्रलयकालीन प्रचण्ड मेघके समान घोषवाली तथा विजय देनेवाली हजारों भेरियाँ और शंख बजाये गये ॥ २८ ॥

मूर्छां विहायाद्‌भुत चण्डवीर्यः
    स वीरको वै पुरतः स्थितस्तु ।
प्रगृह्य शस्त्राणि महारथानां
    तैरेव शस्त्रैर्दितिजान् जघान ॥ २९ ॥
अद्‌भुत तथा प्रचण्ड पराक्रमवाला वीरक भी मूर्छा त्यागकर शस्त्रको लेकर महारथियोंके आगे खड़ा हो गया और उन्हीं शस्त्रोंसे दैत्योंका वध करने लगा ॥ २९ ॥

ब्राह्मी ततो दण्ड करा विरुद्धा
    गौरी तदा क्रोधपरीतचेताः ।
नारायणी शङ्‌खगदासुचक्र-
    धनुर्द्धरा पूरितबाहुदण्डा ॥ ३० ॥
विनिर्ययौ लाङ्‌गलदण्डहस्ता
    व्योमालका काञ्चनतुल्यवर्णा ।
धारासहस्राकुलमुग्रवेगं
    बैडौजसी वज्रकरा तदानीम् ॥ ३१ ॥
उस समय हाथमें दण्ड लिये हुए ब्राह्मी, क्रोधसे युक्त चित्तवाली गौरी, अपने हाथों में शंख, गदा, चक्र तथा धनुष धारण की हुई नारायणी, हाथमें लांगल, दण्ड लिये कांचनके समान वर्णवाली व्योमालका तथा हाथमें हजारों धारवाले, प्रचण्ड वेगसे युक्त, उग्र वेगवाले वनको लिये हुए ऐन्द्री युद्धहेतु निकल पड़ीं ॥ ३०-३१ ॥

सहस्रनेत्रा युधि सुस्थिरा च
    सुदुर्जया दैत्यशतैरधृष्या ।
वैश्वानरी शक्तिरसौम्यवक्त्रा
    याम्या च दण्डोद्यतपाणिरुग्रा ॥ ३२ ॥
हजार नेत्रोंवाली, युद्धमें निश्चल रहनेवाली, अत्यन्त दुर्जय, सैकड़ों दैत्योंसे कभी पराजित न होनेवाली तथा भयंकर मुखवाली वैश्वानरी तथा हाथमें दण्ड लिये हुए उग्र याम्या शक्ति भी युद्धमें प्रवृत्त हो गयीं ॥ ३२ ॥

सुतीक्ष्णखङ्‌गोद्यतपाणिरूपा
    समाययौ नैर्ऋतिघोरचापा ।
तोयालिका वारणपाशहस्ता
    विनिर्गता युद्धमभीप्समाना ॥ ३३ ॥
प्रचण्डवातप्रभवा च देवी
    क्षुधावपुस्त्वङ्‌कुशपाणिरेव ।
कल्पान्तवह्निप्रतिमां गदां च
    पाणौ गृहीत्वा धनदोद्‌भवा च ॥ ३४ ॥
यक्षेश्वरी तीक्ष्णमुखा विरूपा
    नखायुधा नागभयङ्‌करी च ।
एतास्तथान्याः शतशो हि देव्यः
    सुनिर्गताः सङ्‌कुलयुद्धभूमिम् ॥ ३५ ॥
हाथमें अत्यन्त तीक्ष्ण तलवार तथा घोर धनुष लेकर निति शक्ति आयीं । वरुणका पाश हाथमें धारणकर युद्धकी अभिलाषा करती हुई तोयालिका निकल पड़ी । प्रचण्ड पवनकी महाशक्ति भूखसे व्याकुल हो हाथमें अंकुश लेकर एवं कुबेरकी शक्ति हाथमें प्रलयकालकी अग्निके समान गदा लेकर युद्धभूमिमें आ पहुँची । तीक्ष्ण मुखवाली, कुरूपा, नखरूप आयुधवाली, नागके समान भयंकर यक्षेश्वरी आदि देवियाँ तथा इसी प्रकारकी अन्य सैकड़ों देवियाँ संग्रामभूमिमें निकल पड़ी ॥ ३३-३५ ॥

