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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

षट्‌चत्वारिंशोऽध्यायः

अन्धकवधोपाख्याने अन्धकयुद्धवर्णनम् -
भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना -


सनत्कुमार उवाच
तस्येङ्‌गितज्ञश्च स दैत्यराजो
    गदां गृहीत्वा त्वरितः ससैन्यः ।
कृत्वाथ साऽग्रे गिलनामधेयं
    सुदारुणं देववरैरभेद्यम् ॥ १ ॥
गुहामुखं प्राप्य महेश्वरस्य
    बिभेद शस्त्रैरशनिप्रकाशैः ।
अन्ये ततो वीरकमेव शस्त्रै-
    रवाकिरन् शैलसुतां तथान्ये ॥ २ ॥
द्वारं हि केचिद्रुचिरं बभञ्जुः
    पुष्पाणि पत्राणि विनाशयेयुः ।
फलानि मूलानि जलं च हृद्य-
    मुद्यानमार्गानपि खण्डयेयुः ॥ ३ ॥
विलोडयेयुर्मुदिताश्च केचि-
    च्छृङ्‌गाणि शैलस्य च भानुमन्ति ।
सनत्कुमार बोले-हे व्यास ! शिवजीका अभिप्राय जानकर उस दैत्यराजने गदा लेकर देवगणोंसे सर्वथा अभेद्य गिल नामक दैत्यको आगेकर सेनाके सहित शीघ्र शिवजीकी गुफाके दरवाजेपर पहुँचकर वज्रके समान तीखे शस्त्रोंसे प्रहार करना प्रारम्भ कर दिया, कुछ दैत्योंने वीरकपर और कुछ दैत्योंने पार्वतीपर शस्त्रोंसे प्रहार किया । कुछ दैत्योंने गुफाके मनोहर द्वारको तोड़ दिया, कुछने द्वारपर लगे पत्र, पुष्प, फल, मूल तथा मनोहर जल एवं उद्यानमार्गोको नष्ट कर दिया । कुछने प्रसन्न होकर पर्वतके दीप्तिमान् शिखरोंको तोड़ दिया ॥ १-३ १/२ ॥

ततो हरः सस्मृतवान् स्वसैन्यं
    समाह्वयन् कुपितः शूलपाणिः ॥ ४ ॥
भूतानि चान्यानि सुदारुणानि
    देवान्ससैन्यान्सह विष्णुमुख्यान् ।
आहूतमात्रानुगणाःससैन्या
    रथैर्गजैर्वाजिवृषैश्च गोभिः ॥ ५ ॥
उष्ट्रैः खरैः पक्षिवरैश्च सिंहैः
    ते सर्वदेवाः सहभूतसङ्‌घैः ।
व्याघ्रैमृगैः सूकरसारसैश्च
    समीनमत्स्यैः शिशुमारमुख्यैः ॥ ६ ॥
अन्यैश्च नाना विधजीवसङ्‌घै-
    र्विशीर्णदंशाः स्फुटितैः श्मशानैः ।
भुजङ्‌गमैः प्रेतशतैः पिशाचै-
    र्दिव्यैर्विमानैः कमलाकरैश्च ॥ ७ ॥
नदीनदैः पर्वतवाहनैश्च
    समागताः प्राञ्जलयः प्रणम्य ।
कपर्दिनं तस्थुरदीनसत्त्वाः
    सेनापतिं वीरकमेव कृत्वा ॥ ८ ॥
विसर्जयामास रणाय देवान्
    विश्रान्तवाहानथ तत्पिनाकी ।
युद्धे स्थिरं लब्धजयं प्रधानं
    सम्प्रेषितास्ते तु महेश्वरेण ॥ ९ ॥
चक्रुर्युगान्तप्रतिमं च युद्धं
    मर्यादहीनं सगिलेन सर्वे ।
दैत्येन्द्रसैन्येन सदैव घोरं
    क्रोधान्निगीर्णास्त्रिदशास्तु सङ्‌ख्ये ॥ १० ॥
तस्मिन्क्षणे युध्यमानाश्च सर्वे
    ब्रह्मेन्द्रविष्ण्वर्कशशाङ्‌कमुख्याः ।
आसन्निगीर्णा विधसेन तेन
    सैन्ये निगीर्णेऽस्ति तु वीरको हि ॥ ११ ॥
तदनन्तर त्रिशूलधारी शिवजीने कुपित होकर अपनी सेनाका, दारुण भूतगणोंका तथा सैन्यसहित विष्णु आदि देवगणोंका स्मरण किया । शिवजीके स्मरण करते ही रथ, गज, घोड़े, बैल, गाय, ऊँट, गधे, पक्षिगण, सिंह, व्याघ्र, मृग, सूकर, सारस, मीन, मत्स्य, शिशुमार, सर्प, सैकड़ों प्रेत-पिशाच, दिव्य विमान, तालाब, नदी, नद, पर्वत, वाहन एवं अन्य जीवोंके साथ समस्त देवता उपस्थित हो गये और हाथ जोड़कर शिवजीको प्रणामकर निर्भय होकर स्थित हो गये । उसके अनन्तर शिवजीने वीरकको सेनापति बनाकर थके वाहनवाले उन देवताओं एवं युद्ध में निश्चित विजय पानेवाले प्रधान वीरोंको भेजा । महेश्वरके द्वारा भेजे गये उन सभी देवगणोंने उस गिलासहित दैत्यराजकी सेनाके साथ निरन्तर प्रलयकालके समान मर्यादाहीन घनघोर युद्ध किया । तब विघसने युद्ध करते हुए उन ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य एवं चन्द्रमा आदि समस्त देवोंको क्रोधपूर्वक निगल लिया । इस प्रकार विघसके द्वारा अपनी समस्त सेनाके निगल लिये जानेपर केवल वीरक रह गया ॥ ४-११ ॥

