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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः

अन्धकयुद्धे शुक्रनिगीर्णनवर्णनम् -
शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी-विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना -


व्यास उवाच
तस्मिन्महति सङ्‌ग्रामे दारुणे लोमहर्षणे ।
शुक्रो दैत्यपतिर्विद्वान् भक्षितस्त्रिपुरारिणा ॥ १ ॥
इति श्रुतं समासान्मे तत्पुनर्ब्रूहि विस्तरात् ।
किं चकार महायोगी जठरस्थः पिनाकिनः ॥ २ ॥
न ददाह कथं शम्भोः शुक्रं तं जठरानलः ।
कल्पान्तदहनः कालो दीप्ततेजाश्च भार्गवः ॥ ३ ॥
विनिष्क्रान्तः कथं धीमान् शम्भोर्जठरपञ्जरात् ।
कथमाराधयामास कियत्कालं स भार्गवः ॥ ४ ॥
अथ च लब्धवान्विद्यां तां मृत्युशमनीं पराम् ।
का सा विद्या परा तात यथा मृत्युर्हि वार्यते ॥ ५ ॥
लेभेन्धको गाणपत्यं कथं शूलाद्विनिर्गतः ।
देवदेवस्य वै शम्भोर्मुनेर्लीलाविहारिणः ॥ ६ ॥
एतत्सर्वमशेषेण महाधीमन् कृपां कुरु ।
शिवलीलामृतं तात शृण्वतः कथयस्व मे ॥ ७ ॥
व्यासजी बोले-उस भयानक तथा रोमांच उत्पन्न कर देनेवाले महायुद्धमें भगवान् सदाशिवने विद्वान् दैत्याचार्य शुक्रको निगल लिया-यह बात मैंने संक्षेपमें सुनी, अब आप उसे विस्तारके साथ कहिये कि शिवजीके उदरमें स्थित महायोगी शुक्राचार्यने क्या किया, शिवजीकी प्रलयकालीन अग्निके समान जठराग्निने उन शुक्रको जलाया क्यों नहीं ? कालरूप बुद्धिमान् तथा तेजस्वी शुक्राचार्य किस प्रकार शिवजीके जठरपंजरसे बाहर निकले, उन शुक्रने किसलिये तथा कितने समयतक आराधना की, उन्होंने मृत्युका शमन करनेवाली उस परा विद्याको कैसे प्राप्त किया और हे तात ! वह कौनसी विद्या है, जिससे मृत्युका निवारण हो जाता है, देवाधिदेव, लीलाविहारी भगवान् शंकरके त्रिशूलसे छुटकारा पाये हुए अन्धकने किस प्रकार गाणपत्यपद प्राप्त किया ? हे परम बुद्धिमान् तात ! कृपा कीजिये और शिवलीलामृतका पान करनेवाले मुझको यह सब विशेष रूपसे बताइये ॥ १-७ ॥

ब्रह्मोवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वा व्यासस्यामिततेजसः ।
सनत्कुमारः प्रोवाच स्मृत्वा शिवपदाम्बुजम् ॥ ८ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे तात ! अमिततेजस्वी व्यासजीके इस वचनको सुनकर शिवजीके चरणकमलका स्मरण करके सनत्कुमारजी कहने लगे- ॥ ८ ॥

सनत्कुमार उवाच
शृणु व्यास महाबुद्धे शिवलीलामृतं परम् ।
धन्यस्त्वं शैवमुख्योसि ममानन्दकरः स्वतः ॥ ९ ॥
प्रवर्तमाने समरे शंकरान्धकयोस्तयोः ।
अनिर्भेद्यपविव्यूहगिरिव्यूहाधिनाथयोः ॥ १० ॥
पुरा जयो बभूवापि दैत्यानां बलशालिनाम् ।
शिवप्रभावादभवत्प्रमथानां मुने जयः ॥ ११ ॥
सनत्कुमार बोले-हे महाबुद्धिमान् व्यास ! आप मुझसे शिवलीलामृतका श्रवण कीजिये, आप धन्य हैं, शिवजीके परम भक्त हैं और विशेषकर मुझे तो बहुत आनन्द देनेवाले हैं । जिस समय अत्यन्त दुर्भेद्य वज्रव्यूहके अधिपति भगवान् शंकर एवं गिरिव्यूहके अधिपति अन्धकमें घनघोर युद्ध छिड़ा हुआ था, उस समय सर्वप्रथम बलशाली दैत्योंकी विजय हुई और हे मुने ! उसके बाद शिवजीके प्रभावसे प्रमथगणोंकी विजय हुई ॥ ९-११ ॥