दृष्ट्‍वा च तत्सैन्यमनन्तपारं
    विवर्णवर्णाश्च सुविस्मिताश्च ।
समाकुलाः सञ्चकिता भयाद्वै
    देव्यो बभूबुर्हृददीनसत्त्वाः ॥ ३६ ॥
चक्रुः समाधाय मनः समस्ताः
    ता देववध्वो विधिशक्तिमुख्याः ।
सुसंमतत्वेन गिरीशपुत्र्याः
    सेनापतिर्वीरसुघोरवीर्यः ॥ ३७ ॥
चक्रुर्महायुद्धमभूतपूर्वं
    निधाय बुद्धौ दितिजाः प्रधानाः ।
निवर्तनं मृत्युमथात्मनश्च
    नारीभिरन्ये वरदानसत्त्वाः ॥ ३८ ॥
अत्यद्‌भुतं तत्र चकार युद्धं
    गौरी तदानीं सहिता सखीभिः ।
कृत्वा रणे चाद्‌भुतबुद्धिशौण्डं
    सेनापतिं वीरकघोरवीर्यम् ॥ ३९ ॥
उसकी अपार सेना देखकर वे देवियाँ विस्मित, भयसे व्याकुल, फीके वर्णवाली तथा अत्यन्त कातर हो गयीं । उसके बाद ब्रह्माणी आदि सभी देवशक्तियोंने पार्वतीको सम्मतिसे अपने मनको समाहितकर वीरकको अपना सेनापति बनाया । इसके बाद वरदानसे शक्तिसम्पन्न प्रधान दैत्य मनमें यह विचारकर अभूतपूर्व युद्ध करने लगे कि आज इन नारियोंसे हम मृत्युको प्राप्त होंगे अथवा इनपर विजय प्राप्त करेंगे । उस समय संग्रामभूमिमें अद्‌भुत बुद्धिसम्पन्न वीरकको अपना सेनापति बनाकर पार्वतीने सखियोंके साथ युद्धमें अद्‌भुत युद्धकौशल दिखलाया ॥ ३६-३९ ॥

हिरण्यनेत्रात्मज एव भूप-
    श्चक्रे महाव्यूहमरं सुकर्मा ।
सम्भाव्य विष्णुं च निरीक्ष्य याम्यां
    सुदारुणं तद्‌गिलनामधेयम् ॥ ४० ॥
महापराक्रमी हिरण्याक्षपुत्र राजा अन्धकने भी महाव्यूहकी रचना की और विष्णुकी सम्भावना करके यमकी शक्तिको अवस्थित देखकर [उनसे लड़नेके लिये] महाभयंकर गिल नामक राक्षसको नियुक्त किया ॥ ४० ॥

मुखं करालं विधिसेवयास्य
    तस्मिन् कृते भगवानाजगाम ।
कल्पान्तघोरार्कसहस्रकान्ति-
    कीर्णञ्च वै कुपितः कृत्तिवासाः ॥ ४१ ॥
गते ततो वर्षसहस्रमात्रे
    तमागतं प्रेक्ष्य महेश्वरं च ।
चक्रुर्महायुद्धमतीवमात्रं
    नार्यः प्रहृष्टाःसह वीरकेण ॥ ४२ ॥
ब्रह्माजीकी सेवा करनेसे उसका मुख अत्यन्त विकराल हो गया था, इसीलिये उसे मारनेके लिये भगवान् विष्णु आये । उसी समय हजार वर्ष बीत जानेपर प्रलयकालीन हजारों सूर्यके समान कान्तिवाले व्याघ्रचर्मधारी भगवान् शिवजी भी कुपित होकर युद्धभूमिमें आये । तब उन महेश्वरको युद्धभूमिमें आया देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुई उन स्त्रियोंने वीरकको साथ लेकर महायुद्ध किया ॥ ४१-४२ ॥

प्रणम्य गौरी गिरिशं च मूर्ध्ना
    सन्दर्शयन् भर्तुरतीव शौर्यमम् ।
गौरी प्रयुद्धं च चकार हृष्टा
    हरस्ततः पर्वतराजपुत्रीम् ॥ ४३ ॥
कण्ठे गृहीत्वा तु गुहां प्रविष्टो
    रमासहस्राणि विसर्जितानि ।
गौरी च सम्मानशतैः प्रपूज्य
    गुहामुखे वीरकमेव स्थापयन् ॥ ४४ ॥
उस समय सिर झुकाकर सदाशिवको प्रणाम करके पतिका पराक्रम प्रदर्शित करती हुई गौरीने प्रसन्नतापूर्वक घोर युद्ध किया । उसके बाद शंकरजी पार्वतीको हृदयसे लगाकर गुफाके भीतर प्रविष्ट हो गये । पार्वतीने उन हजारों स्त्रियोंको अनेक प्रकारसे सम्मानितकर विदा किया और वीरकको गुफाके द्वारपर रहने दिया ॥ ४३-४४ ॥

ततो न गौरीं गिरिशं च दृष्ट्‍वा-
    सुरेश्वरो नीतिविचक्षणो हि ।
द्रुतं स्वदूतं विधसाख्यमेव
    स प्रेषयामास शिवोपकण्ठम् ॥ ४५ ॥
उसके बाद नीतिमें विचक्षण उस असुरने गौरी एवं गिरीशको संग्रामभूमिमें न देखकर शिवजीके पास विषस नामक अपना दूत भेजा ॥ ४५ ॥

तैस्तैः प्रहारैरपि जर्ज राङ्‌ग-
    स्तस्मिन् रणे देवगणेरितैर्यः ।
जगाद वाक्यं तु सगर्वमुग्रं
    प्रविश्य शम्भुं प्रणिपत्य मूर्ध्ना ॥ ४६ ॥
उस संग्राममें देवताओंके प्रहारसे क्षत-विक्षत शरीरवाले उस दैत्यने शिवजीके पास जाकर उन्हें सिरसे प्रणामकर गर्वयुक्त कठोर वचन कहा- ॥ ४६ ॥