विहाय सङ्‌ग्रामशिरोगुहां तां
    प्रविश्य शर्वं प्रणिपत्य मूर्ध्ना ।
प्रोवाच दुःखाभिहतः स्मरारिं
    सुवीरको वाग्ग्मिवरोऽथ वृत्तम् ॥ १२ ॥
निगीर्णैते सैन्यं विधसदितिजेनाद्य भगव-
न्निगीर्णोऽसौ विष्णुस्त्रिभुवनगुरुर्दैत्यदलनः ।
निगीर्णौ चन्द्रार्कौ द्रुहिणमघवानौ च वरदौ
निगीर्णास्ते सर्वे यमवरुणवाताश्च धनदः ॥ १३ ॥
तब संग्रामभूमिको छोड़कर उस गुफामें प्रवेश करके सिर झुकाकर कामशत्रु शिवजीको प्रणाम करके वक्ताओंमें श्रेष्ठ वह वीरक दुखी होकर उनसे सारा वृत्तान्त कहने लगा । हे भगवन् ! विषस दैत्यने आपकी सारी सेना निगल ली । वह त्रिलोकगरु दैत्यविनाशक भगवान विष्णुको निगल गया । उसने सूर्य तथा चन्द्रमाको, वरदायक ब्रह्मा तथा इन्द्रको निगल लिया । वह यम, वरुण, पवन एवं कुबेर आदिको भी निगल गया ॥ १२-१३ ॥

स्थितोस्म्येकः प्रह्वः किमिह करणीयं भवतु मे
अजेयो दैत्येन्द्रः प्रमुदितमना दैत्यसहितः ॥ १४ ॥
अजेयं त्वां प्राप्तः प्रतिभयमना मारुतगतिः
स्वयं विष्णुर्देवः कनककशिपुं कश्यपसुतम् ।
नखैस्तीक्ष्णैर्भक्त्या तदपि भगवान् शिछिष्टवशगः
प्रवृत्तस्त्रैलोक्यं विधमतु मलं व्यात्तवदनः ॥ १५ ॥
केवल मैं ही अकेला रह गया है. मुझे अब क्या करना है । वह अजेय दैत्यपति सेनासहित प्रसन्नचित्त है । मैं भयभीत होकर वायुके समान वेगवान् होकर आप अजेयके पास आया हूँ । भगवान् विष्णुने अपना मुख फैलाकर कश्यपपुत्र हिरण्यकशिपुको अपने तीव्र नखोंसे विदीर्ण किया था, वे भक्तोंके वशीभूत हो त्रिलोकीके कण्टकोंका नाश करने में प्रवृत्त रहते हैं ॥ १४-१५ ॥