तच्छ्रुत्वासीद्विषण्णो हि महादैत्योन्धकासुरः ।
कथं स्यान्मे जय इति विचारणपरोऽभवत् ॥ १२ ॥
अपसृत्य ततो युद्धादन्धकः परबुद्धिमान् ।
द्रुतमभ्यगमद्वीर एकलः शुक्रसन्निधिम् ॥ १३ ॥
प्रणम्य स्वगुरुं काव्यमवरुह्य रथाच्च सः ।
बभाषेदं विचार्याथ साञ्जलिर्नीतिवित्तमः ॥ १४ ॥
यह सुनकर महान् दैत्य अन्धकासुर अत्यन्त दुःखित हुआ और वह विचार करने लगा कि मेरी विजय किस प्रकार होगी । इसके बाद परम बुद्धिमान्, महावीर वह अन्धक संग्राम छोड़कर शीघ्र ही अकेले शुक्राचार्यके पास गया । परम नीतिज्ञ वह अन्धक रथसे उतरकर अपने गुरु शुक्राचार्यको प्रणाम करके हाथ जोड़कर विचार करके यह कहने लगा- ॥ १२-१४ ॥

अन्धक उवाच
भगवंस्त्वामुपाश्रित्य गुरोर्भावं वहामहे ।
पराजिता भवामो नो सर्वदा जयशालिनः ॥ १५ ॥
अन्धक बोला-हे भगवन् ! हमलोग आपका आश्रय लेकर आपको गुरु मानते हैं, सर्वदा विजय पानेवाले हमलोग आज पराजित हो रहे हैं ॥ १५ ॥

त्वत्प्रभावात्सदा देवान्समस्तान्सानुगान्वयम् ।
मन्यामहे हरोपेन्द्रमुखानपि हि कर्तृणान् ॥ १६ ॥
अस्मत्तो बिभ्यति सुराः तदा भवदनुग्रहात् ।
गजा इव हरिभ्यश्च तार्क्ष्येभ्य इव पन्नगाः ॥ १७ ॥
हे देव !] आपके प्रभावसे हमलोग सदैव शंकर, विष्णु आदि देवताओंको तथा उनके अनुचरोंको क्षुद्र तृणके समान समझते हैं और आपके अनुग्रहसे सभी देवता हमसे उसी प्रकार डरते रहते हैं, जैसे सिंहोंसे हाथी और गरुडोंसे सर्प डरते रहते हैं ॥ १६-१७ ॥

अनिर्भेद्यं पविव्यूहं विविशुर्दैत्यदानवाः ।
प्रमथानीकमखिलं विधूय त्वदनुग्रहात् ॥ १८ ॥
आपके अनुग्रहसे प्रमोंकी सम्पूर्ण सेनाको ध्वस्तकर दैत्यों तथा दानवोंने दुर्भेद्य वज्रव्यूहमें प्रवेश किया ॥ १८ ॥

वयं त्वच्छरणा भूत्वा सदा गा इव निश्चलाः ।
स्थित्वा चरामो निःशङ्‌कमाजावपि हि भार्गव ॥ १९ ॥
रक्षरक्षाभितो विप्र प्रव्रज्य शरणागतान् ।
असुरान् शत्रुभिर्वीरैरर्दितांश्च मृतानपि ॥ २० ॥
प्रथमैर्भीमविक्रान्तैः क्रान्तान्मृत्युप्रमाथिभिः ।
सूदितान्पतितान्पश्य हुण्डादीन्मद्‌गणान्वरान् ॥ २१ ॥
हे भार्गव ! हमलोग आपकी शरणमें रहकर पृथ्वीके समान सदा अविचल होकर युद्धस्थलमें निःशंक विचरण करते हैं । हे विप्र ! वीर शत्रुओंसे पीड़ित होकर भागकर शरणमें आये हुए असुरोंकी तथा मृत दैत्योंकी भी आप रक्षा करें । मृत्युको पराजित करनेवाले महापराक्रमी प्रमथगणोंसे मार खाकर युद्धमें गिरे हुए उन हुण्ड आदि मेरे गणोंको देखिये ॥ १९-२१ ॥

