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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः

शुक्रनिगीर्णनम् -
शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुक्ररूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना -


व्यास उवाच
शुक्रे निगीर्णे रुद्रेण किमकार्षुश्च दानवाः ।
अन्धकेशा महावीरा वद तत्त्वं महामुने ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे महामुने ! रुद्रके द्वारा शुक्राचार्यके निगल लिये जानेपर महावीर उन अन्धकादि दैत्योंने क्या किया ? आप उसे कहिये ॥ १ ॥

सनत्कुमार उवाच
काव्ये निगीर्णे गिरिजेश्वरेण
    दैत्या जयाशारहिता बभूवुः ।
हस्तैर्विमुक्ता इव वारणेन्द्राः
    शृङ्‌गैर्विहीना इव गोवृषाश्च ॥ २ ॥
शिरो विहीना इव देवसङ्‌घा
    द्विजा यथा चाध्ययनेन हीनाः ।
निरुद्यमाः सत्त्वगणा यथा वै
    यथोद्यमा भाग्यविवर्जिताश्च ॥ ३ ॥
पत्या विहीनाश्च यथैव योषा
    यथा विपक्षाः खलु मार्गणौघाः ।
आयूंषि हीनानि यथैव पुण्यै-
    र्व्रतैर्विहीनानि यथा श्रुतानि ॥ ४ ॥
विना यथा वैभवशक्तिमेकां
    भवन्ति हीनाःस्वफलैः क्रियौघाः ।
यथा विशूराः खलु क्षत्रियाश्च
    सत्यं विना धर्मगणो यथैव ॥ ५ ॥
सनत्कुमार बोले-शिवजीके द्वारा शुक्राचार्यक निगल लिये जानेपर दैत्य उसी प्रकार विजयकी आशासे रहित हो गये, जैसे सूंडसे रहित हाथी, सौगसे रहित वृषभ, सिरविहीन देहसमुदाय, अध्ययनसे हीन द्विज, उद्यमरहित सामर्थ्यशाली, भाग्यसे रहित उद्यम, पतिविहीन स्त्री, पंखसे रहित पक्षी, पुण्यरहित आयु, व्रतविहीन शास्त्रज्ञान, शूरतासे रहित क्षत्रिय, सत्यसे रहित धर्म और एकमात्र वैभवशक्तिके बिना समस्त क्रियाएँ अपने फलोंसे रहित हो जाती हैं ॥ २-५ ॥

नन्दिना चा हृते शुक्रे गिलिते च विषादिना ।
विषादमगमन्दैत्या यतमानरणोत्सवाः ॥ ६ ॥
नन्दीके द्वारा शुक्राचार्यके हरण कर लिये जाने एवं शिवजीके द्वारा उन्हें निगल लिये जानेपर युद्धके लिये प्रयत्नशील होते हुए भी सभी दैत्य दुःखको प्राप्त हुए ॥ ६ ॥

तान् वीक्ष्य विगतोत्साहानन्धकः प्रत्यभाषत ।
दैत्यांस्तु हुण्डहुण्डादीन्महाधीरपराक्रमः ॥ ७ ॥
उन्हें उत्साहरहित देखकर महान् धैर्य तथा पराक्रमसे युक्त अन्धकने हुण्ड, तुहुण्ड आदि दैत्योंसे इस प्रकार कहा- ॥ ७ ॥

अन्धक उवाच
कविं विक्रम्य नयता नन्दिना वञ्चिता वयम् ।
तनूर्विना कृताः प्राणाःसर्वेषामद्य नो ननु ॥ ८ ॥
धैर्यं वीर्यं गतिः कीर्तिः सत्त्वं तेजः पराक्रमः ।
युगपन्नो हृतं सर्वमेकस्मिन् भार्गवे हृते ॥ ९ ॥
धिगस्मान् कुलपूज्यो यैरेकोपि कुलसत्तमः ।
गुरुःसर्वसमर्थश्च त्राता त्रातो न चापदि ॥ १० ॥
अन्धक बोला-अपने पराक्रमसे शुक्राचार्यको पकड़कर ले जाते हुए इस नन्दीने हमलोगोंको धोखा दिया है, उसने निश्चय ही हमलोगोंको बिना प्राणके कर दिया है । केवल एक शुक्राचार्यक हरण कर लिये जानेसे हमलोगोंका धैर्य, ओज, कीर्ति, बल, तेज और पराक्रम एक साथ ही नष्ट हो गया । हमलोगोंको धिक्कार है, जो कि हम कुलपूज्य, परम कुलीन, सर्वसमर्थ, रक्षक एवं गुरुकी इस आपत्तिमें रक्षा न कर सके ॥ ८-१० ॥