दूत उवाच
सम्प्रेषितोहं विविशे गुहां तु
    ह्यषौऽन्धकस्त्वां समुवाच वाक्यम् ।
नार्या न कार्यं तव किञ्चिदस्ति-
    विमुच नारीं तरुणीं सुरूपाम् ॥ ४७ ॥
दूत बोला-हे शम्भो ! अन्धकद्वारा भेजा गया मैं इस गुफामें प्रविष्ट हुआ हूँ । उस अन्धकने आपको सन्देश भेजा है कि तुम्हें स्त्रीसे कोई प्रयोजन नहीं है, अतः इस रूपवती युवती नारीको शीघ्र त्याग दो ॥ ४७ ॥

प्रायोभवांस्तापसस्तज्जुषस्व
    क्षान्तं मया यत्कमनीयमन्तः ।
मुनिर्विरोधव्य इति प्रचिन्त्य
    न त्वं मुनिस्तापस किं तु शत्रुः ॥ ४८ ॥
अतीव दैत्येषु महाविरोधी
    युध्यस्व वेगेन मया प्रमथ्य ।
नयामि पातालतलानुरूपं
    यमक्षयं तापस धूर्त हि त्वाम् ॥ ४९ ॥
प्रायः आप तपस्वीको अन्त:करणको भूषित करनेवाले क्षमा आदि गुणोंका सेवन करना चाहिये । मुनियोंसे विरोध नहीं करना चाहिये-ऐसा विचारकर मैं तुमसे विरोध नहीं करना चाहता, वस्तुतः तुम तपस्वी मुनि नहीं हो, किंतु शत्रु हो । हे धूर्त तापस ! तुम हम दैत्योंके महाविरोधी शत्रु हो, अत: शीघ्रतासे मेरे साथ युद्ध करो, मैं आज ही तुम्हारा वध करके तुम्हें रसातल पहुँचाता हूँ ॥ ४८-४९ ॥

सनत्कुमार उवाच
एतद्वचो दूतमुखान्निशम्य
    कपालमाली तमुवाच कोपात् ।
ज्वलन्विषादेन महांस्त्रिनेत्रः
    सतां गतिर्दुष्टमदप्रहर्ता ॥ ५० ॥
सनत्कुमार बोले-दूतके मुखसे ये वचन सुनकर सज्जनोंके रक्षक, दुष्टोंके मदको नष्ट करनेवाले, कपालमाली, महान्, त्रिनेत्र शम्भु शोकाग्निसे जलते हुए बड़े क्रोधसे उस दूतसे कहने लगे- ॥ ५० ॥

शिव उवाच
व्यक्तं वचस्ते तदतीव चोग्रं
    प्रोक्तं हि तत्त्वं त्वरितं प्रयाहि ।
कुरुष्व युद्धं हि मया प्रसह्य
    यदि प्रशक्तोसि बलेन हि त्वम् ॥ ५१ ॥
शिवजी बोले-[हे दूत !] तुमने जो बात कही है, वह बड़ी कठोर है । अब तुम शीघ्र चले जाओ और उससे कहो-यदि तुम बलवान् हो तो शीघ्र आकर मेरे साथ बलपूर्वक युद्ध करो ॥ ५१ ॥

यः स्यादशक्तो भुवि तस्य कोर्थो
    दारैर्धनैर्वा सुमनोहरैश्च ।
आयान्तु दैत्याश्च बलेन मत्ता
    विचार्यमेवं तु कृतं मयै तत् ॥ ५२ ॥
शरीरयात्रापि कुतस्त्वशक्तेः
    कुर्वन्तु यद्यद्विहितं तु तेषाम् ।
ममापि यद्यत्करणीयमस्ति
    तत्तत्त्करिष्यामि न संशऽयोत्र ॥ ५३ ॥
इस पृथ्वीपर जो अशक्त है, उसे मनोहर स्त्री तथा धनसे क्या प्रयोजन ? बलसे मत्त दैत्य आ जायें मैंने यह निश्चय किया है । अशक्त पुरुष तो शरीरयात्रामें भी असमर्थ हैं, अतः उनके लिये जो विहित हो, उसे करें और मुझे भी जो करना है, उसे मैं करूँगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५२-५३ ॥

सनत्कुमार उवाच
एतद्वचस्तद्विधसोपि तस्मा-
    च्छ्रुत्वा हरान्निर्गत एव हृष्टः ।
प्रागात्ततो गर्जितहुङ्‌कृतानि
    कुर्वंस्ततो दैत्यपतेः सकाशम् ॥ ५४ ॥
सनत्कुमार बोले-शिवजीसे यह वचन सुनकर वह विषस भी प्रसन्न होकर वहाँसे निकल पड़ा और उसके बाद गर्जनापूर्वक हुंकार भरता हुआ दैत्यपतिके पास गया ॥ ५४ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे
युद्धखण्डे युद्धप्रारम्भदूतसम्वादवर्णनंनाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४५ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें युद्धप्रारम्भ दूतसंवादवर्णन नामक पैंतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४५ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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