यः पीत्वा कणधूमं वै सहस्रं शरदां पुरा ।
त्वया प्राप्ता वरा विद्या तस्याः कालोयमागतः ॥ २२ ॥
अद्य विद्याफलं तत्ते सर्वे पश्यन्तु भार्गव ।
प्रमथा असुरान्सर्वान् कृपया जीवयिष्यतः ॥ २३ ॥
आपने पूर्वकालमें सहस्रों वर्षपर्यन्त तुषाग्निजन्य धूमका पानकर जिस संजीवनी विद्याको प्राप्त किया है, अब उसके उपयोगका समय आ गया है । हे भार्गव ! इस समय आप कृपाकर सभी असुरोंको जीवित कर दें, जिससे सभी प्रमथ आपकी इस विद्याके प्रभावको देखें ॥ २२-२३ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्थमन्धकवाक्यं स श्रुत्वा धीरो हि भार्गवः ।
तदा विचारयामास दूयमानेन चेतसा ॥ २४ ॥
किं कर्तव्यं मयाद्यापि क्षेमं मे स्यात्कथं त्विति ।
सन्निपातविधिर्जीवः सर्वथानुचितो मम ॥ २५ ॥
विधेयं शंकरात्प्राप्ता तद्‌गुणान् प्रति योजये ।
तद्‌रणे मर्दितान्वीरः प्रमथैः शंकरानुगैः ॥ २६ ॥
शरणागतधर्मोऽथ प्रवरः सर्वतो हृदा ।
विचार्य शुक्रेण धिया तद्वाणी स्वीकृता तदा ॥ २७ ॥
सनत्कुमार बोले-इस प्रकार अन्धकके वचनको सुनकर परम धीर वे शुक्राचार्य दुखी मनसे विचार करने लगे । मुझे इस समय क्या करना चाहिये, मेरा कल्याण कैसे हो, इन मरे हुओंको जिलानेके लिये संजीवनीविद्याका प्रयोग मेरे लिये सर्वथा अनुचित है । वह विद्या मुझे शंकरजीद्वारा प्राप्त हुई है, अतः इसका उपयोग शिवजीके अनुचर वीर प्रमथोंके द्वारा रणमें मारे गये दैत्योंको जीवित करनेके लिये कैसे करूँ । किंतु शरणमें आये हुएकी रक्षा करना सर्वोपरि धर्म है, तब हृदय तथा बुद्धिसे विचारकर शुक्राचार्यने उसकी बात अंगीकार कर ली ॥ २४-२७ ॥

किञ्चित्स्मितं तदा कृत्वा सोऽब्रवीद्दानवाधिपम् ।
भार्गवः शिवपादाब्जं स्मृत्वा स्वस्थेन चेतसा ॥ २८ ॥
इसके बाद शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करके कुछ-कुछ हँसकर स्वस्थचित्त हो शुक्राचार्यने दैत्यराजसे कहा- ॥ २८ ॥