तद्यूयमविलम्ब्येह युध्यध्वमरिभिः सह ।
वीरैस्तैः प्रमथैवीराः स्मृत्वा गुरुपदाम्बुजम् ॥ ११ ॥
अतः तुम सब वीर गुरुके चरणकमलोंका स्मरण करके बिना विलम्ब किये ही उन वीर शत्रु प्रमथगणोंक साथ युद्ध करो ॥ ११ ॥

गुरोः काव्यस्य सुखदौ स्मृत्वा चरणपङ्‌कजौ ।
सूदयिष्याम्यहं सर्वान् प्रमथान् सह नन्दिना ॥ १२ ॥
गुरु शुक्राचार्यके सुखद चरणकमलोंका स्मरणकर मैं नन्दीसहित सभी प्रमोंको नष्ट कर दूंगा ॥ १२ ॥

अद्यैतान् विवशान् हत्वा सहदेवैः सवासवैः ।
भार्गवं मोचयिष्यामि जीवं योगीव कर्मतः ॥ १३ ॥
आज मैं इन्द्रसहित देवताओंके साथ इन प्रमथगणोंको मारकर इन्हें विवशकर शुक्राचार्यको इस प्रकार छुड़ाऊँगा, जिस प्रकार योगी कर्मसे जीवको हुड़ा देता है ॥ १३ ॥

स चापि योगी योगेन यदि नाम स्वयं प्रभुः ।
शरीरात्तस्य निर्गच्छेदस्माकं शेषपालिता ॥ १४ ॥
यद्यपि ऐसा भी सम्भव है कि हमलोगोंमेंसे शेषका पालन करनेवाले महायोगी प्रभु शुक्र स्वयं योगबलसे शिवजीके शरीरसे निकल जायें ॥ १४ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्यन्धकवचः श्रुत्वा दानवा मेघनिःस्वनाः ।
प्रमथान् निर्दयाः प्राहुर्मर्तव्ये कृतनिश्चयाः ॥ १५ ॥
सनत्कुमार बोले-अन्धककी यह बात सुनकर मेघके समान गर्जना करनेवाले निर्दय दैत्य मरनेका निश्चयकर प्रमथगणोंसे कहने लगे- ॥ १५ ॥

सत्यायुषि न नो जातु शक्ताः स्युः प्रमथा बलात् ।
असत्यायुषि किं गत्वा त्यक्त्वा स्वामिनमाहवे ॥ १६ ॥
आयुके शेष रहनेपर प्रमथगण हमें बलपूर्वक जीत नहीं सकते, किंतु यदि आयु समाप्त हो गयी है, तो स्वामीको युद्धभूमिमें छोड़कर भागनेसे क्या लाभ है ? ॥ १६ ॥

ये स्वामिनं विहायातो बहुमानधना जनाः ।
यान्ति ते यान्ति नियतमन्धतामिस्रमालयम् ॥ १७ ॥
अयशस्तमसा ख्यातिं मलिनीकृत्य भूरिशः ।
इहामुत्रापि सुखिनो न स्युर्भग्ना रणाजिरे ॥ १८ ॥
अत्यन्त अहंकारी जो लोग अपने स्वामीको छोड़कर चले जाते हैं, वे निश्चय ही अन्धतामिन नरकमें गिरते हैं । युद्धभूमिसे भागनेवाले अपयशरूपी अन्धकारसे अपनी ख्यातिको अत्यधिक मलिन करके इस लोक एवं परलोकमें सुखी नहीं रहते हैं ॥ १७-१८ ॥