वसिष्ठाद्यैः शप्तो भुवनपतिभिः सप्तमुनिभिः
तथाभूते भूयस्त्वमिति सुचिरं दैत्यसहितः ॥ १६ ॥
पूर्वकालमें उन्हें वसिष्ठादि लोकरक्षक सप्तर्षियोंने शाप दिया था कि तुम दैत्योंके साथ चिरकालपर्यन्त युद्ध करते हुए उनके द्वारा निगल लिये जाओगे ॥ १६ ॥

ततस्तेनोक्तास्ते प्रणयवचनैरात्मनि हितैः
कदास्माद्वै घोराद्‌भवति मम मोक्षो मुनिवराः ।
यतः क्रुद्धैरुक्तो विघसहरणाद्युद्धसमये
ततो घोरैर्बाणैर्विदलितमुखे मुष्टिभिरलम् ॥ १७ ॥
इसके बाद जब विष्णुने विनम्र होकर मुनियोंसे प्रार्थना की कि हे मुनिगणो ! इस घोर शापसे मेरा छुटकारा कैसे होगा ? तब क्रुद्ध हुए उन मुनिगणोंने कहा-युद्धकालमें जब घोर वाणोंकी वर्षाकर विघस नामक दैत्य तुम्हें निगल लेगा, तब तुम अपने घूसोंसे उसके मुखपर प्रहारकर निकलोगे ॥ १७ ॥

बदर्याख्यारण्ये ननु हरिगृहे पुण्यवसतौ
निसंस्तभ्यात्मानं विगतकलुषो यास्यसि परम् ।
ततस्तेषां वाक्यात्प्रतिदिनमसौ दैत्यगिलनः
क्षुधार्तः सङ्‌ग्रामाद्‌ भ्रमति पुनरामोदमुदितः ॥ १८ ॥
तमश्चेदं घोरं जगदुदितयोः सूर्यशशिनो-
र्यथाशुक्रस्तुभ्यं परमरिपुरत्यन्तविकरः ।
हतान्देवैर्देत्यान्पुनरमृतविद्यास्तुतिपदैः
सवीर्यान्सन्दृष्टान्व्रणशतवियुक्तान्प्रकुरुते ॥ १९ ॥
वरं प्राणास्त्याज्यास्तव मम तु सङ्‌ग्रामसमये
भवान्साक्षीभूतः क्षणमपि वृतः कार्यकरणे ॥ २० ॥
तत्पश्चात् पुण्याश्रम बदरीवन नामक हरिगृहमें जब तुम अवतार लोगे, तब शापरहित हो अपने परमात्मा-रूपमें अवस्थित हो जाओगे । तभीसे वह गिल नामक दैत्य प्रतिदिन भूखा रहकर बड़ी प्रसन्नताके साथ युद्धस्थलमें घूमता रहता था । जिस प्रकार जगत्को प्रकाशित करनेवाले सूर्य एवं चन्द्रमासे राहु शत्रुता करता है, उसी प्रकार देवताओंके परम शत्रु शुक्राचार्य देवोंके द्वारा मारे गये सभी दैत्योंको संजीवनी विद्याके स्तुतिपदोंसे व्रणरहितकर जीवित कर देते हैं । आपको तथा मुझे युद्धस्थलमें भले ही प्राण त्याग करना पड़े, किंतु अब आप ही इस युद्ध में प्रमाण हैं और आप ही इस कार्यको संभालें ॥ १८-२० ॥

सनत्कुमार उवाच
इतीदं सत्पुत्रात्प्रमथपतिराकर्ण्य कुपित-
श्चिरं ध्यात्वा चक्रे त्रिभुवनपतिः प्रागनुपमम् ।
प्रगायत्सामाख्यं दिनकरकराकारवपुषा
प्रहासात्तन्नाम्ना तदनु निहतं तेन च तमः ॥ २१ ॥
सनत्कुमार बोले-त्रिभुवनपति प्रमथपति सदाशिव पुत्र वीरककी बात सुनकर बहुत कुपित हुए और देरतक विचार करते रहे, तदनन्तर उन्होंने सूर्यके समान देदीप्यमान अपने शरीरसे उत्तम सामवेदका गान किया और बड़ा अट्टहास किया, जिससे समस्त अन्धकार दूर हो गया ॥ २१ ॥