शुक्र उवाच
यत्त्वया भाषितं तात तत्सर्वं तथ्यमेव हि ।
एतद्विद्योपार्जनं हि दानवार्थं कृतं मया ॥ २९ ॥
दुःसहं कणधूमं वै पीत्वा वर्षसहस्रकम् ।
विद्येयमीश्वरात्प्राप्ता बन्धूनां सुखदा सदा ॥ ३० ॥
प्रमथैर्मथितान्दैत्यान् रणेऽहं विद्ययानया ।
उत्थापयिष्ये म्लानानि शस्यानि जलभुग्यथा ॥ ३१ ॥
निर्व्रणान्नीरुजः स्वस्थान् सुप्त्वेव पुनरुत्थितान् ।
मुहूर्तेऽस्मिंश्च द्रष्टासि दैत्यांस्तानुत्थितान्निजान् ॥ ३२ ॥
शक्र बोले-हे तात ! आपने जो कहा, सब सत्य ही है, मैंने सचमुच इस विद्याकी प्राप्ति दानवोंके लिये ही की है । मैंने सहस्रवर्षपर्यन्त तुषाग्निजन्य धूमको पीकर शिवजीसे इस विद्याको प्राप्त किया था, जो बन्धुगोंको सर्वदा सुख देनेवाली है । मैं इस विद्याके प्रभावसे संग्राममें देवताओंद्वारा मारे गये इन दैत्योंको उसी प्रकार उठा दूँगा, जिस प्रकार मुरझायी हुई फसलोंको मेघ जीवित कर देता है । आप अभी इसी क्षण देखेंगे कि ये दैत्य व्रणरहित एवं स्वस्थ होकर सोकर उठे हुएके समान पुनः जीवित हो गये हैं ॥ २९-३२ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्युक्त्वा सोधकं शुक्रो विद्यामावर्तयत्कविः ।
एकैकं दैत्यमुद्दिश्य स्मृत्वा विद्येशमादरात् ॥ ३३ ॥
विद्यावर्तनमात्रेण ते सर्वे दैत्यदानवाः ।
उत्तस्थुर्युगपद्वीराः सुप्ता इव धृतायुधाः ॥ ३४ ॥
सदाभ्यस्ता यथा वेदाः समरे वा यथाम्बुदा ।
श्रद्धयार्थास्तथा दत्ता ब्राह्मणेभ्यो यथापदि ॥ ३५ ॥
सनत्कुमार बोले-अन्धकसे इस प्रकार कहकर शुक्राचार्यने बड़े आदरके साथ शिवजीका स्मरणकर एक-एक दैत्यको उद्देश्य करके संजीवनीविद्याका प्रयोग किया । उस विद्याके प्रयोगमात्रसे वे समस्त दैत्य एवं दानव सोकर जगे हुएके समान शस्त्र धारण किये हुए एक साथ उसी प्रकार उठ गये, जिस प्रकार निरन्तर अभ्यस्त वेद, जैसे समयपर मेघ एवं आपत्तिकालमें श्रद्धासे ब्राह्मणोंको दिया गया दान फलदायी हो जाता है । ३३-३५ ॥

उज्जीवितांस्तु तान्दृष्ट्‍वा हुण्डादींश्च महासुरान् ।
विनेदुरसुराः सर्वे जलपूर्णा इवाम्बुदाः ॥ ३६ ॥
तब हुण्ड आदि असुरोंको पुनः जीवित देखकर सभी दैत्य जलपूर्ण बादलके समान गर्जन करने लगे ॥ ३६ ॥

रणोद्यताः पुनश्चासन्गर्जन्तो विकटान्‌ रवान् ।
प्रमथैः सह निर्भीता महाबलपराक्रमाः ॥ ३७ ॥
शुक्रेणोज्जीवितान्दृष्ट्‍वा प्रमथा दैत्यदानवान् ।
विसिष्मिरे ततःसर्वे नन्द्याद्या युद्धदुर्मदाः ॥ ३८ ॥
विज्ञाप्यमेवं कर्मैतद्देवेशे शंकरेऽखिलम् ।
विचार्य बुद्धिमन्तश्च ह्येवं तेऽन्योन्यमब्रुवन् ॥ ३९ ॥
तत्पश्चात् विकट ध्वनि करके गरजते हुए महान् बल तथा पराक्रमवाले वे दैत्य निर्भीक होकर प्रमथगणोंके साथ पुनः युद्ध करनेके लिये तैयार हो गये । युद्ध में अभिमानी नन्दी आदि सभी प्रमथगण शुक्राचार्यके द्वारा जीवित किये गये उन दैत्यों तथा दानवोंको देखकर अत्यन्त विस्मित हो उठे । इस सम्पूर्ण कर्मको देखकर 'शंकरजीसे निवेदन करना चाहिये'-इस प्रकार विचारकर वे बुद्धिमान् गण परस्पर कहने लगे ॥ ३७-३९ ॥