किं दानै किं तपोभिश्च किं तीर्थपरिमज्जनैः ।
धारातीर्थे यदि स्नानं पुनर्भवमलापहे ॥ १९ ॥
सम्प्रधार्येति तद्वाक्यं दैत्यास्ते दनुजास्तथा ।
ममन्थुः प्रमथानाजौ रणभेरीं निनाद्य च ॥ २० ॥
तत्र बाणासिवज्रौघैः कठिनैश्च शिलामयैः ।
भुशुण्डिभिन्दिपालैश्च शक्ति भल्लपरश्वधैः ॥ २१ ॥
खट्वाङ्‌गैः पट्टिशैः शूलैर्लकुटैर्मुसलैरलम् ।
परस्परमभिघ्नन्तः प्रचक्रुः कदनं महत् ॥ २२ ॥
पुनर्जन्मरूपी मलका नाश करनेवाले धरातीर्थयुद्धतीर्थमें यदि मनुष्य स्नान कर लेता है, तो दान, तप एवं तीर्थस्नानसे क्या लाभ ? इस प्रकार उन वाक्योंपर विचारकर दैत्य तथा दानव रणभेरी बजाकर प्रमथगणोंको युद्धभूमिमें पीड़ित करने लगे । युद्ध में उन्होंने बाण, खड्ग, वज़, भयंकर शिलीमुख, भुशुण्डी, भिन्दिपाल, शक्ति, भाला, परशु खट्वांग, पट्टिश, त्रिशूल, दण्ड एवं मुसलोंसे परस्पर प्रहार करते हुए घोर संहार किया ॥ १९-२२ ॥

कार्मुकाणां विकृष्टानां पततां च पतत्त्रिणाम् ।
भिन्दिपालभुशुण्डीनां क्ष्वेडितानां रवोऽभवत् ॥ २३ ॥
रणतूर्य्यनिनादैश्च गजानां बहुबृंहितैः ।
ह्रेषारवैर्हयानांश्च महान्कोलाहलोऽभवत् ॥ २४ ॥
उस समय खींचे जाते हुए धनुषों, छोड़े जाते हुए बाणों, चलाये जाते हुए भिन्दिपालों एवं भुशुण्डियोंका शब्द हो रहा था । रणकी तुरहियोंके निनादों, हाथियोंके चिंघाड़ों तथा घोड़ोंकी हिनहिनाहटोंसे सर्वत्र महान् कोलाहल मच गया ॥ २३-२४ ॥

अतिस्वनैरवापूरि द्यावाभूम्योर्यदन्तरम् ।
अभीरूणां च भीरूणां महारोमोद्‌गमोऽभवत् ॥ २५ ॥
गजवाजिमहारावस्फुटशब्दग्रहाणि च ।
भग्नध्वजपताकानि क्षीणप्रहरणानि च ॥ २६ ॥
भूमि तथा आकाशके मध्य गूंजे हुए शब्दोंसे साहसी तथा कायर सभीको बहुत रोमांच होने लगा । वहाँ हाथी, घोड़ोंकी घोर ध्वनिसे स्पष्ट शब्द हो रहे थे, जिनसे ध्वज एवं पताकाएं टूट गयीं तथा शस्त्र नष्ट हो गये ॥ २५-२६ ॥

रुधिरोद्‌गारचित्राणि व्यश्वहस्तिरथानि च ।
पिपासितानि सैन्यानि मुमूर्च्छुरुभयत्र वै ॥ २७ ॥
खूनकी धारासे रणस्थली अद्‌भुत हो गयी, हाथी, घोड़े एवं रथ नष्ट हो गये और युद्धकी पिपासा रखनेवाली दोनों ओरकी सेनाएँ मूच्छित हो गयीं ॥ २७ ॥

अथ ते प्रमथा वीरा नन्दिप्रभृतयस्तदा ।
बलेन जघ्नुरसुरान्सर्वान्प्रापुर्जयं मुने ॥ २८ ॥
हे मुने ! उसके बाद नन्दी आदि प्रमथगणोंने अपने बलसे सभी दैत्योंको मारा और विजय प्राप्त की ॥ २८ ॥

दृष्ट्‍वा सैन्यं च प्रमथेर्भज्यमानमितस्ततः ।
दुद्राव रथमास्थाय स्वयमेवान्धको गणान् ॥ २९ ॥
इस प्रकार प्रमोंके द्वारा अपनी सेनाको विनष्ट होता हुआ देखकर स्वयं अन्धक रथपर आरूढ़ हो शिवगणोंपर झपट पड़ा ॥ २९ ॥

शरावारप्रयुक्तैस्तैर्वज्रपातैर्नगा इव ।
प्रमथा नेशिरे चास्त्रैर्निस्तोया इव तोयदाः ॥ ३० ॥
अन्धकके द्वारा प्रयुक्त किये गये बाणों तथा अस्त्रोंसे प्रमथगण इस प्रकार नष्ट हो गये, जिस प्रकार बजप्रहारसे पर्वत एवं पवनसे जलरहित मेष नष्ट हो जाते हैं ॥ ३० ॥