प्रकाशेऽस्मिन्‌ल्लोकेपुनरपि महायुद्धमरोद्
रणे दैत्यै सार्द्धं विकृतवदनैवीरकमुनिः
शिलाचूर्णं भुक्त्वा प्रवरमुनिना यस्तु जनितः
स कृत्वा संग्रामं पुरमपि पुरा यश्च जितवान् ॥ २२ ॥
तब इस लोकमें प्रकाश हो जानेपर वीरक मुनिने रणमें विकृत मुखबाले दैत्योंके साथ पुनः महायुद्ध किया । शिलाद मुनिने पत्थरका चूर्ण खाकर जिन नन्दीश्वरको उत्पन्न किया था तथा जिन्होंने त्रिपुरको भी पूर्वकालमें जीत लिया था, उन नन्दीने घनघोर युद्ध प्रारम्भ कर दिया ॥ २२ ॥

महारुद्रः सद्यः स खलु दितिजेनाततिगिलितः
ततश्चासौ नन्दी निशितशरशूलासिसहितः ।
प्रधानो योधानां मुनिवरशतानामपि महान्
निवासो विद्यानां शमदममहाधैर्यसहितः ॥ २३ ॥
निरीक्ष्यैवं पश्चाद् वृषभवरमारुह्य भगवान्
कपर्दी युद्धार्थी विघसदितिजं सम्मुखमुखः ।
जपन्दिव्यं मन्त्रं निगलनविधानोद्‌गिलनकं
स्थितः सज्जं कृत्वा धनुरशनिकल्पानपि शरान् ॥ २४ ॥
ततौ निष्कान्तोऽसौ विघसवदनाद्वीरकमुनि-
र्गृहीत्वा तत्सर्वे स्वबलमतुलं विष्णुसहिताः ।
समुद्‌गीर्णाः सर्वे कमलजबलारीन्दुदिनपाः
प्रहृष्टं तसैन्यं पुनरपि महायुद्धमकरोत् ॥ २५ ॥
नन्दीको भी उस राक्षसने निगल लिया । ऐसा देखकर योद्धाओं एवं मुनियोंमें अग्रगण्य तथा सभी विद्याओंके निवास, शम-दम-धैर्यादि गुणोंसे युक्त स्वयं कपर्दी महारुद्र वृषभपर सवार हो निगले हुए देवगणोंको उगलवा देनेवाले दिव्य मन्त्रका जप करते हुए तीक्ष्ण बाण, शूल तथा खड्ग लेकर युद्धके लिये उस राक्षसके सम्मुख उपस्थित हुए । इतनेमें महावीर वीरक सभीको लेकर उस विघस राक्षसके मुखसे निकले । इसी प्रकार विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य आदि सभी निकल आये । तब उनकी सेना प्रसन्न होकर पुनः युद्ध करने लगी ॥ २३-२५ ॥

जिते तस्मिन् शुक्रस्तदनु दितिजान्युद्धविहतान्
यदा विद्यावीर्यात्पुनरपि सजीवान्प्रकुरुते ।
तदा बद्ध्वानीतः पशुरिव गणैभूतपतये
निगीर्णस्तेनासौ त्रिपुररिपुणा दानवगुरुः ॥ २६ ॥
उस सेनाके जीत लेनेपर देवगणोंके द्वारा मारे गये समस्त दैत्योंको शुक्राचार्य अपनी संजीवनी विद्याके बलसे पुनः जीवित करने लगे । तब गणोंने शुक्राचार्यको पशुके समान बाँधकर शिवजीके समीप उपस्थित किया और त्रिपुरारि शिवजीने उन दानवगुरुको निगल लिया ॥ २६ ॥