आश्चर्यरूपे प्रमथेश्वराणां
    तस्मिंस्तथा वर्तति युद्धयज्ञे ।
अमर्षितो भार्गवकर्म दृष्ट्‍वा
    शिलादपुत्रोऽभ्यगमन्महेशम् ॥ ४० ॥
जयेति चोक्त्वा जययोनिमुग्र-
    मुवाच नन्दी कनकावदातम् ।
गणेश्वराणां रणकर्म देव
    देवैश्च सेन्द्रैरपि दुष्करं सत् ॥ ४१ ॥
तद्‌भार्गवेणाद्य कृतं वृथा नः
    सञ्जीवतांस्तान्हि मृतान्विपक्षान् ।
आवर्त्य विद्यां मृतजीवदात्री-
    मेकेकमुद्दिश्य सहेलमीश ॥ ४२ ॥
प्रमथेश्वरोंके उस आश्चर्यकर युद्धयज्ञमें शुक्राचार्यके इस प्रकारके कार्यको देखकर शिलादपुत्र नन्दीश्वर अमर्षयुक्त हो शिवके समीप गये और 'जय हो, जय हो'-इस प्रकार कहकर जय देनेवाले एवं कनकके समान निष्कलंक शिवजीसे बोले-हे देव ! युद्धस्थलमें इन्द्रसहित देवों एवं गणेश्वरोंने जो अत्यन्त कठिन कार्य किया है, हे ईश ! हमारे उन सभी कार्योको शुक्राचार्यने व्यर्थ कर दिया, एकएक राक्षसको उद्देश्य करके मृतसंजीवनी-विद्याका प्रयोगकर युद्धमें मरे हुए उन सारे विपक्षियोंको उन्होंने बिना श्रमके जीवित कर दिया ॥ ४०-४२ ॥

तुहुण्डहुण्डादिककुम्भजम्भ-
    विपाकपाकादिमहासुरेन्द्राः ।
यमालयादद्य पुनर्निवृत्ता
    विद्रावयन्तः प्रमथांश्चरन्ति ॥ ४३ ॥
इस समय यमपुरीसे लौटे हुए तुहुण्ड, हुण्ड, कुम्भ, जम्भ, विपाक, पाक आदि महादैत्य [युद्धस्थलमें] प्रमथगणोंका विनाश करते हुए विचरण कर रहे हैं ॥ ४३ ॥

यदि ह्यसौ दैत्यवरान्निरस्तान्
    सञ्जीवयेदत्र पुनः पुनस्तान् ।
जयः कुतो नो भविता महेश
    गणेश्वराणां कुत एव शान्तिः ॥ ४४ ॥
हे महेश ! यदि मारे गये श्रेष्ठ दैत्योंको शक्राचार्य इसी प्रकार जीवित करते रहे, तो हम गणेश्वरोंकी विजय किस प्रकार सम्भव है और हमें शान्ति कहाँ ? ॥ ४४ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्येवमुक्तः प्रमथेश्वरेण
    स नन्दिना वै प्रमथेश्वरेशः ।
उवाच देवः प्रहसंस्तदानीं
    तं नन्दिनं सर्वगणेशराजम् ॥ ४५ ॥
सनत्कुमार बोले-प्रमथेश्वर नन्दीके इस प्रकार कहनेपर प्रमथेश्वरोंके ईश्वर महादेव हँसते हुए सभी गणेश्वरोंमें श्रेष्ठ नन्दीसे कहने लगे- ॥ ४५ ॥

शिव उवाच
नन्दिन्प्रयाहि त्वरितोऽति मात्रं
    द्विजेन्द्रवर्यं दितिनन्दनानाम् ।
मध्यात्समुद्धृत्य तथा नयाशु
    श्येनो यथा लावकमण्डजातम् ॥ ४६ ॥
शिवजी बोले-हे नन्दी ! तुम इसी क्षण शीघ्रतासे जाओ और दैत्योंके मध्यसे शुक्राचार्यको इस प्रकार पकड़कर शीघ्र ले आओ, जिस प्रकार बाज लवा पक्षीके बच्चेको पकड़ लेता है ॥ ४६ ॥