यान्तमायान्तमालोक्य दूरस्थं निकटस्थितम् ।
प्रत्येकं रोमसङ्‌ख्याभिर्विव्याधेषुभिरन्धकः ॥ ३१ ॥
दृष्ट्‍वा सैन्यं भज्यमानमन्धकेन बलीयसा ।
स्कन्दो विनायको नन्दी सोमनन्द्यादयः परे ॥ ३२ ॥
प्रमथा प्रबला वीराः शंकरस्य गणा निजाः ।
चुक्रुधुःसमरं चक्रुर्विचित्रं च महाबलाः ॥ ३३ ॥
अन्धकने आने-जानेवाले, दूरस्थ एवं निकटस्थ एक एक गणको देखकर असंख्य बाणोंसे उन्हें विद्ध कर दिया । तब बलवान् अन्धकके द्वारा नाशको प्राप्त होती हुई अपनी सेनाको देखकर स्वामीकार्तिकेय, गणेश, नन्दीश्वर, सोमनन्दी आदि एवं दूसरे भी शिवजीके वीर प्रमथ तथा महाबली गण उठे और क्रुद्ध हो युद्ध करने लगे ॥ ३१-३३ ॥

विनायकेन स्कन्देन नन्दिना सोमनन्दिना ।
वीरेण नैगमेयेन वैशाखेन बलीयसा ॥ ३४ ॥
इत्याद्यैस्तु गणैरुग्रैरन्धकोप्यधकीकृतः ।
त्रिशूलशक्तिबाणौघधारासम्पातपातिभिः ॥ ३५ ॥
उस समय गणेश, स्कन्द, नन्दी, सोमनन्दी, नैगमेय एवं वैशाख आदि उग्र गणोंने त्रिशूल, शक्ति तथा बाणोंकी वर्षासे अन्धकको भी अन्धा कर दिया ॥ ३४-३५ ॥

ततः कोलाहलो जातः प्रमथासुरसैन्ययोः ।
तेन शब्देन महता शुक्रः शम्भूदरे स्थितः ॥ ३६ ॥
छिद्रान्वेषी भ्रमन्सोथ विनिकेतो यथानिलः ।
सप्तलोकान्सपातालान् रुद्रदेहे व्यलोकयत् ॥ ३७ ॥
ब्रह्मनारायणेन्द्राणां सादित्याप्सरसां तथा ।
भुवनानि विचित्राणि युद्धं च प्रमथासुरम् ॥ ३८ ॥
उस समय असुरों और प्रमथगणोंकी सेनाओंमें कोलाहल होने लगा । उस महान् शब्दके द्वारा शिवजीके उदरमें स्थित हुए शुक्र अपने निकलनेका रास्ता खोजते हुए शिवजीके उदरमें चारों ओर इस प्रकार घूमने लगे, जिस प्रकार आधाररहित पवन इधर-उधर भटकता है । उन्होंने शिवजीके देहमें सप्त पातालसहित सात लोकोंको एवं ब्रह्मा, नारायण, इन्द्र, आदित्य तथा अप्सराओंके विचित्र भुवन तथा प्रमथों एवं असुरोंके युद्धको देखा ॥ ३६-३८ ॥

स वर्षाणां शतं कुक्षौ भवस्य परितो भ्रमन् ।
न तस्य ददृशे रन्ध्रं शुचे रन्ध्रं खलो यथा ॥ ३९ ॥
शाम्भवेनाथ योगेन शुक्ररूपेण भार्गवः ।
इमं मन्त्रवरं जप्त्वा शम्भोर्जठरपञ्जरात् ॥ ४० ॥
निष्क्रान्तं लिङ्‌गमार्गेण प्रणनाम ततः शिवम् ।
गौर्य्या गृहीतः पुत्रार्थं तदविघ्नेश्वरीकृतः ॥ ४१ ॥
उन शुक्रने शिवजीके उदरमें चारों ओर सौं वर्षपर्यन्त घूमते हुए भी कहीं कोई छिद्र वैसे ही नहीं प्राप्त किया, जैसे दुष्ट व्यक्ति पवित्र व्यक्तिमें कोई छिद्र नहीं देख पाता । तब शिवजीसे प्राप्त किये गये योगसे श्रेष्ठ मन्त्रका जप करके भृगुकुलोत्पन्न वे शुक्राचार्य शिवजीके उदरसे उनके लिंगमार्गसे शुक्र (वीर्य)-रूपसे निकले और उन्होंने शिवजीको प्रणाम किया । इसके बाद पार्वतीने पुत्ररूपसे उन्हें ग्रहण किया और उन्हें विजरहित कर दिया ॥ ३९-४१ ॥