विनष्टे शुक्राख्यो सुररिपुनिवासस्तदखिलो
जितो ध्वस्तो भग्नो भृशमपि सुरैश्चापि दलितम् ।
प्रभूतैर्भूतौघैर्दितिजकुणपग्रासरसिकैः
सरुण्डैर्नृत्यद्‌भिर्निशितशरशक्त्युद्धृतकरैः ॥ २७ ॥
प्रमत्तैर्वेतालैःसुदृढकरतुण्डैरपि खगै-
वृकैर्नानाभेदैः शवकुणपपूर्णास्यकवलैः ।
विकीर्णे सङ्‌ग्रामे कनककशिपोर्वंशजनक
श्चिरं युद्धं कृत्वा हरिहरमहेन्द्रैश्च विजितः ॥ २८ ॥
इस प्रकार शुक्राचार्यके विनष्ट हो जानेपर देवताओंने सारी दैत्यसेनाको जीत लिया, विध्वस्त कर दिया और पूर्णरूपसे कुचल डाला । उस समय दैत्योंके शरीरको उत्साहपूर्वक खानेवाले भूतगणोंसे एवं तीक्ष्ण बाण तथा शक्ति हाथमें लिये नाचते हुए सिरकटे दैत्योंके धड़ोंसे सारी रणभूमि व्याप्त हो गयी । प्रमत्त वेतालों, अत्यन्त दृढ़ चोंच एवं पंजेवाले पक्षियों एवं नाना प्रकारके भेड़ियोंने मरे हुए राक्षसोंके मांसको अपने मुख में रखकर आनन्दसे भक्षण करना प्रारम्भ कर दिया । इस प्रकार हिरण्यकशिपुके वंशमें उत्पन्न हुआ वह दैत्यराज चिरकालपर्यन्त युद्ध करके विष्णु, महेन्द्र एवं शिवसे जीत लिया गया ॥ २७-२८ ॥

प्रविष्टे पाताले गिरिजलधिरन्ध्राण्यपि तथा
ततः सैन्ये क्षीणे दितिजवृषभश्चान्धकवरः ।
प्रकोपे देवानां कदनदवरो विश्वदलनो
गदाघातैर्घोरैर्विदलितमदश्चापि हरिणा ॥ २९ ॥
पराजित होनेपर उस दैत्यकी सारी सेना पातालमें, पर्वतोंकी गुफाओंमें एवं समुद्र में छिप गयी । अपनी सारी सेनाके क्षीण हो जानेपर दैत्यश्रेष्ठ अन्धक, जो क्रुद्ध होनेपर न केवल देवताओं, अपितु विश्वका नाश करनेमें समर्थ था, उसका विष्णुने गदाके भयंकर प्रहारोंसे मद चूर-चूर कर दिया ॥ २९ ॥

न वै यः सग्रामं त्यजति वरलब्धः किलः यतः
तदा ताडैर्घोरैस्त्रिदशपतिना पीडिततनुः ।
ततः शस्त्रास्त्रौघैस्तरुगिरिजलैश्चाशु विबुधान्
जिगायोच्चैर्गर्जन्प्रमथपतिमाहूय शनकैः ॥ ३० ॥
स्थितो युद्धं कुर्वन् रणपतितशस्त्रैर्बहुविधैः
परिक्षीणैःसर्वैस्तदनु गिरिजा रुद्रमतुदत् ।
तथा वृक्षैः सर्पैरशनिनिवहैः शस्त्रपटलै-
र्विरूपैर्मायाभिः कपटरचनाशम्बरशतैः ॥ ३१ ॥
उसने युद्धभूमिका परित्याग नहीं किया; क्योंकि उसे ब्रह्माजीका वरदान प्राप्त था । उसके बाद इन्द्रके घोर अस्त्रोंसे पीड़ित हुआ वह दैत्य अपने शस्त्रास्त्रसमूहों, वृक्षों, पर्वतों एवं जलके प्रहारोंसे देवताओंको शीघ्र जीतकर जोरसे गर्जना करते हुए प्रमथपति शिवको संकेतोंके द्वारा बुलाकर युद्धभूमिमें गिरे हुए अनेक प्रकारके शस्त्रोंसे युद्ध करता हुआ स्थित रहा । उन सबके समाप्त हो जानेपर वह वृक्षों, सर्पो, वज्रके समान शस्त्रोंद्वारा तथा शम्बरकी सैकड़ों माया एवं कपट रचनाद्वारा गिरिजा एवं महादेवको पीड़ा पहुँचाने लगा ॥ ३०-३१ ॥