सनत्कुमार उवाच
स एवमुक्तो वृषभध्वजेन
    ननाद नन्दी वृषसिंहनादः ।
जगाम तूर्णं च विगाह्य सेनां
    यत्राभवद्‌भार्गववंशदीपः ॥ ४७ ॥
तं रक्ष्यमाणं दितिजैः समस्तैः
    पाशासिवृक्षोपलशैलहस्तैः ।
विक्षोभ्य दैत्यान्बलवान् जहार
    काव्यं स नन्दी शरभो यथेभम् ॥ ४८ ॥
सनत्कुमार बोले-शिवजीके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर नन्दी सिंहके समान गर्जना करते हुए दैत्योंकी सेनाको चौरते हुए उस स्थानपर पहुँच गये, जहाँ भार्गववंशके दीपक शुक्राचार्य थे । बड़े-बड़े दैत्य पाश, खड्ग, वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि शस्त्र हाथमें लेकर उनकी रक्षा कर रहे थे । बलवान् नन्दीश्वरने दैत्योंको विक्षुब्ध करके शुक्राचार्यको इस प्रकार पकड़ लिया, जिस प्रकार शरभ हाथीको पकड़ लेता है । ४७-४८ ॥

स्रस्ताम्बरं विच्युतभूषणं च
    विमुक्तकेशं बलिना गृहीतम् ।
विमोचयिष्यन्त इवानुजग्मुः
    सुरारयःसिंहरवांस्त्यजन्तः ॥ ४९ ॥
तब ढीले वस्त्रवाले, बिखरे केशवाले एवं गिरते हुए आभूषणोंवाले शुक्राचार्यको छुड़ानेके लिये अनेक राक्षस सिंहनाद करते हुए उनके पीछे दौड़े ॥ ४९ ॥

दम्भोलि शूलासिपरश्वधाना-
    मुद्दण्डचक्रोपलकम्पनानाम् ।
नन्दीश्वरस्योपरि दानवेन्द्रा
    वर्षं ववर्षुर्जलदा इवोग्रम् ॥ ५० ॥
दैत्येन्द्र नन्दीश्वरपर मेघके समान वन, शूल, तलवार, परशु, तीक्ष्ण चक्र, पाषाण एवं कम्पन आदि नाना प्रकारके शस्त्रोंकी घोर वर्षा करने लगे ॥ ५० ॥

तं भार्गवं प्राप्य गणाधिराजो
    मुखाग्निना शस्त्रशतानि दग्ध्वा ।
आयात्प्रवृद्धेऽसुरदेवयुद्धे
    भवस्य पार्श्वे व्यथितारिपक्षः ॥ ५१ ॥
अयं स शुक्रो भगवन्नितीदं
    निवेदयामास भवाय शीघ्रम् ।
जग्राह शुक्रं स च देवदेवो
    यथोपहारं शुचिना प्रदत्तम् ॥ ५२ ॥
न किञ्चिदुक्त्वा स हि भूतगोप्ता
    चिक्षेप वक्त्रे फलवत्कवीन्द्रम् ।
हाहारवस्तैरसुरैःसमस्तै-
    रुच्चैर्विमुक्तो हहहेति भूरि ॥ ५३ ॥
गणाधिराज नन्दीश्वर उन सभी शस्त्रोंको अपने मुखकी अग्निसे भस्म करके उस महाभयानक युद्धस्थलमें शत्रुपक्षको पीड़ित करके शुक्राचार्यको लेकर शिवजीके पास चले आये और शिवजीसे यह कहने लगे-हे भगवन् ! यह वही शुक्र है । तब देवदेव शिवजीने देवगणोंके लिये अग्निके द्वारा दी गयी आहुतिके समान शुक्राचार्यको ग्रहण कर लिया । प्राणियोंकी रक्षा करनेवाले उन सदाशिवने बिना कुछ बोले ही उन शुक्राचार्यको फलके समान अपने मुख में रख लिया, जिससे वे समस्त असुर ऊँचे स्वरमें महान् हाहाकार करने लगे ॥ ५१-५३ ॥

इति श्रीशिव महापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे
अन्धकयुद्धे शुक्रनिगीर्णनवर्णनं नाम सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४७ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें अन्धकयुद्धोपाख्यानमें शुक्रनिगीनवर्णन नामक संतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४७ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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