अथ काव्यं विनिष्क्रातं शुक्रमार्गेण भार्गवम् ।
दृष्ट्‍वोवाच महेशानो विहस्य करुणानिधिः ॥ ४२ ॥
तब लिंगसे वीर्यरूपमें निकले हुए शुक्रको देखकर दयासागर शिवजी हँसकर उनसे कहने लगे- ॥ ४२ ॥

महेश्वर उवाच
शुक्रवन्निःसृतो यस्माल्लिङ्‌गान्मे भृगुनन्दन ।
कर्मणा तेन शुक्लत्वं मम पुत्रोऽसि गम्यताम् ॥ ४३ ॥
महेश्वर बोले-हे भृगुनन्दन ! आप मेरे लिंगसे वीर्यरूपमें निकले हैं, इस कारण आपका नाम शुक्र हुआ और आप मेरे पुत्र हुए, अब जाइये ॥ ४३ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्येवमुक्तो देवेन शुक्रोऽर्कसदृशद्युतिः ।
प्रणनाम शिवं भूयस्तुष्टाव विहिताञ्जलिः ॥ ४४ ॥
सनत्कुमार बोले-शिवजीके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर सूर्यके समान कान्तिमान् शुक्रने शिवको पुनः प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की ॥ ४४ ॥

शुक्र उवाच
अनन्तपादस्त्वमनन्तमूर्ति-
    रनन्तमूर्द्धान्तकरः शिवश्च ।
अनन्तबाहुः कथमीदृशं त्वां
    स्तोष्ये ह नुत्यं प्रणिपत्य मूर्ध्ना ॥ ४५ ॥
त्वमष्टमूर्तिस्त्वमनन्तमूर्ति-
    स्त्वमिष्टदः सर्वसुरासुराणाम् ।
अनिष्टदृष्टश्च विमर्दकश्च
    स्तोष्ये ह नुत्यं कथमीदृशं त्वाम् ॥ ४६ ॥
शुक्र बोले-आप अनन्त चरणवाले, अनन्त मूर्तिवाले, अनन्त सिरवाले, अन्त करनेवाले, कल्याणस्वरूप, अनन्त बाहुवाले तथा अनन्त स्वरूपवाले हैं, इस प्रकार सिर झुकाकर प्रणाम करनेयोग्य आपकी स्तुति मैं कैसे करूँ । आप अष्टमूर्ति होते हुए भी अनन्तमूर्ति हैं, आप सभी देवताओं तथा असुरोंको वांछित फल देनेवाले तथा अनिष्ट दृष्टिवालेका संहार करनेवाले हैं, इस प्रकार सर्वथा प्रणाम किये जानेयोग्य आपकी स्तुति मैं किस प्रकार करूँ ॥ ४५-४६ ॥

सनत्कुमार उवाच
इति स्तुत्वा शिवं शुक्रः पुनर्नत्वा शिवाज्ञया ।
विवेश दानवानीकं मेघमालां यथा शशी ॥ ४७ ॥
सनत्कुमार बोले-इस प्रकार शिवकी स्तुतिकर उन्हें पुन: नमस्कार करके शुक्रने शिवकी आज्ञासे दानवोंकी सेनामें इस प्रकार प्रवेश किया, जिस प्रकार मेघमालामें चन्द्रमा प्रवेश करता है ॥ ४७ ॥

निगीर्णनमिति प्रोक्तं शंकरेण कवे रणे ।
शृणु मन्त्रं च तं जप्तो यः शम्भोः कविनोदरे ॥ ४८ ॥
[हे व्यासजी !] इस प्रकार मैंने युद्धमें शिवजीके द्वारा शक्रके निगल जानेका वर्णन किया, अब उस मन्त्रको सुनिये, जिसे शिवजीके उदरमें शुक्रने जपा था ॥ ४८ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्र संहितायां पञ्चमे
युद्धखण्डे शुक्रनिगीर्णनं नामाष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४८ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुगसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें शुक्रनिगीर्णन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ । ४८ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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