विजेतुं शैलेशं कुहकमपरं तत्र कृतवान्
महासत्त्वो वीरस्त्रिपुररिपुतुल्यश्च मतिमान् ।
न वध्यो देवानां वरशतमनोन्मादविवशः
प्रभूतैः शस्त्रास्त्रैः सपदि दितिजो जर्जरतनुः ॥ ३२ ॥
तदीयाद्विष्यन्दात्क्षितितलगतैरन्धकगणै-
रतिव्याप्तघोरं विकृतवदनं स्वात्मसदृशम् ।
दधत्कल्पान्ताग्निप्रतिमवपुषा भूतपतिना
त्रिशूले नोद्‌भिन्नस्त्रिपुररिपुणा दारुणतरम् ॥ ३३ ॥
शंकरके समान महावीर, देवताओंसे अवध्य, महासत्त्वसम्पन्न, मतिमान्, सैकड़ों वरदान पानेसे उन्मत्त हुए दैत्य अन्धकने शंकरको जीतनेके लिये एक और माया की, यद्यपि उसका शरीर देवताओंके शस्त्रास्त्रोंके द्वारा जर्जर हो उठा था । उसकी मायाके प्रभावसे, उसके गिरे हुए रक्त-बिन्दुओंसे अनेक विकृतवदन अन्धकगण रणभूमिमें व्याप्त हो गये । तब प्रलयकालीन अग्निके समान शरीर धारण करनेवाले त्रिपुरारि सदाशिवने अपने त्रिशूलसे उन दैत्योंका भेदन प्रारम्भ किया ॥ ३२-३३ ॥

यदा सैन्यात्सैन्यं पशुपतिहतादन्यदभवद्-
व्रणोत्थैरत्युष्णैः पिशितनिसृतैर्बिन्दुभिरलम् ।
तदा विष्णुर्योगात्प्रमथपतिमाहूय मतिमान्
चकारोग्रं रूपं विकृतवदनं स्त्रैणमजितम् ॥ ३४ ॥
करालं संशुष्कं बहुभुजलताक्रान्तकुपितो
विनिष्क्रान्तः कर्णाद्‌गणशिरसि शम्भोश्च भगवान् ॥ ३५ ॥
। इस प्रकार शिवजीके त्रिशूलके प्रहारके आघातसे मांस विदीर्ण हो जानेके कारण प्रवाहित रक्तबिन्दुओंसे अनेक अन्धक उत्पन्न होने लगे । तब महाबुद्धिमान् विष्णुने शंकरजीको बुलाकर योगद्वारा अत्यन्त विकृत मुखवाला, उग्र, अजेय, कराल तथा अत्यन्त शुष्क स्त्रीका रूप धारण कर लिया । अनेक भुजाओंसे युक्त तथा कुपित भगवान् विष्णु उस युद्धस्थलमें शंकरजीके कानसे प्रकट हुए ॥ ३४-३५ ॥

रणस्था सा देवी चरणयुगलालङ्‌कृतमही
स्तुता देवैः सर्वैः तदनु भगवान् प्रेरितमतिः ।
क्षुधार्ता तत्सैन्यं दितिजनिसृतं तच्च रुधिरं
पपौ सात्युष्णं तद्‌रणशिरसि सृक्कर्दममलम् ॥ ३६ ॥
युद्धभूमिमें उत्पन्न हुई वे देवी अपने युगलचरणोंसे पृथ्वीको सुशोभित करने लगी । सभी देवगण उनकी स्तुति करने लगे । उसके बाद शंकरजीकी प्रेरणासे क्षुधासे व्याकुल वे देवी मांसकी कीचसे युक्त उस रणभूमिमें दैत्यपतिके शरीरसे निकले हुए उष्ण रुधिरका पान करने लगीं ॥ ३६ ॥

ततस्त्वेको दैत्यस्तदपि युयुधे शुष्करुधिरः
तलाघातैर्घोरैरशनिसदृशैर्जानुचरणैः ।
नखैर्वज्राकारैर्मुखभुजशिरोभिश्च गिरिशं
स्मरन् क्षात्रं धर्मं स्वकुल विहितं शाश्वतमजम् ॥ ३७ ॥
इस प्रकार रक्तके सूख जानेपर वह दैत्य अकेला होनेपर भी अपने कुलक्रमागत सनातन क्षात्रधर्मका स्मरण करता हुआ अपने वज्रके समान घूसों, जानु, चरणों, नखों, भुजाओं तथा सिरके द्वारा शंकरसे युद्ध करता रहा ॥ ३७ ॥

रणे शान्तः पश्चात्प्रमथपतिना भिन्नहृदय-
स्त्रिशूले संप्रोतो नभसि विधृतःस्थाणुसदृशः ।
अधःकायः शुष्कस्तपनकिरणैर्जीर्णतनुमान्
जलासारेर्मेघैः पवनसहितैः क्लेदितवपुः ॥ ३८ ॥
[इस प्रकार युद्धकर] तब वह रणमें शान्त हो गया, बादमें क्रुद्ध हुए शिवजीने अपने त्रिशूलसे उसका हृदय विदीर्ण कर दिया और स्थाणुके समान उसके दूंठ शरीरको त्रिशूलपर टाँगकर आकाशमें उठा लिया । उसका शरीर सूर्यके तापसे सूखने लगा, पवनप्रेरित जलपूर्ण बादलोंने उसके शरीरको गीला कर दिया और उसका सारा शरीर जीर्ण-शीर्ण हो गया ॥ ३८ ॥

विशीर्णस्तिग्मांशोस्तुहिनशकलाकारशकल-
स्तथाभूतः प्राणांस्तदपि न जहौ दैत्य वृषभः ।
तदा तुष्टः शम्भुः परमकरुणावारिधिरसौ
ददौ तस्मै प्रीत्या गणपतिपदं तेन विनुतः ॥ ३९ ॥
सूर्यको किरणोंसे सन्तप्त, हिमखण्डोंसे खण्डित होनेपर भी उस दैत्यराजने प्राण-त्याग नहीं किया और वह भगवान् शंकरकी निरन्तर स्तुति करता रहा । यह देखकर करुणासागर परम दयालु भगवान् शंकरने उसकी स्तुतिसे प्रसन्न होकर उसे गाणपत्यपद प्रदान किया ॥ ३९ ॥

ततो युद्धस्यान्ते भुवनपतयः सार्थ रमणै-
स्तवैर्नानाभेदैः प्रमथपतिमभ्यर्च्य विधिवत् ।
हरिब्रह्माद्यास्ते परमनुतिभिः स्तुष्टुवुरलं
नतस्कन्धाः प्रीता जयजय गिरं प्रोच्य सुखिताः ॥ ४० ॥
हरस्तैस्तैःसार्द्धं गिरिवरगुहायां प्रमुदितो
विसृज्यैकानंशान् विविधबलिना पूज्यसुनगान् ।
चकाराज्ञां क्रीडां गिरिवर सुतां प्राप्य मुदितां
तथा पुत्रं घोराद्विघसवदनान्मुक्तमनघम् ॥ ४१ ॥
उस समय युद्धके अन्तमें भुवनपति श्रीहरि, ब्रह्मा तथा समस्त देवताओंने शंकरजीकी विधिपूर्वक पूजाकर कंधा झुकाकर मनोहर एवं सारगर्भित स्तुतियोंसे उनकी स्तुति की तथा प्रसन्न होकर उनकी जय. जयकार करके वे सुखी हो गये । तत्पश्चात् भगवान् भूतपति नाना प्रकारको सामग्रीसे पूजित देवगणोंको सत्कारसहित विदाकर पार्वतीके साथ प्रसन्न हो गुहामें क्रीड़ा करने लगे । उस समय वे घोर विघसके मुखसे पापरहित पुत्र वीरकके निकल जानेसे बड़े ही प्रसन्न हो रहे थे ॥ ४०-४१ ॥

इति श्रीशिवमहा पुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे
अन्धकवधोपाख्याने अन्धकयुद्धवर्णनं नाम षट्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४६ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुगसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें अन्धकवधोपाख्यानमें अन्धकबुद्धवर्णन नामक छियालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४६ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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